13
अभी सुबह भी नहीं हुई थी.रवी
बाबू पद्मा नदी के किनारे पर खड़े थे. अब समूचे आकाश में उजाला होने लगा था. केसरी
रंग हल्के-हल्के पूरे आकाश में स्थिर हो गया था. अत्यंत शांत पद्मा नदी के जल को
समीर ने हौले से स्पर्श किया. नदी की लहर हौले से जाग उठी, मानो
कमलिनी ने धीरे से अपने नेत्र खोले हों. पूरब की ओर गहरे केसरी रंग का प्रासाद
तैयार हो गया और क्षितिज से उस प्रासाद तक अरुण का सुवर्ण रथ आकर ठहर गया. गहरे
केसरी रंग में सुनहरा रंग मिल गया और उसमें मिल गयी सूर्य देव की अलौकिक
तेजस्विता...
सम्पूर्ण चराचर जाग उठा. पंछी आकाश की ओर उड़ने लगे...
अर्धोन्मीलित कलियाँ खिल उठीं, वन की गंध लेकर चंचल समीर दिशादिशाओं में दौड़ने लगा.
“रवी बाबू,” नाव चलाने वाला सुबन्धु नाव लेकर आया था. रवी बाबू होश
में आये. अब उसने रवीन्द्र का आदरणीय नाम रवी बाबू सहर्ष स्वीकार कर लिया था.
“नाव तैयार है.”
“आज हमें नाव चलाना सिखाओगे?”
“बाबू मोशाय यदि आप नाव चलाना सीख जायेंगे तो हमारा क्या
होगा? नाव में जाते हुए आप जो सुन्दर बातें कहते हैं, वे मैं कैसे सुन सकूंगा? आपके साथ नाव में जाना बहुत
अच्छा लगता है, मगर कैसे, यह मैं न बता सकूंगा. आप आनंद से रहो. मैं चलाऊंगा.”
“हमें भी तुम्हारा गीत बहुत अच्छा लगता है. ऐसे ही सीख
जाऊंगा मैं. मगर हमेशा तुम ही चलाना.”
“बाबू मोशाय, ये गीत जो मैं गा रहा हूँ, ये तो वही है जो आप गाते
हैं. आपकी आवाज़ बहुत सुन्दर है, बाबू मोशाय.”
रवीबाबू नाव में बैठे. नाव थोड़ी सी हिली. वे संभल कर
बैठे. वह भी अब खुल गया था.
“सुबन्धु, घर में कौन कौन है?”
सुबन्धु ने फ़ौरन जवाब नहीं दिया.
“क्या रे, क्या हुआ?”
“बाबू मोशाय, न केवल मेरी नारियल के पत्तों की
झोपडी, बल्कि गाँव की सौ कच्ची झोपड़ियाँ
बह गईं. आकाश से गिर रही धार सब कुछ बहा कर ले जा रही थी. मेरा छोटा...”
“क्या हुआ उसे?”
“वह बह गया, इच्छामती नदी में...”
“अरेरे...बाकी लोग, तेरा परिवार कहाँ है?’
“हुरी नगर में. वहाँ के मंदिर में
कुछ लोगों की व्यवस्था हुई है. मेरे छोटे के साथ गाँव के पांच-छः लोग भी बह गए.
वैसे भी गाँव में पचास ही झोपड़ियां थीं.”
“चल, तेरे हुरी नगर जायेंगे, नाव को इच्छामती की ओर मोड़.”
“बाबू मोशाय, आप वहाँ नहीं जा
सकेंगे.”
रवीन्द्र ने हाथ से उसे इशारा
किया. पद्मावती का प्रवाह अब इच्छामती की ओर मुड़ गया था. कीचड़ के कारण नाव दूर खड़ी
थी. कीचड़ में से एक-एक कदम बढाते हुए वे किनारे तक आये. तब भी कीचड़ समाप्त नहीं
हुआ था. दोनों तरफ़ झोपड़ियों की कतारें थीं, एक दूसरे से सटी हुई. उनके बीच से एक
छोटा सा रास्ता जाता था, इतना छोटा की उस
पर सिर्फ चार-पांच व्यक्ति ही एक कतार में चल सकते थे, सिर्फ पैर भीतर डूबे इतना
ही गहरा. सुबन्धु ने उनके एक हाथ में डंडा दिया और दूसरा हाथ खुद पकड़ा. वास्तव में
सुबन्धु को उनका हाथ पकड़ने में संकोच हो रहा था, उसने कहा भी,
“बाबू मोशाय, हमें वापस लौटना चाहिए, वहां जाना कठिन है.” मगर वे चलते रहे. तब मजबूर होकर उसने रवी बाबू का हाथ
पकड़ा. वह भी दूसरे हाथ में डंडा पकड़े ही चल रहा था.
जब वे हुरी नगर के मंदिर के निकट
पहुंचे तब सबको रवीबाबू का परिचय देते हुए सुबन्धु ने कहा,
“ये बाबू मोशाय, बड़े ज़मींदार बाबू के सबसे छोटे बेटे. यहाँ तुम सबको देखने
आये हैं.”
रवी बाबू का उनकी ओर ध्यान गया, दुर्गामाता के मंदिर के गर्भगृह और मंडप में एक दूसरे से
सटे हुए लगभग पचास-साठ स्त्री पुरुष बैठे थे, अपना सर्वस्व खोकर दीन हीन दशा में. एक व्यक्ति सबको चावल की कांजी दे रहा
था. लोग उस ठण्डी
कांजी को अपनी अंजुली में ले रहे थे. यह दृश्य देखकर रवी बाबू को अतीव दुःख हुआ.
पांच-छः दिन पूर्व आये तूफ़ान से सुबन्धु का गाँव बर्बाद हो गया था. यहाँ, इस गाँव में भी बारिश हुई
थी, खेत बह गए
थे, फिर भी
अपने ग्रास से दूसरों को ग्रास देने की यहाँ की संस्कृति देखकर उनका मन भर आया.
उन्होंने गाँव के मुखिया से कहा,
“ बंधू, मैं कुछ रुपये देता हूँ. बारिश आई, सब कुछ लेकर गई, मगर
सियालदह से अनाज, कपड़े और ज़रूरत का सामान ले आइये.” उन्होंने जेब में हाथ
डालकर कुछ रुपये निकाले, तभी एक महिला दर्द से चीखी.
वह पांच माह की गर्भवती थी, अब ये लोग क्या करेंगे, यह
विचार उनके मन में आया. तभी चार महिलाएं उसे सहारा देकर एक झोपडी में ले गईं.
सारा दृश्य हृदयद्रावक था. एक व्यक्ति लगातार खांसे जा
रहा था. एक को बेहद सर्दी लग रही थी, एक तेज़ बुखार में तप रहा था. वह मुखिया उस छोटे से गाँव
की ज़िम्मेदारी लेकर जिस तरह से कोशिश कर रहा था, वह देखकर रवी बाबू की आंखें
भर आईं.
“सुबन्धु, मुखिया से कहकर अभी इन लोगों के खाने की और
रहने की अस्थाई व्यवस्था करो. हमने पैसे दिए हैं.”
जब वे सुबन्धु के साथ वापस लौटे तो शाम गहरा गई थी.
रामसेवक दोपहर से उनकी राह देखते हुए किनारे पर खड़ा था. घिर आये आकाश को देखते हुए
वह बोला,
“रवी बाबू अब मैं जाऊँ भी तो कैसे? नाव आई नहीं थी, मैं बेचैन था.”
रवीबाबू किनारे पर बात कर ही रहे थे, कि तेज़ बारिश होने लगी. रामसेवक रिक्शा
लेकर खड़ा था.
“सुबन्धु, तुम कहाँ जाओगे?”
“मैं वापस जाऊंगा.”
“नहीं...नहीं, ऐसी बारिश में मत जाओ,” परन्तु वह नाव की ओर मुड़
गया था. रामसेवक ने उसे पुकारा, शायद उसे सुनाई नहीं दिया. वह नाव खेते हुए
आगे-आगे जा रहा था. रवीबाबू मन ही मन बहुत चिंता कर रहे थे. मन में प्रार्थना कर
रहे थे कि वह सकुशल हुरीसागर पहुँच जाये. वैसे हुरीसागर तीन कोस दूर था. पूरी तरह
भीगा हुआ रामसेवक हाथ रिक्षा खींच रहा था, यह देखकर भी उन्हें दुःख हो
रहा था.
“रामसेवक, अब तुम जाओ.”
“ऐसे कैसे जाऊं? माँ है ना आपके बंगले पर. आनंद है. वहीं
रुक जाऊंगा; मगर वहां मेरी पत्नी और बच्चे हैं, वे मेरी फिकर करेंगे. घर
नहीं पहुंचा, तो चिंता करेंगे.”
“तो फिर यहीं से चला जा, हम एक कोस चलकर जायेंगे.”
“क्या ऐसा कभी हो सकता है? मैं छोड़ता हूँ आपको, नहीं तो मेरे माथे पर पाप
चढ़ेगा. बंगले के फाटक तक छोडूंगा, ठीक है ना?”
वह सुनने वाला था ही नहीं. आजका दिन अजीब था. वे घर
पहुंचे. खाना खाया. बारिश अभी भी निरंतर हो रही थी. कोई और समय होता तो उन्होंने
इन वर्षा धाराओं पर कविता लिखी होती. मृणालिनी का स्मरण करके इस गीली रात को लिए
उसके पास गए होते. कभी एना के समुद्र किनारे के बंगले में मन ही मन उससे मुलाक़ात
का उत्कट आनंद उठाया होता. मगर आज वैसी बात नहीं थी. मीठे गुलाबी सपने में रंगी
हमेशा की रात से आज की रात अलग थी. बहुत अलग थी.
ठाकुरबाड़ी के जोड़ोसान्को का वह भव्य परिसर, उसमें बहुत सारे सेवक, बैठकखाने में एकत्रित लोग, आनंदपूर्ण संगीत की महफ़िल,
नाटकों के प्रयोग और कविताओं का सादरीकरण, कभी देश-पर्यटन, कभी ब्रिटेन की यात्रा, स्वप्नवत् था उनका जीवन.
रवीबाबू के मन में विचार आया, ‘आज सच्चे अर्थों में जीवन
का और भारतीय जीवन का दर्शन हुआ है. दूर दूर तक फैला हुआ विशाल भारत, और कुछ ही प्रत्यक्ष लोगों
के आधार पर हम अंग्रेजों के विरुद्ध, उनके शासन के विरुद्ध लिखते आये हैं. वह सब सतही था.
सहस्त्रों गाँवों से निर्धनता की चरम सीमा से संघर्ष कर रहा है भारत. जिसे कुछ ही
भारतीय नेता समझ पाए हैं. इसलिए अंग्रेजों के न केवल शहरी अत्याचार, अपितु उनके शासन को भी
उखाड़कर उन्हें वापस भेज रहे हैं ये नेता लोग. यदि आज का भीषण दृश्य वे देखते तो न
जाने क्या करते. कल्पना ही नहीं कर सकते.
मामूली भोजन, रहने की जगह, वस्त्र भी आज उनके पास नहीं, ऐसे लोगों को अपने ग्रास
में से ग्रास देने वाले भारतीय, और निर्धनता की गहरी खाई में होते हुए भी उन पर उबलता
पानी डालने वाले अंग्रेज़, और आज तक आंखों पर सुख की, सौन्दर्य की पट्टी बांधे
हम. आज सचमुच में समझ में आ रहा है तथागत बुद्ध का मार्ग. राजवैभव छोड़कर एकांतवास
में विश्वसौख्य का मार्ग ढूँढने वाले सिद्धार्थ के जीवन का अर्थ, आज समझ में आ रहा है –
‘अन्न ही परब्रह्म’ का अर्थ, जीवन का अर्थ.’
रात बीत रही थी. बारिश एक लय में हो ही रही थी.
ठाकुरबाड़ी के सुरक्षित, पक्के घर में बारिश का स्वागत होता था. मगर इस समय
सिर्फ पद्मा नदी की उफनती लहरें और उसके आसपास के गाँवों का ही विचार मन में था.
वे उठे, लालटेन की
बत्ती को ऊपर किया, और उन्हें याद आया कि उन्होंने अपनी गीली कमीज़ तो उतारी
ही नहीं थी. कमीज़ हाथ में लेने पर उन्हें उसकी जेब कुछ भारी महसूस हुई, और याद आया की उस गाँव के
मुखिया को देने के लिए रुपये निकाले तो थे, परन्तु वे जेब में वैसे ही
रह गए थे.
रवीबाबू थरथरा गये. इतनी बडी गलती मुझसे हुई कैसे, इसका उन्हें आश्चर्य हुआ. परन्तु अब आधी रात बीत चुकी थी, मजबूरन सुबह तक रुकना होगा.
पूरी रात इस अक्षम्य अपराध के लिए वे स्वयँ को कोसते रहे.
सुबह बारिश रुक गयी थी. वे उठे. रामसेवक के यहाँ आने से
पहले खुद ही उसके घर तक जाने के उद्देश्य से वे निकले. रात की बारिश के कारण
रास्ते पर कीचड़ था. कहीं कहीं पत्थर भी ऊपर आ गए थे. आज की सुबह खिलती हुई अत्यंत
प्रसन्न कली जैसी थी, फिर भी इस ओर उनका ध्यान नहीं था. वे नीचे देखते हुए
जल्दी-जल्दी चलने का प्रयत्न कर रहे थे. रामसेवक का घर गाँव में चार-पांच कोस दूर
था. रामसेवक कहाँ रहता है, इसका कुछ अंदाज़ उन्हें था. सियालदह की हर गली में पूछते
हुए उन्होंने उसका घर ढूंढा. रामसेवक बाहर आया. अत्यंत संकोच से उसने पूछा,
“रवी बाबू, आप? इतनी सुबह? और मेरे घर?”
“कल हम मंदिर में एकत्रित हुए निराश्रित लोगों के लिए
मुखिया को कुछ पैसे देने वाले थे. तभी एक गर्भवती स्त्री कराही. अनजाने में हमने
पैसे वापस जेब में रख लिए. हमें अपराध बोध का अनुभव हो रहा है.”
“क्या मैं ले जाकर दे दूं?”
“नहीं, हम ही देंगे. क्षमा भी मांगेंगे. परन्तु हमेशा की तरह
सुबह आने वाला सुबन्धु नाव के साथ दिखा नहीं, और वहां कोई और नाव भी नहीं
थी. इसलिए, यह पूछने
के लिए आया हूँ, कि हुरीसागर कैसे जाना है?”
“आप मेरी झोपड़ी के द्वार तक आये हैं, कृपया भीतर आइये, चाय लीजिये.”
रवी बाबू झोपड़ी के अन्दर गए. एक कमरे का संसार. चार-छः
बर्तन, चार-छ:
कपड़े, दो बच्चे और वे दो – पति-पत्नी. बच्चे चादर पर सो रहे थे. वे सकुचाते हुए
बैठ गए. काले चूल्हे पर काले पड़ गए बर्तन की काली चाय किसी तरह पी और उन्हें उनके
ही घर में दादी के साथ रहने वाले आनन्द की याद आई. वह छोटी-छोटी बातों से आनंद
उठाता था. परन्तु जब तक ज्ञान नहीं – ज्ञान का आनंद भी नहीं उठा सकते.
“रवी बाबू, क्या दोपहर तक राह देखें?”
“नहीं, नहीं, दोपहर तक नहीं.”
“खूब तेज़ बारिश होने के बाद अक्सर कोई नाव चलाता नहीं
है.”
आखिर रामसेवक उनके लिए एक नाव चलाने वाले को बुलाकर
लाया. रात को पद्मा नदी के किनारे से आती हुई नाव पर सब जगह मिट्टी चिपकी हुई
थी.
रामसेवक के साथ वे नाव में बैठे.
पद्मा नदी में इच्छामती के प्रवाह से स्वयं को संभालते हुए वे उस मंदिर तक पहुंचे.
मुखिया और अन्य लोग भागकर आये.
“क्या सुबन्धु आया है?”
“मतलब?”
“कल आपके साथ वह सियालदह गया था, तब से नहीं आया.”
रवीबाबू को याद आया, घनघोर बारिश के
होते हुए भी वह नाव लेकर निकला था. रवीबाबू ने कुछ नहीं कहा.
“कल हम कुछ पैसे देने वाले थे, निकाले भी थे,
परन्तु गलती से जेब में ही रह गए. अनजाने में गलती हो गई.”
मुखिया की तथा अन्य लोगों की आंखें
भर आईं. कुछ देर किसी ने कुछ नहीं कहा. रवीबाबू ने पूछा,
“कल वाली महिला का क्या हुआ?”
“वह चल बसी और शिशु भी. उन्हें
अग्नि देने के लिए सूखी लकडियाँ नहीं मिल रही थीं. इसलिए मजबूरन इच्छामती के
स्वाधीन करना पड़ा. सुबन्धु की पत्नी भी बेहोश हो गई थी, अब ठीक है. मगर वह...”
“वह शायद...” और रवी बाबू
बोलते-बोलते रुक गए. उनकी भी आंखें अनजाने में भर आईं. “शायद उसे भी इच्छामती
ने...”
सभी मौन हो गए...बोलने जैसा था ही
क्या?
रवी बाबू वापस लौटे. मन में
विचारों का कोलाहल मचा था. बलपूर्वक सभी गाँवों पर कर लगाने वाली और वसूल करने
वाली सरकार की हम भी एक प्रकार से सहायता ही कर रहे हैं. किसी भी प्रकार की सुविधा
नहीं. भीषण गरीबी के घने अन्धकार में जीने वाले ये लोग. आखिर वे इंसान ही हैं
ना...?
आज तक हमने ठाकुरबाड़ी की भव्य
अलमारी में रखी किताबों से अथाह शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त किया. वेदों, उपनिषदों का अध्ययन किया. देश-विदेश में घूमे. परन्तु
वेदनाओं के वेद आज ही सीख पाए. उपनिषदों के अर्थो पर हमने विचार किया, परन्तु जीवन का
अर्थ आज ही समझ पाए. ऋषि
मुनियों द्वारा अरण्य में जाकर लिखे गए ‘अरण्यकों’ का अध्ययन हमने बैठकखाने में
किया. आज वेदनाओं के ‘वेद’ लिखना होगा, तभी मेरे जीवन का प्रयोजन सफल होगा. हमारी कथाओं, कविताओं, नाटकों पर आधारित प्रकृति
के चित्र भी बैठकखाने में बनाए थे. ठाकुरबाड़ी की खिड़कियों से झांकता रंगबिरंगी
आकाश, नारियल के
वृक्ष, खिलती हुई
प्रकृति...इस मखमली राह पर हम चलते रहे, घना अन्धकार कभी देखा ही नहीं. उस घने अन्धकार में हमने
देखे केवल स्वच्छ आकाश के झूमर जैसे चमचमाते नक्षत्र.
पद्मा नदी में नाव से जाते हुए
सुबन्धु का गाया हुआ गीत, उन्हींकी कविता, उनकी ही धुन में सुनते हुए वे प्रसन्न होते. आकाश - कभी प्रभात का, कभी मध्याह्न का, कभी संध्याकाल का. नाव से जाते हुए किनारे की हरियाली में
छुपे हुए छोटे-छोटे कबेलू के घर, उनकी नाव के
साथ-साथ चलती हुई अन्य नौकाएं, उनमें बैठे हुए
सीधे-सादे ग्रामीण लोग, एक दूसरे को आवाज़
लगाते, विविधता से सजी हुई प्रकृति, ये सब आज तक उन्होंने देखा था, कवितायेँ भी लिखी थीं, परन्तु जीवन में
इतनी सारी व्यथा, वेदना मन में समाए
जीने वाले और मासूम लोगों का अनुभव उन्हें आज ही हुआ था.
सियालदह से तीन चार कोस दूर, हरियाली में छुपा हुआ उनका दुमंजिला मकान था. सभी सुख
सुविधाओं से युक्त. परन्तु इंसानों के बिना – सूना सूना, उदास. आज तो वह घर उन्हें निराशा के गर्त में ले गया. किसी से यह सब कहने का
मन हो रहा था, इसलिए वे हाथ
में कागज़ और पेन लेकर बैठे. उन्होंने पत्र
लिखना आरंभ किया.
“प्रिय बाबा,
आज मुझे जीवन का सन्दर्भ सहित अर्थ समझ
में आया, और मेरे जीवन का प्रयोजन भी. आज तक सुख की कल्पना मेरे लिए मृणालिनी, बच्चे, परिवार से अलग नहीं थी.
बाबा, आपने मुझे यहाँ, सियालदह में ज़मीन के काम से
भेजा. ये आपका उपकार ही है. अन्यथा मैं दुःख, वेदना, व्यथा को इतनी तीव्रता से
जान ही न पाता. कादम्बरी की मृत्यु का भयानक आघात सहते हुए मेरे मन को अत्यंत
वेदना हुई. परन्तु यहाँ आकर मैंने जाना कि दुःख क्या होता है. उपचार के अभाव में
मृत्यु को प्राप्त हुई उस गर्भवती महिला का करूण रुदन, सुबन्धु के जाने के बाद
उसके परिवार की दयनीय दशा, यह सब देखकर मन भर आया था.
शायद आपने भी यह सब देखा है, इसीलिये शायद आप प्रवृत्ति
से निवृत्ति तक गए. शायद आगे चलकर मैं भी आप ही के मार्ग पर जाऊं.”
उन्होंने पत्र पढ़ा और उन्हें प्रतीत हुआ कि जलनौका में
रहने वाले, ‘महर्षि’ की उपाधि को सार्थक करने वाले देवेन्द्रनाथ को जीवन की
संध्या बेला में क्यों कष्ट दिया जाए...? और उन्होंने वह पत्र फाड़ दिया. मन में
प्रसन्नता लिए ही अब औरों के लिए जीना है, दूसरों के लिए ‘do good
for others’ – यही होगा जीवन का मन्त्र.
बस.
वे प्रसन्नता से हंसे. आज उन्हें जीवन का अर्थ और सुर
मिल गया था. मानवी मूल्यों का बोध हो गया था. अनेकानेक वर्षों से वन में रहकर समाज
के हितों के लिए प्रयत्नरत ऋषिमुनियों की महानता नए सिरे से समझ में आई थी. ऋषियों
ने आयुर्वेद क्यों और कैसे खोजा. वे वनस्पतियों के उपचार कैसे सीखे. धूप, हवा, वर्षा, हिमकाल को उन्होंने कैसे
सहन किया, प्रकृति से कैसे मैत्री की. परिश्रम पूर्वक अर्जित करते हुए उन्होंने
सृष्टिकर्ता के आभार माने. इस बात का रवी बाबू को नए सिरे से अनुभव हुआ.
और, समझ में आया वेदों का अर्थ. समझ में आई उपनिषदों की
महानता. ‘आरण्यक’ शब्द का सन्दर्भ सहित अर्थ समझ में आ गया था. आयुर्वेद
की आवश्यकता का अनुभव हुआ. अब कलकत्ता जाकर आयुर्वेद की पुस्तकें पढ़कर इन लोगों पर
जैसे संभव हों, उपचार करना है ऐसा निश्चय उन्होंने किया.
देवेन्द्रनाथ के जीवन का अर्थ भी उन्हें समझ में आ गया. सर्वसौख्य
प्राप्त होने पर भी वे अध्यात्म की तरफ़ क्यों मुड़े, यह भी समझ में आ गया, और उनके जीवन का अर्थ अब हरेक
कृति से सिद्ध हो, ऐसा प्रयत्न करने का निश्चय किया. व्यथा, वेदना ही जीवन के तत्वज्ञान
को प्रकट करती हैं, इसका नए सिरे से अनुभव हुआ. उन्हें अरण्य आश्रम में रहने
वाले वाल्मीकि ऋषि का स्मरण हुआ जो बाण से आहत क्रौंच को देख कर बेचैन हो गए थे.
संवेदनाओं का प्रवाह ही उनके भीतर जागृत हो गया और उनके मुख से सहज उद्गार निकले:
मा निषाद
प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी
काममोहितम् ।।
और फिर उन्होंने युगों युगों
तक समाज के लिए आदर्श श्रीराम का चरित्र लिखा. इस सुख दुःख के परे मानवी संवेदनाओं
का विराट रूप है इसका उन्हें अनुभव हुआ.
और देवेन्द्रनाथ ने मेरा कवि
हृदय पहचानकर ही मुझे यहाँ भेजा होगा,
इसकी सुखद अनुभूति हुई.
वास्तव में जब ब्राह्मो समाज
के सचिव के रूप में उन्हें चुना गया था,
तो देवेन्द्रनाथ ने उनसे कहा था,
“रोबी, ब्राह्मो
समाज की स्थापना हमारे पिता, द्वारकानाथ ठाकुर और राजा राममोहन राय जैसे समाज
सुधारकों ने सन् 1828 में की. हम भी थे उसमें. राजा
राम मोहन राय द्वारा सन् 1815 में स्थापित ‘आत्मीय सभा’ नामक स्थापित
इस मंडल का नाम आगे चलकर हमने और केशवचंद्र सेन ने बदलकर ‘ब्राह्मो समाज’ रख दिया. मुझे इस बात की
खुशी है कि अब तुम इस संस्था के सचिव हो गए हो. उसके मूलभूत सिद्धांत तुम्हें और
मुझे भी स्वीकार हैं. ईश्वर एक है. आत्मा अमर है. अहिंसा महत्वपूर्ण है. बौद्धिक ज्ञान आवश्यक है. समाज की अनिष्ट
रूढ़ियों को दूर करना,
किसानों,
मज़दूरों के हितार्थ काम करना,
और पाश्चात्य सभ्यता की अच्छी बातें स्वीकार करना - संस्था के इस उद्देश्य को तुम आगे ले जाओगे, इसका हमें पूर्ण विश्वास
है.”
विश्वासपूर्वक दी गई यह
ज़िम्मेदारी अब रवी बाबू को निभाना थी. उसे निभाना ठाकुरबाड़ी में संभव हो सका था.
इसी दौरान ‘छवि ओ गान’
, ‘भानुसिंह ठाकुरेर पदावली’
और ‘शैशव संगीत’ – ये कविता संग्रह प्रकाशित हुए थे. ‘प्रक्रुतीर प्रतिरोध’ और ‘नलिनी’ नाटकों का लेखन और उनका
प्रयोग भी भव्य बैठकखाने में किया गया था.
सचमुच, ठाकुरबाड़ी के वे दिन सुनहरे
पंखों वाली तितली की तरह गतिशील हो गए थे और मृणालिनी का मधुर सहवास भी था.
कादम्बरी के निधन के बाद मेरा अंतःकरण सिर्फ मेरा था. मन के सप्त पाताल में दो
खाली कक्ष थे. उनमें कादम्बरी और एना रहती थीं. उन दोनों को भूलकर हम मृणालिनी का
मनःपूर्वक स्वागत कर रहे थे और वह भी साथ दे रही थी. उनके मन में यह विचार आया.
कितनी शीघ्रता से जा रहे थे
दिन. देवेंद्र्बाबू को कोई काम था और सिर्फ रवीबाबू खाली थे. वे देवेन्द्रनाथ सहित
मुम्बई गए,
केवल साथ देने के लिए. बांद्रा में उनका वास्तव्य था. अरब सागर का दर्शन वे नित्य
ही किया करते थे. वे दिन उन्हें बहुत प्रिय थे.
अथाह सागर देखते हुए उन्हें
निराकार ईश्वर की अनुभूति हुई. उस निराकार ईश्वर के प्रति उनका मन भर आया. मुम्बई
में उनके वास्तव्य के दौरान 28 दिसंबर 1885 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की
स्थापना हुई. भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हो, वर्तमान परिस्थिति में अंग्रेजों द्वारा भारतीय जनता
से छीन लिए गए अधिकार उन्हें वापस प्राप्त हों, भारतीय नेताओं के अपने अधिकार हों, उनके पास लिखने का, बोलने का, स्वतंत्रता के लिए संघर्ष
करने का अधिकार हो इस उद्देश्य से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई. अनेक
प्रख्यात कार्यकर्ताओं के साथ. उसमें 72 सदस्य थे. देवेन्द्रनाथ और रवी बाबू उस समय मुम्बई
में थे. ए. ओ. ह्यूम,
दादाभाई नौरोजी,
दिनशा वाचा,
और अध्यक्ष थे व्योमेशचंद्र बैनर्जी. देवेन्द्रनाथ को भी उसमें उत्सुकता थी, कार्य करने की इच्छा थी, परन्तु वह अब उनके बस का
कार्य नहीं था,
इसलिए वे रवीबाबू के साथ वापस कलकत्ता के लिए निकले.
मुम्बई से कलकत्ता यात्रा के
दौरान रवी बाबू बहुत प्रसन्नता का अनुभव कर रहे थे. मन में कथा, कविता, नाटकों की कल्पनाएँ घूम रही
थीं और उन कल्पनाओं पर आधारित ‘राजर्षि’
नामक लघु उपन्यास लिखकर सचित्र मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुआ. उसी समय
‘रविच्छाया’
नामक कविता संग्रह भी प्रकाशित हुआ.
उस समय उन्हें इस बात का
अनुभव हुआ कि वे कभी भी हाथ में शस्त्र उठाकर नहीं लड़ सकते, या लोकमान्य तिलक जैसा
तीव्र भाषण भी नहीं दे सकते. उनकी प्रवृत्ति प्रकृति प्रेम की, सौन्दर्य की, स्नेहभाव की है. प्रत्येक
व्यक्ति में ‘मनुष्य’
ढूँढने की,
मानवता की है.
माधुरीलता का जन्म हुआ और एक
बार फिर उनके मन में विचार आया कि वह परिवार पर नितांत प्रेम करने वाले हैं.
राजकीय परिस्थिति पर केवल शब्दों के माध्यम से निषेध प्रदर्शित कर सकते हैं.
कविता संग्रह ‘कोरी ओ कोमल’ प्रकाशित
होने के बाद तो यह धारणा और अधिक दृढ़ हो गई.
‘इंडियन असोसिएशन फॉर द
कल्टीवेशन ऑफ़ सायंस’
नामक संस्था में उन्होंने जो भाषण दिया वह था ‘हिन्दू विवाह’ के सन्दर्भ में. भारतीय
हिन्दू धर्म के सोलह संस्कार माने जाते हैं, जिनमें ‘पाणिग्रहण’ नामक संस्कार ‘हिन्दू विवाह’ के नाम से परिचित है और
उसे महत्त्व तथा कानूनी आधार हो,
इस सन्दर्भ में उनका भाषण एक संशोधन का विषय था.
रवीबाबू सियालदह के घर की
दूसरी मंजिल की खिड़की के पास वाली मेज़ के निकट कुर्सी पर बैठते तो दूर से उनका साथ
देती पद्मा नदी की उजली रेखा, हरी-हरी वनस्पतियाँ और कल्पनातीत सुन्दर यादें.
सुबन्धु की मृत्यु के बाद
कविता भी मौन हो गई थी. मानो अतीव दुःख से शब्द भी मौन हो गए हों.
रवीबाबू को याद आया कि माधुरीलता
के जन्म के बाद,
जिसे मृणालिनी ने ‘बेला’
– यह महकता नाम दिया था, वे किसी न किसी कारण से पत्नी के साथ सोलापुर गए,
पुणे गए,
मुम्बई गए. इस महाराष्ट्र यात्रा के दौरान शिवाजी महाराज की महत्ता से परिचित हुए.
एना के कारण तुकाराम महाराज को जाना था. कलकत्ता पहुंचते-पहुंचते अनेक कवितायेँ तैयार हो गईं थीं. प्रत्येक शब्द
काव्यरूप में अवतरित हो रहा था. हर स्थान की प्रकृति से वे मोहित होते. मानो
अलंकारों से सुसज्जित कोई नवयौवना धीरे धीरे पाँव रखती हुई आए, और उसकी पगध्वनी ही
आश्चर्यचकित कर दे,
वैसा ही रवीबाबू को अनुभव हो रहा था. घनी-हरी प्रकृति, झरझर बहते झरने, झरझर गिरती वर्षाधाराएं देखकर वे मोहित हो गए थे.
महाराष्ट्र उन्हें मन से प्रिय हो गया था. देवेन्द्रनाथ, केशवचंद्र सेन के
प्रबोधनकारी आन्दोलन का महाराष्ट्र में भी आदर था.
न केवल महाराष्ट्र में अपितु
भारत में उस समय तीन धाराएँ प्रवाहित हो रही थीं : एक - सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग, दूसरा - अहिंसा का मार्ग और
तीसरा - प्रबोधन मार्ग. राजा राममोहन राय ने सती प्रथा बंद करवाई थी, तो
माहाराष्ट्र में ज्योतिबा फुले और महर्षि कर्वे ने स्त्री-शिक्षा का प्रारंभ किया
था. ऐसे समय में रवी बाबू की यह भूमिका थी, कि सामाजिक सुधार होना चाहिए, देश में
शिक्षा से जागृति होना चाहिए.
और इस उद्देश्य से, जैसे पहले आये थे, उसी तरह अब भी रवी बाबू
महाराष्ट्र में आये थे. सोलापुर में सत्येनदा के प्राध्यापक विट्ठल गोविन्द करकरे
के यहाँ एक महीना रहे थे. एक दिन विट्ठल राव की पत्नी ने पूछा,
“आप दोनों दिल लगाकर खाना
खाते हो. बंगाली खाना,
बंगाली भाषा,
बंगाली लोग मीठे होते हैं,
और यहाँ तो सब कुछ तेज़ मिर्च वाला,
आदमी मज़बूत,
भाषा भी मुलायम नहीं...कैसे करते हैं आप?”
मृणालिनी हंसी, सिर्फ रवी बाबू ने कहा, “जहाँ स्नेह है, जहाँ के पहाड़ मज़बूत हैं, जहाँ पानी भी कम है, वहाँ यदि अपनेपन का झरना हो
तो हर चीज़ अच्छी लगती है. जहां तक मिर्च की बात है, तो बंगाल में हरेक आदमी का
खून इतना उबलता है, कि क्रांतिकारी संगठन की अपेक्षा यह मिर्च ज़्यादा अच्छी
है, इससे
सिर्फ जीभ ही जलती है. उसे पानी पीकर शांत कर सकते हैं, शकर भी खा सकते हैं, परन्तु कट्टर क्रांतिकारी
के घर की शकर भी मिर्च से अधिक कड़वी होती है.”
“क्या आपकी अच्छा नहीं होती क्रांतिकारी बनने की?”
“देश में तीन प्रवाह हैं. हमारे बाबा सुधारणावादी हैं.
जैसे इंसान का मन परिवर्तित करने के लिए शिक्षा आवश्यक है, उसी प्रकार सम्पूर्ण
स्वराज्य की मांग करना भी आवश्यक है. उसके लिए अहिंसा तथा सशस्त्र क्रान्ति - दोनों मार्ग हैं. बेशक, हरेक का स्वभाव अत्यंत
भिन्न होता है. परन्तु स्वराज्य चाहिए, इसमें तिलमात्र भी संदेह नहीं है.”
“और आपके पास हैं शब्द. ठीक है ना?”
“हाँ, सही है. हम पहले गोरेगांव, मुम्बई में डा. तर्खडकर के
यहाँ थे, लगभग
छः-सात महीने. उस समय मराठी भोजन से परिचय हुआ,”
रवी बाबू ने कहा.
उसी एक महीने में उन्होंने ‘राजा ओ रानी’ नाटक लिखा था. करकरे ने
अपनी पत्नी को यह बात बताई तो वह बोली,
“ऐसा कैसे लिख लेते हैं, आप?!”
“शायद इसलिए कि हम कम बोलते हैं. शायद हमारे शब्द इस
प्रकार से प्रकट होते हों.”
“आप कम कहाँ बोलते हैं!” मृणालिनी ने कहा.
एक महीना अत्यन्त प्रसन्नता से बीता. ‘प्रकाश वेदना’
सोलापुर में लिखी. करकरे पति-पत्नी ने मनःपूर्वक उनका स्वागत किया था. जाते हुए
उन्होंने कहा,
“महाराष्ट्र सचमुच महान है. यहाँ महान व्यक्तियों का
निवास है. स्नेहपूर्ण आतिथ्य उनका गुणधर्म है. शिवाजी महाराज की कीर्ति, उनके शौर्य की महत्ता के
बारे सुना था. अब पुणे जा रहे हैं, तो शिवाजी महाराज की पुण्य नगरी भी देखेंगे. यथासंभव, महान व्यक्तियों से भी मिलेंगे. संभव हुआ
तो तिलक, सावरकर, आगरकर, से भी मिलेंगे.”
सोलापुर से खडकी-पुणे वे आये और शिवाजी महाराज से
संबंधित स्थलों पर गए. दिल्ली दरबार में जोर शोर से राष्ट्रीय भूमिका प्रस्तुत
करने वाले मराठी व्यक्तियों को देखा. सह्याद्री के चढ़ाव के समान कठोर और मृदु मुळा-मुठा नदियाँ देखीं. वे बहुत
प्रसन्न थे.
शिवाजी महाराज के कठिन रास्ते देखे. सह्याद्री की सहायता
उन्हें कैसे हुई, यह देखा. शिवाजी महाराज ने स्वतंत्रता का मूल मन्त्र
दिया था. जीवन भर स्वतंत्रता के लिए युद्ध करते रहे. ऐसे शिवाजी महाराज की कथाएँ
सुनते हुए उन्हें स्मरण हुआ बंगाल का.
छोटे बच्चों को डराने के लिए बंगाल में माताएं कहती थीं, “खोका घुमालो, पाडा जुडालो, बोर्गी इलो दिशे.” बच्चे सो
जाते, सारा गाँव
सो जाता, क्योंकि
बोर्गी का आक्रमण हुआ है. बोर्गी अर्थात् ‘बारगीर’, यह शब्द मराठा सेना के
सन्दर्भ में कहा जाता. परन्तु अब उन्हें समझ में आया था कि कितना गलत कथन था वह, ग़लतफ़हमी पर आधारित.
अब उनके मन में शिवाजी महाराज विराजमान थे. वे कलकत्ता
लौटे. घर के बैठकखाने में वे शिवाजी महाराज के पराक्रम के बारे में बता रहे थे. तब
चौधरीबाबू ने कहा, “रोबी, किसी भी प्रसंग का तुम पर अधिक परिणाम होता है. कली का
फूल बनाता है तब, आकाश में मेघ घिर आयें तो भी, और विभिन्न प्रान्तों के
लोगों को, वहां की
प्रकृति को देखते हुए तुम्हारी यही अवस्था होती है. पहले स्कॉट परिवार के बारे में
भी तुम इसी तरह उत्साह से बोलते थे.
अब अगली संतान होने पर उसका नाम शिवाजी महाराज रखना, तो बात पूरी हो जायेगी...”
और सचमुच मृणालिनी गर्भवती हुई. मन ही मन वे आगामी संतान
के लिए नाम सोचने लगे, और उनके दिमाग में आया नाम – ‘रथींद्र’. महापराक्रमी इंद्र. वे
बहुत प्रसन्न हो गए. अब तो बेला भी दूर, छोटा रथींद्र भी दूर और मृणालिनी भी दूर, यहाँ सियालदह में हैं हम
अकेले.
यहाँ की खिलती हुई प्रकृति मोहित करती है. आनंद देती है,
प्रसन्न करती है और यहाँ की व्यथा, वेदना, शोषण मन को उतना ही दुःख भी पहुंचाते हैं. अज्ञानी
मज़दूर और निर्दय साहूकार, इनके बीच फंसी हुई जनता. कविता के दोनों विषय मन को
मोहित करते हैं. आनंद के कारण कविता शब्दों से छमछम करती हुई आती है, तो व्यथा वेदनाओं से बोझिल कविता अश्रुओं
के साथ कागज़ पर अवतरित होती है. मगर, तब, जब मैं उससे विनती करता हूँ:
“ऐ कविता, आ बाहर, यदि है प्राण,
ला उसे साथ
और
कर उसका
दान.
खूब दुःख,
दारुण वेदनाओं का
सामना कर
रही समस्त दु:खों की दुनिया
दारिद्र्य, क्षुद्र, बद्ध शून्य अन्धकार
इसमें
चाहिए अन्न, हवा, प्राण”
आज भी कविताओं को कागज़ पर स्थान देकर वे बार-बार प्रकृति
का आनंद उठाने के लिए मुक्त हो रहे थे.
सचमुच, एक ही समय में आनंद और दुःख को सहन करते हुए उनका मन थक
चुका था. उन्होंने मन ही मन मृणालिनी से कहा, ‘भई छुटी, हम आ रहे हैं तुमसे मिलने
अगले सप्ताह. हमारे सुखी-दु:खी मन को संवारने की शक्ति तुममें है.’
और वह कुर्सी से उठकर वे पलंग पर लेट गए.
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