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“रोबी, यह बद्रीनाथ धाम मंदिर बहुत-बहुत प्राचीन है. श्री विष्णु ने इसे ‘योगसिद्ध’ नाम दिया और
आगे, द्वापरयुग में प्रत्यक्ष श्रीकृष्ण ने ‘मणिभद्र आश्रम’ और ‘विशालाश्रम’ – ये नाम दिए. आज यह
‘बद्रिकाधाम’ ‘बद्रीधाम’ के नाम से परिचित है.”
श्रीविष्णु मंदिर की सीढियां चढ़ते हुए
देवेन्द्रनाथ रवीन्द्रनाथ को बता रहे थे.
“अलकनंदा नदी के किनारे पर स्थित यह धाम ‘नर’ और ‘नारायण’ इन दो पर्वतों के मध्य में है.
सर्वप्रथम यह स्थान शिवशंकर का था, फिर श्री
विष्णु ने यह स्थान शिवशंकर से मांग लिया. दोनों ने ही यहाँ साधना की थी, इसलिए यह
स्थान अत्यंत पवित्र माना जाता है.
“बाबा, हाथों में राजदण्ड लिए उतरने वाले ये कौन हैं? उनके पीछे
सेवक हैं.”
“तुझे बताया था ना, कि यहाँ शंकराचार्य ने अलकनंदा के गरजते प्रवाह
में छलांग लगाकर श्री विष्णु की प्रतिमा बाहर निकाली थी. तब से इस मंदिर के पुजारी
शंकराचार्य के वंश के ही होते हैं. वे ब्रह्मचारी होते हैं और दिन में तीन बार
स्नान करके अर्चना करते हैं. यहाँ शंकराचार्य का मठ भी है, तुम्हें
दिखाऊँगा.”
मंदिर में दर्शन करके जैसे ही बाहर निकले, चारों तरफ़
अन्धेरा छा गया, अगले ही क्षण कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था. देवेन्द्रनाथ रोबी का
हाथ पकडे, सीढियां उतरकर निकट ही स्थित आश्रम में आये. आश्रम में अनेक लोगों का
वास्तव्य था, जिनमें बंगाली लोग ज़्यादा थे. रवीन्द्र को देखकर उन्हें आश्चर्य हुआ.
“इतनी छोटी आयु में तीर्थयात्रा?!”
“हम उसे लेकर आये हैं. संस्कारों के लिए, यात्रा के
लिए आयु का बंधन नहीं होता. फिर आगे की दृष्टि से अनुभूति सम्पन्न होना योग्य है.
यह कवि है, कविता लिखता है. इस अद्भुत सौन्दर्य का अनुभव करने के उपरांत उसका मन
निश्चय ही समृद्ध होगा.”
“ये सही है.” फिर इधर उधर की बातें करने के बाद
उनमें से एक ने कहा,
“आपका बेटा लेखक या कवि होगा, ऐसा आप सोचते हैं ना, तो आप उसे यहाँ स्थित ‘व्यास गुफा’ दिखाइये. महर्षि व्यास ने इस गुफ़ा में
गणेश को लेखनिक बनाकर महाभारत की कथा सुनाई और शिवनंदन गणपति ने ‘महाभारत कथा’ लिखी.”
“बहुत अच्छी जानकारी दी आपने.”
“और भी जानकारी देता हूँ.”
“बताइये ना!”
“महाभारत की कथा प्रदीर्घ काल तक लिखी जाए ऐसी
थी. महर्षि व्यास ने कहा, कि उन्हें लेखनिक के रूप में प्रज्ञावंत गणेश की ही आवश्यकता है. दूसरी बात, जिस गति
से हम बोलेंगे उसी गति से उसे लिखना होगा.
श्रीगणेश पीछे हटने वाले नहीं थे. उन्होंने
विचार किया कि, जिस गति से हम बोलते हैं, उसी गति से हम कभी भी लिख नहीं पायेंगे. अतः उन्होंने दो शब्द, तीन शब्द, पांच शब्द
और दस शब्द एक साथ जोड़े और एक नई भाषा बनाई, वह थी संस्कृत भाषा. अविरत गति से, विशुद्ध, अखंड
प्रवाह में महर्षि व्यास बोल रहे थे और वैसी ही गति से श्रीगणेश लिख रहे थे.”
दूसरे दिन वे ‘व्यास गुफा’ में गए.
रवीन्द्र ने चकित होकर पूछा, “यहाँ ‘महाभारत’ की कथा लिखी श्रीगणेश ने? मगर क्या व्यास को ‘महाभारत’ की कथा ज्ञात थी?”
“कृष्णद्वैपायन वेद व्यास कौरव पांडवों के युद्ध
में थे ही. उन्हें सब कुछ ज्ञात था. वे सभी घटनाओं के साक्षी थे. कृष्णद्वैपायन
वेद व्यास सत्यवती और पाराशर के पुत्र थे और उन्होंने हर युग में भिन्न भिन्न
रूपों में जन्म लिया था, ऐसा कहते हैं. यदि यह सत्य है तो तू भी वेदव्यास होकर जीवन का, जीने का
अर्थ समाज को बता. प्रकृति और मानव, मानव जीवन में प्रकृति के स्थान के बारे में बता. परिवार का भान तुझे है ही, समाज का भान,
राष्ट्र का भान न भूलना.”
रवीन्द्र सुन रहा था. पूरी बात तो उसे समझ में
नहीं आई थी, मगर लेखक होने के मन:पूर्वक दिए गए आशीर्वाद को वह समझ गया, और बहुत खुश हो
गया.
कवि बनने के लिए ऐसे ही खूब भ्रमण करना पड़ता है, ऐसी उसकी
धारणा बन गयी, और वह गलत भी नहीं थी. प्रकृति के, समाज के अनुभव, उसके द्वारा अनुभव की गयी
संवेदनाएं ही कवि अपने शब्दों में, अपनी शैली में प्रस्तुत करता है.
आठ वर्ष की आयु में प्रकाशित कविता के कारण उसकी
बहुत प्रशंसा हुई थी. अब मैं कवि बन गया, सर्वश्रेष्ठ हो गया, यह भावना उसके मन में निर्माण हो गई. उसकी
पुष्टि हो गई थी.
उसे पाठशाला अच्छी नहीं लगती थी. आठ वर्ष की आयु
में पाठशाला भेजा गया, काफ़ी कुछ पढ़ाई घर पर ही शिक्षकों ने करवा ली थी. कक्षा की खिड़की से दिखाई
दे रहे वृक्षों की ओर, आकाश में उड़ रहे पक्षियों की तरफ ही उसका ध्यान जाता था.
उसे ऐसा लगता था कि पाठशाला जानवरों के झुण्ड को
बंद करने की, अथवा कैदियों को कारागृह में एक साथ बंद करने की जगह है. कब घंटी बजती है, और घर
जाना है इसकी वह राह देखता था.
छुट्टी के दिन वह खुशी से बगीचे में घूमता.
मिट्टी के एक ढेर के नीचे उसने कुछ सीताफल के बीज बोये थे, रोज़ उन्हें पानी देते समय विचार करता
कि इनका पेड़ कब बनेगा.
सेवक श्याम उसे ठाकुरबाड़ी में पश्चिम की तरफ़
वाली कोठरी में ले जाता. अब गोल घेरा बनाकर उसके भीतर नहीं बिठाता था, रोबी
खिड़की में जाकर बैठ जाता, तब हवा में हिलती हुई टहनियां, नारियल के
पेड़ों की टहनियां, केले के पेड़ों के पत्ते और हंसते हुए, नाचते हुए, हवा में झूलते, भिरभिराते पंछी दिखाई
देते. दूर से दिखाई दे रहे तालाब से कमर और सिर पर घडा रखे महिलाएँ गाते हुए जा
रही हैं ऐसा प्रतीत होता. दोपहर के बाद कुछ समय खामोशी रहती. आसमान के रंग बदलने
लगते. कभी तेज़ हवा चलती, तो कभी बारिश होने लगती. तब रवीन्द्र के मन में विचार आता, पेड़ों से
धरती पर, आसमान में उड़ने वाले ये पंछी अपने घर तो पहुँच गए होंगे ना? पानी ले
जाती औरतों के साथ छोटे बच्चे घर पहुंच गए होंगे ना?
बिल्कुल अन्धेरा होने तक रवीन्द्र उस खिड़की में
बैठा रहता. कभी कभी उसे ऐसा लगता कि वह खुद ही पक्षी बन गया है, और मन में अनजान
संवेदना जाग उठती. शब्द खिलने को तैयार होते, परन्तु खिलते नहीं थे, और वह अस्वस्थ मन से
शारदा देवी के कमरे में जाता.
“की होबे रोबी?”
“ना माँ, कछु ना.” वह कह नहीं पाता, तब माँ
उसे अपने निकट बुलाती.
“बहु चिंता करबे, रोबी?”
“ना माँ, कछु चिंता होबे ना!”
तब वह एक कटोरी में तेल लेकर अपने निर्बल हाथ से
उसके सिर में तेल मलती, और अचानक वह सो जाता...
“रोबी,’ वह पुकारती, परन्तु रोबी सपनों की दुनिया में भ्रमण करता.
घनी, हरी-हरी प्रकृति, फूल, नदी, पहाडी, और वह भागने लगता. दूर, दूर, बहुत दूर.
“रोबी,” देवेन्द्रनाथ ने पुकारा और वह जाग गया.
“रोबी, अब हमें काम शुरू करना है. तीन महीने हम बाहर
रहे. कलकत्ते से जाते हुए मन ही मन सभी कार्यों और जिम्मेदारियों से बिदा ले ली
थी. अब फिर से वही काम करना है. मगर अब काम में मन नहीं लगता.
“मेरा भी मन पाठशाला में नहीं लगता,” उसने मन
ही मन कहा.
देवेन्द्रनाथ ने कहा, “तुम्हारी पाठशाला भी अब शुरू हो जायेगी.”
उसने कुछ नहीं कहा.
आठ दिन बाद जब वे घर पहुंचे, तो सभी के
चेहरों पर अत्यंत प्रसन्नता थी. कई प्रसंग सुनाए गए. देवेन्द्रनाथ ने कहा, “दिल तो
और भी रहने को चाह रहा था. न जाने क्यों मन अब ईश्वर की ओर खिंचा जा रहा है, प्रकृति के उसके रूप की
ओर. परन्तु हमारे काम की अपेक्षा रोबी की पाठशाला ज़्यादा ज़रूरी थी. पहले ही
पाठशाला आरंभ होकर पंद्रह दिन बीत चुके हैं, दो दिन आराम करने के बाद वह अपनी पाठशाला में
और हम अपने काम पर जायेंगे.
देवेंद्रनाथ कह रहे थे, और
रवीन्द्र मन ही मन सोच रहा था, कि स्कूल कैसे टाला जाए. पहले तो पेट में दर्द है, सिर दर्द
कर रहा है, हाथ में खूब दर्द है, ये बहाने हो चुके थे. तब शारदा देवी ने कहा:
“रोबी, क्या तेरे नाटक किसी को समझ में नहीं आते हैं? स्कूल
जाने के समय ही तेरा पेट क्यों दुखता है?”
“क्योंकि मैं खाना खा चुका होता हूँ. इतना खाने के बाद पेट तो दर्द करेगा ही
ना? सिर भी उसी कारण दुखता है.”
“और उसी समय हाथ भी क्यों दुखता है?”
“माँ, तुम्हें मालूम नहीं, रोज़ कितनी पढ़ाई होती है. सदा लिखता ही रहता हूँ मैं और स्कूल में भी बहुत
लिखना पड़ता है.”
“फिर क्या, तू पढ़ाई छोड़कर चने बेचने वाला है?”
“रोबी, कल स्कूल जाना है,” शारदा देवी ने उसके कमरे में जाते हुए कहा, तब चादर ओढ़े आकाश की ओर ताकता हुआ रवीन्द्र
एकदम चौंक गया.
“माँ, कल ही क्यों? जाऊँगा मैं और दो दिनों बाद?”
“देख रोबी, तुझे कलकत्ता आये आठ दिन हो गए हैं, इससे पहले तू तीन महीने अपने पिता के साथ
हिमालय पर और शान्तिनिकेतन में था. पिछड़ी हुई पढ़ाई तुझे घर पर पढ़ाने वाले शिक्षक
पूरा करवा लेंगे. मगर आगे की पढ़ाई करने के लिए तो तुझे स्कूल जाना ही होगा. तीन
महीने बाद तेरी परीक्षा है.”
“माँ, मैं पूरी पढ़ाई कर लूंगा, मगर मुझे और दो दिन रहने दो ना!”
“अब बिल्कुल भी नहीं. देख तो, तेरे सारे भाई कितने पढ़े लिखे हैं और तुझे क्या बिना पढ़ाई के ही रहना है?”
“मगर दो दिनों में ऐसा कौन सा फ़र्क पड़ने वाला है? जाऊंगा ना, मैं.”
यही वाक्य पिछले आठ दिनों से नितन्तर दुहराया जा रहा था. अब शारदा देवी कुछ
भी सुनने के लिए तैयार नहीं थीं.
“रोबी, चाहे जो भी हो, कल तुझे स्कूल जाना ही है. अगर तू नहीं गया, तो मुझसे बिलकुल बात नहीं करना, समझा?”
शारदा देवी उसके जवाब का इंतज़ार किये बिना वहाँ से चली गईं. अगले दिन स्कूल
जाने के विचार से रवीन्द्र भयभीत हो गया. उसे विवश होकर तैयार होना ही पड़ा.
जब शिक्षक घर पर आकर पढ़ाते थे, तो रवीन्द्र के सामने एक खिड़की थी. उस खिड़की से चरागाह में
चरती गायें दिखाई देतीं. भागते हुए, छलांगे मारते हुए, घूमते हुए बछड़े दिखाई देते. शिक्षकों द्वारा पढाये जा रहे विषय को कानों से
सुनते हुए मन बछड़ों के पीछे भागता. हरी घास
पर लाल, सफ़ेद, गहरी काली और शरीर पर
बूटों वाली गायें वह देखता रहता. घर पर आने वाले शिक्षकों को तनख्वाह मिलती रहती, इसलिए अंग्रेज़ी, बंगाली, गणित और संस्कृत
इन्हीं चार विषयों के शिक्षकों को उस तरफ़ से उसका ध्यान हटाकर उससे पढ़ाई करवानी पड़ती
थी.
रवीन्द्र तथा अन्य बच्चों के लिए जो सेवक था, वह भी कहानियां, कवितायेँ सुनाकर उनका
मनोरंजन किया करता. इसलिए ‘ईश्वर’ नामक यह सेवक रवीन्द्र को बहुत अच्छा लगता.
मगर अब स्कूल जाकर यह सब अंग्रेज़ी में पढ़ना
रवीन्द्र को बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था. ईश्वर उसे स्कूल के लिए तैयार कर रहा
था.
‘स्कूल की अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए हमें नहीं जाना,” रवीन्द्र ने उससे कहा, तो ईश्वर ने
उत्साहपूर्वक उससे कहा:
“रोबी बाबू, स्कूल बहुत सुन्दर
होता है. वहां खूब सारे बच्चे होते हैं, खेल-कूद, गाने...खूब मज़ा आता है.”
रोबी ने मन में एक काल्पनिक चित्र बनाया. उसमें
आकाश, बादल, बारिश, इन्द्रधनुष, गायें-बछड़े, और नाचते-गाते जा रहे
ढेर सारे दोस्त, स्वच्छंद, मुक्त...किसी पेड़ के
नीचे शिक्षक बैठे हैं और वे प्रसन्नता से पढ़ा रहे हैं. इस रम्य दृष्य की मन ही मन
कल्पना करते हुए वह ईश्वर के साथ स्कूल आया – ठाठ-बाट से, नए कपड़े पहनकर, घोडागाड़ी से.
घोडागाड़ी एक लम्बी चौड़ी विशाल इमारत के सामने
रुकी. उस इमारत पर क्रॉस का निशान लगा हुआ था. खूब सारे बच्चे उस इमारत के सामने
खड़े थे.
“रोबी बाबू, ये रहा आपका स्कूल. अब
नीचे उतरिये.” मन की सारी कल्पनाएँ चूर-चूर हो गईं और ईश्वर उसे इमारत के फाटक की
ओर लाया. बस, अब आगे उसे अकेले ही
जाना था. फाटक से भीतर जाने पर वह पल भर देखता रहा, तभी तीन रौबदार
व्यक्ति आते हुए दिखाई दिए.
“गुड मॉर्निंग टीचर!” सारे बच्चों ने एक सुर में
कहा. उनका ध्यान रवीन्द्र की ओर गया, और वे उसके पास आये.
“क्या तुम नए हो? तुम्हारा नाम क्या है?”
“रवीन्द्रनाथ देवेन्द्रनाथ ठाकुर. जोडासांको ठाकुरबाड़ी
में रहता हूँ.”
“गुड. अब कल से ‘गुड मॉर्निंग’ कहने की आदत डाल
लो.”
स्कूल शुरू हुआ. स्कूल
की घंटी बजते ही सारे बच्चे एक विशाल प्रांगण में जमा हो गए. सामने क्रॉस पर लगी
ईसा मसीह की प्रतिमा थी. उसे अपने घर के पूजाघर में रखी विष्णु की प्रतिमा का
स्मरण हुआ. मन खिन्न हो गया.
इसके बाद एक-एक कतार
अपनी-अपनी कक्षा में जाने लगी. बड़े, प्रशस्त क्लासरूम में दो
बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ थीं – शिक्षक की दाईं तथा बाईं ओर और सबके पीछे था एक बड़ा
दरवाज़ा.
रवीन्द्र इस सबका अनुभव
करते हुए बैठा था. उसने एक विद्यार्थी से पूछा: इतने सारे बच्चों को टीचर पढ़ाएंगे?”
“मतलब, क्या तू आज तक कभी स्कूल नहीं गया?”
“नहीं, घर पर ही टीचर पढ़ाते थे, इसलिए आने की ज़रुरत
नहीं थी.”
“फिर, क्या यहाँ तुम सब कुछ सीख पाओगे?”
“पता नहीं.” रवीन्द्र
ने कहा. असल में उसे स्कूल किसी जेलखाने जैसा प्रतीत हुआ. सारे विद्यार्थी एक कमरे
में बंद. उसे घर पर पढ़ाने वाले शिक्षक कितने उत्साह से आते थे, अच्छी तरह समझाते
थे. जिस कमरे में वह शिक्षक के सामने बैठता था, उसमें ढेर सारी
खिड़कियाँ थीं. कभी सूर्य की किरणें भीतर दूर तक आतीं, बरसती हुई जलधाराएं
दिखाई देतीं, उनकी ओर मगन होकर देखता
रहता, तो शिक्षक हौले से कहते, ‘रवीन्द्र, अब किताब की ओर ध्यान दोगे?’
कक्षा में कोलाहल था,
मगर एकदम सारे बच्चे खड़े हो गए. टीचर कक्षा में प्रवेश कर रहे थे.
“गुडमॉर्निंग, सर!”
सबने एक सुर में कहा.
स्कूल शुरू हुए तीन
महीने बीत चुके थे. देवेन्द्रनाथ के साथ वह हिमालय की यात्रा पर गया था. स्कूल में
तीन महीने विलम्ब से पहुंचा था. इसलिए स्कूल के शिष्टाचार आत्मसात करने में उसे
देर तो लगने ही वाली थी.
जब उसे घर में पढ़ाने के
लिए शिक्षक आने लगे, तो उसने श्याम के बनाए
गोल का बंधन तोड़ दिया था. ठाकुरवाडी के सभी कमरों में और जो उसने कभी नहीं देखे थे, उन कमरों वह खुशी-खुशी जाने लगा.
द्वारकादास का विशाल
कमरा, जो अब उसके पिता का कमरा था. कितना बड़ा और कितना सुन्दर! दो विशाल दीवारों
पर अलमारियां. उनमें अंग्रेज़ी, बंगाली और संस्कृत
भाषाओं में किताबें. उन्हें प्रदान किये गए बड़े-बड़े पुरस्कार, सन्मानपत्र उस कमरे
में थे. यह कमरा उसे सबसे अधिक प्रिय था.
उसका अध्ययन कक्ष
द्विजेनदा के कमरे के पास था. बीच बीच में उसकी बड़ी भाभी, ज्ञाननंदिनी, शिक्षक के और उसके लिए
कुछ खाने को लाकर देती, तो बीच बीच में
सत्येनदा...
“रोबी, ठीक से पढाई कर!” कहकर जाता.
मगर स्कूल में तो बच्चे
एक दूसरे से चिपक कर बैठे थे. जब शिक्षक आये, तो अनुशासन से खड़े हो
गए. शिक्षक के कहने पर सभी एक साथ बैठ गए थे.
शिक्षक ने हाथ में
किताब ली और कक्षा पर नज़र घुमाई. रवीन्द्रनाथ पर नज़र जाते ही उन्होंने कहा:
“यू, रवीन्द्रनाथ, स्टैंडअप!”
उनकी कठोर आवाज़ से
रवीन्द्रनाथ थरथरा गया. आज तक किसीने भी उससे कठोर आवाज़ में बात नहीं की थी.
“तुम अपनी तीन महीनों
की पढ़ाई पूरी करना. अब जो मैं आगे पढ़ा रहा हूँ, उस पर ध्यान
दो.”
“मैं पढूंगा,” उसने
गर्दन हिलाकर सहमति दर्शाई.
आज दिन भर उसे हर
शिक्षक से यही वाक्य सुनना पडा था.
स्कूल में पढ़ाई के
दौरान उस तरफ़ वाली खिड़की की तरफ मन भागा, दूर क्षितिज तक और
भागकर शारदा देवी के कमरे में जा पहुंचा.
कितना सुन्दर, शांत और पवित्र था वह कमरा. उस कमरे का दरवाज़ा पूजा घर में खुलता था. जब
दरवाज़ा खुला होता, तो माँ लेटे-लेटे
विष्णु की प्रतिमा को निहारती रहती. रवीन्द्र को लगता, मानो दोनों के बीच मूक
संवाद चल रहा हो. उसने शारदा देवी से पूछा भी था:
“माँ, क्या तुम विष्णु
भगवान से बातें करती हो?”
“हाँ, मैं सचमुच विष्णु भगवान से बातें करती हूँ, मुझे अच्छा लगता है
उनसे मन की बातें कहना.”
“मगर विष्णुदेव कहाँ
बोलते हैं? वे तो चांदी के हैं.”
“रोबी, जिसे हम मन से प्यार करते हैं, वह चाहे पत्थर का ही
क्यों न हो, हमसे बातें करता रहता है.”
“क्या सचमुच बोलता है?”
“बोल कर देख. मगर मन से
बोलना होता है. मन की गहराई से बोलना होता है.”
रोबी न जाने कब से माँ
के भगवान से बातें करना चाहता था. अब स्कूल के इस सुव्यवस्थित बंद कमरे में उसका
मन नहीं लगता था. मगर ‘मुझे पढ़ना है,’ इस विचार से वह
शिक्षकों की बातें सुन रहा था. मगर आज उसका मन नहीं लग रहा था.
आगे चलकर उसे खिड़की से
आकाश, उसके कुछ रंग, कुछ ऊंचे पेड़, ताड़ के पेड़ दिखाई देने लगे और उसका दिल लगने लगा. फिर भी स्कूल का कोलाहल, मित्रों के झगड़े, या खेलते हुए उनका
चिल्लाना, शिक्षकों द्वारा हाथ पर छडी मारने की सज़ा, और बिलखते हुए विद्यार्थी यह सभी उसके लिए असह्य हो गया. उस दिन घर आकर
उसने सत्येन्द्र से कहा:
“कल से आमि स्कूल जाबे
ना?”
“ऐसा क्या हो गया?”
“नहीं, हमें स्कूल जाना ही नहीं है.”
“क्या पढाई नहीं हुई? टीचर ने मारा क्या? दोस्तों से झगड़ा हुआ
क्या? आखिर हुआ क्या है?.”
“स्कूल में जाना ही
मुझे अच्छा नहीं लगता. ऐसा लगता है, जैसे कैदखाने में बैठे
हो. कुछ दिन अगर और गया, तो या तो मैं बीमार हो
जाऊंगा, या स्कूल से भाग जाऊंगा.”
सत्येन्द्रनाथ
द्विजेन्द्रनाथ के पास गए. द्विजेन्द्रनाथ और रवीन्द्र के बीच बाईस वर्ष का अंतर
था. भाई होते हुए भी वे उसके लिए पिता समान थे. उन्होंने रवीन्द्र की मनोदशा को
पहचाना और बोले:
“उसे आदत हो गयी है घर
पर ही पढ़ने की. कोई बात नहीं. हम सभी विषयों के शिक्षकों को रख सकते हैं. उसकी
इच्छानुसार होने दो, नहीं तो ये मनमौजी
रवीन्द्र क्या कर बैठेगा, भगवान जाने!”
और घर में ही, उसके प्रिय कमरे में पढ़ाई शुरू हो गई. रवीन्द्र बहुत प्रसन्न हो गया. खिड़की
से प्रकृति के दर्शन होते और साथ ही उनके विस्तीर्ण आँगन में गिरी हुई चीज़ें भी
दिखाई देतीं. घर की उत्तर दिशा में आँगन का भाग खाली ही था. उस भाग को ‘गोलाबारी’ कहते थे. पहले इस भाग में बड़े पैमाने पर खेत से लाया हुआ अनाज रखा जाता था.
ये जगह अब खाली ही थी. परन्तु रवीन्द्र के मन में उस जगह के बारे में उत्सुकता थी.
उस तरफ़ कोई भी नहीं जाता था, इसलिए रवीन्द्र के मन
में इस खाली, परित्यक्त जगह के बारे में कौतुहल था.
रवीन्द्र के मन में
अनेक विचार आते. उसकी उम्र का घर में कोई नहीं था. सोमेन्द्र अपने स्कूल में मगन
था. जब उसके दोस्त, चचेरे भाई एक साथ खेल
रहे होते, तो रवीन्द्र दूर से ही उनका खेल देखा करता. वह
सोचता कि ये सारी दुनिया उसके सामने पहेलियाँ निर्माण कर रही है, और उसे इन पहेलियों को सुलझाना है. उसके चेहरे पर सदा गंभीरता का आवरण
रहता, क्योंकि मन में अनेक विचार होते थे.
‘ये सूरज रात को कहाँ
जाता है? चन्द्रमा रात में ही क्यों आता है? हवा कहाँ छुपी रहती है, और फिर कैसे दौड़ते हुए
आती है? ये चन्द्रमा और तारे लटकते क्यों रहते हैं? उन्हें किसने पकड़ कर रखा है? और यह गंगा नदी अविरत
क्यों बहती रहती है, उसका पानी समाप्त
क्यों नहीं होता? उस दिन समुद्र देखा था, उसमें इतना पानी आया
कैसे? जिस धरती पर हम चलते हैं, वह कहाँ समाप्त होती
है? ये नन्हे-नन्हे पौधे ज़मीन से निकलते कैसे हैं? पक्षी आसमान में उड़ते
कैसे हैं? इस प्रश्न का उत्तर ढूँढने के लिए वह पलंग से
दोनों हाथ आगे करते हुए लपका, मगर धम् से नीचे गिर
गया था.
असंख्य प्रश्न मन में
लिए वह उनके उत्तर पाने का प्रयत्न कर रहा था. इसलिए, यदि कोई खेल रहा होता, तो उसके मन में विचार आता: यह खेल कैसे आया होगा? किसने इसे ढूँढा होगा? यदि कोई हमें पकड़ने के लिए आता है, तो भाग जाने की इच्छा
हमारे मन में कौन उत्पन्न करता है? चोट लगाने पर आंखों
में पानी कौन लाता है? और ‘खूब’ दर्द हो रहा है, इसमें ‘खूब’ को दिखाना
क्यों संभव नहीं है?
खुद ही असंख्य प्रश्नों
का निर्माण करने और खुद ही उनके उत्तर ढूँढने की आदत हो गई थी उसके मन को.
कभी कभी – पेड़ उगता
कैसे है, बड़ा कैसे होता है, यह देखने के लिए उसने
सीताफल के कुछ बीज मिट्टी में बोये. रोज़ उन्हें मिट्टी से निकालकर देखता और फिर से
मिट्टी में रख देता – यह क्रम एक महीना चलता रहा, तब उसे समझ में आया कि
इन बीजों को भगवान ही स्थापित करता है और उनका वृक्ष बनाता है, हमारे बस की ये बात
नहीं. फिर भी प्रश्न तो था ही, ये हमारे बस में क्यों
नहीं?
अब उसने सीताफल के पेड़
का विचार छोड़कर अपने ही परिसर पर नज़र डाली. घर के परिसर के बाहर मानो प्रकृति का
छोटा सा साम्राज्य ही था. घर के पूर्व और दक्षिण में काफी बड़ी खुली जगह थी. तालाब
के दक्षिण में ताड़ के पेड़ों का झुण्ड, तालाब के पूर्व में विशाल वटवृक्ष...ये सब
रोज़ देखते हुए भी उसके मन में अनेक प्रश्न उठते.
स्कूल से तो मुक्ति मिल
गयी, परन्तु घर पर हरेक विषय पढ़ाया जाता, वह भी अनुशासन से. परन्तु अब वह ऊबता
नहीं था. शिक्षकों से दोस्ती हो गयी थी. वह कभी-कभी हिमालय यात्रा की बातें सुनाकर
शिक्षकों को खुश करता. उस कमरे में उसका साम्राज्य था, उस साम्राज्य पर उसका
अधिकार था. इसलिए वह खुश था.
खिड़की से दिखाई देते
ताड़ के पेड़ों की सरसराहट, बदलता हुआ वातावरण, और तेज़ हवा उसके मन को प्रसन्न करते. उसने शिक्षकों से अनेकों प्रश्न पूछे, मगर मन को संतुष्ट करने वाले उत्तर नहीं मिले.
कभी कभी किसी किताब के
पाठ रोचक नहीं होते, तब अनेक कारण बताकर उस
समय शिक्षकों से छुट्टी मांग ली जाती, अर्थात् शिक्षकों को भी इस बात की कल्पना
थी.
एक दिन समाचार आया.
अंग्रेजों के अधिकार
वाले भारत पर रूस का आक्रमण होने वाला है. शारदा देवी को चिंता होने लगी. उसने
सबको यह समाचार सुनाकर चिंता व्यक्त की. उसी तरह रवीन्द्र के सामने भी की.
‘रोबी, रूस भारत पर आक्रमण करने वाला है. खूब सारी सेना लेकर रूसी लोग आयेंगे.
मुझे बहुत डर लग रहा है.”
“तुम्हें डर क्यों लग
रहा है? भारत के लोग शूर-वीर हैं. अंग्रेजों की सेना
में ज़्यादातर भारतीय हैं. हम ज़रूर जीतेंगे. तुम क्यों फ़िक्र करती हो?”
“क्योंकि, रोबी, इस समय तुम्हारे बाबा
भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा पर हैं. यदि युद्ध शुरू हो गया तो वापस आना उनके लिए
संभव नहीं है,” यह कहते हुए शारदा देवी का गला भर आया, आखों में आंसू आ गए.
“माँ, तू चिंता करबे ना!”
उसने उनके दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, “जैसा तुम कह रही हो, उसके अनुसार मैं उन्हें जल्दी वापस लौटने के लिए लिखता हूँ. मगर पता कैसे
लिखूं?”
“अपने बैठकखाने के दाईं
और वाले कमरे में लिखापढ़ी का काम देखने वाले मुंशी जी हैं, उन्हें निश्चित रूप से मालूम होगा. उनसे पूछ और लिख दे पत्र.”
और जब रवीन्द्र ने पत्र
लिखा, तो शारदा देवी के पास अपने रवीन्द्र की तारीफ़ करने के लिए पर्याप्त शब्द ही
नहीं थे, देवेन्द्रनाथ ने उसके पत्र का उत्तर देते हुए उसकी
प्रशंसा करते हुए लिखा था:
“रोबी, तू अकेला ही है, जिसने हमें पत्र लिखा
है. अपनी माँ से कहना, कि यहाँ फ़िक्र करने
जैसी कोई बात नहीं है, हम जल्दी ही ठाकुरबाड़ी वापस लौट रहे हैं.”
यह पत्र उसने अपनी कॉपी
में मोरपंख के पास सुरक्षित रूप से संभाल कर रखा था. मोरपंख निकालकर हाथ से दीवार
पर लगाते समय वह कई बार गिर जाता था, मगर पत्र की ये बात
नहीं थी. सैंकड़ों बार पढ़ने के बाद वह याद हो गया था. मोरपंख जितना ही महत्वपूर्ण
था वह पत्र.
शारदा देवी की तबियत
यदि ठीक होती, तो वे ठाकुरबाड़ी के
पूरब की ओर वाली छत पर जातीं और तब घर की सभी महिलाएं वहां इकट्ठा होतीं.
कभी-कभी रवीन्द्र भी
उनमें शामिल हो जाता. इतनी हिम्मत से लिखी हुई कविता और पत्र की शारदा देवी
प्रशंसा करतीं, तब रवीन्द्र को लगता मानो शरीर पर मुट्ठी भर माँस चढ़ गया हो. वह
हौले से कहता,
“माँ, मैंने कुछ ज़्यादा
नहीं किया है.”
तेरहवां साल समाप्त
होने को था. शारदा देवी आजकल कमरे से बाहर नहीं निकलती थीं. शरीर अत्यंत कमज़ोर हो
गया था. रवीन्द्र उनका हाथ पकड़कर कहता:
“माँ, उठो, बैठकखाने में चलो, छत पर चलो, मेरे कमरे में चलो,” मगर उनका कमजोर हाथ
रवीन्द्र के हाथ से फ़िसल जाता.
“रोबी, तू जा, अपनी नई भाभी कादम्बरी
को लेकर जा. मैं उठ नहीं सकती रे!”
तब रवीन्द्र की आंखें
भर आतीं. वह लाचार होकर वहाँ से उठ जाता, तब शारदा देवी स्वयँ
को रोक न पातीं, मगर कोई उपाय नहीं था.
रवीन्द्र की चौदहवीं
सालगिरह बहुत धूमधाम से मनाई गई, तब रवीन्द्र ने कहा;
“माँ, सब थे, मगर तुम नहीं थीं, मन ही मन मैं खूब रोया.”
“रोबी, मैं भी खूब रोना चाहती थी. मगर बेटा, तुझे अब मेरे न होने
की आदत डालनी पड़ेगी.”
“मतलब, तुम कहीं जा रही हो?”
‘कहाँ जाऊंगी रे मैं? और यदि गई भी, तो तुम्हारी तो पढाई
है, तुम्हारे सामने आगे की पढ़ाई है, और तुम्हारी ज़िंदगी
है. तुझे कैसे ले जा सकती हूँ, और यदि सोच भी लिया, तब भी मैं तुझे कहीं नहीं ले जा सकती!’ शारदा देवी ने मन ही मन कहा, मगर प्रत्यक्ष में वे बोलीं:
“अरे, मैं तो चल भी नहीं सकती, बता तो कहाँ जाऊंगी
मैं?”
शारदा देवी मन ही मन रो
रही थी, उनके जाने का समय हो गया है, इसका उन्हें अनुभव हो रहा था. हर दो वर्ष बाद, एक के बाद एक चौदह
बच्चों को जन्म देते हुए, वे एक भी बच्चे को
स्नेह से संभाल नहीं पाईं थीं. जब बुद्धेन्द्र का दो ही वर्ष की आयु में देहांत हो
गया, तब उन्होंने रवीन्द्र को सीने से लगाया और कहा,
“रोबी, अब मैं, तुम्हारी माँ, तुझे ही संभालूँगी.”
मगर यह भी उनकी किस्मत
में नहीं था. बुद्धेन्द्र के जाने के बाद उनके जीवन का मानो उतार आरंभ हो गया था.
शारदा देवी की मृत्यु
का रवीन्द्र पर गहरा असर हुआ था. उनसे दूर, दास-दासियों के साथ
रहने की उसे बचपन से ही आदत थी, मगर माँ पूजाघर के पास
वाले कमरे में है, यह बात हमेशा दिमाग़
में रहती थी.
जब वह दुखी होकर खिड़की
में बैठता, तो उससे एक ही वर्ष बड़ी, सत्येन्द्र की पत्नी, कादम्बरी उसे अपने
निकट लेती. वैसे तो वह उसे ‘देवरजी’ कहती थी, फिर भी उसे ‘रोबी’ कहकर संबोधित करती थी.
इस समय भी वह दक्षिण की
ओर वाले कमरे में अकेला ही बैठा था, वह उसके कंधे पर हाथ
रखकर बोली:
“रोबी, ऐसे अकेले खिड़की में न बैठो. कितने सारे भाई हैं तुम्हारे, उनसे बातें करो, मुझसे बातें करो.. तू
अच्छी-अच्छी कवितायेँ लिखता है, अब कविता लिख. शिक्षक
आते हैं, उनसे पढ़ा कर, देखते-देखते समय गुज़र जायेगा.
वह उसका हाथ पकड़ कर
बाहर लाई. कादम्बरी के निकट होने से उसे बहुत अच्छा लगा. वह उसे आँगन में लाई.
उसका ध्यान सीताफल के बोये हुए बीजों की तरफ़ गया, अब उनमें से दो-चार
पौधे निकल आये थे. उसने कहा:
“कादम्बरी भाभी, यहाँ मैंने बेवकूफ़ की
तरह सीताफल के बीज बोये थे. आज उनके पेड़ हो गए हैं, उस समय मैं रोज़ ही
खोद-खोद कर देखता था. बुद्धू ही था मैं!” वह दिल खोलकर हंसा. वह भी खिलखिलाकर हंस
पड़ी.
ज्ञाननंदिनी ऊपर की खिड़की से देख रही थी. उदास
रोबी को हंसते देखकर वह भी हंसने लगी और खिड़की से बोली:
“बहु भालो लागबे रोबी, बहु भालो लागबे! ऐसे ही हंसते रहो.” माँ के समान ममता करने वाली सत्येन्द्र
की पत्नी ज्ञाननंदिनी प्रार्थना कर रही थी कि वह हमेशा प्रसन्न रहे.
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