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असमय भर आया आकाश और मन दोनों ही घुटन का अनुभव करते हैं, और जब मेघों से झरझर धारा बहने लगती है, तो वह स्वच्छ और रिक्त हो जाता है, परन्तु मन को भीतर ही भीतर बरसना होता है, और रिक्त मन फिर से लबालब भर जाता है, बिलकुल किनारों तक. बादल फटने पर सर्वनाश
होगा, यह भय आकाश को नहीं
होता, परन्तु मन को होता है.
स्वयं को ही अपने भीतर समाकर वह संयमित रहता है.
सियालदह के गाँवों में जाकर वे बेचैन हो गए थे. अभी तो
उन्हें कितने ही भीतर के गाँवों में जाना था. सियालदह के गाँवों के लोग अद्याप पढ़े
लिखे नहीं थे. खेतों में काम करने वाले, मच्छी
बेचने वाले लोगों को सिर्फ कामचलाऊ हिसाब-किताब आता था. तूफ़ान, हवा, धूप , बारिश और जीवन का घनघोर अन्धकार
देखकर वह व्यथित हो गया था.
रवीन्द्र को इस बात की कल्पना भी नहीं थी कि इतना दुःख,
इतना दारिद्र्य भी हो सकता है. कलकत्ता के मार्ग पर घोडा गाडी से या मोटर से जाते
हुए हाथ रिक्शा खीचने वालों को उन्होंने देखा था, तब एक बार उन्होंने सत्येनदा से कहा था,
“कितने श्रम का काम है ये हाथ रिक्शा चलाना. उसमें बैठकर
लोग ठाठ से जाते हैं.”
“सच है, रोबी.
परिश्रम तो हरेक को करना ही पड़ता है. उसके बिना कोई अन्य पर्याय नहीं. सभी लोग तो
बाबू नहीं हो सकते. अपना गाडीवान भी घोड़ा गाड़ी चलाता है. वह भी परिश्रम करता है.
परन्तु पैसा अधिक और श्रम कम – ये जिसके भाग्य में होता है, वह सुदैवी; मगर ऐसा होता नहीं है. हरेक के लिए चिंता चिता के ही
समान दाहक होती है.”
सबसे छोटा होने के कारण रवीन्द्र को परिश्रम नहीं करना
पड़ा था. ठाकुरबाड़ी में सेवकों की संख्या कम नहीं थी. सब कुछ हाथों हाथ मिल जाता
था.
सिद्धार्थ से गौतम बुद्ध तक की यात्रा इसी तरह हुई होगी.
रवीन्द्र मन ही मन हंसा. राज वैभव में पले सिद्धार्थ ने अपने जीवन में सुख, ऐश्वर्य, बसंत ऋतु के अतिरिक्त कुछ और देखा ही नहीं था. जरा,
मृत्यु, दारिद्र्य, अज्ञान
देखकर उनका मन विचलित हो गया और उन्होंने समाज में एक चिर शान्ति की धारा प्रवाहित
की. मैं न तो सिद्धार्थ हूँ, और गौतम बुद्ध भी नहीं बनूंगा. बस, यूँ ही विचार आ गया, ऐसा उसने सोचा और वह खिड़की
के पास वाली मेज़ के निकट कुर्सी लेकर बैठ गया.
इन आठ दिनों में सोचकर भी वह मृणालिनी को पत्र नहीं लिख
सका था. उसे इस बात की कल्पना थी, कि वह पत्र की राह देख रही होगी. परन्तु सियालदह
के निकटवर्ती गाँवों में जब इतना दारिद्र्य और अज्ञान है, तो दूर बस्ती के गाँवों में
परिस्थिति कितनी भीषण होगी इसकी उसने मन ही मन कल्पना की.
ब्रिटेन के ऐश्वर्यशाली लन्दन से वापस लौटने पर भारत पर
ब्रिटिश शासन, भारत पर अधिसत्ता के अभिशाप को उन्होंने देखा. दो
स्थितियों का अनुभव प्राप्त किया : परतंत्र भारत, लाचार, असहाय जनता, घोर निर्धनता, पशुतुल्य जीवन, कुछ ही लोगों ने प्राप्त की हुई शिक्षा, और उस अंग्रेज़ी शिक्षा से
स्वयं को श्रेष्ठ समझने वाले और भारतीयों पर ही अत्याचार करने वाले भारतीयों को
देखकर उन्हें अतीव दुःख हुआ था. अंग्रेजों को ईश्वर और सर्वश्रेष्ठ मानने वाले
भारतीय यह भूल गए हैं, कि जैसा दिखाई देता है, वास्तव में वैसा है नहीं.
वास्तविकता को वे समझ ही नहीं रहे हैं और इसीलिये भारत को स्वतंत्रता मिलनी चाहिये, और भारतीयों के मन भी
स्वतन्त्र रूप से विचार करने योग्य होने चाहिए. इसलिए उन्होंने ‘काल्पनिक ओ
वास्तविक’ नामक लेख
‘भारती’ पत्रिका
में प्रकाशित किया था, और आज उस लेख का ‘सत्यदर्शन’ कितना सतही था, इसका ज्ञान उन्हें हुआ.
‘वास्तव’ था - इन गाँवों का दर्शन.
अब मन को तैयार करके सबसे पहले मृणालिनी को पत्र लिखना
है, इस विचार से उन्होंने अपने सामने कागज़ रखे, और उनके मन में मृणालिनी के
स्थान पर कादम्बरी प्रकट हुई.
ठाकुर परिवार की छोटी ठकुराइन, छोटी बहू होने के कारण वह
सर्वप्रिय थी. रवीन्द्र था लगभग चौदह वर्ष का. वह ज्योतिदा की पत्नी के रूप में
आई. विवाह के बाद साल-दो साल वह ‘बड़ी’ होने तक मायके में रही. रवीन्द्र उससे केवल दो ही साल
छोटा था. अत्यंत मोहक, मीठा बोलने वाली वह मानो विष्णुप्रिया लक्ष्मी ही थी.
वह आई, और
रवीन्द्र के निकट उसका जी बहल जाता था. ज्योतिदा अक्सर काम के संबंध में कलकत्ता
से बाहर जाया करते. बाकी सभी लोग बड़े थे. सबसे बड़े भाई, द्विजेन्द्रनाथ रवीन्द्र से
बाईस साल बड़े थे. साहजिक ही सभी बड़ो भाभी आयु में खूब बड़ी थीं. इसलिए कादम्बरी से
परिचय रवीन्द्र के लिए महत्वपूर्ण था. उसी दौरान हुई थी माँ की मृत्यु.
इस मृत्यु के बाद वह रवीन्द्र के और निकट आई, इतनी कि...
विचार करते-करते रवीन्द्र अपने आप में खो गया, इतना कि, प्रत्यक्ष
कादम्बरी सामने प्रकट हुई.
“रोबी बाबू, भालो आछे...बोलबे, हाँ, आमि बहु भालो आछे.”
सच, आज मैं कादम्बरी को क्या जवाब दूं?
‘आमी बहु भालो आछे?’ शायद यह उत्तर मेरे लिए
कभी था ही नहीं. क्योंकि आज तीस वर्ष की आयु बीतने के बाद भी इस बात पर ध्यान जाता
है कि मेरे प्रेम का विस्तार हो रहा है...किंचित भी कम हुए बिना. इस प्रेम का
क्षितिज विस्तीर्ण हो रहा है. प्रकृति पर, बदलती ऋतु पर, प्रेम – शब्द के रूपों पर
प्रेम, कष्ट करने
वालों पर प्रेम, सृष्टि के सारे रूपों पर प्रेम. पर्वत, नदी, सागर...कुछ भी तो ऐसा नहीं
है, जिस पर
मेरा प्रेम न हो. और प्रेम भी इतना अधिक कि उसका माधुर्य कम न हो, और जिसका बार-बार आस्वाद
लेने को जी चाहे, कला पर इतना प्रेम कि पागल हो जाओ. अभिनय, संगीत...इसमें भी प्रेम ही
प्रेम.
पहला कविता संग्रह ‘कवि कहानी’ प्रकाशित हुआ और हम
शब्दों के साम्राज्य में इतने गहरे डूबते गए कि आज तक किसी के लिए भी बाहर निकालना
असंभव था. ‘बनफूल’ कविता संग्रह प्रकाशित होने के पश्चात् तो कविता-कामिनी
के अतिरिक्त कुछ और सूझता ही नहीं था. ‘संध्या संगीत’, ‘प्रभात संगीत’ – इन दो कविता संग्रहों ने कवि होने का
भाव उत्पन्न किया, और जब ‘कवि’ तथा ‘कविता’ मन का स्थाई भाव बन गया तो मन से शब्द प्रकट होने लगे.
‘रोबी, तुम्हें शब्दों से अपार प्रेम है ना? तो फिर संवादों से
भी प्रेम क्यों न हो? मानवी जीवन की घटनाएं और संवाद शब्दों से ही प्रकट होते
हैं. शब्दों में सुर, लय, ताल और अभिनय
तथा सौन्दर्य भी होता है.’
और रवीन्द्र ने ‘भग्न हृदय’, ‘रूद्र चंदन’ तथा ‘काल मृगया’ ये तीन नाटक लिखकर प्रस्तुत
भी किये, परन्तु मन
में केवल कविता कामिनी ही थी.
कविता कामिनी ही क्यों? प्रत्यक्ष ‘कादम्बरी’ कामिनी ही उसके निकट आई थी.
जीवन में प्रेम के रंग कितनी उत्कटता से भरे जाते हैं, स्पर्श में कितनी ही आतुरता
और मौन क्यों न हो, रोम रोम कैसे जागृत हो उठता है. इससे एक मौन प्रीत कैसे
खिलती जाती है, यह कादम्बरी के सहवास में ही समझ में आया. कहीं भी, कुछ भी न होते हुए भी देह
मानो जाग उठी थी, कादम्बरी के कारण. मन और तन जागृत हो उठे थे.
‘छोटी ठकुराइन’ अर्थात् कादम्बरी आसपास, घनिष्ठता से रहती थी.
अहेतुक, सहेतुक
स्पर्श करती, परन्तु मन में संकोच था. संस्कारों की मर्यादा राह रोक रही थी.
‘एक तरह से अच्छा ही हुआ, जो उस समय सत्येनदा
अहमदाबाद के अपने निवास पर ले गए, अन्यथा कोई अनहोनी हो जाती. रवीन्द्र के मन में विचार
आया, उस समय
चंचल मन को एक ही आस थी, उत्सुकता और प्रसन्नता थी, एक अलग तरह के सहवास की. मन
उलझा था कादम्बरी में. कादम्बरी को वह ‘बहूठान’ कहता था, मगर हृदय में थी वह
कादम्बरी, एक
प्रेमिका और सजनी.
रवीन्द्र को याद आया, उस समय ‘सजनी’ पद में
उन्होंने लिखा था:
“पिनह झटित
कुसुमहार, पिनाह नील अंगिया,
सुन्दरी
सिन्दूर देके, सीधी कर रंगिया.
राधा अपनी सहेलियों से श्रीकृष्ण के स्वागत की तैयारी
करने के लिए कहती है.
सुन लो, सुन लो बालिका – उसके स्वागत की तैयारी करो.
“कुसुमहार
होईल भार, हृदय तार दाहीछे,
अधर उठई
कपिया, सखी करे कर अपिया
कुञ्ज भवने
पापिया काहे गीत गाही छे?”
कोमल पुष्पों का भी भार प्रतीत हो, हृदय के तार टूट रहे हों, अधर थरथरा रहे हों, वैसा हो रहा है. आधार के
लिए सखी का हाथ पकड़ने का मन होता है, ऐसे समय में कोयल भी क्यों गाने लगी है?
आज कादम्बरी इस दुनिया में ही नहीं है. मन में मधुर
स्मृति और शरीर में कोमल स्पर्श छोड़कर गई है. आज भी उसकी याद से मन रोमांचित हो उठता
है, भर आता
है. उमलती हुई कली को नए विश्व का दर्शन होते ही वह चकित हो जाए, और हंस कर मन ही मन खिल उठे, वैसा कुछ हुआ था.
और सत्येनदा के साथ उस सुगन्धित स्पर्श की संवेदनाओं के
साथ अहमदाबाद गया था. फिर मुम्बई गया और वहां मिली थी एना, अन्नपूर्णा तर्खडकर. प्रगतिशील
परिवार, उन्मुक्त परिवार, और एना के ढीठ व्यवहार से, सहेतुक घनिष्ठता से हम एक
बार फिर सचेत हो गए. मन से उसके अधिकाधिक निकट जा रहे थे. उसका ढीठ स्वभाव मन को
अच्छा लगता था. कादम्बरी से तुलना नहीं थी. वह सलज्ज, सात्विक, प्रेमातुर राधिका थी, जबकि एना अंग्रेज़ी वातावरण
में बढ़ी हुई अत्यंत ढीठ युवती थी. उसके पास था वैवाहिक जीवन का आनंद और विभक्त
होने के कारण शेष आसक्ति. ज्योतिदा के कई बार बाहर रहने से भरी जवानी में कादम्बरी
अकेली थी. ठाकुर परिवार की मर्यादा में रहकर भी वह रवीन्द्र से बहुत प्यार करती
थी. एना के घर में कोई मर्यादा नहीं थी. मर्यादा थी तो सिर्फ रवीन्द्र के पास. मन
मर्यादा को पार कर चुका था, परन्तु
प्रत्यक्ष मर्यादा यथावत् थी.
आज विचार करते-करते रवीन्द्र ने सोचा, “शायद एना सामने होती तो हम
उससे विवाह करने की ज़िद करते. शायद ठाकुर परिवार को वह मान्य न होती. क्या कह सकते
हैं, मेरे
प्रेम की खातिर मान्य भी कर लेते. एना की बीमारी में अकाल मृत्यु हो गई और समाप्त
हो गया एक अध्याय. कादम्बरी का पहला अध्याय, और दूसरा गंभीर अध्याय –
एना का.
‘9 दिसंबर 1883 – अभी तक यह तारीख मन में पक्की बसी है.
रवीन्द्र की आंखों के सामने वह प्रसंग साकार हो गया. उस दिन उसका विवाह था. वैसे
हमेशा आसपास रहने वाली कादम्बरी विवाह पक्का होते ही मौन हो गई थी. वैसे, उसे सिर्फ आनंद होना चाहिए
था, मगर ऐसा
प्रतीत होता था, कि वह प्रसन्न नहीं थी. रवीन्द्र उसके कमरे में गया, वह पलंग पर सो रही थी. उसके
लम्बे, घने बाल ज़मीन
तक फैले हुए थे. उसका पल्लू भी नीचे सरक गया था. उसके गोरे, कोमल पाँव उसे दिखाई दिए.
उसने फ़िर से दरवाज़े पर जाकर पुकारा,
“बहुठान...ओ बहुठान!”
“कि होबे?” वह अपने आप को संभालते हुए उठ बैठी. उसने वही प्रश्न
फिर से पूछा,
“कि होबे? मुख मलिन
होबे? क्या हुआ बहुठान?”
“कछु ना...” कहकर वह निकल गई.
रवीन्द्र को आश्चर्य हुआ था. सत्येनदा, ज्योतिदा, प्रत्यक्ष द्विजेनदा ने खुलना
जिले के डिही गाँव के वेणीमाधव रायचौधरी की सुन्दर, सीधी सादी कन्या भवतारिणी
को रवीन्द्र के लिए पसंद किया तब बैठकखाने में ठाकुर परिवार की सभी महिलाएं
उपस्थित थीं, केवल रवीन्द्र नहीं था. परन्तु ठाकुर परिवार की प्रथा
के अनुसार यह आवश्यक नहीं था कि लड़का अपनी भावी वधू को देखे. उस समय रवीन्द्र काम
के सिलसिले में कलकत्ता से बाहर था.
विवाह के समय ही रवीन्द्र ने उसे देखा, और वह उसे मनःपूर्वक अच्छी
लगी. उसने कादम्बरी से पूछा,
“कैसी लगी भवतारिणी?”
“अच्छी है,” ऐसा संक्षिप्त उत्तर देकर उस समय भी वह निकल गई थी. उस
समय जो आश्चर्य हुआ था, वह विस्मृत हो गया था. वह रवीन्द्र से दूर-दूर रहती थी, रवीन्द्र को आश्चर्य होता था - आखिर ऐसा
क्या हुआ था? यह विचार बीच-बीच में मन में आता था. भवतारिणी मृणालिनी
नाम धारण कर ठाकुर परिवार में आई और रवीन्द्र के रोम-रोम में बस गई. कादम्बरी और
एना के सहवास में हुए अनामिक आकर्षण से वह संभ्रमित था. ‘यह अच्छा है या बुरा?’ इस प्रश्न के आवर्त में
था. परन्तु अब वे सारे प्रश्न समाप्त हो गए थे. अब सिर्फ एक ही ध्येय था – समर्पित
होने का. मृणालिनी सुन्दर और सात्विक थी. उसकी यह धारणा थी, कि रवीन्द्र पर उसका प्रेम
अनेक जन्मों के पुण्य का फल है.
और कादम्बरी तथा एना के उत्कट सहवास ने जहाँ शरीर को
मर्यादा में रखा, परन्तु मन के लिए तो कोई मर्यादा थी नहीं. अब वह शरीर और मन अमर्याद, अनिर्बध झरने की तरह
मृणालिनी की तरफ़ भाग रहा था. स्नेह का प्रवाह रोकना, उसे मर्यादा में रखना उनके हाथ में नहीं
था.
और मृणालिनी की प्रेम वर्षा में वे आकंठ डूब गए, तब
उन्हें कादम्बरी का ध्यान ही नहीं आया. मृणालिनी पत्नी थी, तो कादम्बरी थी प्रेमदेवता.
कादम्बरी के मन के बारे में किंचित भी विचार मन में आया ही नहीं. उसके सुख-दुःख की
तरफ़ ध्यान देने के लिए समय ही नहीं था. कादम्बरी दूर-दूर जाते हुए अलिप्त हो गई. इतनी, कि वह ठाकुरबाड़ी में रहती
है, इसका भान भी न रहा.
असल में लन्दन से आने के बाद यह दुःख था, कि सत्येनदा के वापस आने पर
देवेन्द्रनाथ ने उन्हें पत्र लिखकर उनके
साथ वापस आने के लिए लिखा था. पढ़ाई भी पूरी नहीं हुई थी, यह अफसोस भी था. परन्तु, साफ़-सुथरा, सुन्दर वातावरण, संगीतमय स्कॉट दंपत्ति, और पाश्चात्य. संगीत प्रेमी मित्रों को
छोड़कर भारत लौटने का उनका मन नहीं था. परन्तु देवेन्द्रनाथ का पत्र आया,
“प्रिय रोबी,
शिक्षा जीवन का लक्ष्य नहीं है, उसके पश्चात् नौकरी भी कम
से कम ठाकुर परिवार के लिए लक्ष्य नहीं है. और फिर बाकी सब अपने-अपने उद्योगों में
लगे हुए हैं. इसलिए तुम अपना लेखन, ‘भारती’ पत्रिका, स्वतंत्रता आन्दोलन, ब्रह्म समाज और अपने परिवार
के लिए कार्य करो. तुम्हारी स्वभाव वृत्ति को नौकरी संभालना कठिन होगा. तुम
संवेदनशील मन के लेखक-कवि हो. माँ सरस्वती की आराधना करो. वापस आ जाओ. वैसे भी
तुम्हारी उम्र ब्याह के लायक हो गयी है.”
रवीन्द्र लन्दन छोड़कर वापस आ गया था, और घर आने पर कादम्बरी ने
मन से उसे संभाला था. उसका मन जाना था. उसने रवीन्द्र से कहा था,
“शिक्षा महत्वपूर्ण है, इसमें संदेह नहीं, परन्तु साधु-संत बिना पढ़े
ही सारे जग का ज्ञान प्राप्त करते हैं. जीवन पाठशाला है, और समाज है शिक्षक, वह सब
कुछ पढ़ाता है. हम स्त्रियों को थोड़ी बहुत शिक्षा प्राप्त हुई है, परन्तु पिछली पीढ़ी की हमारी
माताओं को नहीं. परन्तु अनुभूति से वे कितना कुछ जानती थीं. हर कदम पर वे
मार्गदर्शन करती थीं.
“आपने तो इतना कुछ पढ़ा है. देस-परदेस देखा है. और यदि
खूब पढ़कर दस पदवियां प्राप्त कर लोगे, तो वह शास्त्रीय ज्ञान होगा. परन्तु अनुभूति अधिक
महत्वपूर्ण है. आपने कोई कम शिक्षा नहीं पाई है.”
और रवीन्द्र ने वाचन और लेखन की ओर ध्यान देना आरम्भ
किया. वैदिक काल के वेद, उपनिषद, आरण्यक, पुराण, और वर्त्तमान काल के समकालीन लेखकों पर मनन-चिंतन कर
रहा था. जीवन-तत्वज्ञान, लेखन शैली, विचार प्रणाली और जीवन सौन्दर्य. जो भी पढ़ता, कादम्बरी को सुनाता. वह भी
यह सब मनःपूर्वक सुनते हुए एक दिन बोली,
“मुझे ‘मेघदूतम्’ सुनना है. आपके ज्येष्ठ बन्धु ने उसका
बंगाली में अनुवाद किया है ना?”
और रवीन्द्र ने उस यक्ष की विरह गाथा का वर्णन करना आरंभ
किया.
“अलका नगरी के यक्ष को कुबेर ने शाप दिया कि जिस
नवविवाहिता पत्नी की धुन में तुम सहस्त्र कमल ला रहे थे, उनमें एक बंद कली थी, जिसके भुंगे ने मुझे काट
लिया, इसलिए आज
से एक वर्ष तक तुम पत्नी के वियोग को सहन करोगे. तुम यहाँ से, इस नगरी से अकेले ही दूर
जाओ, पत्नी
वियोग का दुःख तुम्हें सहना ही पडेगा.”
“और फिर?” कादम्बरी ने बीच ही में उत्सुकता से पूछा.
“फिर क्या...यक्ष वहां से निकला. चलते-चलते वह विदर्भ के
रामगिरी आया, उसे अपनी पत्नी को विरह वेदना सुनानी थी. अंत में उसने
आषाढ़ के घिर आये आकाश के प्रथम मेघ को दूत बनाकर अलका नगरी में अपनी पत्नी को
सुनाने की विनती की.”
कादम्बरी यह सब सुनते हुए रो रही थी, बेतहाशा, रवीन्द्र को समझ में नहीं आ
रहा था कि क्या करे. वह उसकी ओर देखता रहा. अंत में उसीने रवीन्द्र के कंधे पर सिर
रखा. फिर भी बड़ी देर तक वह रोती रही. ऐसी अवस्था क्यों? क्या कई बार ज्योतिदा यहाँ
नहीं रहते इसलिए, या लगभग दो वर्ष मैं लन्दन में था इसलिए? दो वर्षों तक उसे कष्ट हुआ
होगा. ठाकुरबाड़ी में उसका समवयीन कोई नहीं था. शायद वह अकेलापन उसके लिए असह्य हो
गया होगा.
“बहुठान...बहुठान...” रवीन्द्र कहता रहा, परन्तु वह उसे समझाने में
असमर्थ था. काफ़ी देर बाद वह उससे दूर हुई ...और रवीन्द्र का विवाह निश्चित होने के
बाद तो वह सहसा दिखाई भी नहीं देती थी. एक बार रवीन्द्र ने उसे ढूंढा और पूछ लिया,
“बहुठान... तुम्हें हो क्या गया है? हमेशा मेरे आसपास रहने वाली
तुम आजकल किस कम में व्यस्त हो?”
“सबके साथ आपके विवाह की तैयारी में व्यस्त हूँ इसलिए
आजकल समय नहीं मिलता. छोटे देवर की शादी, मतलब पूरे कलकत्ता को निमंत्रण जाना है.”
उसके चहरे पर ज़रा भी आनंद और हंसी नहीं थी. ‘क्या हुआ है?” रवीन्द्र समझ नहीं पा रहा
था.
एक बार वह उसके कमरे में गया. वह रेशमी कपड़े पर कोई
कसीदा काढ़ रही थी. उसके आते ही उसने वह रेशमी कपड़ा छुपा दिया. रवीन्द्र ने उस पीछे
छुपाए वस्त्र को हाथ में लिया. उस पर रेशम के धागे से दो सुन्दर कमल के फूल काढ़े
हुए थे, और लिखा था : ‘प्रिय रोबी’.
अब वह कादम्बरी के प्रेम को सन्दर्भ सहित समझ गया था. यह
बात भी समझ में आ गई थी कि ऐसा प्रेम दोनों के लिए ही उचित नहीं है. वह हंसते हुए
बोला,
“बहुठान, मुझ पर, एक छोटे देवर पर मन:पूर्वक प्रेम करने वाली कोई अन्य
भाभी होगी ही नहीं. माँ की अनुपस्थिति में मुझे संभालने वाली तुम ही तो हो. तुम
माँ का प्रतिरूप हो. मुझे आशीर्वाद दो, कि मेरी सारी इच्छाएँ पूरी हों.”
उसका मन भर आया. उसका हाथ पकड़कर रवीन्द्र ने अपने मस्तक
पर रखा. वह मौन थी.
“मुझे आशीर्वाद नहीं दोगी?”
कादम्बरी ने उसके चेहरे पर हाथ फेरा और चली गई. उसके बाद
छह महीने तक रवीन्द्र उसकी एकेक कृति का अर्थ लगाता रहा. वह समझ गया, कि कादम्बरी स्वयँ हो गई थी
श्रीकृष्ण की राधा. उसे कुल मर्यादा का भान नहीं था. श्रीकृष्ण के मथुरा जाने के
बाद भी वह उसी की प्रतीक्षा करती रही. महाभारत का श्रीकृष्ण गोकुल वापस आया ही
नहीं. मगर इस राधा का श्रीकृष्ण वापस लौट आया है, और इतना ही नहीं, रुक्मिणी से उसका विवाह हो
रहा है, यह भावना
मन को आरपार चीरने वाली थी. कादम्बरी रवीन्द्र की अनुरागिनी है, इस बात को वह समझ गया था. परन्तु
रिश्तों की मर्यादाएं तो होती ही हैं. विवाह के बाद सब कुछ अपने आप कम हो जाएगा, यह बात रवीन्द्र के मन में
आई और वह उसके कमरे से बाहर निकला.
देखते-देखते विवाह की तारीख आ गई. देवेन्द्रनाथ खुद हर
बात पर ध्यान दे रहे थे. द्विजेनदा, सत्येनदा, हेमेनदा, वीरेनदा,
ज्योतिदा, सोमेनदा सभी एक साथ काम में जुटे थे. सारी महिलाएं कार्यव्यस्त थीं.
मानो किसी राजकुमार का विवाह हो रहा हो. कलकत्ता के प्रतिष्ठित व्यक्ति, अंग्रेज़ अधिकारी सभी इस विवाह पर
आमंत्रित किये गए थे.
विवाह हो गया और न केवल रवीन्द्र, अपितु सारा ठाकुर परिवार
मृणालिनी की प्रशंसा में जुट गया. प्रत्यक्ष रवीन्द्र को तो कुछ और सूझता ही नहीं
था. इस दौरान कभी-कभार ही मृणालिनी से मुलाक़ात होती. एक दिन मृणालिनी ने कहा, “तुम्हारी बहुठान तो दिन भर
पूजा-अर्चना में व्यस्त रहती हैं. सिर्फ उन्हें छोड़कर सारा परिवार किसी न किसी काम
में व्यस्त रहता है. ऐसा क्यों?”
रवीन्द्र उत्तर न दे सका था. कभी एक बार सत्येनदा और
द्विजेनदा बातें कर रहे थे, तो वह दरवाज़े में खडा था. उसका नाम आते ही वह वहीं रुक
गया.
“रोबी का विवाह तो हो गया, परन्तु उसके परिवार को बाबा
ने कैसे स्वीकार किया, इस बात पर आश्चर्य होता है. ना तो आर्थिक दृष्टि से, और ना ही शैक्षणिक दृष्टि
से वे हमारी बराबरी के नहीं हैं,” सत्येनदा ने कहा.
“बिल्कुल ठीक. परन्तु कोई उपाय नहीं था. हम ‘पिराली’ ब्राह्मण हैं, जिनके बहुत कम परिवार हैं,’
द्विजेनदा ने जवाब दिया.
“ये भी सच है. परन्तु सिर्फ तेरह वर्ष की है छोटी बहू.
इसलिए उसकी शिक्षा की व्यवस्था कर दी जाये तो वह रोबी को, परिवार को बहुत अच्छी साथ
देगी. आज वह सिर्फ अक्षर पहचानती है. अगर वह पढ़े तो, बहुत अच्छा, नहीं तो परिवार में उसका
स्थान नगण्य रहेगा.”
असल में तो वह रवीन्द्र को मन से अच्छी लगी थी, और प्रेम में पढाई का विचार
कहाँ से आता है? यह प्रश्न भी उसके मन में आया था.
और सत्येनदा ने निर्धार करके मृणालिनी को एक वर्ष के लिए
ज्ञाननंदिनी के पास भेजने का निर्णय किया.
“छोटी बहू अब अपनी ननद ज्ञाननंदिनी के पास एक वर्ष पढ़ने
के लिए जायेगी. उसे खाना बनाना आता होगा, धर्म-संस्कार निश्चित ही उसके पास होंगे, परन्तु शास्त्र ज्ञान भी
आवश्यक है. तब ठाकुर परिवार की छोटी बहू सभी को और अधिक प्रिय होगी.”
रवीन्द्र का चेहरा कुम्हला गया, मगर कादम्बरी का चेहरा खिल
उठा. और मृणालिनी ज्ञाननंदिनी के यहाँ गई.
कादम्बरी पहले की तरह खुल गई. मगर कोई न कोई बहाना बना
कर वह मृणालिनी से मिलने ज्ञाननंदिनी के यहाँ जाया करता. कादम्बरी को यह ज़्यादा
अच्छा न लगता. वह समझ रही थी कि रवीन्द्र उसकी ओर ध्यान नहीं दे रहा है. मगर उसका
मन मानता ही नहीं था.
और मृणालिनी एक वर्ष बाद वापस आई. दीवाली जैसा दीपोत्सव
किया गया. मानो सहजगति से सरस्वती उस मार्ग से चल कर आ रही हो. रवीन्द्र प्रसन्न
हो गया.
मगर उस समय किसी का भी ध्यान इस बात की तरफ़ नहीं गया की
कादम्बरी वहाँ उपस्थित नहीं है. दो दिन के बाद मृणालिनी के साथ रवीन्द्र उसके कमरे
में गया, तो वह
वहाँ नहीं थी. ज्योतिदा इन दिनों कलकत्ता में नहीं था, वह किसी चित्रपट के काम में
उलझा हुआ था, तो फिर कादम्बरी आखिर गई कहाँ? यह प्रश्न रवीन्द्र को
सताने लगा. उसने ठाकुरबाड़ी का एक-एक कोना छान मारा, फिर भी कादम्बरी नहीं मिली.
तब खिड़की से दिखाई देने वाले दूर के तालाब की ओर उसकी नज़र गई और वह बेहद घबरा गया.
चार ही दिनों पूर्व वह इसी तरह उदास बैठी थी, आँगन में एक पत्थर पर.
रवीन्द्र ने ऊपर की खिड़की से देखा था, आँगन के उस कोने में ठाकुर परिवार का बहुत बड़ा सा कुआँ
था. घर में इतने सारे सेवकों के होते हुए कादम्बरी पानी लेने क्यों गयी है, यह सोचकर वह नीचे गया था.
“बहुठान, की होबे?”
“कछु ना...’ और अनजाने ही नेत्रों से सावन की धाराएं बहने
लगीं. वह कुछ पूछे इससे पहले ही कादम्बरी वहां से चली गई थी. वह विमनस्क हो गया
था. अब उसके ध्यान में आया, कि पिछले काफ़ी दिनों से वह सामने नहीं दिखाई देती थी, और अभी हाल ही में हुए
कार्यक्रम में भी वह नहीं थी.
और वह कुँए की तरफ़ और तालाब की ओर भागा. पूरे घर में यह
वार्ता फ़ैल गई. उसे ढूँढा गया. वह तालाब के किनारे पर तैरती हुई मिली. परन्तु
ठाकुर परिवार की महिला इस प्रकार आत्महत्या करे, उस पर सार्वजनिक चर्चा हो, यह बात परिवार में किसी को
भी मान्य नहीं थी, इसलिए सिर्फ चार-छः लोगों को ही पता चला. परन्तु यह
समाचार कहीं भी नहीं आया, कि कादम्बरी ने आत्महत्या की है.
रवीन्द्र के लिए यह अत्यंत तीव्र आघात था. लगभग दस
वर्षों का अत्यंत संवेदनशील सहवास ख़त्म हो गया था, वह भी इस प्रकार से. कादम्बरी
के मन में आखिर क्या था? अनेक तर्क-वितर्क के बाद भी रवीन्द्र को इस प्रश्न का
उत्तर नहीं मिल पाया था. आज उन्हें अपनी ही कविता याद आई,
भालेबाशो
सोखी, निभ्रते गोपने.
आमार नाम
लिखो तोमार मन मंदिरे...
सखे, तुम्हारे मन
मंदिर में मेरा नाम प्रेम से लिखो. मेरे मन में जो गीत गूंज रहा है, उसका निनाद
तुम्हारी पायल से गूंजने दो.
मेरी सखी, मेरी यादों
का तार तुम्हारे हाथ के सुवर्ण कंकण से बांध कर रखो. मेरे मन की बेल पर एक ही कली
खिली है,
तुम्हारे प्यार की,
उसे अपने बालों में सजाओ.
ओमार स्मरणे शुभ सिंदूरे, एकटी बिंदु एको
तोमार ललाट चंदने.
मेरा स्मरण करके तुम्हारे चन्दन जैसे माथे पर लाल कुंकुम
लगाओ. मेरे मन में तुम्हारी प्रीत की मधुरता देहगंध के समान लपेट लो. मेरा यह
संभ्रमित, व्याकुल जीवन तुम उसका स्वीकार करोगी ना सखी!
सचमुच, कादम्बरी द्वारा जागृत मन में उस समय प्रीत के पंछी उड़
रहे थे. मन में थी राधा और कृष्ण था रवीन्द्र. अर्थात् यह कविता रवीन्द्र ने उसे
केवल कविता के रूप में ही सुनाई थी, मगर कहीं कादम्बरी ने उसमें से कोई अजीब अर्थ तो अपने
मन में दृढ़ नहीं कर लिया था?
‘आज उसे जाकर भी छः-सात वर्ष बीत चुके हैं. समय अनजाने
में ही आगे की ओर बढ़ रहा है. परन्तु समाज जीवन में, परिवार में व्यस्त होते हुए
भी किसी न किसी बहाने से उसका स्मरण नित्य ही होता रहता है.’ रवीन्द्र मन ही मन सोच रहा था.
असल में उसे मृणालिनी को पत्र लिखना था. उसने कादम्बरी
के विचार को मन में कहीं गहरे धकेल दिया और कागज़ लेकर लिखना आरंभ किया.
‘भई छुटी’,
अपने सुस्वभाव के कारण तुम सबको प्रिय हो गई हो, परन्तु
मुझे तुम अत्यंत प्रिय हो अपने जीवन के कारण. माधुरीलता, जिसे हम ‘बेला’ कहते हैं, रथीन्द्रनाथ, मतलब, हमारा ‘रथी’, और रेणुका को जन्म देकर तुम
अधिक ही परिपूर्ण यौवना लगती हो. तुम्हारे यौवन को कौनसी उपमा दूं, समझ में नहीं
आता. तुम अधिकाधिक खिलती जा रही हो...’
उन्होंने वह कागज़ फाड़ दिया और दूसरा कागज़ लेकर लिखने
लगे.
‘भई छुटी’
आज मुझे यहाँ आकर एक महीना पूरा हो गया. इससे पूर्व
मैंने बाबा को पत्र लिखकर यहाँ के समाचार से अवगत कराया ही था. तुम्हें पत्र लिखने
का बार-बार प्रयत्न किया, परन्तु आज लिख रहा हूँ.
सच, एक महीना मैं परिवार से दूर रह सका; परन्तु जैसे जैसे
दिन गुज़र रहे हैं, घर की याद बहुत सताती है. मन जैसे भाग कर ठाकुरबाड़ी
पहुँच जाता है.
कल रात को भयानक तूफ़ान आया. बादल दरवाज़े पर धक्का दे रहे
थे, नींद ही नहीं आई. फिर दिखाई दीं तुम, रथी और रेणुका...मानो अपनी तोतली आवाज़ में मुझे पुकार
रहे थे.
पहले बादल आया, फिर मेघों से झमाझम बारिश शुरू हो गई. न जाने कितनी
वर्षा धाराएं बरसीं. सुबह रामसेवक बारिश में भीगते हुए आया बताने लगा कि पद्मा नदी
उफ़ान पर है, वह अपनी सीमाएं तोड़कर बह रही है, और खेतों में तो जैसे तालाब
ही बन गए हैं. ये तो अच्छा है कि हमारा यहाँ वाला घर काफी ऊंचाई पर है, वर्ना घर में भी पाने घुस
जाता. बहते पानी को, गरजते बादल को और तेज़ी से भागते मन को भला कौन रोक सकता
है?
छुटी, क्या तुम कम से कम अपनी दूसरी मंजिल वाले छज्जे में
घूमती हो क्या?
ज़रूर बताना, सच्ची-सच्ची.
तुम्हारा रवी.
आठ ही दिन बीते थे, कि रवी ने पत्र लिखना शुरू
किया,
‘भई छुटी ’
आज बिरनीपुर के पक्षकार का पत्र मिला, और ज्ञात हुआ कि फटीक मजुमदार की ‘केस’ में प्रतिपक्ष के वकील ने
अपने विरुद्ध खूब ज़हर उगला. तुमने कुछ बताया नहीं. तुम्हारा पत्र ही नहीं आया. तुम्हारा
पत्र नहीं आया, तो ऐसा लगा कि डाक से आई अन्य चिट्ठियों में पढ़ने जैसा
कुछ है ही नहीं.
मगर आज मैंने एक नियम ही बना लिया. अगर मेरे पत्र का
उत्तर नहीं आया, तो पत्र ही नहीं लिखूंगा. पत्र लिखने से कम से कम
प्रेमभाव तो प्रकट होता है. जब एक सप्ताह में तुम्हारे दो पत्र आते हैं, तो मुझे बहुत खुशी होती है.
परन्तु यदि दो पंक्तियाँ लिखना भी तुम आवश्यक न समझो तो? मैं सचमुच मूर्ख हूँ. अगर
मैं पत्र न लिखूं तो तुम्हें गुस्सा आयेगा, यह सोचकर मैं नियमित रूप से
लिखता रहता हूँ. सोचता हूँ, कि यदि पत्र न लिखा तो तुम हमेशा मेरी चिंता करती
रहोगी. शायद मेरा ऐसा सोचना मेरा अहंकार है! आगे चलकर इस अहंकार को ही मैं तोड़
दूंगा.
पूरे दिन घूमकर आने के बाद मैं तुम्हें विस्तार से लिखता
हूँ. रात को लालटेन के प्रकाश में, और अगले दिन सोचता हूँ कि मैंने व्यर्थ ही समय गँवाया.
कोई यदि ऐसा सोचे, कि मैं निठल्ला हूँ, समय नहीं कटता, इसलिए पत्र लिखता रहता हूँ, तो मैं क्या कर सकता हूँ?
आखिर बात क्या है, कि औरों की गलतियाँ ढूँढ़ने
में माहिर हो गया हूँ, मेरी गलती मुझे कभी दिखाई ही नहीं देती. अब अगर मैं
तुम्हारी किस्मत में ही था, तो ऐसे भले-बुरे आदमी को संभालने के सिवा कोई चारा ही
नहीं है तुम्हारे पास!
रवी.
मन का क्रोध शांत होने पर वह दो कमरों के बीच वाली छत पर
बैठा. आकाश के काले मेघ अब धीरे-धीरे हवा के साथ-साथ बिदा ले रहे थे. आकाश में
एक-एक करके नक्षत्र दिखाई देने लगे थे.
वैसे तो आम तौर मुझे क्रोध आता नहीं है. आज मृणालिनी के
पत्र में मन का क्रोध प्रकट हो गया. प्रत्येक व्यक्ति स्वयं को महान समझता है.
मेरे सामने यदि काम का पहाड़ है तो उसके सम्मुख भी तो घर-परिवार है. रथी, बेला, रेणुका है. उनकी ओर भी तो
उसे ध्यान देना पड़ता है. रात को बैठकखाने में नित्य नए विषयों पर चर्चा, कभी संगीत
सभा, कभी किसी नाटक का प्रयोग, यह सब संभालते हुए वह अकेली
नहीं है यह विश्वास उसके मन में है. परन्तु मैं उन व्यक्तियों को याद करते हुए
बिल्कुल अकेला हो जाता हूँ.
रवीन्द्र को ऐसा अनुभव हो रहा था, मानो उसे स्वर्ग से धरती पर
पटक दिया गया हो. अब इस दुःख में सुख को खोजना है, तो अपने मनचाहे लेखन करने
के लिए एकांत मिला है, यह समझना होगा, जिससे मैं वास्तव में सुखी होऊँगा. इस
कल्पना से रवी प्रसन्नता से सोने के लिए गया.
अब वह सहज ही कल्पना के साम्राज्य में, आनंद के स्वर्ग में पहुँच
गया था और दबे पाँव उस तक पहुँची निद्रा देवी उस पर राज कर रही थी.
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