महाकवि कालिदास
के निमित्त से!
नवोन्मेषशालिनी देवी शारदा की
रत्नमाला के हृदय के निकट दमकता हुआ कौस्तुभमणि अर्थात् कालिदास! निरभ्र आकाश में
मध्याह्न का प्रौढ प्रगल्भ सूर्य कालिदास और शरद पूर्णिमा का चन्द्रमा भी कालिदास!
रसिकों के आर्त मन को मोहित करने वाला कालिदास और वृक्ष लताओं से संवेदना जगाने
वाला भी कालिदास! युग बीत गए, आगे भी बीतेंगे, परन्तु साहित्याकाश का ध्रुव तारा
हैं कालिदास!
रसिकप्रिय, लावण्यप्रिय
कालिदास अपने साहित्य में संजोते हैं शब्द लावण्य, अर्थ गहनता, आशयघनता, अनुपम
काव्यालंकार, सहज
गतिशीलता और एक से बढकर एक सरस दृष्टांत. हर काल में उनके ऊपर खुलकर लिखने को जी चाहे, ऐसे कालातीत
कवि कालिदास.
ऐसे इन कालिदास के बारे में कुछ लिखा
जाए, ऐसा
हरेक को मोह होगा, वैसा
ही मुझे भी हुआ. परन्तु उनका आकलन मेरे लिए कठिन था.
प्रकांड पंडित, वैदिक धर्म
संस्कृति के पुरस्कर्ता,
नाट्य-काव्य समीक्षा,
संहिताओं के अभ्यासक, ब्राह्मण साहित्य, आरण्यक,
उपनिषद्,
स्मृति-श्रुति ग्रन्थ, दर्शन, धर्मशास्त्र, मनोविज्ञान, सामुद्रिक का
विषद ज्ञान रखने वाले; चित्रकला एवँ संगीत के मर्मज्ञ, युद्धनीति, रणनीति एवँ
चाणक्यनीति के भी अभ्यासक! चातुर्य, सहजता, विनोदप्रियता का प्रभावी ढंग से प्रयोग करने
वाले, बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी सिर्फ कालिदास! अन्य कोई नहीं. ब्रह्मदेव ने सभी
गुणों का रसायन एक ही व्यक्तित्व में उंडेला हो, ऐसे कालिदास!
कालिदास का जीवन चरित्र लिखते हुए
पहला प्रश्न उपस्थित हुआ उनके संदिग्ध जीवन के सन्दर्भ में. उनका व्यक्तिगत चरित्र
कहीं भी प्रकाशित नहीं है. एक महान कवि के बारे में जब लिखना है तो उनके बारे में
प्रमाण क्या है? कैसे
प्रमाणित करूँ कालिदास को? मगर
इतना सत्य है कि प्रत्येक काल में उनके बारे में संशोधन किये जा रहे हैं, यही है उनके
अस्तित्व का सबसे बड़ा सत्य!
यदि उनका साहित्य उपलब्ध है, तो वे निश्चित
रूप से विद्यमान थे. किस काल में हुए होंगे? कुछ लोग मानते हैं कि वे ईसवी सन् से पूर्व
चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में थे, तो कोई उन्हें सम्राट चंद्रगुप्त (विक्रमादित्य)
के नवरत्नों में से एक रत्न मानते हैं.
संशोधन तो होते रहेंगे, मगर एक बात
निश्चित है – चाहे वे किसी भी काल में क्यों न रहे हों, चाहे उनके
माता-पिता अज्ञात हों,
पत्नी-परिवार अज्ञात हो,
परन्तु उन्होंने निष्ठापूर्वक शास्त्राभ्यास किया है. इसका अनुभव उनकी कृतियों में
पग-पग पर होता है. चन्द्रगुप्त मौर्य ने आर्यावर्त को एकसंघ राज्य बनाने के लिए
घनानंद के साथ आचार्य चाणक्य की सहायता से प्रथम क्रान्ति युद्ध किया. भारत के
अस्तित्व को अबाधित रखा, परन्तु भारत का विकास हुआ गुप्त काल में.
जब समाज में शान्ति होती है, शासन व्यवस्था
उत्तम होती है, तभी
कलागुणों का विकास संभव है. विचारों को नई
दिशा मिलती है. एकसंघ राष्ट्र का निर्माण करने के लिए समुद्रगुप्त ने अनेक युद्ध
किये. साम्राज्य का निर्माण किया. उनके पश्चात सम्राट चन्द्रगुप्त ने युद्ध तो
किये,
परन्तु वे मूल स्वरूप के न थे. शासन व्यवस्था उत्तम थी. व्यापार चरम पर था.
मंत्रीमंडल उत्तम था. इसीलिये वह इतिहास का सुवर्णकाल था. कला का विकास हुआ. अतः
कालिदास उस समृद्ध सांस्कृतिक काल में, सम्राट चंदगुप्त के काल में ही था. यदि वह युद्ध
के काल में रहा होता, तो
उसने युद्ध,
क्रान्ति,
शान्ति के बारे में लिखा होता. अतः यह निर्विवाद है कि वह युद्ध काल में, अर्थात
चन्द्रगुप्त मौर्य के काल में नहीं थे.
इसका अर्थ मैंने यह निकाला कि
कालिदास युद्ध रहित,
सामाजिक शान्ति के काल में थे. वे कहाँ के थे? विद्याभ्यास कहाँ किया होगा? यदि आश्रम में
किया तो वह आश्रम कहाँ था? पहले
विद्याभ्यास के लिए काशी जाया करते थे, क्या कालिदास काशी गए थे, परन्तु उनके
साहित्य में इस सन्दर्भ में कुछ भी नहीं है. तो फिर मैं किस आधार पर इस उपन्यास की
रचना करने वाली थी?
उपलब्ध साहित्य – यही एक आकर्षण था. क्या कालिदास का विवाह हुआ था? क्या उनका
परिवार था? इसका
उत्तर कहीं नहीं है. परन्तु उनकी कृतियों में श्रृंगार और विरह की जैसी सूक्ष्म
छटा दिखाई देती है, उससे
प्रतीत होता है कि कालिदास रसिक ही थे. प्रकृति में भी कवि को श्रृंगार दिखाई देता
है, इसका अर्थ यह
हुआ कि कालिदास को स्त्री सुख का पूर्ण अनुभव था.
कालिदास की नाट्य कृतियों में सभी
रसों का प्रयोग हुआ है. कालिदास के नाटकों से सभी रुचियों के दर्शकों का मनोरंजन
होता है. भरत मुनि के नाट्य शास्त्र का गहन अध्ययन करके लिखे गए नाटकों में संधी, रस, अंगहार और
पारिभाषिक शब्द प्रयोग में आये हैं. उनके नाटक में क्रोध, प्रमाद, शोक, दुःख, उलझन, विवाद और सुखद
परिणती है. पात्रों के हिसाब से उनके खड़े होने का तरीका, प्रवेश करने
का तरीका,
वस्त्रों का चुनाव, चलने
का तरीका,
रंगमंच की सजावट,
प्रकाश योजना,
ज्येष्ठ और कनिष्ठ कलाकारों के बोलने का तरीका, परस्पर संवाद में किन शब्दों का प्रयोग किया जाए
इसकी अत्यंत सटीक और सूक्ष्म जानकारी कालिदास प्रस्तुत करते थे.
प्रसाद, माधुर्य, ओज से युक्त, वैदर्भी रीति
से सम्पूर्ण उनके काव्य को ‘द्राक्षारसपाक’ कहा गया है, उन्हें ‘दीपशिखा कालिदास’ कहा गया.
‘उपमा कालिदासस्य’ कहा
गया है. अभिनय के आंगिक, वाचिक, सात्विक – इन तीनों
प्रकारों को उन्होंने यशस्वी किया.
ऐसे ये नाटककार, महाकवि अनन्य
ही हैं. अनेक हुए, अनेक
होंगे,
परन्तु दीपस्तंभ कालिदास ही रहेंगे.
उनके साहित्य को देखा जाए, तो ऐसा प्रतीत
होता है, मानो
यह यक्ष नगरी का शापग्रस्त यक्ष होगा. शाप मिलने से पृथ्वी पर आया हुआ, विरहाग्नि में
जलता हुआ...मुझे स्मृतियों की सुगंध में डूबा हुआ यक्ष नज़र आता है...
कालिदास से पूर्व अनेक आर्ष काव्य
थे. रामायण,
महाभारत जैसे महाकाव्य भी थे. परन्तु विदग्ध महाकाव्य का कालखंड कालिदास से ही
आरंभ होता है. कालिदास ने खंडकाव्य और महाकाव्य इन दो प्रकारों पर काम किया.
कालिदास के महाकाव्य से जो
व्यक्तिरेखा मेरे सम्मुख प्रकट हुई उसी को इस उपन्यास में प्रस्तुत करने का
प्रयत्न किया है. ‘कुमारसंभवम्’ और ‘मेघदूतम्’ में शारीरिक श्रृंगार के दर्शन
होते है, उस पर
भाष्य न करते हुए ऐसी स्थिति में काव्यपंक्तियाँ ही उद्धृत की हैं.
यह मानना गलत होगा कि वाचकों को
कालिदास के बारे में कुछ ज्ञात ही नहीं है. परन्तु कालिदास के नाटकों में, उनके काव्य
में क्या है, यह
संस्कृत का ज्ञान सभी को न होने के कारण, उनकी रचनाओं को इस उपन्यास में संक्षेप
में प्रस्तुत किया गया है. आज के कवि उनका अध्ययन करें, यह भी एक हेतु
था.
कालिदास के बारे में लिखते हुए इस
तथ्य पर ध्यान गया कि उनकी एक पार्श्वभूमि है – विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त) के
दरबार के नवरत्नों की. इस नवरत्न-दरबार में चंद्रगुप्त के दरबार के अन्य लोग हैं.
स्वयँ सम्राट चन्द्रगुप्त का अपना इतिहास है. उनकी कन्या प्रभावती से भी वाकाटक
वंश का इतिहास संबद्ध है. इन दोनों ऐतिहासिक पृष्ठभूमियों और विद्यमान साहित्य के आधार पर यह कहा जा सकता है
कि यह उपन्यास इतिहास, वास्तविक
साहित्य और दंतकथा पर आधारित है. वैसे भी परंपरागत दंतकथाओं में एक अंश सत्य का
होता ही है, उसी
सत्य पर मैंने इस उपन्यास की रचना की है.
कालिदास के जीवन के बारे में भी अनेक
तर्क-वितर्क हैं. कालिदास वास्तव में थे यह तो उनके साहित्य से प्रत्यक्ष प्रमाणित
होता है. उन्होंने साहित्य में जिन भू-प्रदेशों का वर्णन किया है, वे सत्य हैं.
वैज्ञानिक दृष्टी से भी रामगिरी पर्वत से हिमालय तक का सारा वर्णन काल्पनिक प्रतीत
होते हुए भी सत्य है. वायु की दिशा का भी उसने अध्ययन किया था यह सत्य है.
नाट्यकृति के आरंभिक
मंगलाचरण में उन्होंने शिवशंकर का उल्लेख किया है. वह शिवशंकर की प्रतिमा आज भी
मंदसौर में है. मंदसौर आज भी है. प्राचीन काल में उसे दशपुर कहते थे, क्योंकि उसमें
दस ग्राम थे. आज भी वेत्रवती – बेतवा के नाम से प्रसिद्ध है. अर्थात् उपन्यास में
कल्पना का कुछ अंश होते हुए भी वास्तविकता है.
जिस मंदसौर के
बारे में मैंने लिखा है, और
जिसका वर्णन कालिदास के साहित्य में है, वह विदिशा और उज्जयिनी के मध्य स्थित है और
मंदसौर में वेत्रवती का एक प्रवाह शिवना के नाम से प्रसिद्ध है. वहाँ पाँच फुट
ऊँचा, पाँच
फुट चौड़ा शिवलिंग है. उसके बीचोंबीच अग्निज्वाला का प्रतीक बाण दस फुट ऊंचा है. उस
पर प्रत्येक दिशा में दो – इस प्रकार आठ मुख हैं. कालिदास विरचित ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’
के प्रथम श्लोक में अष्टमुखी शिवशंकर की प्रार्थना है. हो सकता है कालिदास उसीके
आसपास दशपुर-मंदसौर के हों.
राजा भोज कब
हुए थे, यह भी
संशोधन का विषय है. राजा भोज एक थे अथवा दो? क्या वास्तव में उनकी विद्योत्तमा नामक कन्या थी? क्या शास्त्रार्थ में उसे हराने वाले पुरुष से ही विवाह
करने का उसका प्राण था? और दंतकथा के
गोपालक कालिदास के साथ व्यूहरचना करके उसका विवाह होता है क्या? क्या विवाह की प्रथम निशा को ही वह निर्बुद्ध कालिदास
से ‘अस्ति कश्चित् वाग्विशेष:’ प्रश्न पूछती है? क्या वह
अपने पति को नगर से बाहर निकाल देती है?
और क्या यह निर्बुद्ध कालिदास काली माता की कृपा से प्रज्ञावंत होता है? ऐसे अनेक प्रश्न हैं. अर्थात् यह दंतकथा है. इस दंतकथा
का आधार ही इस उपन्यास का विषय है.
कालिदास ने दैहिक श्रृंगार का वास्तविक वर्णन किया है, जो अनुभूति के बिना संभव नहीं है. तो, उस दंतकथा के अनुसार उसने फिर विवाह किया था क्या? इसका उत्तर मेरे उपन्यास में नहीं है, परन्तु दंतकथा में कालिदास की मृत्यु सिंहलद्वीप-लंका
में हुई बताई गई है, जो मेरे
उपन्यास में नहीं है.
‘अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:’ के प्रत्येक शब्द से आरम्भ करके कालिदास ने
महाकाव्यों की रचना की. यही उसका जीवन प्रयोजन था. किसी ध्यास से प्रभावित व्यक्ति
ही ऐसा महान कार्य कर सकता है. यदि मेरे उपन्यास में कालिदास ने विवाह किया होता, तो वह ध्यास ही समाप्त हो गया होता, अत: मेरे उपन्यासे में कालिदास ने विवाह नहीं किया, उसके प्रश्न का उत्तर देना ही जीवन का लक्ष्य था.
राजशेखर के ‘भोज प्रबंध’ में यह दंतकथा विद्यमान है और जनश्रुति में भी आज तक रूढ़ है.
भारत की सभी भाषाओं और अनेक विदेशी भाषाओं में कालिदास के अनुवाद किये गए
हैं.
भारत का यह राष्ट्रीय महाकवि अपने साहित्य से अमर हुआ, परन्तु उसके बारे में लगभग सभी कुछ अज्ञात है.
सर्वाधिक प्रसिद्धी उनके ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ और ‘मेघदूतम्’ को प्राप्त हुई. क्योंकि
प्रेम और विरह जीवन का शाश्वत भाव है. इनका अत्यंत प्रभावशाली वर्णन करके कालिदास
ने विश्व साहित्य में विजय प्राप्त की है.
कालिदास के अस्तित्व के बारे में अनेक संशोधक कार्य कर रहे हैं. उज्जयिनी, उससे पूर्व विदिशा-मंदसौर-दशपुर में उसका बचपन बीता
होगा. मंदसौर आज भी है, परन्तु शिवप्रतिमा कालान्तर में वहाँ की शिवना नदी के पात्र में मिली.
वहाँ के निवासी मंदसौर के खिलचीपुर में उसका अस्तित्व था, ऐसा मानते हैं. अर्थात् कालिदास का अस्तित्व था – एक
नहीं, दो नहीं
तीन कालिदास हुए हैं. परन्तु संशोधक - पंडित राजशेखर के अनुसार राजकवि कालिदास का
अध्ययन ही इतना कठिन कार्य है, तो अन्य कालिदासों के बारे में विचार न करना ही उचित है.
कालिदास के निसर्ग चित्रण को अध्यात्मिकता का साथ है. वृक्षवल्ली में भी प्राण
है, उनकी सवेदनाओं का, उनके सुखदुख का वर्णन कालिदास ने किया है. महर्षि
वेदव्यास भी महाभारत के शांतिपर्व में लिख चुके हैं कि वृक्षों में भी
पंचेन्द्रियों का वास है. कालिदास के वर्णनों में इसका प्रत्यय मिलता है.
कालिदास का मनुष्य की अच्छाई पर विश्वास है – उनके नाटकों में कोई खलनायक
नहीं है. संस्कृति के ध्वज को अनन्य ऊंचाई पर ले जाने वाले कवि कालिदास न केवल
महाकवि, राष्ट्रकवि, राजकवि हैं, अपितु रसिकों के ह्रदय में सदा विराजमान रहने वाले कवि हैं.
चन्द्रगुप्त का विवाह, उनका शासन, उनका संघटन, अन्य धर्मों के प्रति आदर, संस्कृत को राजभाषा बनाकर अनेक शास्त्रसभाओं, संगीत सभाओं का आयोजन, और विशाल साम्राज्य के सम्राट होने तक का वर्णन उपन्यास
में है. कालिदास और सम्राट चन्द्रगुप्त का साहचर्य लगभग पच्चीस-तीस वर्ष रहा.
उपन्यास में वाकाटक वंश का भी वर्णन है, जिसमें सम्राट चन्द्रगुप्त की कन्या प्रभावती
विवाहोपरांत आई थी. कालिदास के जीवन का कुछ काल विदर्भ में भी बीता था.
मैंने जिस कालिदास को देखा, जो मेरे मन को भाया वह सभी वाचकों को निश्चित ही प्रिय होगा. मेरे मन का
कालिदास विनोदप्रिय, रसिक, गुणग्राही, स्नेही, उत्तम
चित्रकार है. शब्द सृष्टि का ईश्वर है, विनयशील है, उसके मुख पर
सदा विलोभनीय हास्य है, राजसी तेज से विभूषित, गणिका से भी एकनिष्ठ रहने वाला भावकवि, महाकवि है.
कालिदास समृद्धि के, शान्ति के काल का प्रतिनिधि थे. उनके बारे में जितना
लिखा जाए, कम ही है.
“दीपशिखा-कालिदास” के सन्दर्भ में अनेक विद्वानों के लेखों से
परिचय हुआ, अनेक
विद्वानों से प्रत्यक्ष मिलने का भी सौभाग्य
प्राप्त हुआ. डॉ. बा. रा. अंधारे, डॉ.भारती सुदामे, डॉ. प्रज्ञा आपटे, श्रीमती लीना रस्तोगी, डॉ. पंकज चांदे से समय-समय पर सहयोग प्राप्त हुआ, उनकी मैं
आभारी हूँ.
वाचकों ने मुझे
सदा ही शब्दों के माध्यम से हरसिंगार के सुगन्धित पुष्प दिए हैं. वाचकों के प्रेम
के कारण ही मेरा लेखन अबाधित चल रहा है. मैं
उनकी अत्यंत आभारी हूँ,
शुभांगी भडभड़े.
No comments:
Post a Comment