5
दोपहर के
समय सत्येंद्रनाथ कुछ फाइलें देख रहे थे. तभी नौकर ने उन्हें एक पत्र लाकर दिया.
पत्र पढ़ते हुए उन्हें बहुत खुशी हो रही थी. वे उठकर द्विजेन्द्रनाथ के कमरे में
गए.
“बड़ो दा, हमारी मुम्बई के हायकोर्ट में जज के रूप में नियुक्ति हुई है. हमें जाना
होगा, परन्तु एक विचार कब से मन में है.”
“कहिये, बड़ो दा.”
“रोबी की
कथाएँ, कवितायेँ बचपन से ही प्रकाशित हो रही हैं, और बैठकखाने में आने वाले सभी
विद्वानों को यह अद्भुत् प्रतीत होता है. सभी उसकी तारीफ़ करते हैं. तुम उसे नाटकों
में भाग लेने के लिए कहते हो, सुर-ताल सिखाते हो. सब
ठीक है. माँ के जाने के बाद बाबा जलनौका में एकांत जीवन बिता रहे हैं, ऐसे समय में
तुम्हें और हमें उसके भविष्य की चिंता करनी चाहिए.”
“ठीक कहते
हो. स्कूल में मन नहीं लगा, इसलिए घर पर शिक्षक
आने लगे. ये सही है. मगर औरों की तुलना में उसकी अंग्रेज़ी और ज़्यादा अच्छी होनी
चाहिए, क्योंकि उसे पढाई के लिए इंग्लैंड भेजना है. यदि तुम चले गए तो...”
“मन में एक
विचार आया है, बड़ो दा. हमारे एक
मित्र हैं – तर्खडकर, वे अंग्रेज़ी के व्याकरणकार हैं. अगर उनके पास एक-दो महीने
अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए रखें तो? क्योंकि दो महीने बाद
उसे इंग्लैण्ड जाना ही है.”
“वो ठीक है, परन्तु यदि वातावरण मराठी ही हुआ तो अंग्रेज़ी बोलने की आदत कैसे होगी?”
“नहीं, बड़ो डा, उनकी बेटी अन्नपूर्णा
हाल ही में इंग्लैण्ड से पढ़कर लौटी है. घर में अंग्रेज़ी भी बोली जाती है. इसके
अतिरिक्त ठाकुरबाड़ी छोड़कर रहने की आदत भी होगी.”
और रोबी को
बुलाकर उसे मुम्बई जाने की तैयारी करने को कह दिया गया. रवीन्द्र को दूसरों के घर
में रहना अच्छा नहीं लगा था, परन्तु पिता समान बड़ो
दा और अत्यंत प्रेम करने वाले सत्येन्द्र को ‘ना’ कहना असंभव था. उसने
सहमति में सिर हिला दिया, और उदास होकर बाहर आते हुए उसे ज्ञानरंजनी ने देखा.
“की होबे, बाबू, की होबे?” उसने माँ की ममता से पूछा. उसके सारी बात बताने पर वह उसे समझाते हुए बोली:
“तुम्हारे
बड़ो दा ने कहा है, तो वह तुम्हारी भलाई
के लिए ही होगा. तुम्हें इंग्लैण्ड जाना है. वहाँ सारे लोग अंग्रेज़ी में बोलने
वाले होंगे, इसलिए जैसे तेरे सत्येन दा कहते हैं – चला जा.
वैसे भी तुझे परदेस जाना ही है.
ज्ञानरंजनी
भाभी को उसने कोई जवाब नहीं दिया. वह सत्येन दा की पत्नी थी. उस पर माँ समान ममता
करती थी. उसने ताड़ लिया, कि रवीन्द्र को यह बात
पसंद नहीं आई, मगर उसने भी अधिक कुछ
नहीं कहा. ठाकुर परिवार में सभी परदेस जाकर विद्या ग्रहण करके आये थे. इसलिए
रवींद्र को भी जाना ही पड़ता, और सत्येन्द्रनाथ जो भी करेंगे, उसकी भलाई के लिए ही करंगे, ऐसा उसे विश्वास था.
वह वहां से
निकला और बैठकखाने की खिड़की में बैठ गया, उसने नीचे देखा, कादम्बरी डलिया में फूल इकट्ठा करके मालाएं बना रही थी.
अनेक दिनों
बाद ज्योतिनदा भी आये थे. जब ज्योतिन्द्रनाथ घर आते, तो धर्मपत्नी होने के
नाते कादम्बरी उनके साथ-साथ होती. ज्योतिन्द्र संगीतकार, नाटककार, अभिनेता और रवीन्द्र
के सारे कलात्मक गुणों को प्रोत्साहन देने वाले, चित्रपटों में काम करने वाले, वे भी अनेक बार बाहर ही जाया करते. परन्तु चाहे कोई हो या न हो, बैठकखाने में कोई न कोई भाई और सामाजिक क्षेत्र के गणमान्य व्यक्ति उपस्थित
रहते. रात को देर तक महफ़िल चलती रहती. ठाकुरबाड़ी की महिलाएं भी बैठक में उपस्थित
रहतीं. रवीन्द्र को इस सबकी आदत पड़ गयी थी. कादम्बरी की भी आदत हो गई थी.
वैसे
कादम्बरी ज्योतिनदा की पत्नी थी, आठ वर्ष की आयु में विवाह के बाद ठाकुरबाड़ी आई
थी. रवीन्द्र से दो वर्ष बड़ी. रवीन्द्र की बहन सौदामिनी का विवाह होकर वह ससुराल
चली गई थी, फिर भी सुकुमारी, शरत्कुमारी, स्वर्णकुमारी – इन बहनों के साथ खेलती हुई कादम्बरी दिखाई देती. अगर कभी
दिखाई दी तो...
रवीन्द्र की
दुनिया ही अलग थी. उसका कमरा, श्याम नामक सेवक
द्वारा बनाया गया गोल घेरा, उसके भीतर बैठा हुआ
रवीन्द्र. कुछ बड़ा होने पर – स्कूल. फिर स्कूल के स्थान पर कमरे का ही स्कूल में
रूपांतरण हो गया, जहां शिक्षक घर आकर
पढ़ाते थे.
कादम्बरी उस
लम्बी-चौड़ी ठाकुरबाड़ी में रवीन्द्र की बहनों के साथ लुकाछिपी का खेल खेलती. एक बार
तो रवीन्द्र अपने कमरे से बाहर आ रहा था, और कादम्बरी भागते हुए
उससे टकरा गई. वह उससे टकरा गई, और रवीन्द्र ने उसे गिरने से बचा लिया. कादम्बरी
से यह पहली भेंट थी, जब उसे अत्यंत निकट से
देखने का अवसर मिला था.
उस समय
दोनों ने ही एक भी शब्द नहीं कहा. परन्तु यह भेंट दोनों के ही मन में रह गई थी.
उसके बाद
रवीन्द्र देवेंद्रनाथ के साथ हिमालय जाकर आया और स्वयं ही अनुभव हुआ कि वह बड़ा हो
गया है. देवेन्द्रनाथ ने भी सबको छोड़कर उसे ही यह मान दिया था, यह उसे महत्वपूर्ण लगा था.
एक बार उसके
कमरे में तीन बहनों के साथ कादम्बरी आई थी हिमालय का वर्णन सुनने. तब अत्यंत रोचक वर्णन
करते हुए कादम्बरी की ओर देखते हुए उसने कहा था;
“क्या इतना
आसान होता है हिमालय पर जाना?” मगर कादम्बरी उसीकी
ओर देख रही थी. विशाल माथा, सीधी नाक, मनमोहक रंग, और उसकी मधुर तथा स्पष्ट वाणी. वह उसकी बातें तन्मय होकर सुन रही थी, मानो संगीत के स्वर सुन रही हो. जैसे ही रवीन्द्र का ध्यान उसकी तरफ़ गया, उसने गर्दन झुका ली और उठकर वहां से चली गई. रवीन्द्र ने देखे घुटनों तक
पहुंचते उसके लम्बे, मुक्त घने बाल, जो सिर पर लिए हुए पल्लू से नीचे आ रहे थे. उसके मन में घर कर गईं अत्यंत
भावपूर्ण आंखें, और पीठ पर घना केश
संभार.
शुरू-शुरू
में कादम्बरी ज्ञानरंजनी के साथ या रवीन्द्र की तीन बहिनों के साथ आती. शारदा देवी
की मृत्यु के बाद रवीन्द्र जैसे बिल्कुल अकेला पड़ गया. तीन बहनें ससुराल जा चुकी
थीं, बालविवाह के बाद. द्विजेन्द्रनाथ और सत्येन्द्रनाथ आयु में काफी बड़े थे.
ज्योतिन्द्रनाथ अनेक कारणों से अक्सर बाहर रहता. चचेरे भाई-बहन, जो ठाकुरबाड़ी के परिसर में रहते थे, अपने-अपने
स्कूल-कॉलेजों में व्यस्त थे. उनके अपने दोस्त थे. रवीन्द्र के शिक्षक घर ही पर
आकर पढ़ाते थे, इसलिए उसके कोई मित्र
नहीं थे. ढलती दोपहर में उसका दिन उबाऊ हो जाता, और शारदा देवी की याद आती. एक दिन
वह उठकर गंगा के तीर पर खड़ी जलनौका में देवेन्द्रनाथ से मिलने चला गया. उसे देखकर
उन्हें आश्चर्य हुआ.
“रोबी, उदास दिखाई दे रहे हो, क्या घर में कुछ हुआ है?”
“नहीं, बाबा, कुछ नहीं हुआ, मगर माँ के जाने के बाद मन नहीं लगता, मैं आते-जाते उनके कमरे में चला जाता
था. अब वह कमरा खाली प्रतीत होता है.”
देवेन्द्रनाथ
ने उसे अपने पास बिठाया.
“रोबी, सुबह होती है, दिन प्रकाशमान हो जाता
है. फिर रात होती है, सम्पूर्ण चराचर का
प्रकाश समाप्त हो जाता है. जीवन भी वैसा ही है. एक दिन मेरा जन्म हुआ. सम्पूर्ण
जीवन प्रकाशमान हो गया, और अब जीवन की शाम हो
गई है. फिर रात भी होगी. उसी तरह, न केवल तुम्हारे, अपितु प्रत्येक मनुष्य के जीवन का अंत होना ही है. मिली हुई ज़िंदगी में
क्या करना है – यह हमें ही निश्चित करना है.”
यह सब
रवीन्द्र के आकलन से परे है, यह बात ध्यान में आते
ही देवेन्द्रनाथ ने कहा, “रोबी, प्रत्येक मनुष्य का जन्म होता है, और मृत्य भी होती है.
कभी न कभी मृत्यु को आना ही है, और उसे रोकना हमारे
हाथ में नहीं है. उसी तरह तुम्हारी माँ की मृत्यु को हम रोक नहीं सके. तुम्हें
उसकी याद आती है – यह स्वाभाविक है. इसलिए पढाई में, अपने लेखन में मन लगाओ. आज
सुबह सत्येन आया था, वह तुम्हें मुम्बई ले
जाने वाला है.”
रवीन्द्र ने
कुछ नहीं कहा. शाम को जब वह वापस आया, तो कादम्बरी ने उसके
कंधे पर हाथ रखकर पूछा:
“कहाँ गए थे, देवरजी, और वह भी बिना बताए.
मैं कब से राह देख रही हूँ.”
कंधे पर रखे
उसके हाथ का स्पर्श रवीन्द्र को आश्वासक प्रतीत हुआ, स्नेहपूर्ण प्रतीत हुआ और
उसकी आंखें अचानक बरसने लगीं. गालों पर अश्रुधाराएं बहाने लगीं. उसने रोबी को सीढ़ी
पर बिठाया और अपने निकट लेते हुए बोली:
“न रो, रोबी. मैं हूँ ना.” उसकी आंखों से अविरत अश्रु बहने लगे. वह उसे कस कर पकड़े
हुए उसका सांत्वन करती रही.
रात को वह
उसे बैठकखाने में ले गयी. हमेशा की तरह चर्चाएँ हो रही थीं. वहां उसे छोड़कर वह
भीतर गई, और सबके होते हुए भी रोबी को अकेलापन महसूस होने लगा. वैसे तो रात की यह
बैठक द्वारकानाथ के ज़माने से शुरू हुई थी, देवेन्द्रनाथ ने उसे
और अधिक सशक्त बनाया, और द्विजेन्द्रनाथ को
ताल सुर में देशभक्तिपूर्ण गीत गाना अच्छा लगता, उसी प्रकार रवीन्द्र
ने भी देशभक्ति के गीत गाना आरंभ कर दिया था. हर व्यक्ति में कोई न कोई विशेष गुण
था. कादम्बरी उतम वाचक थी. गुणग्राहक थी. रवीन्द्र का लेखन पहले वह पढ़ती और उस पर
चर्चा भी करती. बैठक में भी अपने विचार प्रस्तुत करती, वह भीतर चली गई.
रात में
रवीन्द्र अपने कमरे में आया, लेट गया और उसके मन में विचार आया: कादम्बरी जैसा
खुलकर बर्ताव करती है, उसे क्या
कहेंगे...उसका निकट आकर बैठना, शरीर को स्पर्श करना –
यह सब रवीन्द्र को अच्छा लगता. वास्तव में, इस सबका मोह भी उसे हो
चला था. उसे याद आया - उस दिन शाम को बारिश हो रही थी, वह खिड़की से सरसराते, बूँदें टपकाते ताड़ के, नारियल के वृक्षों को देख रहा था. बारिश एक लय में
हो रही थी. तालाब से वापस लौट रही कुछ औरतें जल्दी जल्दी लौटते हुए पूरी तरह भीग
गईं थीं. तभी उसके गले में कादम्बरी के हाथ पड़े. ‘चल, रोबी, बारिश में चलें.’ उसने रोबी का हाथ कसकर पकड़ा और खींचते हुए आँगन में ले गई. दोनों बारिश की धाराओं में खड़े
थे.
“रोबी, कैसा लग रहा है?” उसने जवाब नहीं दिया,
तब पीछे से उसका आलिंगन करते हुए वह बोली:
“रोबी, बारिश में भीगे हुए तुम सुन्दर लग रहे हो.”
रवीन्द्र की
भावनाएं निःशब्द हो गईं थीं. उसे एक अजीब सी अनुभूति हो रही थी, जो उसकी कोमल संवेदनाएँ जागृत कर रही थीं. एक अनामिक आनंद का प्रवाह मन से, शरीर से प्रवाहित हो रहा है, ऐसा उसे लगा और वह एकदम आँगन से बरामदे में
आया. तब कादम्बरी ने पूछा:
“की होबे, रोबी?”
“कछु ना, कछु ना, छोटी भाभी...” और वह
अन्दर आ गया. हर बार उस प्रसंग को याद करते हुए उसे एक अनामिक अनुभूति होती.
छोटी-छोटी
बातों पर उनके बीच संवाद होता रहता. उसकी रचनाओं की पहली वाचक कादम्बरी ही थी. कभी
वह खुल कर गाता, कभी कादम्बरी गाती.
प्रतिदिन सुगन्धित स्वप्न जैसा प्रतीत होता. कभी उसकी लाई हुई आम की फांक खाते हुए
उसे बहुत आनंद होता.
अब कुछ ही
दिनों में मुम्बई जाना पडेगा, इस विचार से वह व्यथित
हो गया था. मन ही मन रोने को जी चाहता, भीतर ही भीतर कुछ टूट
रहा है, इसका अनुभव हो रहा था.
सुबह-सुबह
वह उसके कमरे में आई. लाल किनार वाली, ज़री के बूटों वाली
सफ़ेद साड़ी पहने. माथे पर घूंघट ओढ़े. गीले बालों के कारण उसकी साड़ी पीछे से गीली हो
गयी थी. गौरवर्ण माथे पर बड़ा-सा कुंकुम और
मांग का सिन्दूर मन को लुभा रहे थे.
उसने उसके
बदन से चादर खींची.
“रोबी, देख तो, कितने बजे हैं?” उसने
रोबी का हाथ पकड़ा. उसके मुलायम, गीले हाथ के स्पर्श का
अनुभव हुआ और रोबी का शरीर रोमांचित हो गया.
“हाँ, उठता हूँ. तुम जाओ, मैं अभी आया.” वह कमरे
से बाहर गई और रवीन्द्र विचारमग्न हो गया. मुझे ये क्या हो रहा है? जी चाहता है, की वह निकट ही रहे, कंधे पर उसका हाथ, पीछे से आकर आलिंगन
करना, अब गीले हाथों का स्पर्श...ये सब कितना अजीब है, क्यों अच्छा लगता है,
वह हमेशा आसपास रहे, उसके बाल भी हाथों में
लेने को, ऐसा कुछ अजीब सा लगता है. मन का यह आनंद किसी
को भी बताए बिना खुद ही अनुभव करने को क्यों जी चाहता है? कादम्बरी के पास आते ही
मन क्यों छलकने लगता है?
वह सोचते हुए ही उठा. खिड़की के नीचे दिखाई दी कादम्बरी. पेड़ से फूल तोड़ रही
थी. वह उसकी आकृति को देखता रहा. वह गुनगुना रही थी.
स्पष्ट रूप से सुनाई नहीं दे रहा था, परन्तु उसीकी कविता
थी. जब तक फूल तोड़कर घर के भीतर नहीं गई, रोबी उसे देखता ही रहा. उसका वह दिन
सुगंधित और अजीब सी अनुभूति दे गया. वह चुप था, वह ढीठ और खूब बोलने वाली थी. शाम
को जब सत्येन्द्रनाथ ज्योतिन्द्रनाथ के साथ बाहर गए, तो कादम्बरी उसके कमरे
में आई. रवीन्द्र मेज़ पर बैठा कागज़ पर कविता लिख रहा था.
“शुनो
रोबी...” रवीन्द्र ने पीछे मुड़कर देखा. उसके नेत्रों से अपार वेदना छलक रही थी.
नेत्रों में आकाशघन छाए थे.
“की होबे
छोटे भाभी?
और उसने कस
कर रोबी का हाथ पकड़ लिया. वह फ़ौरन कुर्सी से उठा. उसने रवीन्द्र को गले लगा लिया.
“की होबे, रोबे ना, की होबे?”
कुछ देर के
बाद उसने कहा:
“तू मुम्बई
जा रहा है? मैंने अभी-अभी सुना.” उसने कादम्बरी का हाथ छुडाने की ज़रा भी कोशिश
नहीं की. “सुना, कि तुम मुंबई से लंदन जाओगे और फिर कभी भूले-भटके कलकत्ता आया
करोगे!”
रोबी ने कुछ
नहीं कहा. उसके रोने का आवेग अब कम हो गया था. परिवार में देवेन्द्रनाथ नहीं रहते
थे, फिर भी द्विजेन्द्रनाथ, सत्येन्द्रनाथ, हेमेंद्रनाथ, वीरेन्द्रनाथ, ज्योतिन्द्रनाथ, पुण्येन्द्रनाथ.
सोमेंद्रनाथ अपनी अपनी पत्नियों के साथ रहते थे. बहनें विवाह करके चली गईं थीं.
महिलाएं ही एकसाथ मिलकर रहने वाली थीं. पुरुष विभिन्न कारणों से कलकत्ता जाते-आते
रहते. वैसे परिवार की ज़िम्मेदारी निभाने के लिए द्विजेन्द्रनाथ रहा करते थे.
सत्येन्द्रनाथ और द्विजेन्द्रनाथ रवीन्द्र की हर बात की फ़िक्र करते थे. विशेषत:
सत्येन्द्रनाथ और ज्ञानरंजनी रवीन्द्रनाथ को पुत्रवत् मानते थे.
वे बैठकखाने
में उसकी कलाकृतियों पर विचार करते, उसकी पढाई की व्यवस्था
भी वे ही करते थे. रवीन्द्र यह सब जानता था, इसलिए उसने कादम्बरी
से कहा:
“शुनो छोटी
भाभी...” वह कुछ भी सुनने की मनःस्थिति में नहीं थी.
“देखो भाभी, मैं पढ़ने के लिए जा रहा हूँ. जाना ही पडेगा, और वापस भी आऊँगा.
पढाई के लिए हरेक को ही इस तरह जाना पड़ता है. इसमें दुखी होने जैसी कोई बात नहीं
है.” उसने कह दिया, मगर वह जानता था कि यह
उसके लिए भी भारी होने वाला है. शारदा देवी की मृत्यु के बाद कादम्बरी ने ही उसे
संभाला था. उसका एकाकीपन दूर किया था. उसकी कथाएँ, कवितायेँ, लेख पढ़कर उनमें सुधार सुझाए थे. उसके पति ज्योतिन्द्रनाथ चित्रपट निर्माण
के कामों में व्यस्त रहते और अक्सर अनेक दिन बाहर रहते, इसलिए कादम्बरी भी
अकेली ही थी. समवयस्क होने के कारण दोनों में दोस्ती हो गई, और उस दोस्ती से कादम्बरी के मन में प्रेम उत्पन्न हुआ. ये अबोध, अनामिक
प्रेम दोनों को अच्छा लगता.
वह उसे
ठाकुर परिवार का इतिहास सुनाता. सभी शिक्षाप्रेमी, कलाप्रेमी और संपत्ति
तथा सत्ता के अधिकारी, अंग्रेजों से सामंजस्य
बनाए रखते हुए स्वधर्म, परंपरा, रीतिनीति को आघात पहुंचाए बिना, यथासंभव राष्ट्रहित के
लिए जितना संभव हो, कार्य करने वाला
अत्यंत धार्मिक परिवार, तो फिर रवीन्द्र भला कैसे पीछे रह सकता था? वह कादम्बरी को
समझा रहा था कि उसे भी उच्चशिक्षित होना ही पडेगा.
कादम्बरी यह
सब समझती थी, मगर अपने मन को समझा
नहीं पा रही थी. कुछ देर बाद वह उसके निकट से उठ गई. रवीन्द्र को समझ में नहीं आ
रहा था कि क्या करे. जब वह रो रही थी, तब उसके कंधे पर हाथ
रखकर उसे समझाये ऐसी इच्छा हो रही थी, मगर वह सिर्फ उसका
रोना देखता रहा. मन की भावनाएं मन ही में दबा रहा था. उसके जाने के बाद भी क्या
करे, यह न समझने के कारण सीने पर तकिया भींचे वह पड़ा रहा.
वह सोच रहा
था कि यहाँ रहकर शिक्षा ग्रहण करने वाले लोग कलकत्ता में हैं ही ना? तो सिर्फ प्रतिष्ठा की खातिर इंग्लैण्ड क्यों जाना है? वैसे भी हमारे परिवार में कुछ गिने चुने लोगों ने ही नौकरी की है. मैं भी
नौकरी न करके कोई व्यवसाय कर सकता हूँ...यह विचार उसके मन में पक्का बैठ गया और
रात में वह अनेक व्यवसायों के नाम याद कर रहा था. वैसे भी उसे किसी के नियंत्रण
में नौकरी करनी ही नहीं थी.
सुबह वह
सत्येनदा के कमरे में गया, वे बोले, “अच्छा हुआ जो तू आ गया, रोबी! तेरे ही बारे में बात कर रहा था. तुझे अच्छी
अंग्रेज़ी बोलना आना चाहिए, लिखना आना चाहिए, इसके अतिरिक्त तेरी कविताओं को अंग्रेज़ी में ही चारों तरफ़ प्रसिद्धी
प्राप्त होगी, इस दृष्टी से तुझे मुम्बई में तर्खडकर के यहाँ ले जाने का विचार
किया है.”
“और अगर मैं
यहीं रहकर पढूं तो?”
“नहीं, रोबी! हम अपने घर में खूब विद्वान होते हैं. अपना ही घर बहुत बड़ा है, यह समझने लगते हैं. परन्तु जब हम दुनिया को, दुनिया के लोगों को, उनके स्वभाव, उनके ज्ञान को देखते हैं, तो अपने आप को बहुत
छोटा महसूस करते हैं. इस घर का मोह मन से निकाल दे और विश्व कितना विशाल है, यह देख. इंसानों के स्वभाव का अध्ययन कर. तेरी कथाओं को, कहानियों को अनुभूति के असीमित आकाश की आवश्यकता है.”
“मगर
सत्येनदा...”
“तुझे आना
ही पडेगा, रोबी. डॉ. तर्खडकर के यहाँ तुझे कम से कम तीन महीने रहना ही है. फिर
वहाँ से तुझे सीधे इंग्लैण्ड जाना है?”
“सीधे?”
“हाँ, सीधे. क्योंकि यहाँ आने पर घर के ऐशोआराम में फंस जाओगे और तुम्हारी बड़ी
भाभी ज्ञानरंजनी कहेगी, “यहीं रहो, रोबी, तुम्हारे बिना घर
सूना-सूना लगता है. खूब लाड करवाओगे अपने. अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी संभालने की उम्र
हो गई है. क्योंकि तेरी उम्र बढ़ रही है, जल्दी ही शादी के लायक
हो जाएगा.”
“जब ससुराल
के लोग पूछेंगे, तो तुझे बताना होगा कि
तू इंग्लैण्ड से आया है, पढ़ाई करके. समझ गया ना?”
रवीन्द्र
समझ रहा था, सिवाय मजबूरी भी थी. वह आगे कुछ कह भी नहीं
सकता था. सत्येन्द्रनाथ मन ही मन उसकी स्थिति समझ गए. मगर उन्होंने कुछ कहा नहीं. भविष्य
रवीन्द्र को आगे खींच रहा था, और कादम्बरी पीछे खींच
रही थी. परन्तु सत्येनदा का हाथ पकड़कर आगे जाना था, वह बोला:
“बड़े दा, तीन महीने बाद, इंग्लैण्ड जाने से
पहले, मैं यहाँ आऊँगा, सबके आशीर्वाद लेकर
जाऊंगा, क्या यह संभव है?”
सत्येन्द्रनाथ
के ‘हाँ’ कहते ही रवीन्द्र का मन हल्का हो गया.
उस दिन मुम्बई
के लिए निकलने तक रवीन्द्र कादम्बरी के आसपास ही था, बल्कि वह खुद ही उसे पल भर के
लिए भी नहीं छोड़ रही थी. उसके कपड़े, उसकी किताबें, उसके उपयोग की वस्तुएं याद से बक्से में भर रही थी. एक कसीदा किया हुआ
रूमाल भी उसने बक्से में रखा.
“रोबी, क्या तू मुझे भूल जाएगा? तुम्हारे बिना सचमुच
में मेरे जीवन का कोइ महत्त्व नहीं है. तुम थे, इसलिए मुझे जीवन
सुन्दर प्रतीत होता था. तेरे जाने के बाद सब वीरान हो जाएगा.”
पहली ही बार
रोबी ने उसके कंधे पर हाथ रकहते हुए कहा, “छोटी भाभी, मैं तुम्हें कभी भी
नहीं भूल सकता. भाभी के रूप में, सखी के रूप में तुम हमेशा मेरे मन में रहोगी,
चाहे कभी भी जाऊं, कहीं भी क्यों न जाऊं.
तुम्हारी कसम!”
कादम्बरी ने
उसे बांहों में भर लिया. परन्तु उसके हाथ दूर करने की बात रोबी के मन में नहीं आ
रही थी. मन ही मन वह ध्वस्त हो चुकी थी. रवीन्द्र यह बात समझ रहा था, परन्तु भविष्य का मार्ग उसे आगे खींच रहा था और सत्येन दा की अवज्ञा करना
उसके लिए कदापि संभव नहीं था.
सत्येनदा के
साथ वह घोड़ागाड़ी में बैठा. उसने ठाकुरबाड़ी की सभी खिड़कियों पर नज़र दौड़ाई, परन्तु उसे कादम्बरी दिखाई नहीं दी, तब मन ही मन उसने एक सिसकी ली.
घोडागाडी आगे जा रही थी और कादम्बरी तथा उसके बीच का अंतर बढ़ता जा रहा था.
******
No comments:
Post a Comment