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उस समय चारो, ओर ब्रिटिशों का
राज्य था और ठाकुर घराने के कामदेव और जयदेव ब्रिटिशों के संपर्क में थे. ब्राह्मण
होते हुए भी उनके मन में सभी धर्मों के प्रति आस्था थी.
कामदेव और जयदेव दक्षिण बंगाल में दीवान पीर अली
खान के यहाँ अधिकारी थे. यह बात थी बारहवीं शताब्दी की.
देवेन्द्रनाथ को इस समय पड़े-पड़े उनके पिता
द्वारकानाथ द्वारा सुनाया गया एक किस्सा याद आ रहा था. कामदेव-जयदेव -
देवेन्द्रनाथ के पूर्वज थे. वे दोनों ईमानदार और सत्यवचनी थे. उनकी बातचीत भी
समयानुकूल होती थी.
एक बार, रमज़ान के दिनों में
अनेक मेहमान घर आये थे. उनमें कामदेव जयदेव भी थे. दीवान पीर अली खान नींबू का
शरबत बनाने से पहले नींबू की खुशबू सूंघ रहे थे. ताज़े नींबू की सुगंध मदहोश करने
वाली थी. कामदेव ने यूँ ही मज़ाक में कहा:
“हमारे धर्म के अनुसार खाने की सुगंध लेने का
अर्थ होता है – आधा भोजन.”
“अर्थात् ?”
“आप ये जो नींबू की सुगंध ले रहे हैं इसका मतलब
यह हुआ कि आपने मन:पूर्वक नींबू का शरबत ग्रहण किया है.”
हिन्दुओं के धर्मसंस्कार का भाग पीर अली खान के
मन में चुभ गया. वे उचित अवसर की राह देख रहे थे. एक बार उन्होंने सभी विशिष्ठ
व्यक्तियों को दावत पर बुलाया. ठीक उसी दिन कामदेव और जयदेव का उपवास था.
इधर गाने की महफ़िल पूरे जोश में थी. उधर खाने की
सुगंध वातावरण में फ़ैली थी. उस सुगंध से उनकी क्षुधा उत्तेजित हो गयी और पीर अली
खान ने जानबूझकर ऐसी परिस्थिति बनाई थी.
“क्या खुशबू है, कि गाना फ़ीका हो
गया!” पीर अली खान ने कहा.
“कामदेव, जब आपका आधा भोजन
तो सूंघने से ही हो गया है, अब आधा भोजन करना पडेगा.”
कामदेव को अपने शब्द याद आये,
और अब उन्हें वापस लौटाया नहीं जा सकता था. कामदेव और जयदेव बिना खाए ही निकलने
लगे,
तो पीर अली खान ने व्यंग्य से कहा:
“कामदेव, जयदेव अब ‘पीर अली
ब्राह्मण’ बन गए हैं. लोग उन्हें ‘पीर अली ब्राह्मण’ के नाम से ही
जानेंगे!”
भरी सभा में द्रौपदी पर जैसा प्रसंग आया था,
वैसा ही कामदेव, जयदेव पर आया. अत्यंत लज्जित होकर वे बाहर
निकले और निश्चय किया कि दक्षिण बंगाल में पीर अली खान की नौकरी करने की अपेक्षा
ये सब छोड़-छाड़ कर कहीं चले जाएँ. कामदेव और जयदेव को ब्राह्मण परिषद ने बहिष्कृत
कर दिया. अत्यंत निंदनीय प्रसंग उन्हें झेलना पडा.
उन्होंने कलकत्ता के पास गोविंदपुर में रहने का
निर्णय लिया. वह थी मछुआरों की बस्ती. इस बस्ती में आने पर उन्हें अत्यंत
मानसम्मान प्राप्त हुआ. लोग उन्हें आदरपूर्वक ‘ठाकुर’ कहते. वैसे ठाकुर
परिवार व्यापारिक कारणों से ब्रिटिशों के संपर्क में था ही,
अंग्रेज़ अधिकारी ठाकुर परिवार का सम्मान करते थे. देवेन्द्रनाथ के पूर्वज नीलमणी
ने अंग्रेजों से संबंध स्थापित करके अपार संपत्ति प्राप्त कर ली और फिर कलकत्ता
में दो रास्तों के बीचोबीच जोडासांको विभाग में नीलमणी ने अपने लिए और अपने
रिश्तेदारों के लिए आलीशान भवन ‘ठाकुरबाड़ी’ का निर्माण किया.
अब नीलमणी को अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त करनी थी. अत: धन, संपत्ती,
संस्कृति का त्रिवेणी संगम उनके परिवार में प्रकट हुआ.
नीलमणी परिवार को एक और लाभ हुआ,
वह ये कि ब्राह्मण धर्म के संस्कार तो उनके पास थे ही, और वे अनेक
जातियों, जमातों और धर्मों में मुक्त संचार कर सकते थे. इसलिए वे ‘मनुष्य’
का अध्ययन कर सके और ‘मनुष्य’ की भाँति जीवन व्यतीत कर सके. यह बहुत बड़ा संयोग ही
था. परिवार में चार भाषाएँ बोली जाती थीं – बंगाली, संस्कृत,
मुस्लिमों के साथ सहवास के कारण फारसी और ब्रिटिशों का शासन होने के कारण
अंग्रेज़ी. इन चार भाषाओं में वे सेवकों से लेकर अधिकारियों तक से संवाद करते थे.
रात बीत रही थी, आकाश का घाट भी चढ़
रहा था,
परन्तु देवेन्द्रनाथ की आंखों में नींद नहीं थी. अत्यंत सुन्दर, सुदृढ़
और विद्वत्ता के तेज से दमकते उनके पिता – प्रिन्स द्वारकानाथ ठाकुर राजपुरुष ही
थे. उनके पास अपार धनसंपदा थी.
“देवेन्द्र, ये सत्ता,
ये धनसंपत्ति और ठाकुर घराने का सम्मान तुम्हें ही संभालना है. हमारे पिता रामलोचन
और माता मेनका देवी की कोई संतान नहीं थी. हमें अपनी बहन से गोद लेकर उन्होंने
ठाकुर घराने की परंपरा को आगे बढाया. तुम्हारी माता, दिगम्बरी देवी ने
ठाकुर परिवार को अत्यंत प्रेम से और ज़िम्मेदारी से संभाला. अब तुम्हें यह सब
संभालना है. तुम विवाह कर लो.
“बाबा, मुझे अभी विवाह
नहीं करना है,
खूब शिक्षा प्राप्त करना है, गिरीन्द्र, भूपेन्द्र,
नगेन्द्र तो हैं ही. उनका ब्याह हो सकता है. वास्तव में मुझे धर्म और धर्म संस्कार,
देव और देवत्व पर बहुत अध्ययन करना है.”
“गिरीन्द्र, भूपेन्द्र,
नगेन्द्र तुम्हारे भाई हैं, यह सत्य है, परन्तु ज्येष्ठ
पुत्र का विवाह सबसे पहले होना चाहिए, होना ही चाहिए.”
देवेन्द्रनाथ मन ही मन हंसे. ग्यारह वर्ष के
देवेन्द्र और आठ वर्ष की शारदा का विवाह आख़िर हो ही गया. द्वारकानाथ ने उनकी एक शर्त मान ली थी,
कि जब तक इच्छा न हो, वे व्यवहार से दूर रह सकते हैं.
जितनी तीव्र इच्छाशक्ति से देवेन्द्रनाथ व्यवहार
से दूर रहने का प्रयत्न कर रहे थे, उतनी ही तीव्रता से द्वारकानाथ व्यवहार में
लिप्त होते जा रहे थे. द्वारकानाथ का स्वभाव ऐसा था की जिस समय कोई कार्य हाथ में
लेते,
उसके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाते. उच्च शिक्षित तो वे थे ही. ब्रिटिश
शासनकाल में भी हिन्दुओं के साथ अनेक प्रकार से सहकार्य करने का काम चल ही रहा था.
ऐसे में राममोहन राय से उनकी मुलाक़ात हुई और उन्होंने
सामाजिक क्षेत्र में भी पदार्पण किया. एक दिन राममोहन राय ने कहा:
“अब काफ़ी संपत्ति अर्जित कर चुके, समाज और
ब्रिटिशों के बीच प्रतिष्ठा भी प्राप्त है. अब अपनी अंधश्रद्धाओं के परिणामों पर
ध्यान दो. आज मजबूरी में सभी हिन्दुओं को मजबूरन ब्रिटिश पाठशालाओं और कॉलेजों में
अंग्रेज़ी सीखना पड़ता है. कालान्तर में ऐसा होगा कि हम घर में भी अंग्रेज़ी
बोलेंगे.”
“तो फिर क्या करना चाहिए?”
वहां उपस्थित देवेन्द्र ने पूछा.
“एक कॉलेज शुरू करना होगा.”
“हमें यह विचार अच्छा लगा. उसके लिए क्या करना
होगा?”
“द्वारकानाथ, दो महत्वपूर्ण काम
करना होंगे, जो तुम कर सकते हो. कॉलेज के लिए पर्याप्त मात्रा में धन जुटाना होगा
और ब्रिटिशों से इसके लिए अनुमति लेनी होगी. देखो तो, कैसी स्थिति है –
अपने ही देश में शिक्षा प्रदान करने के लिए, कॉलेज के लिए अनुमति मांगना पड़ती है,
यह कितने दुर्भाग्य की बात है.”
“सच है. परन्तु अभी लॉर्ड विलियम बेन्टिंग के
होने के कारण ज़्यादा कठिनाई नहीं होगी. क्योंकि उनका भी ऐसा विचार है कि भारत में
सुधार होना चाहिए.”
और द्वारकानाथ ने अर्थव्यवस्था का कार्य अपने
हाथ में लिया. पहले ही अपने व्यवसाय के कारण उनके पास समय नहीं था,
ऊपर से अब यह काम. वैसे, देवेन्द्रनाथ घर में बड़े थे,
छोटी उम्र में परिवार को संभालने की ज़िम्मेदारी उन पर आ पड़ी. कहीं बाहर जाते समय
द्वारकानाथ उन्हें परिवार के सारे कामों की सूची बनाकर देते. पैसे देते. वे सारे
काम देवेन्द्रनाथ किया करते.
द्वारकानाथ अब कॉलेज खोलने के विचार से प्रभावित
थे. उनका ध्येय केवल अंग्रेज़ी का प्रसार करना नहीं था, अपितु हिन्दू
युवकों को अधिक प्रोत्साहित करके कॉलेज में प्रवेश देना था. कॉलेज आरंभ करने का
मुख्य उद्देश्य यह था कि भारतीयों को विज्ञान, चिकित्सा क्षेत्र
का ज्ञान प्राप्त हो. राममोहन रॉय और द्वारकानाथ कॉलेज निर्माण के काम में मगन थे, और
देवेन्द्रनाथ परिवार की देखभाल कर रहे थे, साथ ही अपनी शिक्षा
पर भी ध्यान दे रहे थे. जब द्वारकानाथ ठाकुरबाड़ी में होते तो बैठकखाने में खूब
चहल-पहल होती. विविध क्षेत्रो के लोग आया करते. सुबह कुछ ही समय के लिए उनकी
देवेन्द्रनाथ से भेंट होती, तब वे पूछते:
“भालो बाछे, देवेन?”
और तब देवेन्द्रनाथ कठिनाइयों का उल्लेख न करते
हुए कहते,
“बहु भालो आछे बाबा, बहु भाले आछे!”
तब वे उसके सिर पर हाथ रखकर कहते.
“सचमुच, देवेन, तू बहुत भला
मानुष है. सब कुछ जानता है! हमारा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है.”
उस एक वाक्य से देवेन्द्रनाथ की आंखें भर आतीं.
वैसे ही अभी गौरीकुण्ड के आश्रम में भी बिस्तर पर लेटे हुए वे भर आई थीं. आधी रात
होने को थी,
परन्तु देवेन्द्रनाथ की नींद कहीं खो गई थी.
उन्हें याद आया. द्वारकानाथ ने अंग्रेज़ी की
शिक्षा प्राप्त की थी. कर्मठ लोगों को यह पसंद नहीं था. परन्तु द्वारकानाथ उनकी
भलाई के लिए भी प्रयत्नशील थे. क़ानून की पदवी उनके पास नहीं थी,
फिर भी फर्ग्युसन नामक क़ानून-पंडित के सहवास में उन्होंने क़ानून का सूक्ष्म अध्ययन
किया और वे बंगाल के 24 परगना के वे कलेक्टर थे. पूर्व में नीलमणी द्वारा अर्जित
संपत्ति को उन्होंने अनेक गुना बढ़ाया था. अनेक बार इंग्लैण्ड और यूरोप की यात्रा
भी की थी. परन्तु उन्हें भारतीय वैदिक संस्कृति का अभिमान था. सभी क्षेत्रों में
उनका दबदबा था. वे ब्रह्म समाज के अनुयायी थे.
देवेन्द्रनाथ सोच रहे थे,
‘कैसी महान कार्यक्षमता थी, कितनी सामाजिकता थी. अंग्रेजों के सहवास में
होते हुए भी देश के लिए कुछ करने की तीव्र इच्छा थी.’
द्वारकानाथ ने ऐसा विचार किया और देवेन्द्रनाथ
से कहा:
“देवेन, इतनी भाग दौड़ में तुम्हारा बचपन बीत गया, अब
तुम विवाहयोग्य हो गए हो. अब सोचता हूँ, कि इस सामाजिक
कार्य से कुछ दूर हो जाऊं. खुलकर सांस लूं, तुम्हारा बोझ भी कुछ कम करूँ. परन्तु
यह सब समेटने में काफ़ी समय लगेगा, तुरंत नहीं हो पायेगा. तुम पर इतने बड़े परिवार
का बोझ है,
यह हम समझते हैं.”
उस समय देवेन्द्रनाथ ने कुछ नहीं कहा.
“हमें ज्ञात है, कि आजकल हमारी माँ
का स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता है.
अब दौरे से वापस लौटकर सबसे पहले उन्हें
अंग्रेज़ी डॉक्टर को दिखाऊंगा. उसका आयुर्वेद पर विश्वास है, परन्तु
एक बार उसे ले ही जाऊंगा.”
वे गए और माँ की तबियत बिगड़ गयी. तब माँ ने कहा:
“देवेन तू चाहे तो वैद्य जी से पूछ ले. मेरी
मृत्यु बिल्कुल निकट दिखाई दे रही है, अत: तू मुझे काशी के आश्रम में ले चल. मेरी
मृत्यु वहीं होने दे.”
वैद्यजी ने भी कहा – ‘अब कुछ ठीक नहीं है.”
तब देवेन्द्रनाथ उन्हें काशी ले आये. परन्तु
वैद्य जी का अनुमान गलत निकला. अगले आठ दिन उन्हें मृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़ी.
नित्य नियमपूर्वक वे गंगा में स्नान करके वे एक लोटा दूध से काशी विश्वेश्वरनाथ का
अभिषेक करते, और वह प्रसाद दादी को देते.
उस आश्रम से गंगा का घाट दिखाई देता था,
वहां अनेक घाट थे. उस घाट पर दादी को छोड़कर वे गए नहीं थे. परन्तु विश्वनाथ मंदिर
में जाने के लिए, वे मणिकर्णिका घाट की सीढियां सुबह,
दोपहर,
शाम को उतरकर नाव में बैठकर मंदिर जाते. उनकी दादी अत्यंत वात्सल्यपूर्ण स्वभाव की
थीं. उनके जीवन के लिए यह प्रार्थना थी. सुबह मन अत्यंत प्रसन्न होता, परन्तु
हरिश्चंद्र घाट पर शवों को दी जा रही ज्वालाएं मन में भय उत्पन्न करतीं, शाम को
गंगा आरती,
गंगा में छोड़े जा रहे दीप, उनका प्रतिबिंब होता, हरिश्चंद्र घाट पर
शवों को दी गई अग्नि की केसरी ज्वालाएं दिखाई देतीं.
एक दिन दादी ने कहा:
“कल भगवान के पास मत जाना, भगवान स्वयं ही
आयेंगे मेरे पास.” देवेन्द्रनाथ हंस पड़े और तैयार होकर निकलने ही वाले थे,
कि दादी ने उनका हाथ पकड़ा. वे बैठ गए, तो बोलीं:
“थोड़ा गंगाजल ला घड़े से.”
वे गंगाजल लाये और चार ही बूँद मुख में जाते ही उन्होंने
आंखें बंद कर लीं. उसने आवाजें दीं. चार-छः लोग भागकर आये. दादी चली गयी थी,
भगवान के पास.
दादी के शव का दाहसंस्कार करते हुए उनके मन में
विचार आया. मृत्यु का अर्थ आखिर क्या है? कैसी होती है
मृत्यु?
मृत्यु के पश्चात् यदि हम वहीं होते हैं तो जीवात्मा को जाते हुए क्यों नहीं देख
सकते? आत्मा
शरीर छोड़कर जा रही है, क्या यह बात समझ में आती है?
ऐसे अनेक प्रश्न उनके मन में थे.
उन्होंने कलकत्ता पहुंचकर द्वारकानाथ से पूछने
का निश्चय किया. घर-परिवार को दादी का जाना अपेक्षित नहीं था. परन्तु जब वैद्यों
ने निदान किया,
तो उन्होंने दवा लेना बंद कर दिया था. शायद उन्होंने मन ही मन मृत्यु को आमंत्रित
किया था.
कलकत्ता वापस आने पर उन्होंने द्वारकानाथ को तार
भेजने का निश्चय किया, परन्तु तार भेजें तो कहाँ? अंत
में अचानक वे ही आ गए. शायद देवेन्द्रनाथ ने मन ही मन उन्हें संकेत भेजा होगा.
अतीव दुःख से उन्होंने स्वयं को दोष दिया और
देवेन्द्रनाथ के सिर पर हाथ रखकर बोले:
“देवेन, सारा पुण्य तुझे
प्राप्त हुआ है. हम उनकी रत्तीभर भी सेवा नहीं कर सके, इस बात का अतीव
दुःख है.”
राममोहन राय का तार उन्हें मिला और वे निकल पड़े.
“द्वारकानाथ, तुमने दस हज़ार
रुपये कॉलेज के निर्माण के लिए दिए, अनेक लोगों से दान लाए,
डॉक्टर बनने के इच्छुक विद्यार्थियों के लिए को तुमने स्वयं ही शिष्यवृत्ति प्रदान
की. दो विद्यार्थियों के इंग्लैण्ड में कॉलेज का व्यय भी तुमने ही अपने मन से
ज़ाहिर किया. तुम्हारा यह कार्य अमर है, यह कार्य अभी आरंभ हुआ है. अब तुम एक अन्य
कार्य में इसी प्रकार मेरी सहायता करो. आर्थिक सहायता की आवश्यकता नहीं है.
सामाजिक कार्य के लिए चाहिए.”
“बताइये ना, कैसी सहायता चाहिए.
जितना संभव होगा, करूंगा. सर्वस्व निछावर करके काम करने की आदत
है मुझे.”
“वह मैं जानता हूँ. हमारे देश में अच्छी
प्रथाएं-परंपराएं हैं. परन्तु वर्त्तमान में एक कुप्रथा है – सती प्रथा. मैं बचपन
से देख रहा हूँ, मगर समाज में क्रान्ति लाना आसान नहीं है. अनेक
पुरुष भी सती प्रथा बंद करने का विरोध करेंगे. ऐसे में यदि तुम सहायता के किये आओ,
तो एक आंदोलन कर सकेंगे.”
उन्हें अपनी विधवा दादी का स्मरण हो आया. जब वे
सती होने के लिए जा रहीं थीं, तो परिवार के सभी लोगों ने उन्हें सती न होने
देने के लिए दृढ़तापूर्वक कदम उठाये थे. उस समय द्वारकादास ने कहा था:
“एक निर्जीव शरीर के साथ एक सजीव शरीर को अग्नि
की ज्वालाओं में बिठाना कितना भयानक है. यदि सिर्फ हाथ जल जाए,
तो महिलाएं दस बार उस पर फूंक मारती हैं. पुरुष भी सांत्वना देते हैं,
परन्तु जब किसी बालिका अथवा प्रौढ़ा को शव के साथ जलाते हुए देखते हो, तो क्या तू
सबको दुःख नहीं होता? यदि हमारी माँ को पिता की चिता पर रखा तो
हम सभी माता-पिता के साथ चिता पर होंगे.”
द्वारकानाथ को समाज में सम्मान प्राप्त था, और
वे परिवार और रिश्तेदारों सहित विशाल परिवार के प्रमुख थे. इसलिए प्रथा के विरुद्ध
होते हुए भी उनकी बात का किसीने विरोध नहीं किया था.
राममोहन राय इस घटना के बारे में सुन चुके थे. उन्होंने
पूछा:
“क्या कहते हो द्वारकानाथ?
“जो आप सोच रहे हैं, उससे अधिक हम इस
प्रश्न के बारे में चिंतित हैं. हम आपके साथ सम्पूर्ण आन्दोलन करने के लिए तैयार
है. वर्तमान में लॉर्ड विलियम बेन्टिंग
गवर्नर हैं. उनसे मिलकर इस प्रश्न पर चर्चा करेंगे.” और वैसा ही हुआ भी.
परन्तु इसके लिए उन दोनों को बहुत संघर्ष करना
पड़ा. समाज में इस आन्दोलन का तीव्र विरोध हुआ था. परन्तु उन्होंने अपना कार्य रोका
नहीं,
और इन सारी घटनाओं के बारे में, स्त्री की विवशता के बारे में और समाज की इस
कुप्रथा के बारे में लॉर्ड विलियम बेन्टिंग ने संवेदनशीलता से सुना और उन्होंने
क़ानून ही बना दिया. इस प्रथा का अनुसरण करने वालों को सज़ा होगी और उन्हें कारावास
भेजा जाएगा.
इस सारी घटना का समाज में तीव्र विरोध हुआ,
परन्तु सज़ा होने के डर से नियम का पालन होने लगा.
परन्तु इस सबके बीच कई महीनो तक वे अपने परिवार
में,
जोडासांको स्थित ठाकुरबाड़ी में नहीं आ पाए थे. उन्हें विश्वास था कि देवेन्द्रनाथ
सब कुछ अच्छी तरह संभाल रहे हैं. परन्तु इस दौरान देवेन्द्रनाथ की माँ, दिगम्बरी
देवी की मृत्यु हो गई. देवेन्द्रनाथ जब वापस आये तो इस वार्ता से हतबल हो गए. पहले
उनकी अनुपस्थिति में हुई माँ की और फिर पत्नी की मृत्यु ने उन्हें तीव्र आघात
पहुंचाया.
और जिस प्रकार सिद्धार्थ को अकस्मात् परिवार छोड़
कर जाने की तीव्र इच्छा हुई थी, उसी
विरक्ति ने द्वारकानाथ को घेर लिया. किसी भी काम में मन नहीं लगता था,
उन्होंने निश्चय किया की परिवार से दूर चले जाएं, और वे इंग्लैण्ड
चले गए. उन्होंने परिवार की हर बात से निवृत्ति ले ली थी,
परन्तु परिवार की आर्थिक प्राप्ति में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था.
द्वारकानाथ ने दो कंपनियों की स्थापना की थी.
सन् 1829 में
शुरू की गई ‘युनियन बैंक’ और 1834 में स्थापित ‘दि कार टैगोर
एंड कंपनी’ इन दोनों कंपनियों का अद्भुत रूप से विकास हुआ था. वास्तव में वे
देवेन्द्रनाथ को इस कार्य में प्रवीण करना चाहते थे. परन्तु परिवार के प्रति
अत्यन्त समर्पित होने और धार्मिक वृत्ति के चलते उन्हें ऐसी व्यावहारिक बातों में
रस नहीं है, यह द्वारकानाथ समझ गए. तब परिवार का आर्थिक
पहलू दृढ़ करने के लिए उन्होंने संपत्ति का कुछ भाग सुरक्षित रखा और ‘ट्रस्ट डीड’ में उत्तर बंगाल और उड़ीसा के कटक की भूमि का समावेश करके रिश्तेदारों का
एक ट्रस्ट बनाया. तीनों बेटों को लाभांश सहज ही मिलने वाला था.
और वह मिल रहा था, इसीलिये ठाकुरबाड़ी में वह
विशाल परिवार सुख-चैन से रह रहा था.
द्वारकानाथ इंग्लैण्ड गए, भारत से दूर, सिर्फ इसलिए की मन:शान्ति प्राप्त हो. उनके साथ उनकी बहिन का बेटा
चन्द्रमोहन चैटर्जी भी था. वेल्स, स्कॉटलैण्ड और ब्रिस्टल में
छह महीने गुज़ारने के पश्चात् वे भारत वापस लौटे. सम्राट लुई फिलीप ने उनका सम्मान
किया. अनेक स्थानों पर उनका सत्कार किया गया, तो द्वारकानाथ को बहुत खुशी
हुई. परिवार में लौटने के बाद वहां किये गए सम्मान-समारोहों के बारे में बताते हुए
उन्होंने कहा;
“ब्रिटेन में हमारा इतना सम्मान होगा, इसकी हमें कल्पना नहीं थी.
भारत के ब्रिटिश अधिकारियों से तो हमारा परिचय था, परन्तु वहां इतना सत्कार
होगा, ऐसा हमने सोचा ही नहीं था.”
“वह इसलिए, बाबा, कि आपने दो महत्वपूर्ण कार्य किये हैं. एक – हिन्दू कॉलेज की स्थापना की,
दूसरा – ‘सती प्रथा’ बंद करने के आन्दोलन का आप
नेतृत्व कर रहे थे. इसके अतिरिक्त ‘कार कंपनी’, ‘युनियन बैंक’ – ये सब करना, वह भी इतनी कम आयु में, सहज नहीं है. फिर,
ब्रिटिशों द्वारा आपको ‘प्रिंस’ की उपाधि से सम्मानित किया
गया है. इसलिए वहां भी आपको प्रसिद्धी प्राप्त हुई,” देवेन्द्रनाथ ने कहा.
“हो सकता है, परन्तु यहाँ, परिवार में वापस लौटने पर तीव्रता से अनुभव हुआ कि अब माँ नहीं है और
तुम्हारी माँ भी नहीं है. उनकी यादें इस घर के हर कोने में विद्यमान हैं.”
प्रसन्नता से लौटे हुए द्वारकानाथ यहाँ उदास-निराश और विरक्त प्रतीत हो रहे थे.
फ़िर भी यहाँ आने पर उन्होंने ठाकुरबाड़ी में ही गिरीन्द्र, भूपेन्द्र और नगेन्द्र को स्वतन्त्र बंगले बनवा दिए. बैठकखाने में सभी
लोग रोज़ रात को बैठा करते थे. वैसे द्वारकानाथ अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो
चुके थे. भरेपूरे परिवार में माँ और पत्नी की अनुपस्थिति उन्हें हर क्षण महसूस
होती, और वे दोनों उनकी अनुपस्थिति में देह त्यागकर
चली गईं, ये शल्य उनके मन में निरंतर चुभता था.
वे फिर से ग्रेट ब्रिटेन गए, तब छोटे नगेन्द्र को अपने
साथ ले गए. ‘सरे’ नामक ग्रामीण भाग में
उन्होंने एक घर लिया था. एक ही साल वे वहां रह पाए और बीमार हो गए. भीतर ही भीतर,
मन में, वे टूट चुके थे. शरीर भी दुर्बल हो गया था, और केवल 52 वर्ष की आयु में, परिवार से दूर, परदेस में, ‘सरे’ नामक गाँव में उनकी मृत्यु हो गई. उस समय केवल नगेन्द्र ही उनके पास था.
देवेन्द्र
को आज यह सब कुछ याद आ रहा था. कब से परिवार की ज़िम्मेदारी संभालते हुए अब उनका भी
इस सबसे निवृत्त होकर ईश-चिंतन में लीन होने का मन कर रहा था.
मध्यरात्र
समाप्त हो गयी थी. प्रात:काल ही उन्हें केदारनाथ के मंदिर की ओर जाना था. उन्होंने
रवीन्द्र को जगाया. वह तुरंत उठ गया. शुचिर्भूत होकर वे दोनों घोड़ों पर सवार होकर
केदारनाथ के मंदिर की ओर जाने वाले थे.
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