Sunday, 2 October 2022

Shubhangi - 2

  

“जागो, जागो, वत्स! प्रभात का सूर्य क्षितिज पर प्रकट हो गया है. कब से तुम लावारिस पुत्र के समान अकेले पड़े हो. जागो.”

प्रगाढ़ निद्राग्रस्त मातृगुप्त को जैसे अंतर्मन की गहरी खाई से आवाज़ आई. एक बार नहीं, बल्कि तीन-चार बार. कंधे पर किसी के स्पर्श का अनुभव भी हो रहा था. संवेदना धीरे धीरे जागृत हो रही थी, परन्तु नेत्र खुलने को तैयार न थे.

“तुम सकुशल हो, ईश्वर की कृपा से तुम सकुशल हो, आंखें खोलो.”

कोई बार-बार आज्ञा दे रहा था. इस आज्ञा में स्नेह भी था. मातृगुप्त ने नेत्र खोले और वह आश्चर्यचकित हो गया. विविध रंगों से प्रकाशित आकाश में रविराज किरणों की डोर पकडे पूर्व क्षितिज पर आ गए थे. वेत्रवती की लहरों ने सुनहरा, रुपहला वस्त्र धारण किया था. चारों और घना अरण्य था. इस घने अरण्य में अभी-अभी जागृत हुई वेत्रवती धीमे-धीमे प्रवाहित हो रही थी. वातावरण में पंछियों का कलरव था.

“ मुझे किसने जगाया? इस निर्जन अरण्य में मैं एकाकी?” वह भयभीत हो गया. थरथराते हुए उसने पूछा:

“मुझे जागृत करने वाला कौन है? प्रत्यक्ष दिखाई क्यों नहीं देता?

“मैं हूँ. प्रत्यक्ष होते हुए भी अप्रत्यक्ष.”

“मैं समझा नहीं,

“मैं साकार हूँ तुझसे. मैं शक्ति, मैं संवेदना, मैं चेतना.”

“मैं समझा नहीं.”

“वेत्रवती के प्रवाह में अपने आप को समर्पित करते हुए तुम्हारे भीतर की चेतना समाप्त हो गई थी. शब्द समाप्त हो गए थे. शरीर में संवेदना नहीं थी. शरीर मानो काष्ठवत् हो गया था. परन्तु मैं सचेत थी. मैं तुम्हें इस तरह पराजित नहीं देखना चाहती थी. तुम्हारे भीतर के ‘मैं को जागृत रखने का कार्य मैं कर रही थी. मैं तुम्हारी चेतना, ऊर्जा और शक्ति. चाहो तो आदिशक्ति कह सकते हो.”

“सत्य कहता हूँ, मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया.”

“मैं कोई व्यक्ति नहीं हूँ. मैं हूँ सचेतन अवस्था. जागृत विचारधारा. वाणी की सजीवता. मैं हूँ संकल्प सिद्धी, मैं आनंद यात्री, मैं ही तुम्हारी मार्गदर्शक भी. तुम्हारे भीतर के शिव शंकर की मैं भी उपासक.”

“सत्य कहता हूँ, बार-बार. नहीं समझ पाया मैं तुम्हें. परन्तु तुम जो कोई भी हो, उससे मैं विनती करता हूँ कि मुझे इस घनघोर अरण्य से मनुष्यों की बस्ती में ले चलो. यहाँ चारों और, दूर-दूर तक अरण्य ही है, और, मुझे बचाया क्यों? मेरे जीवन का क्या अर्थ था? अपमान मेरा भी हुआ था, और उसे भी बहुत बड़ा धोखा दिया था मैंने.

जीवन का प्रयोजन ही समाप्त हो गया था.”

“वेत्रवती के प्रवाह में तुम यहाँ तक आये. दिन आये और गए, तुम होश में नहीं थे. अब होश में आये हो. और, होश में आने का कारण पूछो, तो शायद नियति की यही इच्छा है. और, जीवन का प्रयोजन पूछो, तो वह तुम्हें स्वयँ ही अनुभूति से जानना होगा. शायद जीवन का प्रयोजन सिद्ध करने के उद्देश्य से ही नियती ने तुम्हें यह संधि प्रदान की है.”

“परन्तु, इस एकाकी, निर्जन मार्ग से मैं जाऊँ कहाँ?

“इसका निर्णय तुम स्वयं ही करो. पथिक को अपना मार्ग अपने आप ही ढूँढना पड़ता है, चलते रहो, मार्ग मिल जाएगा.”

“मतलब, तुम मेरी अन्तरंग शक्ति, चेतना, संवेदना होते हुए भी मुझे कुछ भी नहीं बताओगी, है ना?

“तुम चलना आरम्भ करो. तुम्हें जागृत किया ना, तुम भी जागृत हो गए हो ना? अब मार्ग भी मिल जाएगा.”

मातृगुप्त हँस पडा. दो मनों के बीच का संवाद. ये आज की स्थिति न थी. उसके दोनों मन उतने ही सजग थे. एक आशंकित मन और दूसरा संजीवक मन. ये दोनों मन एक दूसरे के पास-पास थे. उनके बीच कोई संघर्ष न था. मगर जब एक मन प्रबल हो जाता, तो दूसरा उसे संभाल लेता.         

 मातृगुप्त उठा. दोनों तरफ गहन अरण्य, सामने पूरब की और पर्वत, पीछे समतल प्रदेश. शायद इस समतल प्रदेश में कोई बस्ती हो. वेत्रवती के किनारे पर बस्ती होने की काफी संभावना है. इसलिए सूर्य को पीठ पर झेलते हुए मातृगुप्त वेत्रवती के किनारे-किनारे समतल प्रदेश की और जाने लगा. कितनी भयावह थी वह निर्जनता. साथ ही गूढ़ भी थी. अत्यंत रमणीय थी. आकाश को छूने वाले वृक्ष मानो अपनी सभी आकांक्षाएं पूरी करना चाहते थे. वृक्षों के बीच से समीर मानो सीटी बजाते हुए गुज़र रहा था, वातावरण में एक नाद उत्पन्न कर रहा था. प्रकृति के इस रहस्यमय सौन्दर्य की रचना किसके लिए की गई होगी?

वैसे तो सब कुछ बहुत रमणीय था. चहुँ ओर प्रकाशित वातावरण, धीमे-धीमे बहती हुई वेत्रवती. चलते-चलते उसके पैर ठिठक गए. उसे याद आई वह रात, वेदवती के राजप्रासाद की, और उसने सोचा: क्यों और किसलिए अरण्यों के इन वृक्षों के समान खडा रहूँ, क्यों वेत्रवती के समान प्रवाहित होता रहूँ? किसके लिय? न माता, न पिता; न सखा, न सहचर, न स्वयँ को समर्पित करने वाली अर्द्धांगिनी, कोई भी तो नहीं! आधी राह में जैसे मेघ बरस जाए और मार्ग खंडित हो जाए, वैसा ही हुआ था.

मातृगुप्त चल रहा था, विचारचक्र भी घूम रहा था. अचानक उसे अनुभव हुआ कि भूख लगी है; इतनी ज़्यादा कि आगे पाँव रखना कठिन हो रहा था. यहाँ कौन क्षुधापूर्ति करेगा?

एक वृक्ष से टिककर वह बैठ गया. अब यहाँ यदि मृत्यु भी हो जाए, तो भी कोई  नहीं आयेगा. कल-परसों तक का मातृगुप्त, जिसे वेत्रवती का प्रवाह किनारे पर लाया था, वह फिर से अज्ञात के प्रवास के लिए अकेला ही निकला है, यह किसी को ज्ञात भी नहीं होगा.             

दोपहर हो गई थी. वृक्ष की छाँव में भी सूर्य की दाहकता का अनुभव हो रहा था. नेत्रों के सामने अन्धेरा और मन में गहन निराशा. उसने स्वयँ को धरती पर झोंक दिया. अब सब कुछ समाप्त हो गया.

 

शायद समाप्त होने की संवेदना का अनुभव करने के लिए मेरा जन्म हुआ है; अभिशाप के साथ ही मेरा जन्म हुआ है. उसके नेत्रों से निरंतर अश्रु बह रहे थे. उस तप्त भूमि पर उठने की शक्ति अब उसमें नहीं थी.

 शाप...केवल शाप ही है मेरे जीवन को. उसका मन भर आया. कौन हूँ, कहाँ से हूँ मैं? जैसे कर्ण को हमेशा ये प्रश्न सताते थे, वैसे ही वे मुझे सताते हैं. मैं कौन हूँ? मेरे आचार-विचार शुद्ध हैं, अन्याय की, असत्य की अनुभूति मन को है, वाणी संवादिनी है, मुख पर उच्चकुलीन होने का भाव है. फिर मैं कौन, इसका अनुमान लगाना भी संभव नहीं और मन में सदैव ये ही भाव आयें कि मैं गोपालक नहीं. मेरा कुल-गोत्र-वंश सब कुछ अज्ञात है और आज कर्ण ही के समान मुझे शाप मिला है अवहेलना, अपमान , तिरस्कार का, संपूर्ण भविष्य ही अंधकारमय हो जाए ऐसा.

वैसे, क्या अपराध था कर्ण का? अधिरथ सूत–सारथी पुत्र उसे वेदविद्या, अस्त्रविद्या नहीं दी गई. एकलव्य के ही समान उसने एकांत में वह विद्या इतनी अधिक ग्रहण की, कि उसका प्रतिद्वंद्वी केवल अर्जुन ही रहा. और जब ब्रह्मास्त्र विद्या सीखने के लिए परशुराम के पास गया, तो असत्य से विद्या प्राप्त करने के कारण उन्होंने उसे शाप देकर उसकी संपूर्ण ब्रह्मास्त्र विद्या को निष्फल कर दिया. ऐसा कौन सा अपराध हुआ था? गुरु ज्ञान देते हैं या शाप? सभी कुछ अनाकलनीय है.

मैं असत्य के मार्ग से ही सही, परन्तु जो कुछ कुमारस्वामी और महामंत्री ने बताया, उससे प्रेरित होकर असत्य को पचा कर आगे बढ़ा, तो क्या हुआ, ऐसा प्रतीत हुआ मानो जीवन के रथ चक्र को धरती ने अपने भीतर समेट लिया.

मातृगुप्त मन ही मन खिन्न हो गया था. सूर्य की उष्णता से उसका कंठ सूख गया था. वृक्ष की छाया से उठने का मन ही नहीं हो रहा था. सामने ही वेत्रवती नदी थी, मगर देह में वहाँ तक जाने का त्राण ही नहीं बचा था. राजप्रासाद से निकले हुए दो दिन हो गए थे. जठराग्नि व्याकुल थी. परन्तु अब सब कुछ समाप्त हो गया है, इसी एकमेव भावना ने उसके तन-मन को घेर लिया था.

‘ऐसे ही, अकेले, इस विजनवास में मृत्यु...’ उसका मन भर आया.

‘नहीं, नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए. आत्महत्या नहीं, परन्तु यह जीवन की पराजय है, और कारण चाहे जो भी हो, परन्तु यह शरीर तो मेरा है. जीवन मेरा है. मैं ही क्यों गलितगात्र हो जाऊँ? रथचक्र धरती में धंस गया, तो कर्ण अश्रु बहाते हुए बैठा नहीं रहा. उसने निर्धारपूर्वक हाथ में शस्त्र लेने और युद्ध करने का प्रयत्न किया.              

मैं इस तरह पराजित नहीं हो सकता. इस तरह की एकाकी मृत्यु, अपमानित मृत्यु मुझे नहीं चाहिए. मुझे कर्ण के समान बारबार उठना होगा. चाहे मेरा भूतकाल और भविष्यकाल अंधकारमय ही सही, मगर वर्त्तमान तो मेरे हाथ में है. शायद हौले-हौले उतरती संध्या कल के प्रभात का मार्ग दिखा सकेगी.’

वह निर्धार पूर्वक उठा. किरणों की डोर से अश्वों को संभालते हुए सूर्य सायंप्रासाद की और निकल पडा था. उदयाचल को आता हुआ बाल सूर्य, उषा के रंगमहल में आनेवाला, युवावस्था में प्रवेश करने वाला सूर्य, माध्याह्न का प्रौढ़, प्रगल्भ सूर्य और अब सायंकालीन सखी संध्या के महल में प्रवेश करने वाला परिपूर्ण सूर्य – मातृगुप्त के मन में आज प्रथम ही सूर्य का प्रवास आया. उषा अथवा संध्या उसकी जीवन सहचरी कभी भी नहीं थीं. समूचे आकाश में वह एकाकी ही चलता रहा. प्रातःकाल के रम्य रूप में सहभागी होने वाली उषा आगे चलते हुए उसकी सहचरी नहीं थी, और संध्या के प्रासाद में जाने के बाद अथक परिश्रम से दिन भर चलते हुए सूर्य के एकाकीपन को शायद उसने भी न जाना होगा.  

विचारों में ही मातृगुप्त खुद को संभालते हुए किसी तरह उठा. नदी के निकट गए बिना पानी भी नहीं मिलने वाला था. अचानक सूर्य तथा कर्ण इन दो व्यक्तित्वों से हुआ परिचय उसके मन को छू गया. संघर्ष करना होगा. जीवन संघर्ष है. यश की परिपूर्णता ही सच्चा संकल्प है. इस विचार से वह वेत्रवती नदी के पास आया और उसे दूर पर प्रवाह में चलती हुई एक नौका दिखाई दी. इसका मतलब, पास ही में कोई बस्ती होगी. उसके गले से आवाज़ भी नहीं निकल रही थी. उसने अपना अंगरखा उतार कर इशारा करने  का प्रयत्न किया परन्तु वह भी विफल हो गया. नाव दूर जाते हुए अदृश्य हो गई थी. उत्साह प्रदान करने वाला मन अब निराश हो चला था. किनारे पर लहरों की संख्या अधिक हो गई थी. उसने किनारे की रेत में अपने आप को झोंक दिया और अब उसके नेत्रों से बहती अश्रुधाराओं में लहरें भी सम्मिलित हो गई थीं. शरीर भीग गया था, परन्तु उठने का मन नहीं था.

और सायंकाल के गहराते अँधेरे में कहीं से घंटियों का निनाद गूंजा. उसके संवेदना विहीन हो चुके मन ने कहा, “उठ, यहीं पास ही में कोई मंदिर है, उठ और चल! यह ईश्वरी संकेत तुझे प्राप्त हुआ है. संधि चलकर आई है. उसे वापस न भेज. खोल दे द्वार संधि के लिए. थोड़ा परिश्रम कर.”  

अब तक गलितगात्र और निराशा से ग्रस्त हो चुका मातृगुप्त नवचेतना लेकर घंटियों की आवाज़ की दिशा में निकला, परन्तु बीच ही में चेतना ने साथ छोड़ दिया.

 

***

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