Friday, 30 September 2022

Shubhangi - 1

 “अस्ति कश्चित् वाग्विशेष:”? वेदवती का प्रश्न सुनते ही अनामिक आतुरता से उसकी और बढ़ रहे मातृगुप्त के पैर वहीं ठिठक गए. वह भय से थरथरा गया, काश, धरती दुभंगित होकर जानकी के समान मुझे अपने भीतर समा लेती....ऐसा विचार उसके मन में कौंध गया. कहीं से अचानक कोई बाण आकर ह्रदय में चुभ जाए, शब्द भी मौन हो जाएँ...ऐसा प्रसंग भी जीवन में आयेगा, ऐसी कल्पना भी मातृगुप्त ने नहीं की थी.

पौर्णिमा की रात का दूसरा पहर अभी आरम्भ ही हुआ था. शरद ऋतू की वह पुलकित करने वाली रात मातृगुप्त के रोम रोम से प्रवाहित हो रही थी. वेदवती से विवाह करने के बाद यह प्रथम निशा सुख की परमोच्च कल्पना लेकर उसके ह्रदय में अवतरित हुई थी. मन में कुछ भय था और थी अनामिक आतुरता.    

‘क्या मैने वही किया जो उचित था?’ यह प्रश्न उसने अपने आप से अनेकों बार किया था और हर बार खुद ही जवाब देकर अपने मन का समाधान भी कर लिया था. राजा भोज के राजप्रासाद में कभी उनका दामाद बनकर आऊँगा ऐसा विचार भी कभी उसके मन में नहीं आया था. सारे रास्ते बंद हो जाएँ और सिर्फ एक ही, राजप्रासाद का द्वार खुल जाए ऐसा नियति ने किया था फिर भी मातृगुप्त धैर्य से आगे बढ़ा था, और अब मन का भय किसी और ही तरह से प्रकट हो रहा था.

कुमारसेन ने मित्रता का दृढ हाथ उसके कंधे पर रखकर कहा था, “ वादा करता हूँ, अंत तक तुम्हारी सहायता करूंगा. भय को मन से निकाल दो. सब कुछ मंगल ही होगा. मगर प्रेम-राज्य में जाते हुए तुम मुझे भूल न जाना.”  

फिर भी झूठ छुपा नहीं सकता और सत्य कह नहीं सकता ऐसी दुविधा मन में थी. परन्तु अब उसके सामने बस एक ही पर्याय था – वेदवती के शयनकक्ष में प्रवेश करना. मन पर अत्यंत बोझ था, एक अनामिक आतुरता थी. उसके  अद्वितीय सौन्दर्य का मोह और सत्य को छुपाने का पराकाष्ठा का प्रयत्न - ये दोनों बातें मन में थीं. वह स्तब्ध खडा था, मानो पैर धरती में धंस गए हों.

“आर्य मातृगुप्त,” उसने फिर से पुकारा. मातृगुप्त ने उसकी और देखा और उसके मन में बिजली की भाँति विचार कौंध गया. या तो फ़ौरन यहाँ से भाग जाए जिससे सारे प्रश्न ही समाप्त हो जाएंगे अथवा सब कुछ सच-सच बताकर जो मिले वह दंड स्वीकार करे, अगर उसने क्षमा कर दिया, तो सारे प्रश्न समाप्त हो जायेंगे. मगर करूँ क्या? क्या उससे सच-सच कह दूं?

लावण्यवती, विद्वत्वती, विद्योत्तमा सुहास्य वदन से उसके सामने खडी थी. कंधे का उत्तरीय हाथ पर था. नखशिखांत शृंगार में लिपटी उस मदनिका को देखते ही उसे पल भर के लिए आश्चर्य भी हुआ. उसके रूप में नियती ने स्वर्गीय लावण्य और सरस्वती की प्रज्ञा मेरी झोली में क्योंकर डाली है? ऐसा कौनसा संचित पुण्य था मेरे पास – उसके मन में आया.

वह मातृगुप्त की ओर देख रही थी, मगर मातृगुप्त स्तब्ध था. चराचर सृष्टि पर चंद्रप्रभा फ़ैली थी, वैसे ही वह गवाक्ष से भीतर आकर उसके मुख पर  प्रतिबिंबित हो रही थी. संभ्रमित मातृगुप्त को देखकर उसने झरझर बहते झरने की तरह मुक्त हास्य किया.

“आर्य मातृगुप्त, आप संभ्रमित क्यों हो गए? मेरा प्रश्न तो सरल था,अस्ति कश्चित् वाग्विशेष:?’

“प्रश्न तो सरल ही है, परन्तु हम यह देख रहे थे कि गवाक्ष से आती हुई चन्द्रकिरण आपके मुख पर कैसी अनुपम प्रतीत हो रही है. साथ ही चन्द्रमा के साथ रोहिणी है, या रोहिणी के साथ चन्द्रमा है, इस पर भी, देवी वेदवती, आपको ही निहारते हुए विचार कर रहे थे.”     

“इसका अर्थ क्या निकालूँ, आर्य? चन्द्रमा के साथ रोहिणी तभी अनुपम प्रतीत होती है, जब चन्द्रमा भी उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को मान्यता देते हुए उसके सम्मुख विनम्र प्रतीत होता है. दोनों को ही अपने स्वतन्त्र अस्तित्व का ज्ञान होने पर भी वे एक दूसरे के साथ ही मार्गक्रमण करते हैं. हम भी रोहिणी के ही समान आपके प्रकांड पांडित्य के सम्मुख विनम्र हैं.”

मातृगुप्त फिर भयभीत हो गया, मगर अब वह अपने प्रश्न के सन्दर्भ में बात नहीं कर रही थी, उसने अपनी बात का रुख बदल दिया है, यह सुखकर अनुभव होते ही उसने समाधान से सांस ली. मुख पर स्मित रेखा प्रकट हुई, मन कुछ  आश्वस्त हुआ और वह बोला:

“देवी, वेदवती, सृष्टि के निखार के लिए विद्वत्ता की, पांडित्य की आवश्यकता नहीं होती. स्वतन्त्र अस्तित्व मान्य करके समर्पण की इच्छा होती है. यह इच्छा जब अनिवार हो जाती है, तब आनंदोत्सव आरम्भ होता है. आनंद की परिभाषा का अनुभव एक-दूसरे को मौन से, स्पर्श से भी होता है. तब अव्यक्त भावनाओं को साकार होने के लिए शब्दों की आवश्यकता नहीं होती.”

“सत्य कहा, आर्य. सारे स्पर्श और सारे सन्दर्भ मौन हो जाएँ और जीवन का सन्दर्भ सहित अर्थ स्पर्श से ही समझ में आये, ऐसी यह पहली रात है. नव चैतन्य की, नए आनंद की, और सृष्टिनिर्मिती की भी.”

वह सहज थी. मातृगुप्त अब शांत था,  परन्तु उसके हाथ की लेखनी और भोजपत्र कैसे दूर हटाये यह वह मन ही मन सोच रहा था. विवाह की पहली रात को शयनगृह में हाथ में लेखनी और भोजपत्र लेने वाली कामिनी उसके लिए अनपेक्षित थी. उसके मन में अवगुंठन में छुपी, लज्जावती, वेदवती थी. और उसका अवगुंठन दूर होने पर आगे का मार्ग सहज था. फिर भी तब तक मन में भय ही था.   

शयनगृह में आने से पूर्व मातृगुप्त को चिंतित देखकर कुमारसेन ने कहा था:

“संभ्रमित न रहें मातृगुप्त. आपका विवाह निर्विघ्नता से संपन्न हो गया है. विदिशा के राजा भोज के आप दामाद हैं, वैसा ही वर्तन करें. पिछले कुछ मास से शिष्टाचार तथा राजप्रासाद में उचित वर्तन के बारे में आपको बताया ही है. परन्तु यदि आप किंचित भी अपने शब्दों से, कृति से व्यक्त हो गए तो सभी कुछ समाप्त हो जाएगा. आपने अपनी सुदृढ़ काया से, सौम्य वर्तन से तथा प्रसन्न हास्य से, साथ ही शिवशंकर समान सौन्दर्य से न केवल राजसभा को, अपितु संपूर्ण समाज के मन को जीत लिया है.”

“परन्तु...”

“किन्तु-परन्तु अभी नहीं, आर्य मातृगुप्त. हम जानते हैं कि आप क्या कहना चाहते हैं. हम तुम्हारे...अब बहुवचन में...आपके हितचिन्तक हैं. आपका अपमान हो, ऐसा हम कभी नहीं चाहेंगे इस बात का विश्वास है ना?

“कुमारसेन...परन्तु...”

“हम जानते हैं, आपका मन भयभीत है; राजकन्या वेदवती की बुद्धिमता से. मगर डरें नहीं, प्रसंगानुसार कभी मौन रहें, कभी ये कहें कि प्रश्नों के उत्तर कल दूँगा, या फिर प्रश्नों की दिशा ही बदल दें. कितना ही आग्रह क्यों न किया जाए, फिर भी यदि किसी प्रश्न का उत्तर सहज न हो तो बिलकुल ही उत्तर न दें. वैसे, पहली रात को आपसे कौन प्रश्न पूछेगा भला?

“ये मुझे मालूम है.”

“पुरुष का सौन्दर्य, सुदृढ़ता, शौर्य, धैर्य और विद्वत्ता पर स्त्री अनुरक्त होती है, तब स्त्री की विद्वत्ता विनम्र हो जाती है.”    

“तुम्हारे ही उपदेश से मैं...”

स्वयँ को “हम” कहो, मातृगुप्त. तुम मेरे मित्र अवश्य हो, परन्तु अब तुम खुद एक अत्यंत विद्वान पंडित के रूप में यहाँ आये हो, विद्वत्ता विनम्रता से सुशोभित होती है, परन्तु यहाँ राजकन्या वेदवती अत्यंत अहंकारी होने के कारण उसका गर्वहरण करने के उद्देश्य से ही हमने आज तक अनेक नाटक किये हैं ना?”   

“मित्र, पहली रात को लेकर हम भयभीत, आशंकित हैं, साथ ही असत्य को छुपाने के लिए भी. वहाँ आप लोगों में से कोई भी न होगा. वनराज सिंह के सामने कोई श्वापद खडा हो, ऐसा तो नहीं  होगा ना, इस विचार से हम भयभीत हो गए हैं.

मातृगुप्त का मित्र कुमारसेन, पंडित विष्णुगुप्त, मंत्री केशवदास, राजपुरोहित सुशर्मा – अब सभी एकत्रित हो गए थे.

“वत्स,” राजपुरोहित ने उससे कहा, “जिस बात का किसी पुरुष को कभी, कोई डर नहीं होता, उससे तुम इतना भयभीत क्यों हो, मातृगुप्त?

“मातृगुप्त, कुछ ही पलों में जब तुम शयनकक्ष में प्रवेश करोगे, तब वह लावण्यवती राजकन्या लज्जावती होकर तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही होगी. उसके मन में किसी तरह का कोई प्रश्न होगा ही नहीं. फिर होठों से बाहर कैसे आयेगा? शब्दों की आवश्यकता न उसे होगी, न तुम्हें,” पंडित विष्णुगुप्त ने कहा.

कुमारसेन ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, “जाओ, मित्र, जाओ. वह तुम्हारी ही प्रतीक्षा कर रही है. फिर, मैं तुम्हारे प्रति वचनबद्ध हूँ, मैं हर तरह से तुम्हारी सहायता करूंगा” कुमारसेन उसका हाथ पकड़कर उसे शयनकक्ष तक ले आया था.

और मातृगुप्त ने शयनकक्ष में प्रवेश किया था. शृंगारित शैय्या देखकर वह संभ्रमित हो गया, अवगुंठन में लिपटी वेदवती वहाँ नहीं थी. क्या वापस जाऊँ? ऐसा विचार मन में आते ही प्रश्न आया था - “अस्ति कश्चित् वाग्विशेष:”?

उसने शब्दों की दिशा में देखा. दीपदान के प्रकाश में वेदवती खडी थी, हाथों में लेखनी और भोजपत्र लिए. पास ही में अनेक टीका ग्रन्थ भी थे. उसे देखकर वह वैसे ही खडी रही. लेखनी और भोजपत्र लिए, और फिर उन्हें नीचे रखकर शैय्या के निकट जाते हुए कुछ ठिठकी और उसने सहज ही पूछ लिया था. बाद में फिर वही  बोली, “आइये, आर्य मातृगुप्त. हम आपकी ही प्रतीक्षा कर रहे थे.”

“हमारी?

“ निश्चित रूप से आप ही की, आपके अतिरिक्त इस शयन कक्ष में हम भला किसकी प्रतीक्षा करेंगे?

मातृगुप्त का अपेक्षाभंग हो गया. शब्दों की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी, ऐसा दावा सभी ने किया था. यहाँ तो केवल प्रश्न और प्रश्न ही थे. शब्दों से कैसे निकल जाऊँ, ये प्रश्न मातृगुप्त को सता रहा था.

“ये भी सच है...” मातृगुप्त ने उसके प्रश्न का उत्तर दिया.

   “आपको क्या क्या प्रिय है?” लज्जावती, लावण्यवती राजकन्या को प्रश्नवती  हुआ देखकर मातृगुप्त को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे.

“हमें अस्त्र–शस्त्र संचालन, नृत्य, संगीत, लेखन, चित्रकारी, शिल्प निर्माण में रूचि है. शास्त्र एवँ शास्त्राभ्यास, साहित्य में विशेष रूचि है.”

रात्रि का दूसरा प्रहार समाप्त होने को था. नवविवाहित दंपत्ति की पहली रात. मातृगुप्त को ऐसा लग रहा था, जैसे उसके पैरों के नीचे धरती फट रही है. अब असत्य को छुपाना असंभव है इसका भान उसे हुआ.

उसे याद आया. कुछ समय पूर्व ही तो उसने राजपुरोहित सुशर्मा से कहा था:

“मैं अज्ञानी हूँ, अल्पमति हूँ. शिष्टाचार, रीति-नियम जानने के बाद भी, शब्दकला का ज्ञान मुझमें नहीं है. सच कहूं तो मुझे किसी भी बात का ज्ञान नहीं है. कैसे जाऊँ मैं शयनकक्ष में? अगर वेदवती ने मुझसे कुछ पूछ लिया तो? सत्य कहो, मित्र! क्या मैं कोई उत्तर दे पाऊंगा?” मातृगुप्त ने कहा था.

“भयभीत न हो, वत्स! किसी को भी यह समझाने की आवश्यकता नहीं है कि प्रणय कैसे किया जाता है. सृष्टि के इस विशाल अन्तरंग में अनेक प्रकार के जीव हैं जिनके पास न तो कोई भाषा है, न ही कोइ शब्द. वे भी जीव सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं. भ्रमर कमलिनी में आसानी से उलझ जाता है. ईश्वर ने जिस परस्पर आकर्षण की रचना की है, वह शब्दातीत है. इसलिए वत्स, तुम्हें संभ्रमित होने की, भयभीत होने की कोई आवश्यकता नहीं है. मैं तुम्हें क्या बताऊँ? नवनीत अग्नि के निकट जाए तो क्या होता है, क्या मैं इसे स्पष्ट करूँ?” राजपुरोहित सुशर्मा ने उसके मस्तक पर हाथ रखकर कहा.

“अब हमें मातृगुप्त को आदरपूर्वक संबोधित करना चाहिए.”

“सत्य है,

“अर्थात् , वेदवती हमसे कुछ भी नहीं पूछेगी?

“शायद नहीं, शायद सरल शब्द होंगे. राजकन्या वेदवती विद्वत्वती तथा शास्त्र प्रवीण हों, तो भी प्रणय के लिए शब्द तथा विद्वत्ता की आवश्यकता नहीं होती. प्रणय संवेदना संवाहक है, वह केवल स्पर्श से ही विकसित होती है.”

“फिर भी...”

“अब कोई और प्रश्न नहीं.” मंत्री केशवदास ने कहा. मातृगुप्त सहज सामान्य होते हुए बोला, “आप सब कुछ अनुभव से कह रहे हैं, इसलिए वह सब सत्य ही होगा. फिर भी अनामिक भय और आशंका मन से दूर नहीं हो रहे हैं. आप ईश्वर से मेरे लिए प्रार्थना कीजिये.”

मातृगुप्त शयनकक्ष की और मुडा. कुमारसेन का मन भर आया. ‘मातृगुप्त को यहाँ लाकर कहीं मैंने अपराध तो नहीं किया? असत्य की नींव पर सत्य का महल निर्माण करने का अपराध तो मुझसे नहीं हुआ? सत्वशील, भोले, राजनीति तो क्या, विद्या से भी अनभिज्ञ इस गोपालक (ग्वाले) का विदिशा के राजा भोज की कन्या से विवाह करवाकर कहीं मैं उसकी बलि तो नहीं दे रहा हूँ?’ मन में यह विचार कौंधते ही कुमारसेन ने उसे दृढ़ता से अपने आलिंगन पाश में बांधकर मन ही मन कहा, ‘ ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे, मित्र!’ अब आगे क्या होगा, इस विचार से उसका मन भी आशंकित हो गया.

“मित्र, मैं प्रस्थान करूँ ना?” कुमारसेन ने गर्दन से ही स्वीकृति दी. उस समय मातृगुप्त विचारों में खो गया था, परन्तु होश आने पर सब कुछ भूलकर वेदवती के एक-एक शब्द में उलझने लगा.

वेदवती के प्रश्न सुनकर मातृगुप्त मन ही मन कह रहा था, ‘ न जाने किस क्षण मैं मोहित हुआ, किस क्षण मेरे मुख से स्वीकृति प्रकट हुई, या तो वह क्षण ही अपशगुनी था, या फिर मैं ही स्वयं से परिचित नहीं था, अकारण ही देवदार के शिखर पर जाने की जिद मन में आये, ऐसा ही हुआ था, ऐसा मैंने क्यों किया, यह सीधा सा विचार भी मेरे मन में क्यों नहीं आया’, इस बात का उसे बारबार आश्चर्य हो रहा था.

मेरे मन में कोई सपने नहीं थे, ना ही थी कोई आकांक्षा, किसी भी क्षितिज तक मैं पहुँचना नहीं चाहता था, कोई ध्येय तो था ही नहीं. एक गोपालक कौनसे सपने देख सकता है? सीधा-साधा जीवन था, सीधी-साधी दिनचर्या. जंगलों से - वनों से, फूलों से, पंछियों से दोस्ती थी. निर्मल सरिता थी, निर्मल मन के मित्र थे. सब कुछ अच्छा था, परन्तु मेरे सौन्दर्य ने और सुन्दर देहयष्टि ने ही घात किया. नियती मेरी परीक्षा ले रही है, कठोर परिक्षा. और मूल्यांकन करने वाली है विद्वत्वती वेदवती.

फिर भी उसने कहा था:

“कनक कामिनी, चतुरांगना, लावण्यवती स्त्री से मैं नहीं डरता. भय है तो सकलशास्त्रनिपुण वेदवती का.” राजपुरोहित स्तब्ध थे, और प्रत्यक्ष में ऐसा ही हुआ था.

बारबार पूछे गए “अस्ति कश्चित् वाग्विशेष:”? इस प्रश्न का क्या उत्तर दे? इस प्रश्न के चक्रव्यूह से वह बाहर नहीं निकल पा रहा था, नियती हाथों में हाथ लेकर चलती रहे और अचानक हाथ छोड़ दे, वैसा ही हुआ था, और फिर लड़खड़ाते पैरों से चलते हुए किसी गहरी खाई में जा गिरूँ, जहाँ से निकल नहीं पाऊँ और खुद को संभाल भी न पाऊँ – ऐसा हुआ था. वेदवती मातृगुप्त की प्रिय कला, साहित्य, शास्त्र के बारे में अवश्य पूछेगी ऐसा पूर्वाभास उसे हुआ. फिर भी अब पीछे जाना असंभव था.  

वह शैया पर बैठी तब भी उसका ध्यान बिखरे हुए भोजपत्रों की ओर ही जा रहा था. आखिर वह उठी, उसने भोजपत्रों को और ग्रंथों को व्यवस्थित रखा. चन्द्रमा के प्रकाश में उसके मुख पर विद्वत्ता का तेज और अधिक प्रखर हुआ प्रतीत हो रहा था. परन्तु आगे बढकर हस्तस्पर्श करने का धैर्य भी वह नहीं जुटा पा रहा था. वही उसके पास आई, कंधे पर आश्वासक हाथ रखते हुए उसने पूछा:

“स्वामी, आप प्रणय भावना में इतने खो गए हैं कि हमने इतने सारे प्रश्न पूछे, परन्तु आप मौन ही रहे,”  

“देवी क्षमस्व...सहस्त्रवार क्षमस्व.”

“आप ऐसा क्यों कह रहे हैं, आर्य?

“हम कारण न बता सकेंगे, परन्तु आपके एक भी प्रश्न का उत्तर इस क्षण हम दे नहीं पायेंगे. क्षमस्व देवी वेदवती, विद्वत्वती, विद्योत्तमा.”

“ऐसा क्यों आर्य? एक दूसरे को जानने के लिए शब्द आवश्यक हैं. शब्दों का एक अर्थ होता है, सन्दर्भ होता है और प्रतिष्ठा भी होती है. उस दिन शास्त्रार्थ में आपके द्वारा दिए गए ज्ञान से समृद्ध आपके शिष्यों ने हमें पराजित किया, इसीलिये आप जैसे विद्वान पंडित से हमारा विवाह हुआ, अन्यथा...”

“अन्यथा से तात्पर्य?

“शायद हम कुमारिका ही रह जाते. हमारे स्वयंवर की ‘शर्त’ ही थी, कि जो कोई  हमें शास्त्रार्थ में पराजित करेगा, उसीसे हम विवाह करेंगे. पिताश्री और माताश्री को हमारी यह शर्त पसंद नहीं थी. उनका कहना था, अब उसका क्या...”

मातृगुप्त को इच्छित संधि प्राप्त हो गई थी. वह भी शैया पर बैठ गया

चन्द्रमा के प्रकाश में दीपदान का प्रकाश मिल गया था. सुगंध से महकते उस कक्ष की ओर मातृगुप्त ने अब तक ध्यान नहीं दिया था. वेदवती को अत्यंत प्रिय, उसके रोम रोम में व्याप्त साहित्य से दूर हटाने का कार्य वह कर रहा था. उसने पूछ ही लिया:

“अन्यथा क्या, देवी?”  

“आरम्भ में तो हमें अपने शास्त्राभ्यास की अचूकता पर अभिमान था. हर शास्त्रार्थ में हमारे शास्त्राभ्यास दाँव पर लगता थी. निरंतर तीन वर्ष बीत गए, परन्तु किसी ने भी हमें शास्त्रार्थ में पराजित नहीं किया था. तब हम मन से पराजित हो चले थे. क्या हमारा विवाह होगा ही नहीं? इस विचार से माता-पिता चिंताग्रस्त थे. वे कहते, ‘अब यह जिद छोड़कर किसी शूरवीर से विवाह कर लो.”   

“फिर?

“फिर क्या, आर्य...अपने शब्दों का मान रखते हुए हमने हठपूर्वक अपनी शर्त नहीं तोडी. विवाह की चिंता सभी को थी, भीतर ही भीतर हमें भी थी, परन्तु अब पीछे हटना असंभव ही नहीं, अपितु शस्त्र छोड़कर युद्धभूमि से पलायन करने जैसा अपमानास्पद था. आप आये और हम धन्य हो गए.”

“देवी, ऐसा न कहें.”

“हम सत्य ही कह रहे हैं. और सत्य पर – शब्द सत्य पर हमारा प्रगाढ़ विश्वास  है. जिस प्रकार घनघोर तिमिर को दूर हटाते हुए रविराज का आगमन होता है, सत्य भी उसी तरह प्रकाशित होता है. वास्तव में यह सब कहने की आवश्यकता नहीं है, और हमारा प्रश्न भी अनुचित था, हास्यास्पद था, इसका अनुभव हमें हो चुका है. आर्य मातृगुप्त, हमें क्षमा करें.”                        

“किस प्रश्न की बात कर रही हैं?” मातृगुप्त के हाथ से अनजाने ही शब्द-बाण छूट गया था, और अब वह उसी पर आघात करेगा, यह एहसास होते ही मातृगुप्त नखशिखांत थरथरा गया.

“क्षमा करें, आर्य, परन्तु शयनकक्ष में प्रवेश करते ही हमने आपसे पूछा था, “अस्ति कश्चित् वाग्विशेष:” हम क्षमाप्रार्थी हैं. आपने हमारे शब्दों को दिल पर नहीं लिया और मौन रहकर हमें मन से क्षमा कर दिया. आप महान हैं आर्य! ”

अब तो मातृगुप्त की सहनशीलता का अंत हो गया. मन की सारी उथल-पुथल एकत्रित हो गई. सत्य के सिवाय अब कोई और पर्याय नहीं है, इसका तीव्र एहसास हुआ और मातृगुप्त अचानक बोला, “देवी, अब आप रुकिए. आप सत्य से अनभिज्ञ हैं, क्योंकि वह आपको ज्ञात नहीं है.”

“कौन सा सत्य, आर्य?

“अत्यंत दाहक सत्य है, आप सहन न कर पाएंगी.”

“ऐसा कौनसा सत्य है?

“पहले आप हमें अभय दें.”

“हम आपको अभय दें, ऐसा हुआ क्या है?

“हम संपूर्ण सत्य का विवरण करेंगे. परन्तु आप, चाहे कितना भी क्रोध आये, हमें अभय दें. क्योंकि साहित्य, संगीत, कला, शास्त्र इनमें से कुछ भी हमें ज्ञात नहीं है...”

“आपने जो कथन किया है वह सम्पूर्ण असत्य है. परन्तु जो सत्य आप बताने वाले हैं, उन वचनों पर यदि क्रोध भी आये, तो भी हम आपको मृत्युदंड नहीं देंगे, यह राजा भोज की कन्या का वचन है.”

“देवी...विद्वत्वती...हमने ही आपको वेदवती नाम से संबोधित किया. आपको हमारा दिया हुआ नाम प्रिय हुआ. वास्तव में विद्वत्वती इस नाम का उच्चारण करना हमारे लिए कठिन था, इसका कारण...”

“क्या कारण था?” वेदवती ने अत्यंत अधीरता से पूछा.

“हम ब्राह्मण पुत्र हैं, यह सत्य है, परन्तु हमने किसी प्रकार का अध्ययन नहीं किया. हमने आश्रमशाला जाकर किसी भी गुरू से किसी भी प्रकार का ज्ञान प्राप्त नहीं किया. व्रतबंध जैसे संस्कार भी हम पर नहीं हुए. हम...”

“आप यहाँ तक आये कैसे? हमसे विवाह करने का साहस आपके मन में उत्पन्न कैसे हुआ? आपने विवाह का प्रस्ताव मान्य ही कैसे किया? आपके शास्त्राभ्यासी शिष्यों को कौन लाया था? ये सारी योजना किसलिए? वस्तुतः ब्राह्मण पुत्र होने के कारण हम आपको मृत्युदंड अथवा अन्य किसी प्रकार का दंड देने का पातक नहीं करेंगे. परन्तु भोज राजा के राजप्रासाद की कुमारिका को सौभाग्य-अलंकार देते समय आपके हाथ थरथराए क्यों नहीं? आप यहाँ तक कैसे पहुंचे, मातृगुप्त?

मातृगुप्त धरती पर नज़र गडाए था. “मैंने ऐसा क्यों किया? कम से कम एक कुमारिका की भावनाओं की बलि देते समय तो सोचना ही चाहिए था.”     

“सत्य बताऊँ अथवा न बताऊँ, इसी उलझन में था. ब्राह्मण पुत्र होने के कारण असत्य सहन नहीं कर पा रहा था. परन्तु...”

“अब बोलिए भी. जो सत्य है, वही कथन करें.”

“कम से कम छः महीने बीते होंगे, जब से हम आपके प्रासाद के नियमों का, रीति-रिवाजों का कठोरता से पालन कर रहे हैं.”

“हमें उन घटनाओं में रूचि नहीं है. आपने मुझसे विवाह करने का साहस ही कैसे किया...इतना साहस तो आज तक किसी क्षत्रिय वीर ने, तपस्वी ऋषि ने, अथवा शास्त्रार्थ करने वाले किसी पंडित ने भी नहीं दिखाया है. और हमारे जैसी विदुषी राजकन्या का ऐसा घोर अपमान ?”

विद्वत्वती अत्यंत क्रोधित हो गई थी. अगर म्यान में तलवार होती, तो वह उस पर चला देती, परन्तु अत्यधिक अपमानित, व्यथित, और अज्ञानी, अशिक्षित व्यक्ति द्वारा पराजित उसके मन में  ज्वालाएं धधक रही थीं.

“आप अपने शब्द वापस लेकर मुझे मृत्युदंड दे सकती हैं, देवी...परन्तु आपकी शर्त ने ही आपका घात किया है. आप लावण्यवती और प्रकाण्डपंडिता, आपको ऐसा पति चाहिए था जो शास्त्रार्थ में आपको पराजित करे. परन्तु पिछले तीन-चार वर्षों में एक भी पुरुष आपको पराजित न कर सका इस सत्य को आप जानती ही हैं.”

“अर्थात, हम पर दया करने के लिए यह विवाह प्रयोजन? अब हम वस्तुस्थिति को भलीभांति समझ रहे हैं.”

“देवी वेदवती, आपके क्रोध को, आपके अपमान को हम समझ सकते हैं. आप शस्त्र-शास्त्र, नृत्य-नाट्य, संगीत कलानिपुण होंगी, परन्तु योद्धा के जितनी ही रणनीति जानने वाला, और युद्ध में एक-दूसरे का धैर्य से सामना करने वाला भी सफल योद्धा होता है.

क्या कोई मनुष्य मन से सदाचारी, भोला, संवेदनशील नहीं होता? आपको केवल ब्रह्मज्ञानी पुरुष की ही लालसा थी, जिसकी साहित्य और शास्त्र में रूचि हो. परन्तु कोई अज्ञानी पुरुष भी सभ्य, शालीन, सुसंस्कृत हो सकता है, इसका आपने कभी विचार ही नहीं किया. उसकी जीवनानुभूति, सर्वसामान्य जन के प्रति सहकार्य का निरपेक्ष भाव आपने कभी जाना ही नहीं. देवी, आपको असत्य बताने पर मन बहुत व्यथित है, परन्तु आज मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आपको काफी ज्ञान प्राप्त हुआ है.”

“परन्तु षडयंत्र करके हमें पराजित किया, इस अक्षम्य अपराध के लिए क्षमा तो नहीं मिलेगी. आप इसी क्षण हमारी नज़रों से दूर हो जाइए; इस कक्ष से, इस राजप्रासाद से ही नहीं अपितु इस नगर से भी बाहर निकल जाइए. क्षण भर का भी विलम्ब किये बिना. हमने अभय दिया है, इसलिए...”

“देवी, वेदवती...”

“ हमारा नाम भी लेने की पात्रता नहीं है आपकी. और कहने को बचा ही क्या है...आपसे विवाह हुआ, इसे नियति की इच्छा मानकर शांत रहूँ, या भरी सभा में आपके षडयंत्र के बारे में बताऊँ...कुछ समझ में नहीं आ रहा है. नियतीने मज़ाक किया, आपने गर्वहरण किया, परन्तु उसमें हमारा अपमान ही हुआ. आपके सौन्दर्य पर, आपके द्वारा आयोजित शास्त्रार्थ पर हम मोहित हो गए. गलती आपकी नहीं, हमारी ही थी. गलती हमारी ही थी.”

पल भर को उसकी आंखें भर आईं, परन्तु अगले ही क्षण स्वयं को संभालते हुए बोली, “ जाइए, मातृगुप्त. आपके सान्त्वनापूर्ण शब्दों की किंचित भी आवश्यकता नहीं है. इस नगर में, राजप्रासाद में और हमारे मन में आपके लिए किंचित भी स्थान नहीं है. घोर अपमान किया है आपने. आपको क्षमा नहीं मिल सकती.”

सुनने के अलावा मातृगुप्त के पास कोई और पर्याय न था. अक्षम्य अपराध तो हुआ था, परन्तु एक मास पूर्व विवाह होने के बाद, सभी शास्त्रविधि, देवदर्शन होने के बाद सुहागन स्त्री द्वारा पहली ही रात को अपने पति को नगर सीमा से बाहर निकल जाने की शिक्षा सुनाई हो, ऐसी घटना पहले कभी नहीं सुनी थी.  यह उसका भी पत्नी द्वारा किया हुआ अपमान ही था. सद्यः स्थिती में उसे ऐसा ही प्रतीत हो रहा था. इसलिए वह भी क्रोधित हो गया था. दण्ड दो पति को...मगर ऐसा दण्ड? ऐसी कल्पना भी उसने नहीं की थी.

“पल भर को भी यहाँ न ठहरें, मातृगुप्त. आपका मुख भी हम नहीं देखना चाहते. जाते जाते केवल इतना बताते जाएँ, मातृगुप्त कि हमसे विवाह करने की आपकी हिम्मत हुई कैसे? क्या आपके मन में यह विचार भी नहीं आया, कि आपके अज्ञान की पोल खुल जायेगी..सपने भी देखे तो ऐसे!  विद्वत्वती, लावण्यवती राजकन्या का कोई महत्त्व ही नहीं! ये निश्चित ही आपकी बुद्धि का खेल नहीं है मातृगुप्त. बताइये, आप यहाँ तक कैसे आये? मुझसे विवाह करने का दंड मिलेगा यह जानकर भी आपने ऐसा क्यों किया?

वेदवती अब एक भी शब्द सुनने के लिए तैयार नहीं थी. अपने आप पर और मातृगुप्त पर वह अत्यंत क्रोधित थी. उसकी विद्वत्ता को शह देने वाला अज्ञानी, अशिक्षित, गोपालक है, इस पर विश्वास करने को वह तैयार नहीं थी. परन्तु उसके सामने सत्य प्रत्यक्ष था. परन्तु अनेक प्रश्न पूछने के बाद भी मातृगुप्त उसे सच नहीं बता रहा था, यह शल्य बुरी तरह उसे चुभ रहा था.

“मातृगुप्त, अगले पल हम आपका मुख भी नहीं देखेंगे. जाते-जाते इतना बताते जाइए कि यह अक्षम्य अपराध आपने क्यों किया?

मातृगुप्त मौन ही रहा.

“मातृगुप्त, न बताना हो तो मत बताइये. हम समझ ही गए हैं, सिर्फ आपके मुख से सुनना चाहते थे. परन्तु एक ब्राह्मणपुत्र ऐसा असंस्कृत व्यवहार करे, यह हमें कदापि मान्य नहीं.”

“देवी, आपने कहा, ‘निकल जाओ. मैं भी निकल ही रहा हूँ. रुकूंगा नहीं. परन्तु एक ब्राह्मण पुत्र का पति होने के उपरांत जो अपमान आपने किया वह भी असभ्य आचरण है. यदि आपने मुझे समझ लिया होता, जिस तरह गुरू शिष्य को पढाता है उस तरह ज्ञान संपन्न किया होता, तो, सत्य कहता हूँ, आप ‘विद्योत्तमा’ के रूप में प्रसिद्ध होतीं. मुझे आपके रूप का, राजप्रासाद का, आपका पति होने का मोह कभी भी नहीं था, वह बाद में उत्पन्न हुआ, और मैं प्रवाह पतित हो गया.”

अब वेदवती की सहनशक्ति समाप्त हो गई. वह क्रोध से बोली, “अब एक पल भी आपको नहीं देख सकती. और दुबारा यहाँ न आना ज़्यादा अच्छा होगा.”

अब मातृगुप्त शयनकक्ष के द्वार तक पहुँचा. इसी द्वार से अनेक सपनों का मोहजाल लेकर उसने प्रवेश किया था. उस समय मन में जो अतीव आनंद था, वह अब अतीव दुःख में परिवर्तित हो गया था. उसका मन ही अपने अपराध को क्षमा नहीं कर सका था, साथ ही मन में वेदवती के प्रति असीम क्रोध भी था. शयन कक्ष के आसपास दासियाँ खड़ी थीं, परंतु उनसे पूछने की हिम्मत न थी. तीन-चार दालान पार करने के बाद द्वार आने वाला था. उस द्वार से वह अनेक बार आता-जाता रहा था. परन्तु अब वह कभी भी वापस लौटने वाला न था. सबके सामने महामंत्री और कुमारसेन के पास आने वाला मातृगुप्त जीवन का अंत करने के निश्चय से निकला था.

महाद्वार पर शस्त्रधारी सैनिकों का पहरा था. उसे आता देखकर उन्होने विनम्र अभिवादन किया. किसी ने भी उसे नहीं रोका; उनमें से हरेक आशंकित था. आखिर एक द्वारपाल से रहा नहीं गया और उसने विनम्रता से पूछा लिया, “अगर हम आपके पीछे आयें तो...” 

मातृगुप्त के हाथ से संकेत करते ही वह चार कदम पीछे हटा. मातृगुप्त राजप्रासाद की सीढियां उतरकर नीचे आया.       

मध्यरात्रि का उत्साही चन्द्रमा मध्य आकाश से कुछ पश्चिम की ओर सरक आया था. उस प्रांगण में शांति थी. शीत लहरों से उसका मन कुछ शांत हुआ. वह मन ही मन नियती से बोला, “कर ली ना, अपने मन की? लावण्यवती, विद्वत्वती, वेदवती पति के बिना ही रहेगी और मैं? एक स्त्री को सौभाग्यविहीन करने का दुःख मन में लिए ही जिऊंगा? मेरा जीवन का न केवल एक, अपितु सारे अंक समाप्त करके तूने परदा गिरा दिया. हो गया न समाधान?

मन के भीतर से नियति ने कहा, “तूने एक ही मन से विचार किया है, मातृगुप्त! तेरे पास एक दूसरा मन भी है ना! विचार कर...तुझे तेरा उत्तर मिल जाएगा.”

मातृगुप्त विषण्ण मन से हंसा. ‘अब कौनसा उत्तर मिलने वाला है. सारे प्रश्न समाप्त हो जाएँ, सारे मार्ग तुम्हारे पास ही आयें, इसीलिये ऐसा घटित हुआ ना, भगवान? सच में, इस समय ऐसा समझ में आ रहा है कि कितनी बड़ी मूर्खता हो गई. असत्य की नींव पर सत्य का मंदिर नहीं बनाया जा सकता, क्या मैं इतना भी समझ न पाया? यह नियति का अपराध नहीं है! मैं मोह के वश हो गया, यह मेरा अपराध है. मैं असत्य का घोष करता रहा, यह मेरा अपराध है.

मुझे वास्तविकता का अनुमान तो था. सत्य प्रकट होते ही विद्वत्वती मुझे कठोर दंड देगी, ये मालूम था न? वास्तव में अनपेक्षित, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था. शयनकक्ष में प्रवेश करते समय मैं साथ में सत्य और असत्य, अमावस्या और पूर्णिमा लेकर ही तो गया था. आर सारी चतुराई धरी रह गई. और जो मन में था, वही हुआ.

दूसरे ही पल मन ने कहा, ‘मेरे मन में जो था, वही हुआ, परन्तु विद्वत्वती के मन में तो ऐसा कुछ न था. वह तो केवल पति के सहवास से रोमांचित होने वाली थी. पहली रात को उसके मन में असंख्य कमल दल खिलने की प्रतीक्षा कर रहे होंगे. वह अधीर होगी, उत्सुक होगी. उसके बारे में शयन कक्ष में आने से पूर्व कोई विचार नहीं था, वह अब आया था.

कल तक का समय उसीके सन्दर्भ में व्यतीत कर रहा था. आज कितनी विपरीत घटना हो गई!’  मातृगुप्त काँप गया. एक सुहागन, नवपरिणीता वधु को ऐसा...मेरे जैसा निर्बुद्ध पति मिले, उसे धोखा दिया जाए, उसके जीवन का उपहास हो, ऐसा कुछ भी मातृगुप्त के मन में नहीं था, उसने सिर्फ अपने बारे में विचार किया था. गलती मेरी ही थी. मैं ही अपराधी हूँ.’

अगले ही पल दूसरे मन ने कहा,

‘हो गया मेरे हाथ से अक्षम्य अपराध, स्वीकार करता हूँ. परन्तु राजकन्या के ह्रदय में क्षमाशीलता की भावना होनी चाहिए, विद्वत्ता के कारण विनम्र होने का स्वभाव होना चाहिए और जो हो गया है उसे अब कैसे सुधारा जाए इस पर उसे निश्चित रूप से विचार करना चाहिए. मुझे सीमा पार भेजने का दंड देते हुए उसके मन में यह विचार भी नहीं आया कि पति के बिना जीवन नाथ होते हुए भी अनाथ और सुहागन होते हुए भी विरहिणी होने के समान है. कम से कम यह विचार तो उसके मन में आना ही चाहिए था. आखिर दुःख तो दोनों को ही हुआ है. वह क्रोधित है कि उसका उपहास किया गया है, मुझे अतीव दुःख है कि मैंने उस जैसी  विदुषी राजकन्या का उपहास किया.’

‘तेरा क्या...तू पुरुष है, कहीं भी जाकर अपना जीवन व्यतीत कर सकता है,’ पहले मन ने कहा.

‘ठीक है. परन्तु वह? लावण्यवती, विद्वत्वती, वेदवती. उसका क्या?

और यह विचार मन में आते ही वह ठिठक गया. उसने पीछे मुड़कर राजप्रासाद की और देखा. उत्तर रात्रि के धवल प्रकाश में राजप्रासाद चमक रहा था. ‘वेदवती के शोक और क्रोध का कारण मैं ही हूँ,’ उसके मन ने सोचा. ‘उसे दुःख देने का, असत्य वचन कहकर उससे विवाह करने का मुझे कोई अधिकार ही नहीं था. मेरे जीवन का अब अंत ही...’

‘नहीं, नहीं दूसरे मन ने दृढ़ता पूर्वक कहा.

‘नहीं....नहीं जीवन का अंत ही...’ पहला मन प्रबल हो गया और उसके पैर पूरे वेग से वेत्रवती नदी की और भागने लगे. वेत्रवती नदी का पात्र कुछ दूर था, मगर नीरव शान्ति में उसकी पुकार उसे सुनाई दे रही थी.    

 

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एकला चलो रे - 3

  3                        उषा क्षितिज पर आ ही रही थी. ऐसे समय अनेक घोड़े सवारियों के साथ केदारनाथ की ओर निकले थे. दोपहर तक सभी केदार...