एकला चलो रे
1
अभी पूरब
में सुबह पूरी तरह खिली भी नहीं था, कि पूरा आश्रम जाग गया था. देवेन्द्रनाथ भी उठ गए. आश्रम के सारे
विद्यार्थी ऋषीकेश के घाट पर स्नान के लिए निकले थे. क्या हम भी जाएं, रवीन्द्र को उठाऊँ
क्या ? इस विचार में वे बैठे रहे. कल शाम को ही वे हरिद्वार से ऋषीकेश आये थे, आगे उन्हें केदारनाथ, बद्रीनाथ जाना था.
दो दिन यहाँ आराम करने के बाद वे साधु संतों के साथ यात्रा के लिए निकलने वाले थे.
क्या करें, यही सोचते हुए बैठे थे कि आश्रम के गुरुदेव बाहर आये.
“आप
त्वरा न करें. बाहर ठण्ड है. गंगा पर तेज़ हवाएं चल रही हैं. आप उजाला होने पर
जाएँ.”
“ऐसी कोई
बात नहीं है. कोशिश करता हूँ,” वे कह ही रहे थे की गुरुदेव
निकल गए, तब देवेन्द्रनाथ ने मन ही मन कहा:
‘जीवन
में सिर्फ सुख की ही आदत पड़ गयी है. फ़ाटक से बाहर निकलते ही घोड़ागाड़ी, और घर के
भीतर राजसी ठाट-बाट. हरेक के लिए शब्दों का मान रखने वाले दास-दासी. कलकत्ता के
जोड़ोसांको में स्थित ठाकुरबाड़ी में इंसानों की चहल पहल, धन की चमक और नाट्य, कला, साहित्य, अन्य चर्चाओं से गूंजता
हुआ बैठकखाना.
ऐसी
बातों की आदत जब स्वयँ हमें नहीं है, तो रवीन्द्र को कैसे होगी ?
कभी वे
हिमालय के मार्ग पर जायेंगे, ऐसी भविष्यवाणी यदि कोई करता तो वे ठहाके लगाते. भविष्य कथन पूरा होने के
बाद खूब सारी दान दक्षिणा देकर उसे बिदा कर दिया होता.
वे अपने
ही विचारों में मगन थे, कि अचानक रवीन्द्र उठ गया और चारों तरफ आवाज़ें सुनकर उसने पूछा:
“की होबे, बाबा?”
“कछु ना
रोबी, कछु ना! आश्रम में
गरम पानी नहीं मिलता. नदी पर जाकर स्नान करना पड़ता है. इसके अतिरिक्त यहाँ
विद्यार्थी सुबह से वेद-मन्त्रों का पठन करते हैं. हमारी और उनकी जीवनशैली में
फर्क है. यहाँ संस्कारों के माध्यम से संस्कृति पढ़ाई जाती है.”
“क्या इस
आश्रम शाला में पिटाई होती है? “
बारह
वर्ष का रवीन्द्र भोलेपन से देवेन्द्रनाथ से पूछ रहा था. इतनी छोटी आयु में मैं
इसे यहाँ ले आया, मुझसे गलती तो नहीं हो गयी? एक दिन यूं ही कहा, वैसे मन में यह विचार तो था ही, तो वह बड़ी प्रसन्नता से तैयार हो गया.
ऋषीकेश
तक तो ठीक है, परन्तु आगे गौरीकुंड, बद्रीधाम, केदारनाथ की कठिन यात्रा यह सहन कर पायेगा? यह विचार मन में आया ही नहीं. पूछा, इसने ‘हाँ’ कहा, और बस, साथ में ले आया.
“बाबा, क्या आश्रमशाला में
मारते नहीं हैं?”
“रोबी, तुझे एक बार स्कूल
में मार पड़ी थी, तेरा ध्यान ही नहीं लगा, तो तूने स्कूल ही छोड़ दिया. आश्रमशाला में पालक अपने बच्चों को वेद
विद्या, शास्त्रों के अध्ययन के लिए भेजते हैं, तब गुरू और गुरूपत्नी ही उनके मातापिता हो जाते हैं.
कभी गुस्सा करते होंगे, कभी सज़ा भी देते होंगे, परन्तु
गुरू के आश्रम से विद्यार्जन पूरा हुए बिना वे वापस नहीं जा सकते.”
रवीन्द्र
के साथ वे गंगा के तीर पर आये. अब पूरब में अरुण प्रभा दिखाई देने लगी थी.
रवीन्द्र यह दृश्य देखकर अवाक् रह गया.
समूचे आकाश
में केसरी रंग छाया हुआ था, और उस केसरी बादल में जगमग करता अरुण रथ वहां रुका हुआ था, रवीराज उसमें से उतर
रहे थे. जंगल का सुवास लेकर वायु की लहरें बह रही थीं. आनंद का गीत गाते हुए पंछी
आकाश की ओर उड़ रहे थे. सामने ही ऋषीकेश की गंगा नवचैतन्य से झिलमिला रही थी.
रवीन्द्र
देख ही रहा था, कि उसे सामने रत्नकणों से जगमगाता हुआ रमणीय दृश्य दिखाई दिया.
“बाबा, ये क्या जगमगा रहा
है?”
“ये
हिमालय की रत्नजड़ित पंक्तियाँ हैं.”
“क्या हम
वहां जायेंगे?”
“हिमालय
की अनेक पंक्तियाँ हैं, उनमें से हम केदारधाम और बद्रीधाम जाने वाले हैं. मतलब, वहां भी ऐसी ही बर्फ
होगी.”
“बाबा,
फिर हमारे पाँव? क्या होगा उनका, क्या हम चल पायेंगे?”
“तुझे बताता हूँ, रोबी, शंकर नामक बालक को आठ वर्ष की आयु में आचार्य की उपाधि प्राप्त हुई थी, उसने सम्पूर्ण
शास्त्र विद्या अवगत कर ली थी, और सिर्फ तमिल और संस्कृत भाषाओं का ज्ञान होते हुए भी वह कर्नाटक, महाराष्ट्र, राजस्थान से पैदल
चलते हुए ओंकारेश्वर पहुंचा था. आगे चलकर आचार्य शंकर जगद्गुरु शंकराचार्य के नाम
से प्रसिद्द हुए और...”
गंगा की
ओर जाते हुए बातचीत अधूरी रह गई थी. सामने अभी-अभी जागी हुई गंगा थी और दूर
क्षितिज पर सम्पूर्ण जंगल था. मंदिर में गंगाजी की आरती हो रही थी. वातावरण
प्रसन्न था.
“शाम को
गंगा के किनारे गंगाजी की आरती होती है, पानी में दीप बहाए जाते हैं.”
“बाबा, ये नदी आई कहाँ से
है? किस हिमालय से? इसकी इतनी पूजा क्यों करते हैं? हमारे कलकत्ता में भी गंगा है, क्या वह यही वाली
है?”
“कुछ
नदियों को गौरव प्राप्त हुआ है. उसके कारण हैं, बताऊंगा तुझे. आज हम आश्रम
लौटेंगे. हमारे साथ कुछ साधु-संत आने वाले हैं, उनसे मिलेंगे.”
“बाबा, क्या वे भी घोड़ों पर
गौरीकुंड आयेंगे?”
“नहीं, वे प्रतिदिन
थोड़ा-थोड़ा चलकर आगे जायेंगे. हमारे ऊपर घर-गृहस्थी, परिवार और कितने सारे सरकारी कामों का उत्तरदायित्व
है.”
रवीन्द्र
बड़ी देर तक देवेन्द्रनाथ को देखता रहा. उसकी नज़रों के सामने कभी-कभी बैठकखाने में
सबसे बातें करने वाले और कभी-कभी शारदा देवी को दवा देने वाले देवेन्द्रनाथ थे. वे
कहाँ चले जाते थे, बीच-बीच में कहाँ लुप्त हो जाते थे, इसका उसे आश्चर्य होता था, परन्तु उनकी
उपस्थिति में बैठकखाना पूरा भर जाता था. उनके ज़ोरदार ठहाकों से ठाकुरबाड़ी
प्रसन्नता से हंसती थी. वे कभी-कभार उससे बातें किया करते. उनके पास समय ही नहीं
होता था. रात में साहित्यिक-सांस्कृतिक विषयों की महफ़िल हुआ करती. सुबह उनसे मिलने
के लिए लोग आया करते.
रवींद्र
को तूफानी हवा की तरह दौड़ना अच्छा लगता. वह पूरे घर में दौड़ता रहता. ठाकुरबाड़ी में
अनेक लोग थे. किसी न किसी को धक्का लग जाता और कोई न कोई उसे धमकाता:
“रोबी, बंद कर अपना
भागना...”
मगर
दौड़ना रुका नहीं था. एक बार भागते-भागते वह शारदा देवी के कमरे में गया तो वे उसके
छोटे भाई को लेकर खड़ी थी, रोबी का जोरदार धक्का खाकर वे गिरते-गिरेते बचीं. बच्चा गिरते-गिरते बचा.
शारदा देवी ने पुकारा:
“सत्येन, उस श्याम से कहना कि
रोबी की ठीक से देखभाल करे. अभी मैं और बुद्धेन्द्र गिरते-गिरते बचे.”
सत्येन
ने श्याम को बुलाया. ठाकुरबाड़ी में अनेक सेवक थे, उनमें श्याम सबसे अधिक विश्वसनीय था.
“श्याम, आज से इस रोबी को
ज़रा रोकना, हमेशा दौड़ता रहता है. इसे अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाओ. ठाकुरबाड़ी के
आँगन में ले जाओ. उसे अच्छी तरह पढाओ.”
श्याम रोबी
का हाथ पकड़ कर बाहर आया. उसके पीछे अनेक काम थे, उस पर रोबी की ज़िम्मेदारी भी आ गयी. सुबह रोबी के
उठने से उसके दूध पीने तक का समय आराम से जाने वाला था, भोजन के समय तक भी कोई परेशानी नहीं थी. देर से
जागने वाले रोबी के दोपहर में सोने का प्रश्न ही नहीं था. ऐसे में दोपहर को उसे
कैसे व्यस्त रखा जाए, इस पर विचार करते हुए वह अनेक कमरे पार करके उसे पश्चिम की ओर वाले एक
कमरे में ले आया.
“रोबी
बाबा, यहाँ से उठना नहीं, मुझे पुकारना नहीं.” श्याम अपनी तेज़ आवाज़ में कह रहा था. उसके हाथों की
मज़बूत पकड़ रवीन्द्र को महसूस हो रही थी. चार साल का रवीन्द्र भयभीत हो गया था.
श्याम
हमेशा की तरह ठाकुरबाड़ी की पश्चिमी और उपेक्षित कोठरी में ले आया. यह कोठरी अत्यंत
एकाकी थी. श्याम एक स्कूल में चपरासी था, परन्तु वह जानता था, कि रवीन्द्रनाथ के सेवक की नौकरी अधिक प्रतिष्ठित थी, इसलिए उसने वह नौकरी
छोड़ दी थी. देवेन्द्रनाथ के जोडोसांको की भव्य ठाकुरबाड़ी में वह सेवक था. उसने
अनुशासन सिखाने की ज़िद में चार वर्ष के रवीन्द्र से कहा:
“रोबी
बाबू, मुझे पुकारना नहीं.” उसने रोबी को ज़मीन पर बिठाया और उसके चारों ओर चाक
से एक गोल घेरा बना दिया. फिर से एक बार धमकाते हुए कहा: “ रोबी बाबू, उठबे ना...” और उसने
दरवाज़ा बंद कर दिया. कमरे में एक ही खिड़की थी. कमरे में ज़्यादा सामान नहीं था, खिलौने नहीं थे, और अगर थे भी तो
चारों ओर खींचे हुए गोल से बाहर आने की, किसीको सहायता के लिए पुकारने की कल्पना भी उस बाल हृदय में नहीं आ सकती
थी, क्योंकि उसका मन भयभीत हो गया था.
श्याम के
जाने के बाद रवीन्द्र उस गोल घेरे में बैठ गया. हाथ-पैरों की उँगलियों को मोड़ कर
उनसे कोई आकृति बनती, तो वो ही हंसता. उस गोल घेरे के भीतर ही गोल-गोल घूमता, और थक जाने पर उसी
घेरे में पैर मोड़ कर सो जाता. दोपहर बाद जब श्याम वापस आता तो उसे कहानियाँ सुनाता
और बाहर आँगन में ले जाता, तब श्याम रवीन्द्र को अच्छा लगता.
इतवार को
जब उसकी छुट्टी होती, तो वह शाम को शारदा देवी के कमरे में जाता. अनेक बार शारदा देवी खामोश
लेटी होतीं.
“माँ!”
वह पुकारता, “माँ, की होबे?”
“कछु ना
रोबी, कछु ना!” शारदा देवी की आवाज़ थकी हुई होती. इस समय ऋषिकेश में भी उसे माँ
की याद आई.
रवीन्द्र
और देवेन्द्रनाथ स्नान करने के बाद आश्रम पहुंचे. स्नान करने के बाद रवीन्द्र
ठिठुर गया था. उसे अपने पास बिठाते हुए देवेन्द्रनाथ बोले:
“अभी तो
हिमालय पर चढ़ना है. मन को मजबूत करो.” मन को सिखाओ, कि ठण्ड नहीं लगेगी’. निर्धार करो. मन ही मन.”
रवीन्द्र
ने मन ही मन निर्धार किया और बोला:
“हाँ, हमें चढ़ना है
हिमालय. अब ठण्ड नहीं लगेगी. वे दोनों मंदिर में गए. वहां अनेक साधु-संत केदारनाथ
के अपने अनुभव बता रहे थे. पूछ रहे थे कि इतने छोटे रवीन्द्र को क्यों लाए हैं? तब देवेन्द्रनाथ ने
कहा:
“इसी आयु
में अध्यात्म से परिचय होना चाहिए. वरना तो, ढलती आयु में भी वह मोहजाल में लिप्त रहता है. इसका
अर्थ यह नहीं है कि रोबी हमेशा ‘ईश्वर ईश्वर’ कहता रहे. कर्म करते हुए उसे ईश्वर का सान्निध्य
प्रतीत हो, यही हमारी इच्छा है.”
“हाँ, ये
बात योग्य है.”
“सही में, यदि परमेश्वर के
सगुण रूप के दर्शन नहीं हुए, तो लोगों को ईश्वर के अस्तित्व का ज्ञान नहीं होता.”
“सच है,” किसीने कहा, तब देवेन्द्रनाथ
बोले:
“हमने
रोबी को पंचतत्वों के बारे में बताया है, ज्योतिष के बारे में बताया है और ईश्वर
के अस्तित्व के बारे में भी समझाया है. आज कहना कठिन है, कि उसे यह सब समझ
में आया अथवा नहीं, या उसके मन में यह कितना स्पष्ट है. परन्तु जीवन के हर मोड़ पर मन में
समाई हुई बात वह समझता जाएगा, यह निश्चित है.”
रवीन्द्र
सुन रहा था. उसने कहा:
“महाराज, मैं ईश्वर को
थोड़ा-बहुत समझा हूँ. वह हमारे मन में है, इस खिली हुई प्रकृति में है. इस अवकाश में है.
पंचतत्वों में ईश्वर का दर्शन होता है. जो कुछ भी सजीव और निर्जीव है, उसमें ईश्वर व्याप्त
है.”
“निर्जीव
वस्तु में ईश्वर कैसे होगा?”
“बिल्कुल
है. जब कोई शिल्पकार, अपनी समूची आत्मा से
ईश्वर की प्रतिमा गढ़ता है, तो उसे सजीव समझकर ही हम उसकी ओर देखते हैं ना? ये पर्वत, नदियाँ, जलाशय सजीव हैं.
वत्स, तुम भगवान के
नेत्रों से देखते हो, इसलिए तुम्हें सर्वत्र उसका अस्तित्व दिखाई देता है – यह उचित ही है; परन्तु वत्स, मनुष्य में ईश्वर का
अस्तित्व देखने का प्रयत्न करो, इससे तुम्हें परिवार और समाज अपना प्रतीत होगा.”
देवेंद्रनाथ
की आंखें भर आईं. यदि मनुष्य में ईश्वर के दर्शन हुए तो समाज में परस्पर स्नेह भाव
रहेगा. मन ही मन इस दृश्य की कल्पना करते हुए वे आश्रम से बाहर आये. उनके साथ कुछ
घोड़ों पर जाने वाले लोग थे वे सब निकल पड़े.
“रोबी, तू हमारे सामने बैठ.”
“बाबा, मुझे अलग से, सफ़ेद घोड़ा चाहिए.”
उसके
बालहठ को देखते हुए देवेन्द्रनाथ ने उसे सफ़ेद घोड़ा दिया. सात घोड़े, उन पर बैठने वाले
सात लोग, और उन घोड़ों के सात मालिक, जो लगाम लेकर चल रहे थे.
सूरज की
किरणें अब वृक्षों के शिखरों पर पड़ रही थीं, वैसे ही वे जलाशय पर भी थीं. घना, हरा-हरा जंगल, उसमें से जाने वाला
हरा-हरा मार्ग, प्रसन्न सुबह और उत्साहपूर्ण, प्रसन्न रवीन्द्र.
‘रोबी, भालो बाछे?”
“आमि
भालो बाछे बाबूजी.”
रवीन्द्र
को अपने साथ लाकर कोई गलती नहीं की, बल्कि उचित ही किया, इसकी उन्हें प्रसन्नता थी.
मन में
कुछ ठानकर ही इस बार कुछ सप्ताहों के लिए कलकत्ता आये थे. द्विजेन्द्र का उपनयन
संस्कार हो चुका था, परन्तु अन्य तीन उपनयन के लिये योग्य थे; परन्तु देवेन्द्रनाथ के लिए अपने काम से इतना समय
निकालना संभव नहीं हो पा रहा था. शारदा देवी ने कहा भी था;
“तीनों
का उपनयन संस्कार करना होगा, यदि हम ही नहीं करेंगे तो संस्कार कैसे होगा. तीनों
बड़े हो गए हैं. आप समय निकालें, तो अच्छा रहेगा. वास्तव में आयु के अनुसार तीनों बड़े हो गए हैं.”
कर्तव्य
को ध्यान में रखकर देवेन्द्रनाथ कलकत्ते आये थे. उन्होंने शारदा देवी से कहा:
“ अब
तैयारी करना चाहिए. द्विजेन्द्र का उपनयन संस्कार हो चुका है, सत्येन्द्र, हेमेन्द्र, वीरेन्द्र,
ज्योतिन्द्र का भी उचित समय पर हो गया है. पुष्पेन्द्र, सोमेन्द्र और रवीन्द्र का उपनयन संस्कार होने के बाद
हम प्रथम रोबी को हमारे शान्तिनिकेतन लेकर जायेंगे.”
“शान्तिनिकेतन? वह अकेला वहाँ क्या
करेगा?”
“वो हम
देख लेंगे. वहाँ से हम उसे लेकर केदारनाथ जायेंगे. इस बार निश्चय करके ही आये
हैं.”
उनका
उत्साह देखकर और रवीन्द्र को साथ ले जाने बात सुनकर वे कुछ बोलीं नहीं.
रवीन्द्रनाथ के जन्म के दो ही वर्ष बाद बुद्धेन्द्र का जन्म हुआ था. चौदह संतानों
को जन्म देकर शारदा देवी थक चुकी थीं. उसके बाद दो ही वर्षों में बुद्धेन्द्र की
मृत्यु हो गयी. स्वास्थ्य क्षीण होने के साथ ही इस दु:ख को सहन करते हुए शारदा
देवी का स्वास्थ्य अत्यंत क्षीण हो गया था.
उनकी
सेवा के लिए दासी, और रवीन्द्र की देखभाल करने के लिए श्याम की नियुक्ति की गई थी. फिर
रवीन्द्र के प्रति प्रेम होते हुए भी, घर में उससे मिलना भी संभव न होने से उसके प्रति स्नेह की भावना अधिकाधिक
बढ़टी जा रही थी. किसी का विरोध करने की शक्ति उनके भीतर नहीं रह गई थी.
‘क्या
बारह वर्ष का रवीन्द्र इस यात्रा को सहन कर पायेगा?’ यह प्रश्न उन्होंने मन में ही रखा था, क्योंकि इसका उच्चार
भी यदि वे करतीं, तो भी देवेन्द्रनाथ जैसा उचित समझेंगे वैसा ही करेंगे, ये भी उन्हें ज्ञात
था. रवीन्द्र छोटा था, बाकी सारे भाई बड़े हो गए थे. घर में अनेक रिश्तेदार रहा करते थे.
सत्येन्द्र और द्विजेन्द्र का ब्याह हो चुका था. घर में ज्ञाननंदिनी और
सर्वसुन्दरी – दो बहुएँ थीं. देवेन्द्रनाथ का स्वयँ को मिलाकर अठारह व्यक्तियों का
परिवार था. ठाकुरबाड़ी में दिनभर चहल पहल रहती थी.
देवेन्द्रनाथ
को सभी स्थानों पर सम्मान प्राप्त था. सामाजिक, राजकीय, धार्मिक और शिक्षा के क्षेत्र से उनका संबंध था. इन क्षेत्रों के श्रेष्ठ
व्यक्तियों की हर शाम को ठाकुरबाड़ी के बैठकखाने में बैठक हुआ करती थी. द्विजेंद्र, सत्येन्द्र अपनी
पत्नियों सहित, और अन्य भाई, चचेरे भाई – सभी उपस्थित रहा करते. रात में कविसम्मेलन, गीतवाचन, मनोरंजन, और सामाजिक-राजनीतिक
चर्चा भी होती थी.
शारदादेवी
को यह अच्छा लगता था, परन्तु कई बार वे जा नहीं पातीं थीं, वे अपने कमरे में शांत पड़ी रहतीं.
रवीन्द्र का माँ के पास जाने का मन होता, परन्तु दिनभर श्याम उसे अपने वृत्त में बंद करके
रखता, शाम को वह सारे बच्चों को लेकर आँगन में आता और उसकी ड्यूटी समाप्त हो
जाती, फिर ईश्वर नामक सेवक की ड्यूटी शुरू हो जाती. बीच के अंतराल में वह भागकर
शारदादेवी के कमरे में जाता. उनके छोटे भाई बुद्धेन्द्र के निधन के बाद वे और अधिक
उदास और क्षीण प्रतीत होतीं. उन्हें अपने निकट बिठाते हुए उनका क्षीण हाथ उसके
मस्तक पर रहता. बस इतने से स्पर्श के लिए ही वह आतुर था. माँ की आंखें भर आतीं, तो रवीन्द्र का मन
भर आता, और कई बार वह माँ की गोद में सिर रखकर रोता. ठीक उसी समय ईश्वर आ धमकता.
अब घोड़े
पर ऋषीकेश से गौरीकुंड की ओर जाते हुए उसे शारदादेवी की याद आई. माँ मेरी राह देख
रही होगी, यह भावना तीव्र हो गई, और तभी घोड़े की रकाब से उसका पैर फिसल गया वह लुढ़क गया. रास्ता भी
फिसलनभरा था. घोड़ेवान ने उसे संभाल लिया, तो देवेन्द्रनाथ बोले:
“रोबी, मेरे सामने बैठ. तब
मुझे चिंता नहीं रहेगी. देख कितनी गहरी खाईयाँ हैं.” रवीन्द्र चुपचाप उनके सामने
बैठा और पिता के स्पर्श से वह रोमांचित हो गया.
“आज हम
बड़े सबेरे निकले हैं. शाम को गौरीकुण्ड पहुंचेंगे.”
“फिर
रहेंगे कहाँ?”
“वहाँ
अनेक आश्रम हैं. उन आश्रमों में भारत के कोने-कोने से साधुसंत आते हैं. हिमालय के
इस केदारनाथ, बद्रीनाथ का आकर्षण कभी भी कम नहीं हुआ है.”
वे बोल
रहे थे, मगर एक हाथ मज़बूती से रवीन्द्र के चारों ओर लिपटा हुआ था, पहले कभी भी ऐसा
आनंद उसे नहीं हुआ था, वह मौन था.
“रोबी, अच्छा लग रहा है, ना?” काफ़ी समय बाद
देवेन्द्रनाथ ने पूछा. रवीन्द्र उनके हाथ पर हाथ रखे प्रसन्नता का अनुभव कर रहा
था.
दोपहर
में ही ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो शाम हो गई हो. घोड़ेवान ने मज़बूती से लगाम पकड़ी और वह घोड़े के
साथ-साथ चलने लगा.
शाम होते
ही अन्धेरा छा गया. यहाँ बेहद ठण्ड थी. वहां के एक आश्रम में उनके रहने की
व्यवस्था हो गई.
“बाबा, यहाँ कुण्ड कहाँ है, और गौरीकुण्ड क्यों
कहते हैं?”
वहां आये
हुए एक साधु ने बताया:
“शिवशंकर
को प्रसन्न करने के लिए यहाँ पार्वती ने अनेक वर्षों तक तपस्या की थी. तब शिवशंकर
प्रसन्न हुए और उन्होंने उनसे विवाह किया था.”
“विवाह
के लिए इतने साल तपस्या?”
“हाँ, शिवशंकर ऊंचे
केदारनाथ में रहने वाले. उनका परिवार नहीं था. ऐसी परिस्थिति में राजकन्या पार्वती
से विवाह करना उन्हें उचित नहीं प्रतीत हुआ. मगर पार्वती को शिवशंकर अत्यंत प्रिय
थे, इसलिए वह राजप्रासाद छोड़कर वह यहाँ रहने चली आई. यहाँ मंदाकिनी का कलकल करता
प्रवाह, आसपास
पहले जंगल और बस्ती थी, अनेक वर्षों तक वह यहाँ रहीं और तभी शिवशंकर ने
‘हाँ’ कहा.”
अत्यंत सरल शब्दों में उस साधु ने कहानी बताई.
आश्रम में गरम-गरम खाने की व्यवस्था थी.
कुछ साधु फ़लाहार करने वाले, तो कुछ एकभुक्त थे. रवीन्द्र और देवेन्द्रनाथ ने
छक कर खाया.
भोजन के बाद रवीन्द्र बाहर आया, साथ ही वे भी
बाहर आये.
“बाबा, देखो, चन्द्रमा
कितना नीचे है और कितना ऊंचा हो गया है, है ना?”
“हाँ, हम खूब ऊँचाई
पर आ गए हैं. हम उत्तराखण्ड में आये हैं. स्कूल में भूगोल का नक्शा देखा है न
तुमने?”
रवीन्द्र ने कोई जवाब नहीं दिया, तब वे ही बोले:
“उत्तराखण्ड में चार धाम प्रसिद्ध
हैं. गंगोत्री,
गंगोत्री से अलकनंदा का उद्गम होता है. यमुनोत्री. रुद्रप्रयाग, जहां हम रुके थे, वहीं से दो
रास्ते जाते हैं. एक यमनोत्री, गंगोत्री की तरफ, और दूसरा जाता
है बद्रीधाम,
केदारनाथ की ओर.
मगर अब आश्रम में चलें, ठण्ड लग
जायेगी.”
रवीन्द्र उनके साथ आश्रम आया. ऋषीकेश
में सोने के लिए चटाईयां थी, मगर यहाँ चटाईयों पर गद्दे थे.
बिस्तर पर लेटते ही रवीन्द्र
को निद्रादेवी ने अपनी गोद में ले लिया, परन्तु
थके हुए होने पर भी देवेन्द्रनाथ सोए नहीं थे. उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था,
कि कभी वे यहाँ आयेंगे. आंखों के सामने वे अपने जीवनपट को देख रहे थे.
*****
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