7.
“भाई छुटी.
रवीन्द्रनाथ मन ही मन उसे पत्र लिख रहे थे. इंग्लैण्ड की चुभती हुई ठण्ड और
दिन भर के कार्यक्रम से थका हुआ मन. आते ही वे कंबल ओढ़कर पलंग पर लेट गए. तब रात
के नौ बजे थे.
“भाई छुटी, तुम्हें ठाकुर घराने की छोटी बहू होने के कारण ‘छुटी’ कहते हैं.
मगर ‘भाई’ अर्थात् प्रिय और ‘छुटी’ अर्थात् छुट्टियों का आनंद देने वाली, इसलिए तुम्हें ‘छुटी’ कहा. सुबह लिखूंगा पत्र, क्योंकि इस समय तुम मेरे
ही साथ, मेरे ही निकट हो.
आज समझ में आया. तुम भारत में और मैं इंग्लैण्ड में, परन्तु याद करते ही तुम
कितना अंतर तोड़कर हमारे पास आ गईं. मन के कितने निकट हो तुम! सच में, मृणालिनी, तुम मेरा आनंद हो,
विश्रांति स्थल हो, प्रेरणा देने वाली प्रेरक हो. सदा हमारे साथ-साथ चलती हो. आज तक सिर्फ़ ‘मैं’ था, अब ‘मैं’ से ‘हम’ हो गया हूँ, सिर्फ तुम्हारे कारण.
‘छुटी’ यह नाम हमने तुम्हें पत्र लिखने के निमित्त से दिया है. वास्तव में
तुम्हारा नाम अनुपमा होना चाहिए, ऐसा हम सोचते हैं. ‘मृणालिनी’ यह नाम तुम्हें नाम विवाह के पश्चात् ठाकुर परिवार में आने के बाद दिया
गया. वैसे तुम्हारा मायके का नाम है – भवतारिणी. ये भव, यह विश्व तारने का सामर्थ्य तुम्हारे भीतर है, ऐसा तुम्हारे मात-पिता ने सोचा भी
होगा, परन्तु हमारे संसार को, हमारे परिवार को तुम निश्चित ही तार दोगी, यह विश्वास हमें हो गया है.
“विवाह के बाद हमने एकांत में तुमसे पूछा था. हमारे बारे में तुम्हारी क्या
राय है?”
“तुमने कुछ भी नहीं कहा था. तुम लाजवंती थीं. शायद ऐसा प्रश्न हम अचानक पूछ
बैठेंगे, ऐसा तुमने सोचा भी न होगा. परन्तु पहले कादम्बरी का सहवास, फिर एना का सहवास, पराये देश में स्कॉट
परिवार में रहने के कारण हम ढीठ हो गए थे. तुम खिलती कली थीं, हम कुछ सीमा तक प्रौढ़ हो
गए थे.
फिर ठाकुर परिवार का वातावरण अत्यंत स्वच्छंद था. आयु में सबसे छोटे होने के
कारण साहित्यिक, सामाजिक हस्तियों, नाटककार, गीतकार जैसे व्यक्तियों के बीच हमेशा मुक्त संचार होता था. परिवार का
बैठकखाना देर रात तक आबाद रहता. सत्येन दा नाटक लिखते, फिर परिवार के सदस्य उसमें काम करते
और बाहर के प्रतिष्ठित लोग देखने आते. हमारी खूब तारीफ़ होती.
“छुटी, नाट्य, नृत्य, संगीत, वाद्य वादन, कविता लिखना, लेख लिखना, इस सबका हमें खूब लाभ
हुआ. अनजाने ही ये कलाएं अवगत हो गईं. वैसे बैठकखाने में और अन्य स्थानों पर
अंग्रेजों से निकटता थी, परन्तु हमने भारतीय पोशाक ही पहनी, और परिवार के लोग यदि बाहर भी जाते
तो एक दूसरे को बंगाली में ही पत्र लिखते.
“सत्येनदा देशभक्तिपूर्ण गीत गाते, हमारे चचेरे भाई और गणेन्द्रनाथ तथा
नवगोपाल मित्रा ने ‘हिन्दू मेला’ की स्थापना करके स्वदेशी माल की बिक्री और जनजागृति का अभियान चलाया और
इसके कारण छुटी, हमें भी देशभक्ति की कवितायेँ लिखने की प्रेरणा मिली. हमारी कविता ‘इन्डियन
डेली न्यूज़’ अखबार में भी प्रकाशित हुई.
और ‘हिन्दू मेला’ के कारण बंगाल में नई चेतना, नये उत्साह का जन्म हुआ. परिवार द्वारा प्रकाशित की जा रही पत्रिका से तो
बारबार और प्यार से संधि मिलती रही.
मन ही मन पत्र लिखते हुए वे भूतकाल में पहुँच गए. वो भूल गए की वे इंग्लैण्ड
में स्कॉट परिवार में है, और अपनी ठाकुरबाड़ी पहुँच गए.
“रोबी, क्या तुम्हें मालूम है कि मैं तुम्हारे मित्र – कवी बिहारीलाल चक्रवर्ती के
बारे में इतनी आस्था से क्यों पूछती हूँ?”
“क्यों?” रवीन्द्रनाथ ने पूछा.
“उनकी कवितायेँ मुझे बहुत पसंद हैं. आगे चलकर तुम इससे भी अच्छी कवितायेँ
लिखोगे और विश्व के नामवंत कवी बनोगे, इसका मुझे विश्वास है.”
औरों की प्रशंसा की अपेक्षा उसकी आंखों से छलकती प्रशंसा उसे प्रिय भी थी. आज, इस पल भी उसके सामने
प्रशंसा से भरे नेत्र आ गए और उसकी आंखों में आंसू तैर गए. मन व्याकुल हो उठा.
उन्हें मृणालिनी की बहुत याद आई. कादम्बरी और एना से जो प्रेम मैं खुलकर न
कर सका, वो मैंने मृणालिनी से किया, उसने जीवन में प्रवेश किया और मैं निश्चिन्त हो
गया. सुख के सारे द्वार खुल गए. मनःपूर्वक साहित्य में बहार आ गई. शब्दों के रूप
में उसमें और अधिक बहार छा गई. सभी अर्थों में तुम हमारी थीं छुटी.
यहाँ आने पर तुम हमारे अधिक निकट आईं. यहाँ स्कॉट परिवार में मैं अत्यंत
प्रसन्न हूँ. पति-पत्नी आकंठ संगीत में डूबे हुए हैं और यद्यपि पाश्चात्य संगीत के
स्वर भारतीय संगीत की तुलना में ज़्यादा तेज़ प्रतीत होते हैं, फिर भी यह उनकी रीत है. उनकी
परंपरा है.
इस संगीत का मनःपूर्वक आस्वाद लेते हुए आनंद भी हुआ, क्योंकि हम पूरे मन से उसका अभ्यास कर सके. काफ़ी कुछ सीखने को मिला, और अपने रथींद्र की उम्र
की चार-पांच वर्ष की उनकी प्यारी बच्ची देखकर तो मन प्रसन्न हो गया.
हमें याद है छुटी, तुम उस समय सात महीने की गर्भवती थीं. मूल से ही
सुन्दर और सात्विक, गर्भभार से कुछ सुस्ती लिए, और एक तेज से दमक रही
थीं. हमने तुमसे पूछा,
“तुम्हें क्या चाहिये? कौनसी इच्छा अधूरी रह गई है? तब तुमने कहा था,
“एक सुन्दर नृत्य संगीत
के साथ करके दिखाइये.”
“अभी तक हमने कभी नृत्य
किया नहीं है. नाटक लिखे, अभिनय भी किया, कवितायेँ भी लिखीं, गीत लिखे, संगीत भी दिया, गायन भी किया, परन्तु कभी नृत्य नहीं किया!”
“जो नहीं किया, वही तो करने के लिए कह
रही हूँ.”
“मृणालिनी, आडी तिरछी छलांगें मारना
नृत्य नहीं होता.”
“मुझे मालूम है, मगर जब आपने पूछा, तो हमने कह दिया.”
“आठ दिन का समय दोगी?”
“अवश्य दूंगी. यदि मेरी
विनती का सम्मान करना है, तो अवश्य प्रतीक्षा करूंगी.”
मृणालिनी, भाई छुटी, तुम्हारी खातिर हमने
थोड़ा अभ्यास करके नृत्य भी किया. तुम प्रसन्नता से हमसे लिपट गईं. हमें अपने नृत्य
का पुरस्कार मिल गया.
“वास्तव में हमें भी
नृत्य अच्छा लगता है, मगर हम सीख न सके.”
“अब सीख लो.”
“अब? इस गर्भावस्था में? उसके लिए ज़िंदगी पड़ी है.”
तुम्हारा वो बगीचा, उसकी परी हो तुम. उन्हें
दूसरी मंजिल पर पश्चिम की ओर वाले कमरे की याद आई. उससे लगी हुई गैलरी, एक कमरे जितनी बड़ी, दूसरा कमरा देवेन्द्रनाथ की पसंद का था. असल में
देवेन्द्रनाथ की पसंद का था दक्षिण की ओर वाला कमरा. जब देवेन्द्रनाथ जलनौका पर
वास्तव्य के लिए गए, तो ज्योतिनदा ने कादम्बरी के साथ यहाँ वास्तव्य किया. कादम्बरी ने उस गैलरी
में बड़ा बगीचा बनाया, झूला लगाया. उस झूले पर बैठकर वह रवीन्द्रनाथ की कविताओं की धुनें बनाकर
गाती थी. कभी-कभी वह भी उसके निकट बैठकर अपने गीत नई तरह से सुनता.
मृणालिनी आई और रवीन्द्र
खुद ही बदल गया. मृणालिनी के साथ-साथ ठाकुरबाड़ी में टहलने लगा.
कादम्बरी उसके इंग्लैण्ड
से लौटने की मनःपूर्वक प्रतीक्षा कर रही थी. उसके पति ज्योतिन्द्रनाथ अक्सर
चित्रपटों के चित्रीकरण के संबंध में बाहर ही होते थे, और उसके मन में रवीन्द्र का
एक अटल स्थान था. रवीन्द्र के वापस लौटने पर जीवन को अर्थ प्राप्त होगा, ऐसा वह सोचती थी.
जब रवीन्द्र इंग्लैण्ड से आया, तो देवेन्द्रनाथ ने द्विजेन्द्रनाथ, सत्येन्द्रनाथ और
रवीन्द्रनाथ को जलनौका पर आमंत्रित किया और कहा, “द्विजेन, सबके विवाह हो गए हैं, अब रोबी का विवाह हो जाए तो हम इस पारिवारिक ज़िम्मेदारी से मुक्त हो
जायेंगे.”
“बाबा, अभी रवीन्द्र की शिक्षा पूरी नहीं हुई है. सत्येन का वहां का कार्य पूरा हो
गया, इसलिए रोबी को वहां से वापस लौटना पड़ा.”
“रहने दो. तुम दोनों ने कहाँ शिक्षा पूरी करने बाद विवाह किया? पहले विवाह हुआ फिर उच्च शिक्षण प्राप्त किया, और वैसे भी अनुभूति ही सच्ची
शिक्षा है. रोबी कवी है, और अनेक गुणों से संपन्न है. वह तुम्हारी तरह जज
आदि नहीं बना, फिर भी वह कला के क्षेत्र में अपना नाम उज्जवल
करेगा, यह मैं अनुभव से कह रहा हूँ. हमारे शब्द व्यर्थ नहीं जायेंगे.”
थोड़ी देर किसी ने भी कुछ भी नहीं कहा, तब फिर देवेन्द्रनाथ ने कहा, “आज समाज में या राष्ट्र
में जो लेखक हैं, कवि हैं, उन्होंने पाश्चात्य लेखनशैली को, विचारों को और आचार को भी आत्मसात
कर लिया है. रोबी उनसे एकदम भिन्न है. उस पर किसी भी पाश्चात्य विचारधारा का
प्रभाव नहीं है. हाल ही की उसकी गति और काव्य को, उसके लेखन के आशय विषय, विचार और
संस्कृति को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है की रोबी का भविष्य उज्जवल है.”
और रवीन्द्र का विवाह हो गया. रवीन्द्र
को मृणालिनी मिल गई जो उसे मन से अत्यंत प्रिय होने वाली थी. साहित्य में बहार आने
लगी, परन्तु कादम्बरी के लिए रवीन्द्र से दूर जाना दिनोंदिन असंभव होता गया, और ज्योतिन्द्र्नाथ का
वैवाहिक साथ पर्याप्त नहीं था, इसलिए वह बेचैन हो गई थी. रवीन्द्रनाथ पर उसका तीव्र प्रेम था और अब इस
प्रेम में एक हिस्सेदार आ गई थी.
एक दिन उसने रवीन्द्र से पूछा, “रोबी, जीवन का सबसे बड़ा आनंद किसमें है?”
रवीन्द्र थरथरा गया, कोई जवाब सूझ नहीं रहा था, वह बार-बार पूछे जा रही थी. उसने सतर्कता
से उत्तर दिया,
“आनंद की परिभाषा प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती है. कभी दस आने की
मछली सस्ती हो जाए तो वह क्षणिक आनंद से इतना पगला जाता है कि वह हरेक को यही सुना-सुनाकर आनंद को लोगों में
बांटता रहेगा. अगर मन में किया गया संकल्प पूरा हो जाये तो भी कोई आनंदित हो जाता
है.
आनंद का मार्ग हरेक के लिये अलग-अलग है. सर्वस्व दान
करके भी कोई दुखी तो कोई आनंदित होगा.”
“”तुम्हारे लिये आनंद की कल्पना क्या है?
“मेरे लिए आनंद
की कल्पना... बोलते-बोलते वह कुछ रुका और आगे बोला, मुझे
कविता लिखते समय जितना आनंद होता है, उससे अधिक तब होता है, जब
लोग उसे सुनते हैं. तुम्हें तो मालूम ही है कि प्रतिदिन की नित्य नूतन प्रकृति भी
मुझे अत्यधिक आनंद देती है. वास्तव में मुझे हर बात में आनंद मिलता है और आश्चर्य
भी होता है. परन्तु तुम्हारा आनंद किसमें है?”
“मेरा आनंद,
रोबी...मेरा आनंद किसमें है, रोबी, यह तुम इतने वर्षों में भी न जान पाए?” रवीन्द्र फिर से थरथरा गया. यह उत्तर उसके लिए
अपेक्षित ही था.
“छोटी भाभी,
मैंने अभी कहा ना, कि हरेक की आनंद की परिभाषा अलग-अलग होती है. कभी वह
रेल की पटरियों के समान एक हो जाती हैं, और
फिर स्वतन्त्र होकर अपने-अपने स्टेशन पहुँच जाती हैं. एक नदी के अलग-अलग प्रवाह
होते हैं, कभी कहीं उनका संगम होता है, और प्रवाह फिर से अलग हो जाते हैं. आखिर विलग होने
में, स्वतन्त्र रूप से प्रवाहित होने में आनंद है या संगम
में आनंद है, इसका विचार भी अपने-अपने तरीके से किया जाता है.”
“आनंद-सागर में मिलने के बाद कोई भी नदी कभी अलग नहीं
होती, क्योंकि नदी का गंतव्य स्थान, आशा, आकांक्षा सिर्फ एक ही है – सागर में विलीन होना. नदी
कभी वापस नहीं लौटती.”
“मतलब? तुम्हें कहना क्या है?”
“नदी के पास सागर में विलीन होने के सिवा कोई और पर्याय नहीं होता और स्त्री
के पास भी नहीं होता. परन्तु स्त्री के पास अपना अस्तित्व है, अस्मिता है, इसलिए उसके पास सागर में विलीन होने के अनेक
पर्याय हैं. तुम नहीं समझोगे. जाने दो.”
उस दिन कादम्बरी ने जो कुछ भी कहा, उस पर रवीन्द्र बड़ी देर तक विचार
करता रहा. कादम्बरी के बारे में मृणालिनी को बताते हुए उसने कहा था,
“कादम्बरी मेरी भाभी है, उत्कट सखी है. हमारे मन में उसका स्थान बहुत
महत्वपूर्ण है. जीवन में सुख और आनंद का पर्व मुझे उसीके कारण मिला है.”
कादम्बरी ने सुनने के बाद पूछा था, “क्या वह आपकी राधा सखी है? और यदि हो भी, तो भी मैं रुक्मिणी हूँ. श्रीकृष्ण की अनेक रानियाँ स्वीकार करने की
सामर्थ्य मुझमें है, अतः चिंता न करें, किसी भी प्रकार की.’
वह क्या समझी, उसने क्या विचार किया, इसका अप्रत्यक्ष अनुमान रवीन्द्र को हुआ. मृणालिनी जैसी गुणी पत्नी पाकर
रवीन्द्र उसके और प्रकृति के प्रेम में आकंठ डूबा हुआ था. प्रकृति की विविध छटाएं
और शृंगार की विविध छटाओं का अनुभव प्राप्त करते हुए कादम्बरी की याद केवल निमिष
भर को आती.
विवाह को मुश्किल से सात-आठ महीने बीते थे, और सुबह-सुबह पता चला कि कादम्बरी
ने आत्महत्या कर ली. आत्महत्या क्यों की? किसके लिए की? आखिर ऐसा क्या हुआ, कि उसे इस
दुनिया से असमय ही बिदा लेनी पडी? ठाकुरबाड़ी के सभी लोगों के मन में असंख्य प्रश्न थे.
परन्तु रवीन्द्र को गहरा आघात पहुंचा था. माँ की मृत्यु के बाद, चार-पांच वर्ष की आयु से, जब उसके मन की कली खिल ही
रही थी, उस पर प्रेम
करने वाली वह राधा थी. श्रीकृष्ण के मथुरा जाने पर वह बिरहन क्या करे? उसके वापस लौटने की आशा डूब जाने पर वह क्या करे? शायद उसके सामने मानसिक निराशा और फिर आत्मघात के
अलावा कोई और पर्याय ही नहीं था.
सुबह पता चला,
कि कादम्बरी ने आत्महत्या कर ली. क्यों की?
किसलिए की? अत्यंत विह्वल रवीन्द्र खिड़की से वह मार्ग देखने का
प्रयत्न कर रहा था, जिससे वह गई थी.
मृणालिनी हौले से उसके पास आई.
“आपका दुःख मैं समझ सकती हूँ और उसका दुःख भी समझ सकती
हूँ. परन्तु कुछ-कुछ मार्ग ही ऐसे होते हैं,
जिन पर न तो आगे जा सकते हैं, ना ही पीछे. ऐसे समय में केवल यही मार्ग शेष रहता है, स्वयं को समाप्त करने का,
स्वयं को मुक्त करने का. उसका त्याग बहुत बड़ा है.”
रवीन्द्र ने कुछ नहीं कहा.
“आपकी भूमिका भी मैं समझ गई थी. आपकी वह भाभी थी, ऐसे में मुझसे ब्याह करना पड़ा. परंतु मैंने इस
ठाकुरबाड़ी में आते समय सोच लिया था, कि मैं छोटे गाँव से एक बड़े, समृद्ध परिवार में जा रही हूँ, अतः अपने मन को बड़ा और
परिवार के लिए समृद्ध करना होगा. आप सहज ही मुझमें रममाण हो गए, और...”
“मृणालिनी,” उन्होंने उसकी कमर का आलिंगन किया, और स्वयं को रोक
न पाया, बरसता रहा आषाढ़ मेघ के समान.
बिना कुछ कहे वह उसे सांत्वना देती रही, समझाती रही.
बड़ी देर के बाद उसने कहा,
“संभालिये अपने आप को, रोबीन्द्रनाथ. जीवन में ऐसे मोड़
आते ही रहते हैं, जिन पर हमें चलना ही पड़ता है,
अन्य कोई उपाय नहीं है.”
काफ़ी दिनों तक इस आघात से रवीन्द्रनाथ अपने आप को संभाल
नहीं पाए. उसी समय कुछ लोग उनसे “ब्राह्मो समाज” के सचिव पद पर कार्य करने की
विनती लेकर आये. साथ ही महाराष्ट्र के सोलापुर,
पुणे, मुम्बई से भी निमंत्रण आये. लगभग दो महीने
रवीन्द्रनाथ महाराष्ट्र में थे. इस अवधि में लोकमान्य तिलक, शिवाजी महाराज,
संत तुकाराम का भी सहज ही अध्ययन हुआ.
दो महीने बाद जब वापस लौटे तो कादम्बरी राधा बनकर मन
में रही और मृणालिनी सत्य में विहार करने वाली रुक्मिणी बनी. धीमा पड़ गया शब्द
प्रवाह फिर से गरजते हुए अविरत बहने लगा.
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