Sunday, 26 February 2023

Shubhangi - 61

 

कश्चित्कान्ताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्तः

शापेनास्तङ्गमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तुः ।

यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेषु

स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु॥

 

अनजाने में ही एक बहुत बड़ी शिला पर बैठे हुए चूने के पत्थर से काव्य पंक्तियाँ लिखना शुरू किया और वे स्वयँ ही आश्चर्यचकित हो गए, इसलिए कि अनजाने में ही काव्यपंक्तियाँ प्रकट हो गईं, और इसलिए भी कि ‘कुमार संभवं की प्रथम पंक्तिअस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः’ में ‘अस्ति शब्द का प्रयोग हो गया था, और अब भी अनजाने में ही ‘कश्चिद्’ शब्द का प्रयोग हो गया. मन में वाग्बाण कब का चुभ गया था, ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:’ आज अचानक ही उसका आधा उत्तर मिल गया था. अब ‘वाग्विशेष:’ इतना ही उत्तर प्राप्त करना शेष था. एक मार्ग सामने आ गया था – वेदवती के पास जाने का.

परन्तु अब इन काव्य पंक्तियों से उन्होंने लिखना आरम्भ किया:

एक यक्ष था. वह प्रतिदिन कुबेर को पूजा के लिए सहस्त्र कमल पुष्प लाकर देता था. उसका विवाह हुआ. नवविवाहिता पत्नी के साथ रात बिताने के बाद वह नित्य नियमानुसार प्रात:काल कमल पुष्प लाने गया. बिना कुछ देखे समझे वह सहस्त्र कमल पुष्प ले भी आया. परन्तु उनमें एक अर्धोन्मीलित कालिका थी. उस कमलदल में एक भ्रमर था. पूजा करते समय कुबेर को उस भ्रमर ने दंश किया. कुबेर ने तुरंत यक्ष को शाप दे दिया, “जिस विवाहित पत्नी के समागम में तुम अत्यंत उत्सुक हो गए हो, उससे तुम्हें एक वर्ष दूर रहना होगा.” कुबेर की आज्ञा मानकर यक्ष अलकापुरी से निकला और भ्रमण करते हुए रामगिरी पहुँचा. उसने कुटी बनाकर वहाँ निवास किया. सघन वृक्षों की छाया वाले इस परिसर में जनक तनया जानकी और दशरथ पुत्र रहते थे. वहीं यक्ष रहने लगा.

पत्नी के विरह में वह इतना दुर्बल हो गया था कि उसके हाथों के सुवर्ण कंकण गिर गए. उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था, और उसके पास जाने के लिए वह अत्यंत आतुर था.

अचानक उसने देखा कि एक कृष्ण मेघ रामगिरी के पर्वत को ऐसे मार रहा है, मानो कोई मदमस्त हाथी अपनी सूंड से किसी को मारता है. कृष्ण मेघ आने का तात्पर्य है कि जलधाराएं बरसेंगी. वर्षाकाल में प्रेयसी से विरह, मतलब... कल्पना ही नहीं की जा सकती, ऐसी थी यक्ष की स्थिति. युद्ध से भी, यात्रा से भी घर लौटने वाले व्यक्ति का उसे स्मरण हुआ. तनमन को विरहाग्नि जला रही थी. अब स्त्री-पुरुष रति क्रिया में मग्न होंगे, मगर मेरे नसीब में है विरह. यक्ष बहुत अस्वस्थ हो गया. ऐसे समय में अलकापुरी में रहने वाली मेरी प्रिया विरह में कैसे दिन व्यतीत कर रही होगी...रति सुख से वंचित, विरह में वह कैसी होगी? योग्य समय पर भोजन तो करती होगी ना? क्या मेरी याद में वह भी कृषांगी हो गई होगी? मिलन के सपने देखते हुए वह रात में जाग तो नहीं जाती होगी? कैसी होगी वह? कैसी दिखाई देती होगी?’ अनेक प्रश्नों से यक्ष व्याकुल हो गया था. क्या करूँ? किसके साथ अपनी विरह गाथा उस तक पहुंचाऊँ जिससे उसे विरह में भी कुछ चैन मिले? विदीर्ण, व्याकुल मन:स्थिति में यक्ष को वह कृष्ण मेघ दिखाई दिया. मेघ वायु के साथ गतिमान होकर वायु की दिशा में प्रवाहित होते हैं.

अब वायु को उत्तर दिशा में प्रवाहित होते देखकर स्वाभाविक रूप से यक्ष को अपनी प्रेयसी का स्मरण हो आया. विवाह के बाद उसने घर में प्रवेश किया था. श्रृंगार का पूर्ण आकलन होने से पूर्व ही यक्ष को शाप दिया गया था. अब उसके रंग-रूप का, उसकी व्याकुलता का स्मरण हो आया. वह वहाँ अलाकपुरी में विरह में है, और हम इतनी दूर यहां रामगिरी पर. अब सन्देश भेजना चाहिए. परन्तु सन्देश भेजने का विचार उस सघन, सजल, श्यामल मेघ को देखकर मन में आया. यदि उसे ही सन्देश देकर भेजूं तो? दूसरे मन ने कहा, ‘सौभाग्य से, उस काले-कलूटे मेघ में किंचित भी सौन्दर्य नहीं है. वह इस मेघ को किंचित भी रोके बिना, संदेश लेकर तुरंत वापस भेज देगी. हमारा चयन सही है. अब मेघ को अपना कार्य बताऊँ तो कैसे? क्या वह सुनेगा? ये सारे प्रश्न यक्ष के मन में थे.

उसने अपनी कुटी के पास लगे पुष्पों से मेघ का स्वागत किया, उसकी स्तुति की, फिर अपनी मनोदशा का वर्णन किया:

जातं वंशे भुवनविदिते पुष्कलावर्तकानां
जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोनः

तुम जैसे सामर्थ्यवान मेघ के सम्मुख अपेक्षा प्रकट की है. मूलत: संतप्त हुए विश्व को शांत करने वाले तुम हो. इसलिए तुम निश्चित ही मेरे अपेक्षित कार्य को करोगे. और उस श्यामल मेघ ने यक्ष का निवेदन मान्य कर लिया. अत: उसे हिमालय में स्थित कुबेरनगरी का मार्ग, उसमें स्थित यक्ष नगरी, यक्ष नगरी में स्थित उसका भवन – यह सब बताना अनिवार्य था. सिवाय, एक वर्ष के लिए दिया गया शाप कब समाप्त होगा, इसकी प्रतीक्षा कर रही उसकी पत्नी के बारे में भी बताना अनिवार्य था. परन्तु कोई उपाय नहीं था. उसके बिना मन को शान्ति न मिलती. अत: उसने मार्ग बताना आरम्भ किया:

“हे कृष्णघन, जब तुम गर्जना करते हुए कैलास की ओर जाओगे तो राजहंस तुम्हारी सहायता करेंगे. जाने से पहले इस रामगिरी को नमस्कार करना, क्योंकि श्रीरामचन्द्रजी ने सीताजी के साथ दंडकारण्य जाने से पूर्व यहाँ वास्तव्य किया था. उनके अस्तित्व से यह भूमि पावन हो गई है.

हे सजल-सुन्दर मेघ, अनेक स्थानों पर इन्द्रधनुषी रंगों के वाल्मीक होंगे. उनके प्रकाशमान होने के कारण तुम्हारी कृष्ण कांति सतेज, सुरूप हो जायेगी, जैसे मयूरपंखधारी श्रीकृष्ण की है. हे मेघ, तुम्हें घर जाते हुए कृषक अथवा कृषिबल मिलेंगे, उन पर तुम दया करना. कुछ समय रुककर उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान करना. तुम्हारे घनघोर वर्षाव से अरण्य में प्रज्वलित दावानल शांत होगा, धरती और वृक्ष शांत होंगे. आम्रकूट पर्वत की ओर तुम निश्चय ही आकर्षित होगे, परन्तु वहाँ विश्राम किये बिना तुम आगे बढ़ना!’

यक्ष के मन में विचार आया, आम्रकूट वन-उपवन में कामिनी का पदन्यास, नाद-निनाद, सुसंवाद...तुम मेघ हुए तो भी क्या...कामिनी का मोह तो होगा ही...फिर सजल-सघन होने के कारण उसे कुछ विश्राम की आवश्यकता तो होगी ही. फिर, वहाँ वर्षाव करने के कारण मेघ भी हल्का हो जाएगा और शीघ्र गति से जाएगा. सुंदरियों से मोहित न होने का आदेश तो नहीं दे सकता, क्योंकि वह अलकापुरी तक जाने के लिए तैयार हो गया, यही उसकी कृपा है. अत: विनती करना श्रेयस्कर है.

‘हे प्रतिईश्वर, तुम्हारे बिना सारा जीवन व्यर्थ है. तुम जीवन हो. मेघ होते हुए भी तुम्हारे भीतर भावनाएँ-संवेदनाएं हैं, इसीलिए तुमने मेरी विनती को मान लिया है. परन्तु इसके बाद तुम दशार्ण देश पहुंचोगे. यहां अनेक भवनों के रंग श्वेत पुष्पों जैसे हैं. अनेक पशु पक्षी हैं, और इसी दशार्ण देश में विदिशा नगरी है.’

कालिदास ‘मेघदूतम्’ का पूर्वार्ध – ‘पूर्वमेघ’ लिखते-लिखते रुक गए. उन्हें विदिशा के राजा भोज का स्मरण हुआ. विद्वत्वती का स्मरण हुआ. अपनी जन्म भूमि मंदसौर का स्मरण हुआ. गोधन लेकर वेत्रवती के किनारे जाने वाले मार्ग का स्मरण हुआ. अपनी भगिनी का स्मरण हुआ, और अपने मित्र का भी. उसीने तो प्रथम विदिशा नगरी दिखाई थी. उसके बाद की घटना – विवाह और विवाह की पहली रात – स्मरण में रह गई थी और हृदय में निरंतर चुभ रही थी.

‘हे वेदवती, विद्योत्तमा, विद्वत्वती तुम्हें साष्टांग नमस्कार. आज स्मरण हो रहा है हमारा अपमान, हमारी वंचना...याद आ रहा है सीमापार किया गया वह अगतिक, असहाय, एकाकी मातृगुप्त. वह मातृगुप्त कालिदास हो गया. कैकेयी ने वर मांगा जिससे श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास हो. मगर उससे निष्पन्न हुआ विश्व उद्धार का कार्य! लोकसेवा, ऋषिसेवा हो, असुरों का राज्य समाप्त होकर लोकजीवन आश्वस्त हो. उसी तरह, वेदवती के सीमापार करने से श्रीराम जैसा कार्य तो नहीं हुआ, परन्तु हम स्वयँ को विकसित कर सके...कितना अहोभाग्य! यही उसने हमें सीमापार भेज कर किया. यही है वह विदिशा!

मेघ को मार्ग बताना है, स्वयँ भी विचलित नहीं होना है.

“हे जलदगामी, तुम्हें अब नर्मदा – महानद के समान चिर यौवन सरिता दिखाई देगी. हाथी के शरीर पर अंकित मुद्राओं जैसा उसका धवल रूप है. हे पयोद, उस घनघोर अरण्य में वर्षाव करने से पूर्व तुम क्षुधित न रहना. वृक्ष-वृक्ष पर लगे हुए फल तुम खाना. सौदामिनी के साथ जब तुम हास्य करोगे, तो नर्मदा तट पर रसिकप्रिया भयभीत हो जायेंगी. मुझे ज्ञात है कि मार्ग में अनेक पर्वत हैं. तुम शीघ्रता से नहीं जा सकोगे, संघर्ष भी करना पडेगा.   

विदिशा में तुम्हारे सामने अनेक प्रलोभन थे. नागरी स्त्रियाँ अपने बालों को सुखाने के लिए धूप लगाती हैं, उसकी सुगंध निश्चित ही लुभावनी होती है. मयूरों का नृत्य देखकर तुम अपनी सुध-बुध खो बैठते. फिर भी, मित्र, तुम किसी मोह के शिकार नहीं हुए और आगे बढ़ गए.

उस विदिशा नगरी में तुमने त्रिभुवन स्वामी शिवशंकर के दर्शन तो अवश्य किये होंगे. और मित्र, वहाँ की युवतियों के स्नान से गंधमयी हुई सरिता के मोहपाश से तुम बच निकले. धन्यवाद, मित्र! मेरे जैसे सामान्य यक्ष के सन्देश को पहुँचाने का कार्य अत्यंत प्रेम से कर रहे हो.

हे जलधर, तुम महाकालेश्वर के मंदिर में सूर्योदय से सूर्यास्त तक विश्राम करना. जिससे सायंकालीन आरती में सम्मिलित होकर तुम अपनी गर्जना कर सको.

तुम्हें कल्पना नहीं, मित्र, जब वहाँ संध्या नृत्य करने लगती है तो अपने कटिबंध पर बांधी हुई मेखला के मणिबंधों की छुनछुन जैसी ध्वनी करने वाली अनेक नर्तकियां तुम्हें दिखाई देंगी. वे तुम्हें भ्रमित करने का पयत्न करेंगी, परन्तु तुम भ्रमित न होना.’

कालिदास लिख रहे थे. मन ही मन वे दशार्ण देश, विदिशा और मंदसौर और महाकालेश्वर मंदिर पहुँच चुके थे. आरती के बाद शिवशंकर के तांडव का स्मरण हुआ. वे फ़ौरन बोले, “हे कृष्ण घन, शिवशंकर के नृत्य में सहभागी होना! ये आगे है उज्जयिनी नगरी. रात के गहन अन्धकार में उसे देखना असंभव है. परन्तु प्रेमी जनों के पास जा रही अभिसारिकाओं की मेखला की रत्नमालाओं से निकलता हुआ प्रकाश मार्ग प्रकट होगा.’

कल्याण. असुरों का वध. हमारे मन की दुष्ट शक्तियों को नष्ट करके ज्ञान का अनामिक, बहुमूल्य आनंद दिया तुमने हमें, वेदवती. तुम्हें इस बात की कल्पना भी नहीं, तुमने हमें जागृत किया, प्रकाश स्तम्भ बनीं हमारे लिए, और आज हम आनंद पथ पर अग्रसर हो गए हैं. ‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:’ से तुमने मातृगुप्त को कालिदास बनाया! कालिदास मन ही मन हँसे, प्रसंग चाहे जो हो, उसका स्मरण होता ही है... यह युति आवश्यक है.

अब उन्होंने फिर से मार्ग बताना आरंभ किया.

मेघ उज्जयिनी नगरी में प्रवेश कर चुका था, और यक्ष ने उससे कहा था, ‘अपनी  प्रिया, सौदामिनी के साथ किसी भवन के ऊपरी तल्ले पर स्थान देखकर विश्राम करना. समूचे विश्व को तुम्हारे आगमन से रति सुख का आनंद प्राप्त होता है, वह तुझे भी प्राप्त हो.

सूर्योदय से पहले उठकर तू मार्गस्थ होना. अब तुम्हें गंभीरा जलवाहिनी दिखाई देगी. उसकी तरफ देखते मत बैठना. मार्गस्थ हो! देवगिरी पर्वत पर सुगंधित समीर तुम्हारे श्रम हर लेगा. उसी देवागिरी पर्वत पर तुम आकाशगंगा से लाए हुए जल से स्कन्द का पुण्याभिषेक करो. यहीं गुफा में शायद कार्तिकेय और पार्वती भी होंगे, परन्तु आगे बढ़ो. अभी तुम्हें बहुत मार्गक्रमण करना है.

हे कृष्णमेघ, यह रही चर्मण्वती सरिता. उसका रूप देखकर ऐसा लगता है, मानो वह वसुंधरा के वक्षस्थल पर मौक्तिक माला है. अब आगे बढ़ो, मित्र, अब कौरवों-पांडवों का युद्ध क्षेत्र – कुरुक्षेत्र आयेगा, विलम्ब न करो. अब दिखाई देगा – ब्रह्मावर्त. उस पर सिर्फ दृष्टि डालकर आगे बढ़ जाना. सरस्वती सरिता निकट ही दिखाई देगी. उस पवित्र सरिता का जल प्राशन करके तू अविलम्ब अग्रेसर होना.

अब तुम हरिद्वार, गंगा और जहाँ शिव-पार्वती का विवाह हुआ वह कनखल क्षेत्र देखोगे. अब यदि चाहो तो उस देवगंगा का जल प्राशन करना. तब तुम्हारी छाया में धवलगंगा और अधिक सुन्दर दिखाई देगी. देवदार के वन पर भी तुम वर्षाव करना. दावाग्नि से संतप्त अरण्य को शान्ति मिलेगी.

हे मित्र, हिमालय में एक अष्टपाद मृग है, तुम्हारी गर्जना सुनते ही वह तुम्हारी ओर लपकेगा. तब तुम उस पर अतिवृष्टि करके उसे पराजित करना. शिव पद की मुद्रा वाले शिलाखंड को तू प्रणाम करना.

यहाँ अरण्य से आती वेणु ध्वनी और किन्नरों द्वारा गाई जा रही शिव की आरती तुम्हें आनंद देगी.

दशानन रावण ने दोनों भुजाओं से जिसे हिलाया था, यही वह कैलाश पर्वत है. यदि तुम अपलक दृष्टी से यहाँ का सौन्दर्य निहारते रहे, तो तुम्हें अलकापुरी  पहुँचने में विलम्ब होगा.

तुम अनेक योजन चलकर आये हो मेरे मित्र, मगर अब अंतर अधिक नहीं है. एक बार मेरी प्रिया को सन्देश पहुँचा दो, फिर तुम मुक्त हो जाओगे. इतना अधिक समय तुमने मेरे लिए दिया है, मित्र, और अपने वचन का पालन भी किया है. मैं तुम्हारा अत्यंत आभारी हूँ. मित्रों का आभार नहीं मानते, परन्तु शब्दों से प्रदर्शित किये बिना तुम कैसे समझ पाओगे?

 यक्ष के निमित्त से कालिदास स्वयँ के विचार लिख रहे थे. मेघ अब अलका नगरी की ओर जा रहा था.

कालिदास ने यक्ष के रूप में सन्देशवाहक कृष्णमेघ को अलकानगरी का मार्ग तो बता दिया, मेघ अब अलकानगरी में प्रवेश कर रहा होगा, परन्तु वह हमारी प्रिया को कैसे  पहचानेगा? हमारा भवन भी उसे ज्ञात नहीं है. ‘पूर्वमेघ’ में उसे अलकापुरी का मार्ग बताया था, अब ‘उत्तरमेघ’ में अपने भवन का और अपनी प्रिया का परिचय करवाना है.

कालिदास अब रामगिरी से नगरधन के विशेष अतिथिकक्ष में आये थे. रात वर्षाधाराओं से गहराई हुई थी, सौदामिनी के आने-जाने से निरंतर भयभीत कर रही थी. मुक्त गति से बहते समीर के कारण कक्ष में दीप की ज्योति भी थरथरा रही थी.

विश्राम करने के लिए वे मंचक पर लेटे, भावनाओं के वेग को रोकने में मेघ भी असमर्थ थे. कब की प्यासी धरती इस वर्षा से सुखी हो रही थी. तब वह भी सुख का अनुभव करने लगा. कालिदास के नेत्र पटल पर सारा दृश्य अंकित हो गया. वे उठे. उन्होंने सारे दीपदानों को निकट सरका लिया, और वे भोजपत्र निकालकर लिखने बैठे. वर्षा धाराओं के ही समान शब्द धाराएं प्रवाहित हो रही थीं. शब्द धाराएं पूर्णत्व की ओर जाने के लिए उत्सुक हो रही थीं. उन्होंने ‘उत्तरमेघ शीर्षक से उत्तरार्ध लिखना आरम्भ किया.

‘हे कृष्ण मेघ, अलकापुरी में सुन्दर स्त्रियाँ, उनके आभूषण, अलंकार है, परन्तु तुम भी श्रेष्ठ हो. सौदामिनी जैसी सुन्दर स्त्री तुम्हारे पास है. रत्न भी लज्जित हो जाएँ, ऐसा सुन्दर, झिलमिलाता हुआ सप्तरंगी इंद्रधनुष्य तुम्हारे पास है.’

अब यक्ष को कृष्ण मेघ को श्रेष्ठत्व देना ही था. क्योंकि उसे यक्ष, किन्नर, गन्धर्व तथा देवकन्याओं से दूर ही रखना था. इस विचार से यक्ष कहता है,

‘हे मित्र, अलकापुरी का वर्णन करने लगूँ, तो शब्द ही समाप्त हो जायेंगे. यहाँ ऋतू केवल आनंद प्रदान करने के लिए ही आते हैं. कामज्वर के सिवा अन्य कोई  ज्वर नहीं होता, प्रणय कलह को छोड़कर अन्य कोई कलह नहीं होता. यहाँ वियोग नहीं, यौवनावस्था के सिवा अन्य अवस्था नहीं. अलकापुरी की कन्याएं प्राप्त करने के लिए देवता भी आतुर रहते हैं.

अलकापुरी में ऐसे कृष्ण मेघ नहीं होते. सदा होती है शीतल-स्निग्ध चंद्रप्रभा, सुरा-सुन्दरी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है. जब रात में आई हुई अभिसारिकाएं वापस जाने लगती हैं, तो उनके कंठ की मौक्तिक माला के मोती और मंदार के पुष्प राह में बिखरे होते हैं.

अब अलकापुरी का वर्णन भी कितना करूँ! यहाँ के अश्व, यहाँ कुबेर का भवन, पर्वतों की ऊँची-नीची श्रृंखलाएं, कुबेर के भवन की उत्तर दिशा में इंद्रधनुष्य के तोरण के नीचे है मेरा भवन.’

यक्ष नि:श्वास छोड़ता है, जैसे वही मार्गक्रमण करके आया है. यहाँ तक कृष्णमेघ पहुँच गया है. परन्तु कुबेर की तरह मेरा भी वैभव देखकर वह चकित न हो जाए, इसलिए यक्ष पहले ही वर्णन करने का निश्चय करता है, और वह कहता है, ‘मेरे भवन के सामने एक छोटी सी वापिका है, जिसकी सीढियां वैदूर्य और नीलम रत्नों की हैं. इस वापिका के हंस तुम्हारा स्वागत करेंगे. वहाँ एक क्रीडा पर्वत भी है. उसके ऊपर माधवी लता का कुञ्ज है, और अशोक वृक्ष है. अशोक वृक्ष को रमणी का पदाघात प्रिय है, तो मौलसिरी वृक्ष को रमणी के मुख की मदिरा की आसक्ति है. भवन के सामने यज्ञवेदी है, वहाँ अनेक पक्षी मेरी प्रियतमा के हाथों से अन्नकण लिया करते थे.

हे घनघोर वर्षाव करने वाले कृष्णमेघ, तू एकदम यूँ ही भीतर न घुस जाना. क्रीडा पर्वत पर हाथी के शिशु जैसा निश्चिन्त होकर विश्राम कर. अब पूछोगे, कि ऐसा क्यों? अब तक तो कहते थे कि अविलम्ब मार्गस्थ हो, अब ऐसा क्यों?

बताता हूँ, मित्र. मेरे ही समान उसकी भी अवस्था हुई होगी. वह देवी-देवताओं की अर्चना कर रही होगी. मैं जल्दी आऊँ, इसलिए शायद अंक में वीणा लिए विरहगीत गा रही होगी. बीच-बीच में वीणा रखकर मेरे साथ बिताई कुछ रातों का स्मरण कर रही होगी. हे मित्र, मेरी प्रियतमा को मेरे बिना रात बहुत कठिन लगती होगी. वह वीणावादन, पूजा अर्चना, चित्रकला को अपनी सखियाँ बनाकर दिन व्यतीत करती होगी. मगर रात?

मित्र, रात को निरंतर करवटें बदलते हुए वह इतनी दुर्बल प्रतीत हो रही होगी, मानो चाँद की सिर्फ एक ही किरण बाकी है.’

और फिर यक्ष उसकी अवस्था का इतना करुण वर्णन करता है कि मेघ का दिल भी भर आये. भावनाओं का वर्णन, भवन के पक्षियों का वर्णन, विरह में निर्बल, आभूषण रहित, विरह शय्या पर अपनी पत्नी का वर्णन करता है, परन्तु वह मेघ से कहता है,

‘तुम स्वयँ ही तर्क से उसकी विरहावस्था जान सकते हो. अब आगे क्या कहूं? तुमने तो सौदामिनी संग इस अनुभव को जिया है. अब तुम उसे मेरा सन्देश कब देना, यह बताता हूँ.

हे जलद मेघ, जब तुम भीतर प्रवेश करोगे तो वह निद्रामग्न होगी, और मेरे साथ

सहवास का सपना देख रही होगी. एक प्रहर तुम उसके स्वप्न के पूर्ण होने की प्रतीक्षा करना, और तुम उसे देखते हुए...’

यक्ष विचार कर रहा था, कि न जाने यह मेघ उसे कैसे संबोधित करता है. मैं ही उसे बताता हूँ...यही उचित होगा...                            

‘हे चिरंजीवी मित्र, तू उसे सौभाग्यशालिनी यक्ष पत्नी कहकर संबोधित करना, तब वह तुम्हारी पूरी बात श्रवण करेगी. आगे कहना, ‘हे शीलवती, तुम्हारा सहचर, तुम्हारा पति वियोग से अत्यंत व्यथित है. उसने तुम्हारा कुशल-क्षेम पूछा है.’

मेरी अवस्था का वर्णन करते हुए कहना, “हे सुन्दरी, प्रियंगु लता में तुम्हारी कमनीय देह, हरिणी के नेत्रों में तुम्हारे नेत्रों की चमक, चन्द्रमा में तुम्हारी कांति, मयूर पंख में तुम्हारे केश और सरिता की लहरों में तुम्हारे भ्रूविलास का अनुभव कर रहा हूँ.

गेरू से शिलाखंड पर तुम्हारा चित्र बनाता हूँ, तो अनावर अश्रुधारा से वह चित्र भी बिखर जाता है. तुमसे दूर रहकर मैं भी अगतिक, असहाय, दुर्बल हो गया हूँ. कामदेव के पंचशरों ने मुझे व्यथित कर दिया है. जब तुम्हें अपनी बांहों में लेने का प्रयत्न करता हूँ, तो शून्य आकाश में ही अपनी बाँहें पाता हूँ.”

‘हे घनश्याम, तुमने मेरी विरह वेदना देखी है. तुम उसे बताना, हाँ, एक प्रश्न तो रह ही गया, मैंने ही तुन्हें सन्देश वाहक के रूप में भेजा इस पर उसे विश्वास हो जाए इसलिए एक एकांत की घटना सुनाता हूँ......

इस प्रकार कृष्ण मेघ को यक्ष ने अपनी सम्पूर्ण अवस्था बताई और उसका आभार मानते हुए कहा, “हे मित्र, मित्रत्व के रिश्त्ते से तुमने मेरा काम योग्य रीति से, किया है, अब अत्यंत अल्प समय बचा है, अब मैं यक्ष नगरी में जाकर वियोग को समाप्त करूंगा. तुम्हारे लिए प्रार्थना करूंगा कि तुम्हें कभी भी सौदामिनी का वियोग न सहना पड़े.”

मेघ का यह पूरा सन्देश सुनकर कुबेर ने यक्ष को दिया हुआ शाप वापस ले लिया और दोनों का मिलन करवाने के लिए दूत को रामगिरी पर भेजा. मेघ भी धन्य हो गया,

कालिदास ने ‘मेघदूतम्’ को पूरा किया और  उनके मन में विचार आया, ‘वियोग और वह भी इतना! असहनीय ही है. कुछ ही दिनों का वियोग भी मन को अस्वस्थ कर देता है यहाँ तो पूरे एक वर्ष का वियोग है. हमने लिखी तो है यक्ष की काल्पनिक कथा, परन्तु वह हमारा स्वयँ का ही वास्तविक अनुभव है. अनुभव के बिना काव्य में समग्र वास्तविकता नहीं आ सकती, उत्कट संवेदना नहीं प्रकट होती. और ऐसे शाप दिए ही क्यों जाते हैं? अपनी सामर्थ्य का अहंकार होने से. मनुष्य का अहंकार, द्वेष समाप्त हुए बिना कामजीवन के सौन्दर्य, माधुर्य और लालित्य का पूरा-पूरा आकलन नहीं हो सकता. मेघ को दूत बनाकर, यक्ष और यक्ष पत्नी के मध्य जो वियोग है, उसे प्रेषित करने में, व्यथा वेदना में भी सुख का हुंकार छुपा है, यह समझ में आये, इस बात को ‘मेघदूतं के माध्यम से हम अनजाने में लिख गए.

हमारे जैसा, उज्जयिनी के सम्राट चन्द्रगुप्त की राजसभा में प्रतिष्ठित और मंत्री हों, या सर्वसामान्य कर्मचारी, उसे अपने कर्मानुसार स्वर्ग प्राप्ति होती है, इस बात का प्रतिपादन किया जाता है. इस कल्पना का स्वर्ग सत्य है या काल्पनिक? मन का आभास है या भास? मृत्योपरांत का स्वर्ग और वहाँ की लावण्यवती अप्सराएं, इन्द्रदेव की सभा, उसकी नृत्यांगनाएं, सदैव रहने वाली चंद्रप्रभा, कोमल सूर्योदय, सुगन्धित नंदनवन, इच्छापूर्ती करने वाली कामधेनु हमने कभी प्रत्यक्ष देखी नहीं. परन्तु प्रत्येक मनुष्य के मन में एक कल्पनातीत स्वर्ग होता है. वह स्वर्ग शब्दों के माध्यम से अवतरित हुआ है. हे सरस्वती माते, स्वर्गसुख को दृश्य स्वरूप में प्रकट करने का स्वप्न मैंने कभी भी नहीं देखा. अनजाने में ही तुमने उसे पूरा कर दिया है.

और हमारी विरह भावना यक्ष के मुख से झरझर बहती रही, यह सत्यानुभूति, स्वानुभूति थी. परन्तु उसे शब्दों के माध्यम से प्रकट करने की, प्रवाहित करने की सामर्थ्य तुमने ही दी है, देवी भगवती! हमारा यह उत्कट प्रणय काव्य तुम्हारे चरणों में अर्पण करता हूँ!’

ब्रह्म मुहूर्त हो गया था, अविरत जलधारा की भाँति ये काव्य पंक्तियाँ, सरस्वती के कंठ की मौक्तिक माला के मोतियों के समान बिखरते मौक्तिक मणियों जैसे शब्द क्या हमने ही लिखे हैं, ऐसा संभ्रम उत्पन्न हो रहा है. मन अत्यंत प्रसन्न है. हे वीणावादिनी सरस्वती, तुम्हारे अनंत उपकार हैं हम पर!’

उन्होंने भोजपत्रों को क्रम से रखकर उन्हें रेशमी वस्त्र में बांधा, और अनामिक आनंद से उनका मन भर आया. मानो वे स्वयँ विन्ध्य पर्वत, रेवा नदी, दशार्ण देश, विदिशा, निर्विन्ध्या, वेत्रवती, शर्मणवती, गंभीरा और उज्जयिनी, और कैलास की अलकापुरी तक जाकर आये हों. सब कुछ कल्पनातीत, अगम्य, अनुपम था. उन्हें स्वयँ पर ही विश्वास नहीं हो रहा था. परन्तु यह सत्य था, प्रत्यक्ष था. अब उन्हें तीव्रता से सम्राट चन्द्रगुप्त का स्मरण हुआ. केवल रसज्ञ, गुणज्ञ और रत्न पारखी सम्राट चन्द्रगुप्त का. अपनी कल्पना में वे भोजपत्र लेकर उज्जयिनी पहुँच चुके थे.

 

***

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