Thursday, 6 October 2022

Shubhangi - 3

 “वत्स, कौन हो तुम? कहाँ से आये हो? कल रात को हमारे आश्रम की सेविका तुम्हें यहाँ लाई थी. आश्रम की सीमा पर स्थित महादेव के मंदिर में वह संध्या-आरती के लिए गई थी.”

मातृगुप्त को कुछ भी याद नहीं आ रहा था. वातावरण में गूँज रहे घंटियों के नाद का उसे स्मरण था. वह वहाँ तक कैसे पहुँचा और महादेव मंदिर से यहाँ तक कैसे आया यह उसे याद नहीं आ रहा था.

 

“वत्स, शायद, महादेव मंदिर में स्थित कालीमाता ने ही तुम्हारी रक्षा की है. हमारे लिए तुम इसी क्षण से कालिदास हो. तुम उसकी पूरे मनोभाव से सेवा करो, वह तुम्हारी सभी कामनाएँ पूर्ण करेंगी.”

“ आप?

“मैं तुम्हारी माता. उसने मातृगुप्त की ओर देखा. वट वृक्ष के नीचे गोबर से लिपे हुए चबूतरे पर दर्भासन डालकर वह बैठी थी. तेजस्वी नेत्र, बोलने में शालीनता, स्नेह और प्रगल्भता. मातृगुप्त उसकी ओर देखता रहा, प्रौढत्व की ओर झुकती हुई वह महिला कौन होगी, यह विचार उसके मन में आया, तभी वह बोली:

“ये गुरुकुल है, वत्स. यहाँ अनेक शिष्य ज्ञान साधना करते हैं. मैं इस गुरुकुल की आचार्य हूँ. यहाँ समय-समय पर अनेक गुरुवर्य आते रहते हैं. अपने वास्तव्य के दौरान वे शिष्यों को अनेक प्रकार का ज्ञान देते हैं. वर्त्तमान में यहाँ दस अध्यापिकाएँ हैं. परन्तु तुमने अपने बारे में कुछ भी नहीं बताया. यदि कुछ बताने का मन न हो तो...”

“माते, प्रथम दंडवत करता हूँ.” उसने उठकर साष्टांग दंडवत किया. 

“मुझे कहते हुए संकोच होता है, परन्तु मैं सत्यवचनी नहीं हूँ. मैं अक्षरों से परिचित नहीं हूँ. मेरे पास सुन्दर शब्द भी नहीं है. परन्तु यदि आज मैं काली माता की कृपा से यहाँ पहुँचा हूँ, तो माते मुझे ‘कालिदास नाम से ही पुकारें. और आज मैं याचक भी हूँ, मुझे अभय भी चाहिए. मैं जो कुछ भी बताऊँगा वह इतना हीन और विकृत है कि कम से कम आज तो मुझे अपने बारे में बताने का...”

“रहने दो...परन्तु तुम यहाँ तक आये कैसे?

“यह काली माता की ही इच्छा होगी, मैंने स्वयँ को वेत्रवती में झोंक दिया था. कहाँ, कैसा प्रवाहित होता रहा, यह मुझे ज्ञात नहीं है. पर मन के किसी कोने में चेतना थी. सूर्योदय के, माध्याह्न के, रात के होने का ज्ञान था. फिर प्रात:काल सजग मन ने देह को जगाया. माते, आप मुझसे कुछ न पूछें, मैं आपको अवश्य सब कुछ बताऊँगा...”

मातृगुप्त बोलते-बोलते रुक गया.    

महिला ने उसके मस्तक पर हाथ रखा और कहा, “वत्स, तुम्हें कुछ चाहिए?

“मुझे बहुत कुछ चाहिए, माते. बहुत कुछ चाहिए. अपना जीवन ज्ञान समृद्ध करना है, जी भर के जीना है. मुझे अपना सत्य स्वरूप समाज के सम्मुख लाना है. भूतकाल का स्मरण करते हुए, सुनहरा भविष्यकाल वर्त्तमान की मुट्ठी में बंद करना है. पहले मुझे ज्ञान संपन्न होना है, माते...ज्ञान संपन्न होना है. परन्तु...”

“परन्तु क्या, वत्स?

“माते, मैंने देखा है, मुझे याद है कि व्रतबंध होने के पश्चात ज्ञान सम्पादन करने के लिए गुरुकुल में जाते हैं. मैं कौन हूँ यह मुझे ज्ञात नहीं है. मैं गोपालक हूँ. मैं कैसे ज्ञान प्राप्त करूंगा. इसके अतिरिक्त...”

तारुण्य में पदार्पण कर रहे और संभ्रमित, सतेज, सुन्दर, सुदृढ़ मातृगुप्त की ओर देवी सरस्वती देखती ही रह गईं. उसके मुख पर बारी-बारी से अन्धकार और प्रकाश के भाव आ-जा रहे थे. अपने चरणों के पास बैठे मातृगुप्त के मस्तक पर हाथ रखकर वह हँसते हुए बोलीं:

“वत्स, श्रीकृष्ण गोपालक थे. कितने ही समय तक उन्हें यह भी ज्ञात नहीं था कि उनकी माता देवकी हैं. यशोदामाता ने उनका लालन-पालन किया और तुम्हारी ही तरह, तरुणाई की सीमा रेखा पर कंस वध करके वे सान्दीपनी के आश्रम में आये.”         

मातृगुप्त के मुख पर अतीव आनंद फ़ैल गया.

देवी सरस्वती ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा:

“ज्ञान प्राप्त करने के लिए आयु की कोई सीमा नहीं होती. फिर तुम स्वयँ को अज्ञानी क्यों समझते हो? गोपालन करते हुए तुमने निसर्ग का अध्ययन किया है, गोमाताओं का भी अध्ययन किया है. फिर तुम सुदृढ़ हो, इसका अर्थ, तुमने स्वयँ का भी निर्माण किया है. ज्ञान सहज ही प्राप्त होता है – घटनाओं के अनुभव से. मगर शस्त्र, शास्त्र, ज्ञान प्राप्त करना पड़ता है.”

“मैं शास्त्र ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ.”

“जब तुम्हारे भीतर शास्त्र ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा है, इसका अर्थ यह हुआ कि तुम ब्राह्मण पुत्र हो.”

“क्या सिर्फ ब्राह्मण पुत्र ही शास्त्र ज्ञान प्राप्त करता है?

“नहीं, वह ज्ञान कोई भी प्राप्त कर सकता है, और किसी भी आयु में. क्षत्रिय के खून में शस्त्रविद्या का ज्ञान प्राप्त करने की ललक होती है, उसी प्रकार ब्राह्मण पुत्र के मन में शास्त्राभ्यास की.”

“क्या मैं समझ पाऊंगा?

“वत्स, तुम्हारे पास प्रश्न बहुत हैं, क्रमशः तुम्हें ही तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर मिलते जायेंगे.”

“परन्तु मैं...”

“ अधीर मत बनो. हर चीज़ धैर्य से, परिश्रम से, सातत्य से दीर्घकाल तक प्राप्त करनी होती है. उसी को साधना कहते हैं. अब हम यहीं ठहरते हैं.”

देवी सरस्वती समझ गईं कि यह ब्राह्मणपुत्र यौवनावस्था तक ज्ञान प्राप्त नहीं कर सका इसका दुःख, अज्ञानी होने का दुःख उसे इस आयु में हुआ, इसका अर्थ यह है कि किसी ने अज्ञानी कहकर उसका अपमान किया होगा. नाग के शरीर पर अनजाने में किसी का पाँव पड़ जाए, और वह आत्मरक्षण हेतु अपना फन निकाले, ऐसा ही इसके मन में उछलकर विचार आया होगा. देवी सरस्वती उठकर अपनी कुटिया में गईं. प्रातःकाल के समय जब कालिका उसे माता सरस्वती के पास लाई थी और उसने कहा था, “देवी सरस्वती, यह कुमार काली माता के मंदिर में मूर्च्छितावस्था में दिखाई दिया, अतः कुछ शिष्यों की सहायता से इसे यहाँ लाई हूँ.” उसे देखते ही माता को अपने पुत्र का स्मरण हो आया था. कुटी में आने के बाद उसने संदूक खोला. उसमें से भोजपुत्र पर उसीका बनाया हुआ एक चित्र बाहर निकाला. वह एक नवागत शिशु का चित्र था. कहीं वह युवक यही तो नहीं है? कुमारावस्था में मुझ तक पहुँचा हुआ? उस शिशु के चित्र में और इस युवक के बीच किसी भी तरह के साम्य की संभावना नहीं थी.

‘मन ही पागल होता है.” उसने संदूक खोलकर वह चित्र फिर से भीतर रख दिया और चौरंग पर पड़े भोजपत्र उठाकर वह बाहर आई.

मातृगुप्त वृक्ष से लिपटी एक लता की और देखा रहा था.

‘इतने ध्यान से यह क्या देख रहा होगा?’ उसके निकट से गुज़रते हुए मन में आया. जैसे ही उसकी नज़र माता सरस्वती पर पडी, उसने पूछा:

“अनेक ध्वनी एक साथ गुंथे हुए आ रहे हैं. कौन गा रहा है?

“वत्स, यह गुरुकुल है. वे विद्यार्थी सामवेद गा रहे हैं. परन्तु तुम इतने ध्यान से क्या देख रहे थे?

“उस वृक्ष के कंधे पर यह लता कितने विश्वास से लिपटी है. वृक्ष धराशायी हो जाएगा, यह आशंका भी उसके मन में नहीं है.”

“ऐसा भी हो सकता है, वत्स, कि लतिका को ही अपने गिरने का भय होगा. वृक्ष के सुदृढ़ बाहुओं का सहारा उसने लिया होगा.”

मातृगुप्त ने विषय बदल दिया. उसने बिलकुल सहज होते हुए पूछ लिया,

“माता सामवेद तो क्या, मुझे कुछ भी ज्ञात नहीं है. वैसे गोधन के पीछे-पीछे जाते हुए गीत मैं भी गाया करता था. परन्तु ये सुस्पष्ट और अभिमंत्रित स्वर मैं आज ही सुन रहा हूँ. क्या मैं यह सीख पाऊंगा, या मुझे लज्जित होकर यहाँ से भी पलायन करना पडेगा? या आप ही मुझे सीमापार कर देंगी, माते, ऐसा अपमान होने से पहले ही क्या मेरा यहाँ से जाना ही उचित न होगा?

“मुझे माता कहते हो, तो मेरी बात मानोगे ना? और यदि कोई पुत्र की अवहेलना करे, तो क्या तुम्हारी माता मौन रहेगी?

मातृगुप्त चकित हो गया.

“आज तुम सारा आश्रम परिसर देखो. चाहो तो, गोधन-गोशाला देखो. और फिर रात को मैं बताऊंगी कि तुम क्या कर सकते हो.”

जब वह उसके सामने से जाने लगी तो मातृगुप्त ने पूछा,

“माते, औरों को अपना परिचय क्या दूँ ?

“कालिदास, माता सरस्वती का मानस पुत्र कालिदास. देशभ्रमण से लौटा हुआ कालिदास. वेत्रवती के प्रवाह से नौका लेकर आया कालिदास. अरण्य से मार्गक्रमण करते हुए माता से मिलने आया कालिदास. क्या और भी कोई प्रश्न है, वत्स?

“नहीं, अब सारे प्रश्नों के उत्तर मिल गए हैं.”

“भीतर दाईं और गोशाला है. गोधन अरण्य में ले जाने वाला सुदेश है, करमक है. उनके साथ अरण्य-वाचन करने जाओ.”

अब वह नहीं रुकी, वह दूर वृक्ष की छाया में बैठे शिष्यवृन्द की और गई.

 

‘माते!’ पुकार सुनकर सरस्वती ने उसकी और देखा. वह सहज था. प्रसन्न था. वह मातृगुप्त के चेहरे पर छाये आनंद को देख रही थी. सरस्वती ने उसकी और आसन सरकाया. वह आसन पर बैठ गया.

“माते, आज अरण्य में गोमाता के संग जाते हुए अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव हुआ. कितने दिनों बाद मुझे मुक्तता का अनुभव हुआ. फिर भी एक प्रश्न मन में रह ही गया.”

वह हँस पडी और बोली,

“तुम्हारे मन में प्रश्न ही अधिक उत्पन्न होते है, वत्स. पूछो तुम्हारा प्रश्न.”    

 “माते, अरण्य-वाचन का क्या अर्थ है? मेरे प्रश्न पूछने से तुम्हें कष्ट तो न होगा?

“नहीं, कभी नहीं. एक दिन ऐसा भी आये, जब तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर देना मेरे लिए कठिन हो जाए. मैं उस दिन की प्रतीक्षा करूंगी. और, अरण्य-वाचन से तात्पर्य है वृक्ष, लता, फूल, पत्ते, उनके रंग, रूप, गंध और उनकी भाषा...उन पर बैठे पक्षी, पक्षियों की भाषा, उनमें से दिखाई देने वाला आकाश, कुछ वृक्ष आकाश को छूते हुए, मानव की आकांक्षाओं की तरह. कुछ वृक्ष अपनी विस्तीर्ण शाखाओं से सबका स्वागत करने वाले. कुछ फलों के कारण विनम्र हुए, कुछ फूलों से सजे हुए. उनसे लिपटी हुई लावण्य लतिकाएँ. उनके नाज़ुक फूल. रंगों के कितने-कितने प्रकार. एक वृक्ष अथवा लतिका का पत्ता किसी अन्य वृक्ष अथवा लतिका के पत्ते के समान नहीं. एक फूल का आकार दूसरे फूल के आकार के समान नहीं.”

“वत्स, ये सब देखना, इसका अनुभव करना, मन में समा लेना, उस पर विचार करना – यह है अरण्य-वाचन. और उससे भी आगे जाकर अरण्य के इन वृक्षों का, पत्तों, का, फूलों का, लताओं का, वायु, आकाश धरती और प्रकाश का निर्माण किसने किया? कैसे किया? इस सृष्टि का निर्माता कौन? इसका विचार – अर्थात सृष्टिवाचन और चिंतन है.”

मातृगुप्त सुन रहा था, यह सब उसके लिए अत्यंत नवीन था. जब से उसे कुछ समझ आई, तबसे वह अपने बंधुओं के साथ अरण्य में जाने लगा था. जैसे जैसे बड़ा हुआ, उसे गोपालन का कार्य स्वतन्त्र रूप से करना पडा था. वह उसी में लीन  हो गया. विविध प्रकार के खेल खेलते हुए आयु कैसे बढ़ती गई, यह पता ही नहीं चला. देवी सरस्वती के मुख से निकले शब्द और उनका अर्थ, उनका माधुर्य – ऐसा कुछ उसने कभी सुना ही नहीं था.   

वैसे, उसके गाँव में स्थित भव्य शिव मंदिर में अनेक यात्री रुका करते थे. उन्हें देखने के लिए, कभी उन्हें सुनने के लिए वह अपने मित्रों के साथ जाया करता. उनके आख्यान सुनता. कथाएँ भी सुनी थीं, परन्तु राम और कृष्ण को छोड़कर मन में कुछ भी नहीं था. औरों के ही समान उसे भी कृष्ण प्रिय थे. परन्तु एक बार उस शिव मंदिर में निवास कर रहे एक यात्री ने उससे पूछा, “ वत्स, तुम नित्य नियमपूर्वक शिव शंकर के अभिषेक के लिए दूध लाते हो, वह दूध यहाँ के पुजारी को देते हो. उस शिव शंकर के बारे में तुम्हें कुछ ज्ञात है?

“ आप किस बारे में कह रहे हैं?

“यह मूर्ती कितनी प्राचीन है, इस बारे में.”

“ये मुझे कैसे ज्ञात होगा, विप्रवर! मैं तो गोपालक हूँ. यहाँ के वृद्धजनों को यह ज्ञात होगा, परन्तु आप इस बारे में क्यों जानना चाहते हैं?

“वत्स! जो कुछ भी हम देखते हैं, वह घटना, वह दृश्य, वह कला, वह सौन्दर्य हमसे कुछ कहना चाहता है, हमें उसे सुनना होता है, जानना होता है. और तब सब कुछ ज्ञात हो जाता है. उस घटना का अर्थ, उन दृश्यों के सन्दर्भ हमें ज्ञात होते हैं.”

मातृगुप्त को उस समय ऐसा प्रतीत हुआ कि यह कोई पागल यात्री मंदिर में वास कर रहा है. अब इस क्षण देवी सरस्वती ऐसा ही कुछ कह रही थीं. वह यात्री अवश्य ही ज्ञानी होगा. देवी सरस्वती ज्ञानी हैं. अपने अज्ञान के कारण इस बात को मैं न तो तब समझ पाया था, और अभी भी नहीं समझ पा रहा हूँ. वह देवी सरस्वती  से बोला: “माते, मैं इतना अज्ञानी, इतना असंस्कृत हूँ, कि मुझे अपने आप से लज्जा हो रही है.”

“मतलब, तुमने अपने भीतर की न्यूनता को जान लिया है. ज्ञान के सामने नतमस्तक हो गए हो. इसका एक और अर्थ यह भी हुआ कि तुम्हारे भीतर ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा है, जिसके बारे में तुमने सुबह कहा था.”

“मैंने सत्य ही कहा था.”

“वत्स, अब एक संकल्प करो. किसी भी कारण से विचलित न होते हुए ज्ञानार्जन करना है. शास्त्राभ्यास करना है.”

“परन्तु मेरी आयु...” सरस्वती देवी ने संकेत से उसे मौन रहने को कहा. फिर भी वह बोला,

“बाल-कुमार शिष्यों को जो अवगत है, वह मुझे नहीं है.”

“विश्वास रखो, दृढ़ विश्वास रखो. कालीमाता के आशीर्वाद से और शिव शंकर की कृपा से तुम यहाँ आये हो. इसलिए तुम्हें इच्छित की प्राप्ति अवश्य होगी. दो महीने तुम गोपालन करोगे और जो मैं कहूंगी उसका, कोई विकल्प मन में न लाते हुए पालन करना होगा. मुझसे कोई भी प्रश्न पूछे बिना, जो मैं कहूंगी वह करना होगा. विचार करो और बाद में मुझे बताओ.”

“माते तुमने मुझे नाम दिया है – कालिदास. तुम मुझे सरस्वती पुत्र मानती हो. तुम मुझे ज्ञान संपन्न करने वाली हो. अब मन में कोई भी विकल्प लाये बिना मैं वचनबद्ध हूँ स्वयँ से. मैं वचनबद्ध हूँ अपने संकल्प से, और मैं वचनबद्ध हूँ शास्त्राभ्यास के लिए. मैंने स्वयँ को तुम्हें समर्पित किया, माते, देवी सरस्वती. अब तुम्हीं मुझे आकार दोगी.”

अत्यंत विनम्रता से मातृगुप्त ने उसके चरणों में साक्षात दंडवत किया. उसे उठाकर अपने समीप बिठाते हुए वह बोली:

“कल से दो महीने गोपालन करने के लिए गोशाला जाना और गोधन लेकर अरण्य में जाना. मैं जो शब्द दूंगी, उन्हें बार-बार लिखना. उन शब्दों का अर्थ मैं तुम्हें बताऊंगी. उस अर्थ को रात में मन ही मन बार बार दोहराना, प्रातःकाल मैं नित्य नया मन्त्र दूंगी उसे कंठस्थ करना.

“वत्स, यह कठोर ज्ञान साधना करते हुए तुम्हें काफी श्रम करना होगा. तुम सब कुछ छोड़कर मुक्त होने का विचार करोगे. वैसे, तुम जा सकते हो, मैं तुम पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाऊँगी, मगर यदि मेरा मानस पुत्र ज्ञान को पीठ दिखाकर भाग जाए तो मुझे वेदना होगी.”

“माते, अब तुम्हारा पुत्र कालिदास कभी भी ज्ञान साधना से परावृत्त नहीं होगा. मैं कठोर तपस्या के लिए सिद्ध हूँ. तुम्हें वेदना हो, ऐसा मैं कुछ भी नहीं करूंगा. तुम्हारा पुत्र तुम्हें यह वचन देता है और...”

बोलते-बोलते मातृगुप्त मौन हो गया. मन के विदीर्ण भाव उसके मुख पर प्रकट हो गए. कालिदास मन के भीतर किसी तीव्र शल्य को छुपाए है, यह आभास सरस्वती देवी को हुआ. वह मौन रहीं. कुछ देर बाद मातृगुप्त ने पूछा:

“माते अब मैं तुमसे कुछ नहीं पूछूंगा. जो तुम कहोगी, वही सुनूंगा. परन्तु मुझे यह बताओ कि  “अस्ति कश्चित् वाग्विशेष:”? का अर्थ क्या होता है?

“तुम वाणी के बारे में, वाणी से उच्चारित शब्द के बारे में, वाणी द्वारा प्रगट शब्दों के लिखित साहित्य के बारे में क्या जानते हो?

वह बीच ही में बोला:

“माता, मुझे साहित्य, शास्त्र, सन्दर्भ, अर्थ सभी कुछ सीखना है. मुझे सम्पूर्ण होना है. मुझे बहुत कुछ प्राप्त करना है.:

और बोलते-बोलते वह वहाँ से उठकर चला गया. तब देवी सरस्वती को उसके भीतर के शल्य का आभास हुआ, परन्तु सन्दर्भ का ज्ञान नहीं हुआ. वह सन्दर्भ भी किसी दिन ज्ञात होगा ऐसा उसे विश्वास था.

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