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उषा क्षितिज पर आ ही रही थी. ऐसे समय अनेक घोड़े
सवारियों के साथ केदारनाथ की ओर निकले थे. दोपहर तक सभी केदारनाथ मंदिर के पास
पहुँचने वाले थे.
देवेन्द्रनाथ ने रवीन्द्र के लिए खाने की चीज़ें लीं. उसे गरम कपड़े पहनाये
और वे उसे लेकर आश्रम से बाहर आये. एक बेहद ठण्डी शीतलहर उनके शरीर को स्पर्श कर
गई. रवीन्द्र का शरीर थरथरा गया. कल गौरीकुण्ड में स्नान करते हुए और गौरीकुण्ड के
गरम जल में स्नान करके बाहर निकलते हुए भी वह थरथरा गया था.
‘बाबा, यहाँ खूब ठण्ड है.’ उसने कल
कहा था, तो देवेन्द्रनाथ ने उसे श्रीगणेश की कथा सुनाई
थी. जब माता पार्वती गौरीकुण्ड पर स्नान करने गईं, तो उन्होंने नन्हे श्रीगणेश
को पहरे पर बिठाया, और क्योंकि शिव शंकर ने
श्री गणेश को कभी नहीं देखा था, अत: वे उसे एक तरफ हटाकर
गौरीकुण्ड की ओर जाने लगे. तब श्रीगणेश ने अपना परशु निकाला और शिवशंकर ने त्रिशूल
निकाला...पल भर में त्रिशूल से श्रीगणेश का मस्तक धड़ से अलग हो गया. पार्वती ने
आकर सारी बात स्पष्ट की तो उन्होंने हाथी का चेहरा श्रीगणेश को लगाया और वह सजीव
हो गया.
कथा सुनकर उसने कहा:
“हाथी का मुख होते हुए भी श्रीगणेश को अग्रपूजा का सम्मान प्राप्त हुआ?”
“बाह्य रूप का कोई महत्त्व नहीं होता. कर्तृत्व का सम्मान होता है.”
आज उन्हीं शिवशंकर को देखने रवीन्द्र जा रहा था. उसके मन में अनेक प्रश्न
थे. शिवशंकर इतने ऊँचे शिखर पर क्यों रहते होंगे? उन्होंने हरिद्वार के पास
कनखल में पार्वती से विवाह किया. ऐसे हिमाच्छादित पर्वत पर उसे क्यों ले गए होंगे?
श्रीगणेश को भी ऐसी भीषण ठण्ड में रहना पड़ता होगा. स्वर्ग के देवता उनसे शीघ्र मिल
सकें, इसलिए तो यह युक्ति नहीं?
घोड़े पर जाते हुए वह एकदम शांत था. एक तरफ़ लगभग मस्तक को छूती हुई पर्वत की किनार, दूसरी ओर गहरी खाई से आती
मंदाकिनी की कलकल, सामने बर्फ की चादर ओढ़े, रत्नजड़ित पर्वतमालाएँ. यह अद्भुत दृश्य देखकर देवेन्द्रनाथ ने रवीन्द्र
से कहा:
‘देखो, उन पर्वतमालाओं पर बर्फ़
गिरी है, सूरज की बाल किरणें उन पर पड़ रही हैं. कैसा
अनुपम दृश्य है. भारत में कहीं भी ऐसा दृश्य देखने को नहीं मिलेगा.”
रवीन्द्र भी अनिमिष नेत्रों से सब कुछ देख रहा था. उसकी भूख-प्यास मिट गई
थी. उसने पूछा:
“बाबा, इस पर्वत पर शिवशंकर क्या
अकेले रहते थे?”
“हाँ, परन्तु अनेक भूत, गण और नाग लोगों की यहाँ बस्तियां थीं, इसलिए वे गणनाथ, भूतनाथ और नागनाथ के नाम से भी जाने जाते हैं.”
करीब चौदह-पंद्रह मील ऊंची चढ़ाई थी. घोड़ा सधी हुई चाल से चल रहा था. कभी-कभी
घोड़ेवाला बिलकुल कगार पर घोड़े को चलाता, तो देवेन्द्रनाथ रवीन्द्र
की आँखें बंद कर देते, उसने सफ़र के दौरान खाने के
लिए कुछ भी नहीं मांगा था. इतना भाव विभोर वह हो गया था.
बारिश आने, बर्फ गिरने की आशंका से उन
दोनों ने ओवरकोट पहने थे. भुरभुराती हुई बर्फ गिरने लगी. पल भर में अन्धेरा छा गया
और ठंडी हवा चलने लगी. रुकने के लिए कोइ आसरा न था. घोड़े की चाल धीमी हो गई, और बर्फ तेज़ी से गिरने लगी. केवल पांच मील की दूरी शेष थी.
घोड़े को और घोड़ेवाले को तो इसकी आदत थी, परन्तु रवीन्द्र घबरा गया. उसे
डर लग रहा था, कि इस बर्फ में घोड़ा खाई
में गिर जाएगा, यह भय उसे सता रहा था. वातावरण
में बेहद ठंडक थी. उसने मुट्ठियाँ भींच लीं, ठण्ड के मारे उसका शरीर
कांप रहा था. देवेन्द्रनाथ ने घोड़ेवाले पूछा:
“हम पहुँच तो जायेंगे ना?”
“पक्का, सा’ब ! हम अवश्य पहुंचेंगे!”वेन्द्रनाथ भी मन ही मन भयभीत थे. कुछ देर पहले
भुरभुर गिरने वाली बर्फ जो मन को आनंद दे रही थी, अब अविरत गिर रही थी. घोड़े
के पैर बर्फ में धंस रहे थे. चारों ओर अंधेरा था. ‘अँधेरे’ का सही अर्थ अब समझ में
आ गया था.
उन्हें ऊपर पहुंचते-पहुंचते वैसे देर हो चुकी थी. घड़ी तो वैसे शाम का समय
दिखा रही थी, मगर प्रत्यक्ष में घनी अंधेरी मध्यरात्र हो गई
थी. देन्द्रनाथ को ऐसा प्रतीत हो रहा था, कि आकाश के किसी एक बड़े
तारे को उछलकर या हाथ बढ़ाकर फूल की तरह तोड़ा जा सकता है. चारों ओर गहन अन्धकार, गहरा नीला आसमान और तारे उस आसमान में दमकते ब्रह्म कमलों की तरह प्रतीत
हो रहे थे.
घोड़ेवाला उन्हें सही-सलामत आश्रम ले आया था. उसका और घोड़े का आभार
प्रदर्शित करने के लिए शब्द अपर्याप्त थे. अधिक पैसे देकर भी उसका भुगतान नहीं हो
सकता था.
कुछ ऋण ऐसे होते हैं, जिनसे मुक्ति नहीं मिल सकती. उन्होंने मन ही मन उसका
आभार माना. रवीन्द्र के हाथों की मुठ्ठियाँ सख्त हो गई थीं, उंगलियाँ सीधी नहीं हो रही थीं. ठण्ड के मारे दांत भी अकड़ गए थे.
वे भीतर गए और अंगीठी के पास बैठे, उस उष्मा से रवीन्द्र ठीक
हो गया, और बोला:
“बाबा, भूख लगी है!”
गौरीकुंड के आश्रम से जो खाद्य पदार्थ लाये थे, उन्हें संभालना कठिन हो रहा
था, अत: उन्हें रास्ते में ही छोड़ दिया था. परन्तु
आश्रम में भोजन की व्यवस्था थी. केवल दाल और भात – मगर वे भी उन्हें अमृत तुल्य
प्रतीत हुए. एक कोने में उन्हें जगह मिली. बगल में अंगीठी थी और उसमे निरंतर
लकडियाँ डालने वाला सेवक भी था. उस आश्रम में कुछ साधु ऐसे भी थे, थी जिनके शरीर पर सिर्फ राख मली हुई थी.
सुबह वे दोनों बाहर आये और देखते ही रह गए.
पूरा हिमालय सुनहरा वस्त्र पहनकर जगमगा रहा था. क्या आज किसी का स्वयंवर
था? दूर, बहुत दूर देवदार के वृक्षों
का झुण्ड था, आकाश निरभ्र था, नीला, सफ़ेद, सुनहरा...और सृष्टि के ये
रंग देखकर देवेन्द्रनाथ अत्यंत चकित रह गए. देवत्व का, दिव्यत्व का अनुभव हुआ.
दोनों मंदिर में गए और शाम को घोड़े पर वापस भी आ गए. ऐसा नितांत सुन्दर
अनुभव कहीं और प्राप्त नहीं हो सकता. न देखे हुए शिवशंकर का सहज सुन्दर रूप, कभी क्रोधित, तो कभी निर्विकार समाधिस्थ
रूप और सृष्टि में उसके प्रतिबिंब वे पहली बार देख रहे थे.
अब उन्हें जाते हुए बद्रीनाथ जाना था. यहाँ चढ़ाई नहीं थी, केदारनाथ में था, वैसा उतार था. उस दिन सुबह वे गौरीकुंड से निकले और ढलती दोपहर में बद्रीधाम
पहुंचे.
“शिवशंकर के केदारनाथ का नाम कैसे पडा? किसने रखा?”
“रवीन्द्र, ‘केदार’ पर्वत जिसका धाम
अर्थात् घर है, वह केदारनाथ. उनका जन्म नाम रखने के लिए शिवशंकर के माता-पिता थे
ही नहीं. वे ‘स्वयंभू’ हैं. अपने आप ही उनकी और
ब्रह्मदेव तथा विष्णुदेव की उत्पत्ति हुई, ऐसा मानते हैं.”
“फिर बद्रीधाम किसका धाम है?”
“श्री विष्णु का. बौद्ध धर्म के अनुयायियों ने श्री विष्णु की प्रतिमा को
अलकनंदा में डाल दिया था, उसे शंकराचार्य नमक युवक ने बाहर निकाला और पुन: स्थापित
किया.”
“शंकराचार्य कौन?”
“आयु के आठवें वर्ष में संन्यास लेने वाला और तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान से मध्यप्रदेश तक ‘आचार्य’ की उपाधि से सम्मानित
शंकराचार्य आये और गुरूने उन्हें आठ वर्ष दिए. सोलह वर्ष की आयु में वे बद्रीनाथ
यात्रा के लिए निकले.
इन्हीं शंकराचार्य ने वैदिक धर्म का प्रचार किया. हिन्दू धर्म को नया
स्थान दिया,”
“तो क्या वे यहाँ दिखाई देंगे?”
“वे नहीं, परन्तु शंकराचार्य के मठ
में उनकी प्रतिमा अवश्य होगी.”
“होगी ना! हम देखेंगे.”
“क्या यहाँ भी गरम पानी का कुण्ड है?”
“हाँ. समुद्र मंथन से निकले हुए विष का प्राशन करने से संपूर्ण शरीर में
जलन होने लगी, तो शिवशंकर ने अलकनंदा के
जल में छलांग लगाई और उनके शरीर का दाह शांत हो गया. एक कथा और भी है. ब्रह्मा जब
अपनी कन्या सरस्वती के पीछे जा रहे थे, तो शिवशंकर ने पूरी शक्ति
से अपना हाथ ब्रह्मदेव के माथे पर मारा. वह हाथ किसी भी तरह दूर ही नहीं हो रहा था, तब शिवशंकर और ब्रह्मदेव दोनों अलकनंदा के पात्र में उतरे, तब जाकर ब्रह्मदेव के शरीर का दाह कम हुआ और अलकनंदा का पानी उबलने लगा.
वही कुण्ड हो गया.”
अभी शाम हुई नहीं थी, परन्तु संध्याछाया वातावरण
में छा रही थी. दोनों घोड़े पर बैठे-बैठे थक गए थे. काफ़ी दिनों बाद रवीन्द्र को
उसकी पसंद का भोजन मिला था, वह खुश था.
देवेन्द्रनाथ भी केदारनाथ की यात्रा सफल होने से खुश थे. उन्होंने समाधान
पूर्वक आंखें बंद कर लीं. आंखों के सामने अनेक प्रसंग साकार हो रहे थे. मूल रूप से
धार्मिक प्रवृत्ति के होने पर भी एक प्रसंग का मन पर तीव्र परिणाम हुआ था, उसीका अनुभव वे कर रहे थे. उस दिन का प्रसंग उन्हें याद आ रहा था.
द्वारकानाथ की परदेस में ही मृत्यु होने के कारण घर की पूरी ज़िम्मेदारी
देवेन्द्रनाथ के कन्धों पर आ पडी थी. द्वारकानाथ के पश्चात् धन की आवक कम हो गयी
थी, परन्तु निरंतर प्राप्त होते ब्याज के कारण
परिवार सुखी था. सिर्फ फिजूलखर्ची नहीं हो सकती थी, बस इतना ही अंतर था.
देवेन्द्रनाथ मूलत: धार्मिक प्रवृत्ति के होने के कारण बैठकखाने में अनेक धार्मिक
कार्यक्रमों के बारे में चर्चा होती थी. सबसे अधिक आनंद उन्हें इस बात से हुआ की
आठ वर्ष की आयु में रवीन्द्रनाथ ने कविता लिखी थी. केवल आठ वर्ष की आयु में अपने
परिवार अथवा समाज में कोई कविता लिख सकता है, इस पर अब उन्हें विश्वास हो
गया था.
एक दिन सुबह रवीन्द्र ने डरते डरते उनके वाचनालय में प्रवेश किया. तब उनका
ठाठ, उनका रौब देखकर वह दरवाज़े पर ही ठिठक गया.
“की होवे रोबी?”
“कछु होवे ना,” कहकर वह घबराते हुए भीतर
आया, और उसने उन्हें अपनी कविता दिखाई. अभी ठीक से
पाठशाला भी न जाने वाले रोबी ने कविता लिखी है, इसका उन्हें बहुत गर्व हुआ.
उसी रात उन्होंने उसे बैठकखाने में अपने निकट स्थान देकर कविता पढ़ने के लिए कहा,
और ‘बालकवि’ केवल ठाकुरों के प्रज्ञावंत घराने में ही जन्म
ले सकता है,’ ऐसा विधान किया. इतना ही नहीं अपितु दैनिक
समाचार पत्र में और ठाकुर घराने से प्रकाशित मासिक पत्रिका में भी वह कविता
प्रसिद्ध हुई, और प्रशंसा की सुखद वर्षा से वे भी पुलकित हो गए.
एक दिन उन्होंने शारदा देवी से कहा,
“तुम्हारा नाम शारदा है, परन्तु शारदा की सारी
बुद्धिमत्ता प्राप्त हुई द्विजेन, सत्येन और ज्योतिन को. अब
रवीन्द्र अभी आठ वर्ष का भी नहीं हुआ कि कविता लिखने लगा और उसके भविष्य के बारे
में हमारा ऐसा पूर्वानुमान है कि वह महाकवि बनेगा.”
“यह सब आपके कारण है. वह क़रीब पांच वर्ष का होगा, तब से कभी मेरे साथ, तो कभी अकेला बैठकखाने में
आया करता है. वह सब देखकर, सुनकर उसे प्रेरणा और
स्फूर्ति मिली है.”
“हो सकता है, वैसा भी हो. परन्तु मैंने
देखा कि उसे पाठशाला बिल्कुल अच्छी नहीं लगती. तब द्विजेन ने उसके लिए घर पर ही
शिक्षकों की व्यवस्था की और वह उसे अच्छा भी लगा.”
“सही है, जब हमारे पिता ने परिवार की
ज़िम्मेदारी हमें सौंपी थी, तब हम पंधरा-सोलह वर्ष के रहे
होंगे. उतनी ही उम्र का द्विजेन भी था. समयसूचक, परिस्थिति, परिवार को
संभालने वाला.”
शारदा देवी ने कुछ नहीं कहा. हर डेढ़ वर्ष बाद बच्चों को जन्म देकर वह थक
चुकी थी. बच्चों को पास बुलाने का भाग्य भी उसे प्राप्त नहीं हुआ. उनका खिलना वह
देख नहीं पाई. उनसे बातें करना, उन्हें समझना, उनकी आवश्यकताओं को देखना उनसे हो ही नहीं पाया. एक के बाद एक चौदह
संतानों को जन्म देकर वह थक गईं थीं. इसलिए देवेन्द्रनाथ से कुछ कहने का, उनसे दिल खोलकर बात करने का ज़्यादा अवसर उसे नहीं मिल पाया. बुद्धेन्द्र
की मृत्यु के बाद तो वे और अधिक थक गईं, परन्तु चौदहवीं संतान को इस
दुनिया में नहीं रहना था. वे मन ही मन रो रही थीं, क्योंकि ज़ोर से रोने की
शक्ति ही उनमें नहीं रह गई थी.
कभी-कभार रवीन्द्र के बालों में तेल लगाना, कभी उससे दस वाक्य कहना, दासी से खाद्य पदार्थ मंगवाकर उसे देना – यह बिरले ही होता था. नहीं तो
वह और उनका पलंग, बस यही दृश्य होता था.
देवेन्द्रनाथ के मन में अब विचार आया – मेरे जीवन का प्रयोजन क्या है? क्या जीने का अर्थ केवल ठाकुरबाड़ी के परिवार की, स्वयं के परिवार की देखभाल करना, इतना ही था?
शाम को बैठकखाने में गायक यदुनाथ भट, कृष्ण और विष्णु चक्रवर्ती, विद्वान ज्ञानचंद भट्टाचार्य, पंडित विद्यासागर, पंडित राजेन्द्रलाल, बिहारी चक्रवर्ती, आशु चौधरी, अक्षय चौधरी – समाज के इन गणमान्य व्यक्तियों के साथ सामाजिक
विषयों पर चर्चा, गायन, वादन, नृत्य, नाटक का विश्लेषण
करना, क्या यही जीवन का प्रयोजन है? बैठकखाने की संस्कारों की पाठशाला उनके पिता ने आरंभ की थी. कभी कभी
अंग्रेज़ अधिकारी भी इनमें शामिल हो जाते, फिर भी प्रश्न वहीं था.
कभी कभी जीवन के प्रयोजन का अर्थ ढूंढते हुए मन थक जाता, पर उत्तर न मिलता. मैं उत्तर क्यों खोज रहा हूँ, यह विचार भी मन में आता.
क्या यह नियति, यह निराकार ईश्वर ही हरेक
के जीवन में अंजली भर कर्म देता है, और इस कर्म का जो चाहे वह कर,
ऐसा कहकर छोड़ देता है?
एक बार रात में वे विचार कर रहे थे. सुबह होने को आई, फिर भी आंखों में नींद नहीं
थी. उन्हें किसी महत्वपूर्ण कार्य से बाहर जाना था. इसके अतिरिक्त कोर्ट में भी
कुछ काम था.
वे उठ गए. तैयार होकर निकले. फ़ाटक के बाहर घोड़ागाड़ी
तैयार थी. वे घोडागाडी में बैठे,
घोडागाडी निकली और ज़ोर की हवा आई. कागज़ का एक पन्ना उड़ते हुए आकर उनके कोट से चिपक
गया.
वे उस कागज़ को फेंकने ही वाले थे, कि उस पर कुछ अक्षर दिखाई
दिए. उन्होंने उस कागज़ को पकड़ा,
उस पर ईशोपनिषद का एक श्लोक लिखा था. उन्होंने उस कागज़ को अपने कोट की जेब में रख
लिया.
कुछ देर बाद उन्होंने वह जीर्ण कागज़ निकालकर पढ़ना
शुरू किया:
ॐ ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् ॥
जड़-चेतन प्राणियों वाली यह सृष्टि सर्वत्र परमात्मा से व्याप्त
है. इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करें, किंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’. पदार्थों का
संग्रह न करें.
रात भर विचारमग्न रहे मन को उत्तर मिल गया था. आज बंगाल में
अहंकारी उच्चशिक्षित लोगों का एक गुट है, दूसरी ओर ज्ञान से सैंकड़ों मील दूर
आर्थिक दृष्टि से वंचित अज्ञानी लोगों का गुट है. यहाँ से अंधश्रद्धा का घना जंगल
निकला है, इस बात का उन्हें तीव्रता से अनुभव हुआ.
हिंदु कॉलेज में अनेक बंगाली युवक थे, परन्तु उनकी
श्रद्धा हिंदु धर्म की अपेक्षा ईसाई धर्म में अधिक थी. कितने ही लोगों ने ईसाई धर्म स्वीकार
किया था. राजा राममोहन राय ने निर्गुण-निराकार का एक मार्ग स्थापन करके उस संस्था
का नाम रखा ‘आत्मीय सभा’. वे देवेन्द्रनाथ के शिक्षक तथा द्वारकानाथ के मित्र होने के
कारण उन्हें देवेन्द्रनाथ का सम्पूर्ण सहयोग प्राप्त था. राजा राममोहन की मृत्यु
के बाद संस्था की ज़िम्मेदारी पूरी तरह से देवेन्द्रनाथ पर आ गयी थी. ‘आत्मीय सभा’
का नया नाम रखा गया – ‘तत्वबोधिनी सभा’, और उनकी एक मासिक पत्रिका भी आरम्भ
हो गयी. एक अग्रगामी पत्रिका के रूप में उसकी गिनती होने लगी.
अनेक कार्यों की ज़िम्मेदारी लेने से आर्थिक व्यवहार पीछे रह
गया. परिवार की समूची संपत्ति का दिवाला निकल गया, फिर भी
स्थावर संपत्ति और कोर्ट द्वारा नीलाम करने के बाद मिले हुए पच्चीस हज़ार भी परिवार
के लिए पर्याप्त थे.
देवेन्द्रनाथ विचार कर रहे थे. द्वारकानाथ ने अमाप संपत्ति
अर्जित की थी, वह सुरक्षित नहीं रख पाए, फिर भी जीवन
शैली में परिवर्तन न हो इतना तो था ही. उन्हें किसी चीज़ का मोह नहीं था.
और ईशावास्य उपनिषद् का वह जीर्ण कागज़ उनके लिए मार्गदर्शक
सिद्ध हुआ. अब उनकी रूचि आध्यात्मिक बातों में अधिकाधिक बढ़ने लगी. लड़कियों की
शादियाँ हो गयी थीं, द्विजेन और सत्येन दोनों परिवार की ज़िम्मेदारी संभाल रहे थे, और जीवन भर
भ्रमण करते हुए इस बात का एहसास हुआ की उन्होंने शारदा देवी पर समुचित ध्यान नहीं
दिया. ‘सतीप्रथा’ बंद करने के लिए जागृति का आह्वान करते-करते स्त्री के कर्तृत्व
की गाथाएं समाज के सामने प्रस्तुत कीं, परन्तु
शारदादेवी की ओर ध्यान नहीं दिया. वे अत्यंत सुन्दर थीं, उनकी आवाज़ भी मीठी थी. शुभ्रवसना, हमेशा हंसमुख. बैठकों में आतीं, परन्तु सोमेन्द्र के जन्म के बाद वे
अस्वस्थ रहने लगीं. उसके पश्चात् रवीन्द्र और बुद्धेन्द्र का जन्म हुआ, उस समय तो वे इतनी दुर्बल हो गयी थीं, कि उठते ही चक्कर आ जाता.
उन्होंने ही एक दिन कहा था:
“चिंता करो ना! एक अंग्रेज़ी डॉक्टर को
दिखाता हूँ.”
वे डॉक्टर घर आये. दवाएं दी गईं, परन्तु उस समय उन्होंने नहीं सोचा कि
बुद्धेन्द्र की मृत्यु हो गयी है, अब निर्बल
मन को आवश्यकता है स्नेह की. वे भ्रमण करते ही रहे.
समाज में प्रतिष्ठा, परिवार में आदर, और अनेक सद्गुणों से युक्त होने के
कारण वे जहां हाथ लगाते, वहां सोने
की वर्षा होती.
एक और घटना भी हुई थी. जिस वर्ष
रवीन्द्रनाथ का जन्म हुआ, उसी वर्ष
द्वारकानाथ की भी मृत्यु हो गयी, वह भी परदेस
में. मूलतः अध्यात्म की ओर झुकाव था ही, अब
देवेन्द्रनाथ और अधिक ईश्वरीय मार्ग की ओर झुक गए.
सियालदह से कुछ मील दूर उनकी कुछ ज़मीन
थी, वहां उन्होंने अपने लिए एक कुटी बनाई
थी. वह उनका साधनाकेंद्र था, नाम था –
शान्ति निकेतन.
पद्मा नदी के आसपास के गाँवों से
उन्हें वार्षिक ब्याज प्राप्त होता था, क्योंकि वह
सारी ज़मीन देवेन्द्रनाथ के अधिकार में थी.
रवीन्द्रनाथ बारह वर्ष के हुए. अब उनके
मन में रवीन्द्र की संगत पाने की चाह थी, या उस पर
अनोखे संस्कार हों, यह इच्छा
थी.
उन्होंने रवीन्द्र से पूछा:
“रोबी, हिमालय पर्वत पर चलेगा?”
“हिमालय पर? इतनी ऊंचाई पर? क्या मैं चढ़ सकूंगा?”
“हम हैं ना? इसके अतिरिक्त तुम्हें कुछ अलग विषयों
की शिक्षा देना है?”
“स्कूल वाले विषयों से अलग?”
“रोबी, स्कूल में हम कुछ विशिष्ठ विषयों का ही अध्ययन करते हैं. परन्तु ज्ञान
असीमित है. एक जन्म में तो उसे पूरी तरह प्राप्त नहीं किया जा सकता. हम सिर्फ अनेक
विषयों से तुम्हारा परिचय करवाएंगे.”
“बाबा, अगर हिमालय पर हम फ़िसल गए तो?”
“नहीं फिसलोगे. हम हैं ना! पक्का पकड़
कर रखेंगे. फिर तो कोई चिंता नहीं? मगर सियालदह
के पास हमारी ज़मीन है, वहां पहले
एक महीने के लिए जाएंगे. उसके बाद हम हिमालय जायेंगे.”
“ठीक है, बाबा...ठीक है.”
बेहद प्रसन्न मन से देवेन्द्रनाथ वापस
लौटे. रात को आश्रम की रज़ाई पर पड़े-पड़े एक के बाद एक प्रसंग उनकी आंखों के सामने
तैर रहे थे. बारह वर्ष का रवीन्द्र उनका साथ देगा, इस बात का पूरा विश्वास हो गया
था. उन्होंने गहरी नींद में सोए रवीन्द्र के मस्तक पर हाथ रखा और शांत मन से आंखें
बंद कर लीं.
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