Friday, 4 July 2025

एकला चलो रे - 9

 

 

9


अभी पूरी तरह से सबेरा हुआ भी नहीं था, कि रवीन्द्रनाथ जाग गए. वे वैसे ही उठकर बाहर आये. कई दिनों बाद वे अपने आँगन में आये थे. मन को प्रसन्न करने वाली हवा, खिलते हुए फूलों की सगंध, और ज़मीन पर पारिजात के फूल बिखरे हुए थे.

बाग़ में हरी झाडू लगा रहा था. वह आश्चर्य से बोला,

“बाबूमोशाय, इतनी जल्दी उठ गए?

“हरी, हम रोज़ ही भली सुबह उठ जाते है, परन्तु अपनी खिड़की खोलकर पूरब की तरफ प्रकाशित हो रहा आकाश देखते हैं, सामने वाला तालाब देखते हैं, इतना ही नहीं – पेड़ भी देखते है, नारियल के, चीड़ के. सुबह के प्रसन्न वातावरण में हम लिखते भी हैं.”

“हाँ, सही है. मैंने सुना है, और मैं विचार करता हूँ, कि रोबी बाबू को कैसे लिखना आता है? मैं चौथी पास हूँ, मगर मुझे ऐसा कुछ लिखना नहीं आता.”

“हरी, सुबह कैसे होती है? आकाश में अनेक रंग कैसे आते हैं? दोपहर कैसे होती है? आकाश में शाम कैसी रंगबिरंगी होती है, फूल कैसे खिलते हैं, हवा कैसे चलती है? यह सब अपने आप ही होता है ना, उसी तरह शब्द भी मन से अपने आप ही आते हैं, और थोड़ा सा विचार भी होता है.”

“मेरे पास ऐसा विचार है, कि कविता करूँ, मगर कैसे यही समझ नहीं पाता. उस दिन मेरे बेटे की किताब से कविता पढ़ी और आपकी याद आई.”

“कविता मन से शब्दों में कैसे अवतरित होती है, यह कहना कठिन है, परन्तु यदि ‘उदित हो रहा सूर्य यह विचार मन में अन्दर तक पहुंचे, तो शायद शब्द बाहर आयें. और यदि कविता न बने, तो भी ‘उदित हो रहे सूर्यके बारे में तुम्हारे विचार तुम लिख सकोगे. धीरे धीरे लेखन अच्छा होता जाएगा. जैसे-जैसे कोई विषय मन में गहरे पैठता जाएगा, और उसे अनुभूति का कवच मिलेगा, उसमें से लिख सकोगे.”

“मैं कल ही लिखकर लाता हूँ.” वह प्रसन्न होकर वहां से चला गया, तब भी रवीन्द्रनाथ मन ही मन कह रहे थे,

“क्या सचमुच काव्य लेखन इतना आसान होता है, शब्दों के निर्झर अविरत प्रवाहित होने चाहिए, अनुभूति, अभ्यास, चिंतन और शब्दसंपदा होना आवश्यक है. यह सब मिलना और उसे कागज़ पर सजाना – क्या आसान है?

वे पारिजात के पेड़ के नीचे एक पत्थर पर बैठे थे, और तेज़ चलती हवा के साथ एक-एक फूल उनके शरीर पर गिर रहा था. वे अपने विचारों में खोये थे. कविता कामिनी बनकर उनके चारों ओर घूम रही थी. लेखन ही उनकी श्वास बन गई थी. सामाजिक, राष्ट्रीय घटनाओं से प्राप्त हुए अनुभव मन को क्लेश देने वाले थे. आनंद से और अतीव दुःख से लिखने के लिए शब्द मिलते हैं, ऐसा उन्हें मन ही मन प्रतीत हो रहा था. अभिनय का पहलू उन्हें जन्म से ही प्राप्त था – कवच कुण्डलों जैसा. विषयानुरूप शब्द प्रगट होने के कारण नाट्य लेखन भी सहज ही संभव हो गया था.

समाज के विविध स्तरों से प्राप्त होने वाले अनुभव, भारतीयों को दुर्बल करने और गुलाम बनाने वाली अंग्रेजों की राजनीतिक, रणनीतिक, और कूटनीतिक भूमिका को वे समझ रहे थे. जब वे विचारों में दंग थे, तभी बेला ने उन्हें पुकारा, वे उठे और अपने कमरे में आये. उन्हें देखकर मृणालिनी खिलखिलाकर हँस पडी.

“ऐसा क्या हुआ है हँसने के लिए?

वह कुछ बोली नहीं, उनके सामने आईना लाई. उन्हें भी आईने में अपने आप को देखकर हँसी आई. उनके बालों में पारिजात के फूल थे.

“सच में, आप बहुत अच्छे दिख रहे हैं.”

वे कुछ नहीं बोले. उन्होंने बेला से कहा,

“भगवान ने हमारे बालों पर फूल डाले हैं, देखो.”

“क्या भगवान के मंदिर के भगवान तुम्हारे पास आये? जैसे हम उन्हें फूल देते हैं, क्या वैसे ही उन्होंने तुम्हें दिए हैं?

चार वर्ष की बेला समझदारी से बोल रही थी और मृणालिनी अचरज से उसकी ओर देख रही थी.

“सच में, हमें हथेली भर के फूल लाना चाहिए था, माँ-बेटी पर बिखेरते. असल में ऐसा कुछ हमारे मन में आता ही नहीं है.”

“रहने दीजिये. अब सुबह का समय काम का समय है. अभी कुछ नहीं कहूंगी.”

“माँ, क्या तुमने बाबा से कट्टी कर ली है?

“नहीं, बेला. कट्टी करके काम कैसे चलेगा?

और वह वहां से निकल गई. तब बेला उनके गले से लिपट कर बोली, “बाबा, मुझसे कट्टी नहीं करना, हाँ, नहीं तो मैं भी कट्टी कर लूंगी. नहीं करोगे ना?

“नहीं. तुम जैसी सुन्दर लड़की से कोई कट्टी कर ही नहीं सकता, कभी भी. सभी को तुम बहुत अच्छी लगती हो.”

“मगर मैं कभी भी कट्टी कर सकती हूँ. तुम मुझसे हमेशा दोस्ती ही रखना हाँ.” उसने गले से हाथ हटाये और उनकी गोद में सिर रख दिया. अब उन्हें बेला बिल्कुल कादम्बरी जैसी प्रतीत हुई. कादम्बरी का विचार ही न आये, इसलिए वे उसे उठाकर गोद में लिए बैठकखाने आये, तो देखा कि देवेन्द्रनाथ की जलनौका पर उनकी सेवा करने वाला नंदन आया था.  

रोबी बाबू, बड़े बाबू ने आपको बुलाया है.”

“सब कुछ ठीक है. तबियत भी ठीक है. आपसे ज़रूरी बात करना चाहते हैं. कल बड़ोदा, द्विजेनदा, सत्येनदा आये थे. आज आपको आना है.”

“आते हैं हम खाना खाने के बाद.”

“वह गया तो उनके मन में अनेक विचार आये.

‘ऐसा कौन सा काम हो सकता है, जिसके लिए उन्होंने बुलाया है? जब द्विजेनदा और सत्येनदा गए थे, तो मुझे अपने साथ क्यों नहीं ले गए? अब इन दोनों से पूछूँ या सीधे बाबूजी से ही पूछूँ यह प्रश्न उनके सामने था.

मगर थोड़ी ही देर में उनसे मुलाक़ात हुई, तब दोनों ने कहा,

“हम दोनों अपनी-अपनी समस्याएँ लेकर गए थे. तुम्हारा ज़िक्र ही नहीं हुआ, उन्होंने सिर्फ इतना कहा,

“छोटी बहू का नौंवा महीना चल रहा है, उसका ध्यान रखना, और तुम्हें तो मालूम ही है, रोबी, कि वो जिसका काम हो, सिर्फ उसीसे कहते हैं. हो सकता है, उन्हें तुमसे कोई महत्वपूर्ण बात करना हो. जाकर आओ.” द्विजेन दा ने कहा.        

“तुम सबसे छोटे हो ना, तुम पर उनका अधिक प्रेम है. इसलिए मिलने का निश्चित ही कोई कारण होगा.”

दोपहर को रवीन्द्रनाथ अकेले ही गंगातीर पर देवेन्द्रनाथ की नौका पर गए, उन्हें प्रणाम करके वे उनके सामने बैठे.

“बाबा, आज आपने जो हमें बुलाया है, वह ऋग्वेद, उपनिषद, ज्योतिष का अभ्यास करने के लिए कदापि नहीं, निश्चित ही कोई महत्वपूर्ण कारण होगा, है ना? हम कल भी आ सकते थे बड़ो दा के साथ.”

“बहुत महत्वपूर्ण काम है, इसीलिये हमने तुम्हें बुलाया है.”

अभी हाल ही में हम इकट्ठे मुम्बई गए थे. जायदाद से संबंधित कुछ काम थे, तब तुमने बहुत अच्छा और फुर्ती से कार्य किया. ब्रिटिशों के साथ हमारे आर्थिक संबंधों को संभालते हुए, एक भारतीय के रूप में कोई भी समझौता किये बिना व्यवहार पूरे किये. तुम्हारी काव्य, नाट्य, सामाजिक प्रतिभा को देखकर हमें आनंद है, ऐसे में हमने एक निर्णय लिया है. हमारे हर बेटे ने उसे शिरोधार्य स्वीकार किया है. परन्तु यदि तुम्हें वह उचित न लगे, तो मना भी कर सकते हो.”

उनकी बात से रवीन्द्रनाथ को कोई आकलन नहीं हो पा रहा था, कि वे क्या कार्य करना चाहते है.

“तुम्हारी ज्येष्ठ भगिनी सौदामिनी के पति क्या करते थे, तुम्हें मालूम है ना? आज वे इस संसार में नहीं हैं.”

“वे ठाकुरबाड़ी के लोगों को, अर्थात् ...”

“बताता हूँ. जब सौदामिनी का ब्याह हुआ था, तब उसके पति शारदा प्रसाद एक नौकरी कर रहे थे. ब्रिटिशों से सत्य व्यवहार करने के कारण छूट गई. बाद में उनसे कहा, कि वे  हमारे यहाँ ज़मीनदारी का काम देखें, क्योंकि शारदाप्रसाद ने ठाकुरबाड़ी के लिए आवश्यक सहायता उस ज़मीनदारी के व्यवहार से ही की. अत्यंत सत्यवादी, कठोर परिश्रमी व्यक्ति ईश्वर अपने कार्य के लिए ले गया.”

अब उन्हें कुछ-कुछ समझ में आ रहा था. आज तक केवल इतना ही ज्ञात था कि देवेन्द्रनाथ उनसे ज़मीनदारी का काम कह रहे हैं, परन्तु आज यह स्पष्ट हो गया कि ठाकुरबाड़ी का ऐश्वर्य केवल इस ज़मीनदारी पर निर्भर था.

“हमारा विचार है, रोबी, कि तुम ये ज़िम्मेदारी संभालो.”

रवीन्द्रनाथ के लिए इनकार करना संभव नहीं था. क्योंकि आज तक सभी भाईयों ने उन्हें सौंपी हुई ज़िम्मेदारी स्वीकार की थी और वे यह भी समझ गए, कि सबसे बड़ी, आर्थिक स्थिति संभालने की, अर्थात् ठाकुरबाड़ी के सुखासीन जीवन की ज़िम्मेदारी उन पर आ पड़ी थी.

पल भर भी व्यर्थ न गँवाए बिना रवीन्द्रनाथ ने कहा, “आपने जो ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी है, वह मैं मन से पूरी करूंगा, बिलकुल अंत तक.”

“हमें तुमसे यही अपेक्षा थी. ऐसा नहीं है की तुम्हें वहीं रहना पडेगा. तुम ठाकुरबाड़ी में, सियालदह में रह सकते हो, और विदेश भी जा सकते हो. सिर्फ आर्थिक व्यवहार व्यवस्थित रखने के लिए तुम्हें बार बार जाना पडेगा. कुछ दिन वहां रहना पडेगा.

परन्तु वहां का सौन्दर्य तुम्हारे कवि मन को सम्मोहित करेगा.”

“हमें अच्छा लगेगा, बाबा.”

देवेन्द्रनाथ उठे, वहीं निकट ही रखी अलमारी में से एक नक्शा बाहर निकाला और उसे बताने लगे. रवीन्द्रनाथ के सामने जैसे तस्वीर ही प्रकट हो गई.

“बाबा, ये नक्शा और पूरी जानकारी प्राप्त करने के लिए मैं फिर आऊँगा. कब जाना है, यह बताएं.”

“अवश्य, अब हम निश्चिन्त हो गए. क्या आज कोई विशेष बात है?

“वैसे तो अपना बैठकखाना में विभिन्न विचारों के लोगों से आबाद रहता है, उन्हीं से एक सांस्कृतिक मंडल तैयार किया है, जो नृत्य, नाटक, अभिनय को बढ़ावा दे. आज घर ही में उस मंडल का शुभारंभ है और अपनी ‘भारती पत्रिका के सम्पादन का उत्तरदायित्व हमने लिया है. बलेंद्रनाथ और सुधीन्द्रनाथ हमारे साथ सहकार्य कर रहे हैं.”

“हमारे पिता के गुणों का विकास होते देखकर हमें बहुत आनंद हो रहा है. आज शुभारंभ में क्या कार्यक्रम है?

“गोपालदास चैटर्जी का गायन रखा है. वे शास्त्रीय संगीतकार – कृष्णभक्त होने के कारण उनके अधिकतर गीत श्रीकृष्ण पर हैं. आप आयेंगे आज?

“नहीं रोबी, एक बार परिवार में जाओ तो मोह के द्वार खुल जाते हैं और निवृत्ति ले चुका मन प्रवृत्ति की ओर आकर्षित होता है. ये सब नहीं...फिर, यहाँ भी विचार विमर्श के लिए लोग आते ही रहते हैं.”

“आजकल किस विषय का अध्ययन कर रहे हैं?

“ऋग्वेद का.”

“ऋग्वेद?”

“प्रत्येक वेद का अलग-अलग महत्व होता है. सबसे प्राचीन है ऋग्वेद. हम ऋग्वेद का पुनः अध्ययन कर रहे हैं. ऋग्वेदों की स्तुतिपर ऋचाओं का समावेश सामवेद में है. इन ऋचाओं को गाया जाता है, परन्तु ऋग्वेद तो ऋग्वेद ही है.”

“हम अभी तक वेदों तक तो पहुंचे नहीं हैं, परन्तु अब सियालदह और ज़मींदारी के काम में लग जायेंगे, तो काफ़ी समय मिलेगा. तब हम सारे वेद पढेंगे. हमें भी ऐसा वाचन प्रिय है.”

“अनुभूति से जीवन संपन्न होता है. अनुभूति पर आधारित घटनाओं से सिद्धांत बनते हैं, और स्वानुभूति से, साधना से ये सिद्धांत मन्त्र होकर जीवन को ऊर्जा प्रदान करते हैं. रोबी, तुम कवि हो,  तुम्हारे शब्दों में सामर्थ्य तभी उत्पन्न होगी जब समाज की समस्याएँ तुम्हें मन के बिल्कुल सातवें दालान तक पहुंचायेंगी. लोगों की वेदना तुम्हारी वेदना होगी. निसर्ग तुम्हारा सखा होगा, और संवेदनाएं जागृत होकर तुम निरंतर लिखते रहोगे.”

“क्या ऐसा होगा, बाबा?

“क्यों नहीं होगा?

जैसे जैसे सामाजिक समस्याएँ यूं प्रतीत होंगी, जैसे तुम खुद उन्हें अनुभव कर रहे हो, वैसे वैसे वे शब्दों में अवतरित होकर समाज के प्रत्येक मन को स्पर्श करेंगी. तुम्हारी वे कवितायेँ सबकी कवितायेँ होंगी.

तुम्हारी वांछित प्रकृति तुम्हारा हाथ पकड़कर सौन्दर्य स्थल दिखायेगी. प्रकृति की हर घटना से तुम्हें आनंद मिलेगा. ग्रीष्म में दरारें पड़ी हुई धरती वर्षाधाराओं में खिल उठेगी.”

“बाबा, हम ये काम, ज़मींदारी के, अवश्य करेंगे. वैसे भी अपनी ठाकुरबाड़ी में महिलाएं हमेशा वहीं रहती ही हैं. परन्तु पुरुष आते-जाते रहते हैं. हम भी आते-जाते रहेंगे. सांस्कृतिक मंडल, बैठकखाने की चर्चाएँ अबाधित चलती रहेंगी.”

“बिल्कुल मेरे मन की बात कही, रोबी!

मृणालिनी गर्भवती है, उसका भी ध्यान रखना.”

और फिर उन्होंने ज़मींदारी के कागज़ात और हिसाब वाली बही निकाली, देवेन्द्रनाथ रवीन्द्रनाथ को सब कुछ समझा रहे थे.

“अपनी ज़मींदारी चार स्थानों पर है. हरेक की अपनी-अपनी स्वतन्त्र आय है. परन्तु ठाकुरबाड़ी का ऐश्वर्यपूर्ण खर्चा इन ज़मींदारी के पैसों से ही चलता है.”

“मतलब, क्या करना होगा?

“मतलब, हमारी ज़मीन पर लोग खेती करते हैं, जहां तालाब हैं, नदी है, वहां मच्छीमारी करते हैं. और भी कई छोटे-मोटे उद्योग चलाते हैं. इन सब पर हमारा नियमित व्यक्ति उनसे कर की वसूली करता है, और हमें देता है. प्रत्येक ज़िले का मुखिया यह काम करता है.

हमें उस मुखिया तक पहुँचना पड़ता है.”

रवीन्द्रनाथ का आज तक का जीवन, वैसे बचपन से एकाकी था. कादम्बरी जीवन में आई, वह भी व्यक्तिगत स्वरूप में आई. उसी तरह आई एना, फिर मृणालिनी. उनका मन खिलता गया. समाज में भी उच्चस्तरीय लोगों ही संपर्क हुआ. इंग्लैण्ड जाने पर भी कॉलेज के लड़कों से उनका मेलजोल नहीं हुआ. उसी तरह सोलापुर, कोल्हापुर अथवा उत्तर प्रदेश में वे केवल परिवार के साथ थे.

अब भारत की आत्मा – गाँव, नदियाँ, प्रकृति, लोग – इनसे निकट परिचय होने वाला था. वे मन ही मन मगन थे. उन्हें याद आया शान्तिनिकेतन, देवेन्द्रनाथ का साधना केन्द्र, कितना शांत, आरामदायक और एकांत था! दिन भर कोई न कोई प्रश्न उपस्थित होता, तब देवेन्द्रनाथ उन्हें विभिन्न विषय समझाया करते. तब शारदादेवी थीं. परन्तु परिवार में मगन हो जाना, और फिर एकदम निवृत्त होकर साधना करना उनके लिए संभव हो पाया था. एक तरफ बार-बार विदेश जाते, ब्रिटिशों से दोस्ती थी, तो दूसरी तरफ कठोर धार्मिकता और वेदों तथा उपनिषदों का अध्ययन, एकांत में रहना, दक्षिण-उत्तर ध्रुवों को जोड़ने का काम वे संभव कर पाए थे. समाज में रहकर सामाजिक-धार्मिक-तत्वनिष्ठ कार्यों के प्रति समर्पित होना, और साधुसंतों के सहवास में निर्लिप्त रहना उन्होंने साध्य कर लिया था.

मुझे भी वैसा ही करना चाहिए, यह विचार उनके मन में आया. वे विचारों में मग्न थे, तभी देवेन्द्रनाथ ने कहा,

“आज दोपहर में किसी संस्था के लोग आने वाले हैं. हम कल सुबह विस्तार से बातें करेंगे. ठीक है?

रवीन्द्रनाथ खुशी-खुशी ठाकुरबाड़ी लौटे. दोपहर का भोजन हो चुका था. मृणालिनी उनके लिए रुकी थी.

“क्या आप खाना खाकर आये हैं?

“हमें मालूम था कि तुम हमारे आने की राह देखती हो.”

मृणालिनी ने उन्हें भोजन परोसा. उनके खाने के पश्चात् ही वह भोजन करने वाली थी. उन्होंने उससे कहा,
“तुम भी हमारे साथ भोजन करो.”

“इस बारे में आप ज़िद न करें.” उसके वाक्य में इतनी दृढ़ता थी, कि उन्होंने कुछ नहीं कहा. फिर उन्होंने विषय को बदलते हुए जलनौका पर हुए वार्तालाप के बारे में बताया और आगे बोले,

“अब हम बीच-बीच में ज़मींदारी के गाँवों में जायेंगे. हमें खूब उत्सुकता है उन गाँवों को देखने की, वहां रहने की, क्योंकि अब यह जीवन का महामार्ग नहीं, बल्कि गाँव-गाँव के स्त्री-पुरुषों का हुंकार अब पगडंडी से जाकर हम सुनने वाले हैं.”

तभी मृणालिनी के मन में विचार आया,

“इस घर की प्रत्येक स्त्री को पति का सहवास कम ही प्राप्त हुआ. हमेशा भटकते रहना और केवल विश्राम के लिए ठाकुरबाड़ी आना. आज तक मुझे लगभग अखण्ड सहवास प्राप्त हुआ. मगर अब...”

“क्या सोच रही हो?

“कुछ नहीं. बाबूजी जो कहेंगे वह उचित ही होगा. मगर हम कैसे देख सकेंगे वे ज़मींदारी के गाँव?

“अभी तक तो हमने या अन्य पुरुषों ने उन्हें देखा नहीं है. कभी तुम्हें ले चलूँगा! परन्तु ठाकुरबाड़ी के पुरुष अथवा स्त्रियां अत्यंत दुर्गम प्रदेश का जीवन क्यों देखने लगे? परन्तु हम शान्तिनिकेतन गाँव तुम्हें अवश्य दिखाएंगे! जैसे ही संभव होगा, तुम्हें ले चलूंगा!” उन्होंने उसका सांत्वन किया. वे विचार कर रहे थे देवेन्द्रनाथ द्वारा दिए गए नक़्शे का, उनके द्वारा दी गयी जानकारी का.

सियालदह सबसे प्रमुख था. पहले रेल से वहां जाकर सियालदह में बोलपुर शान्तिनिकेतन में किसी स्थान पर रहने की व्यवस्था. सेवक तो पहले के ही हैं. इसलिए वहां जाकर नया कुछ करना नहीं है. प्रत्येक गाँव का मुखिया और इन सारे गाँवों के मुखिया लोगों के ऊपर जो बड़ा बाबू है, केवल उसीसे हमारा संबध होगा, यह बात रवीन्द्रनाथ समझ गए थे. पंद्रह दिन हिसाब-किताब देखने में, और कुछ कठिनाईयां सुलझाने में जायेंगे, बस, इतना ही.  

वहां की आज़ादी से बहती हवा, पद्मा नदी का किनारा सामने था. सामने, आसपास चारों ओर हरा-हरा जंगल, भिन्न भिन्न प्रकार के मधुर गीत गाने वाले पंछी, निरभ्र आकाश में छाये हुए कृष्ण मेघ, एकदम हरी हो रही धरती, प्रकृति के विविध रूप रवीन्द्रनाथ के नेत्रों के सामने प्रकट हुए थे.

मृणालिनी कब से रथींद्र को लेकर अपने कमरे में जा चुकी थी. वे अपने कमरे में गए. मेज़ की दराज़ से देवेन्द्रनाथ का दिया हुआ कागज़ निकाला और पढ़ने लगे. यह एक पत्र ही था, जिसमें जानकारी दी गयी थी.

“प्रिय रोबी,

आज दि. 20 जनवरी 1980 को तुम्हें अपने सम्पूर्ण परिवार का आर्थिक भार उठाना है, अपनी ज़मीन पर परम्परा से चल रही ज़मींदारी से. कुछ ज़मीनें हमने खरीदीं, कुछ हमारे पिता जी ने लीं, और उसीसे सम्पूर्ण ऐश्वर्य संपन्न ठाकुरबाड़ी का खर्च चल रहा है. आजतक तुम्हारी बहन के पति श्यामप्रसाद ने अत्यंत परिश्रम से और ईमानदारी से यह कार्य किया, परिणामस्वरूप ठाकुरबाड़ी की महिलाओं को ऐश्वर्य प्राप्त हुआ और पुरुष अपने सामाजिक, सांस्कृतिक आन्दोलन चलाते हैं. हरेक को अपने गुणों को निखारने का अवसर प्राप्त हुआ.

उसी तरह, मनचाही नौकरी की, इच्छानुसार भ्रमण कर सके, और तुम्हारे बड़ोदा, द्विजेन्द्र ने सम्पूर्ण परिवार को भली प्रकार संभालते हुए हरेक को बनाया. सत्येन्द्र पूरी तरह उसका साथ दे रहा था.

अब तुम्हें ज़मींदारी के चार गाँवों के बारे में बताता हूँ. अपनी एक ज़मीन कटक में है, और तीन बंगाल में हैं. खेती और उद्योगों से प्रति वर्ष हमें कर प्राप्त होता है. ये ज़मीनें विशाल हैं.

देखो, पावना जिले की तहसील ‘शहज़ादपुर में रहने का मुख्य स्थान है. वहां अपना घर भी है.

नदिया जिले की जेहरामपुर तहसील में रहने का मुख्य स्थान सियालदह है.

और राजशाही जिले की ‘कालीग्राम तहसील में ‘पतीसर में रहने का स्थान है. मगर कटक अलग से जाना पड़ता है. दूर है, मगर चारों ओर अपने बंगले हैं. मुखिया सारा कामकाज देखते हैं. ईमानदारी से खेत का और उद्योग धंधों का कर लाकर देते हैं.   

रोबी, उत्तर बंगाल की तीन ज़मीनों का मध्यवर्ती स्थान है सियालदह. कटक को ही अलग मार्ग से जाना पड़ता है. सियालदह गंगा के प्रवाह – पद्मा नदी पर बसा हुआ है. पावना के पास स्थित कुष्ठी और गोवाई के बीच यह उपजाऊ ज़मीन है. शहज़ादपुर जातराई से मिलने वाली नहर के किनारे पर है. कालिग्राम – आतराई नदी के किनारे पर है.”

पत्र को सविस्तर पढ़ते हुए उनका ध्यान अंतिम पंक्ति की ओर आकृष्ट हो गया था.

‘रोबी, तुम कवि हो, कवि-मन के हो. जीवन की अनुभूति से कवि जो काव्य आत्मीयता से लिखेगा, वही विश्वकवि होता है.’

कुर्सी पर गर्दन टिकाकर उन्होंने प्रसन्नता से आंखें मूंद लीं.

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