एकला चलो रे
शुभांगी भडभडे
हिन्दी अनुवाद
आ. चारुमति रामदास
‘एकला चलो रे!’ के निमित्त से....
When
I am no longer on this earth
My
tree will let the ever
renewed
Leaves of thy spring
Murmur
to the warfare –
The
poet did lore while he lived
जब मैं
नहीं रहूँगा, तब वृक्ष
लताओं के कोमल पर्ण आनंद लुटाते रहेंगे और यहाँ विश्राम कर रहे पथिक से कहेंगे, कि यह कवि केवल प्रेम की खातिर
जिया.
यूरोप
के बालाटोन सरोवर के किनारे पर एक कार्यक्रम में रवीन्द्रनाथ ने एक कार्यक्रम में
एक छोटा सा पौधा लगाया था. उस स्थान पर लिखी हुई उनकी पंक्तियों को आज उस पौधे से
रूपांतरित हुआ वृक्ष छाया दे रहा है.
रवीन्द्रनाथ
ठाकुर को हम ‘जन गण मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता’ इस राष्ट्रगान के कवि के रूप में जानते हैं,
सर्वप्रथम बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास ‘आनंदमठ’ में ‘वन्दे मातरम्’ सर्वप्रथम गाने के लिए और
सर्वप्रथम भारतीय कवि के रूप में ‘नोबल’ पुरस्कार प्राप्त करने के लिए!
रविन्द्रनाथ
ठाकुर कोलकता परिसर से कुछ दूर स्थित ‘शान्तिनिकेतन’ के निर्माता हैं. प्रकृति पर अत्यंत प्रेम करने
वाले वे विश्वकवि हैं. प्रकृति के प्रति उनका प्रेम इतना अटूट है कि वे उससे अलग
हो ही नहीं सके.
रवीन्द्रनाथ
ठाकुर वह अद्भुत स्वप्न थे, जो सृष्टि ने देखा था. उनके बहुआयामी व्यक्तित्व के लिए सृष्टि
निर्माता ने कौन कौन से रसायनों का प्रयोग किया था, यह शायद उसे भी याद न होगा.
रवीन्द्रनाथ
ठाकुर! अलौकिक प्रतिभावंत! अतुलनीय साहित्य सम्राट! कवि,गीतकार, संगीतकार, गायक, नृत्य नाट्यलेखक, नृत्यकार, कथाकार, उपन्यासकार. बालकथालेखक, व्यंग्यकार, चित्रकार, दिग्दर्शक, शिक्षाविद, भाषा विशेषज्ञ, मनोविश्लेषक, अथक
प्रवासी,
दृष्टा और दार्शनिक....अपनी 80 वर्ष के जीवन में उन्होंने इतना अधिक कार्य किया
जिसकी तुलना कोई और नहीं कर सकता. वे अष्टावधानी नहीं, अपितु लक्षावधानी थे.
बंगाल
के अत्यंत समृद्ध परिवार में उनका जन्म हुआ. उनके कुल को ‘ठाकुर’ की उपाधि प्राप्त
थी, जिसके
कारण उन्हें यह नाम प्राप्त हुआ. इससे पूर्व उन्हें जाति से निष्कासित करके
‘पिराली ब्राह्मण’ नाम
दिया गया था.
सम्पन्नता की दृष्टी से द्वारकानाथ ठाकुर, फिर देवेन्द्रनाथ ठाकुर और फिर
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नाम आता है. देवेन्द्रनाथ ठाकुर की चौदह संतानें थीं और
चौदहवीं संतान थे रवीन्द्रनाथ ठाकुर! सभी उच्चशिक्षित! परिवार की महिलाएं भी
ठाकुरबाड़ी के बैठकखाने में आयोजित चर्चाओं में सहभागी होती थीं. परन्तु
रवीन्द्रनाथ को दस वर्ष की आयु में माँ का निधन देखना पडा. घर पारिवारिक जीवन में
उन्हें किसी चीज़ की न्यूनता नहीं थी, सभी उनका ध्यान रखते थे. बहुत सारे दास-दासी थे.
आठ
वर्ष की आयु में रवीन्द्रनाथ कविता की ओर आकर्षित हुए. उनकी पहली कविता ‘भारतीय’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हुई और
अस्सी वर्ष की आयु में – मृत्युशैया पर पड़े हुए उन्होंने अपनी अंतिम कविता की रचना
की.
रवीन्द्रनाथ
ने प्रकृति से सर्वाधिक प्रेम किया. जीवन के हर मोड़ पर मिलती हुई प्रकृति उनकी
प्रिय सखा हो गई. वे स्वयं आनंदयात्री थे, सौन्दर्य के आस्वादक थे.
ठाकुरबाड़ी
के ऐश्वर्यसंपन्न वास्तव्य में भी खिड़की से उन्हें प्रकृति मिली. इससे वे अत्यंत
प्रभावित हुए. बाद में भी ज़मीनदारी के कामों से बंगाल के गाँवों में, बस्तियों में और जंगली बस्तियों में
भ्रमण किया. अपनी अनुभूति को शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करते गए.वैसे वे अनेक
बार विदेश भी गए, यूरोप, अमेरिका में घूमे, बार-बार घूमे, तब भी प्रकृति उनके साथ-साथ चल रही
थी.
भारत
के सांस्कृतिक,
सामाजिक,
साहित्यिक,
आध्यात्मिक, राष्ट्रीय इतिहास में उनका कार्य अत्यंत प्रशंसनीय है. सत्य, सौन्दर्य, आनंद देने वाले वे विश्वकवि थे. ‘नोबेल
पुरस्कार’ से सम्मानित थे. भारत को प्रथम ‘नोबेल पुरस्कार; दिया गया उनके काव्य
संग्रह ‘गीतांजली’ के
लिए और एक सुनहरे पृष्ठ पर उनकी मुद्रा अंकित हो गई.
पूर्वजों के इतिहास के पृष्ठ तो इतिहास में अंकित थे ही, उससे भिन्न स्वकर्तुत्व का पृष्ठ लिखा रवीन्द्रनाथ ने. गणगोत्र, रीति-परम्पराओं को संभालते हुए एक बड़े परिवार का आर्थिक आधार – ज़मीनदारी भी पिता की आज्ञानुसार संभालते रहे. जमीनदारी जैसे रूखे और व्यवहारी कार्य में उनका साथ देती थी प्रकृति, नदी, मानवीय सवेदना, जागृत् अनुभूति से परिपूर्ण मन और कवि हृदय.
रवीन्द्रनाथ की यात्रा बचपन के नाम ‘रोबी’ से आरंभ हुई और ‘गुरुदेव’ शब्द पर पहुंचकर थम गई. अस्सी वर्ष
के प्रदीर्घ कालखण्ड में उन्होंने जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव देखे और उन्हें शब्दों
में पिरोया. सात दशकों की यह साहित्य यात्रा इतनी सहज भी नहीं थी . परन्तु
प्रत्यक्ष सरस्वती ही उनके साथ-साथ चल रही थी, हर शब्द को लिपिबद्ध कर रही थी.
दिन भर
में एक भी क्षण ऐसा नहीं जाता था, जब उनका संवेदनशील मन मौन रहा हो. अखण्ड साहित्य साधना, अनंत साहित्य साधना, और उत्कट साहित्य साधना करने वाला कोई अन्य साधक शायद संभव न हो. फिर
भी जो सुन्दर,
लोकहितवादी,
राष्ट्रभक्ति से परिपूर्ण और देश समर्थन तथा स्वातंत्र्य समर्थन करने वाला था, यदि उसीको प्रकाशित किया गया, तो वह भी असीमित है.
बचपन
से कविता ने उनका साथ दिया और अस्सी वर्ष की आयु तक वे कविताएँ लिखते रहे. उनके
पचपन कविता संग्रहों में 2252 कविताएँ हैं. तत्कालीन भारत के हरेक जनमानस के
स्पंदन इन कविताओं में दर्ज हैं. बदलती हुई ऋतु, बदलती हुई प्रेम भावनाएँ, बदलते
हुए स्थान, विपुल प्रकृति वर्णन और
बदलता हुआ देशकाल तो कविताओं में दिखाई देता है, इसके
अतिरिक्त अध्यात्म और निराकार के प्रति आकर्षण भी परिलक्षित होता है, काव्य उनकी अनुभूति है, तो लेखन
उनकी साधना. इसीलिये वे ‘विश्वकवि’ की उपाधि तक पहुंचे.
उनकी लिखी हुई 84 कथाएँ ‘गल्प कथा’ के रूप में तीन भागों में
प्रकाशित हैं. कवि होने के साथ-साथ वे प्रख्यात कथाकार और बाल कलाकार भी हैं. किशोरों
के लिए लिखी हुई उनकी कथाएँ अजरामर हो गई हैं. उसी प्रकार वे उपन्यासकार के रूप
में भी प्रसिद्द हैं. तत्कालीन राजकीय और राष्ट्रीय जीवन पर लिखे उपन्यास – ‘गोरा’ और ‘घरे बाहिरे’ ने उन्हें अत्यंत लोकप्रिय बना
दिया. अनेक बार कटु सत्य कहने के लिए उनकी आलोचना भी हुई है, साहित्यकारों की टीकाओं का सामना करना पड़ा है. विशेषकर जब उन्होंने रूढी-परंपराओं और अंधश्रद्धा पर लिखा, तो उन्हें काफी कुछ सहना पडा.
तत्कालीन समाज नए विचारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था. इसका उत्तर समय
ही देगा – ऐसा उन्होंने मन में ठान लिया था, वह भी अनुभूति से ही.
नाटककार, निर्देशक, अभिनेता, गीतकार, संगीतकार – ऐसा बहुआयामी व्यक्तित्व था उनका. उनके द्वारा रचित अनेक
ऐसे नाटक हैं जिनमें सुन्दर संवाद रचना, प्रभावशाली
निर्देशन, और
उत्कृष्ट अभिनय, उनके ही गीत तथा संगीत रचना है.
स्वतंत्रता पूर्व के काल में राष्ट्रीय आन्दोलन में उन्होंने भाग लिया तथा इस
विषय में लिखा भी. उन्होंने अपनी स्वतन्त्र शैली – रवीन्द्र संगीत,
रवीन्द्र नाट्य, रवीन्द्र नृत्य की रचना की. लोकगीतों के सन्दर्भ में विचार करने
के कारण यह शैली अत्यंत लोकप्रिय हुई. शब्दों को सुर और सुरों को ले, ताल
और गति प्राप्त हुई. अपनी आयु के 62 वर्षों तक वे नृत्य करते रहे. बंगाली साहित्य को
वे विशिष्ट ऊंचाई पर ले गए. ‘आमार शोनार बांगला’ गीत से
तो उन्हें अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई.
अध्यात्म तो उनके खून में ही था. वेदपुराण, उपनिषद्, और उनमें निहित विज्ञान तथा अद्वैत उन्हें प्रिय थे. वैदिक काल में भी आश्रम व्यवस्था और निसर्गरम्य वातावरण में मुक्त शिक्षा उन्हें पसंद थी और सन् 1901 में उन्होंने आश्रम व्यवस्था पर आधारित ‘शान्ति निकेतन’ संस्था की स्थापना की तो पूरी दुनिया का ध्यान इस पर आकृष्ट हो गया. कालान्तर में देश-विदेश के विद्यार्थी शान्ति निकेतन में आने लगे. अब तो ‘शान्ति निकेतन’ विश्वविद्यालय हो गया है और सैकड़ों विद्यार्थी यहाँ से पदवी प्राप्त कर रहे हैं.
उन्होंने
अनेक गणमान्य व्यक्तियों को, पत्नी को, भतीजी को, वाचकों को सैंकड़ों पत्र लिखे है, उन पत्रों के खण्ड भी प्रकाशित हो चुके हैं.
जीवन
की सांझ होते-होते उनके मन में विचार आया, कि एक कला अभी बाकी है, और वह है – चित्रकला. आयु के सत्तरवें वर्ष में
उन्होंने चित्रकला का आरंभ किया, वह भी बिना कहीं उसकी शिक्षा प्राप्त किये. इन
चित्रों की संख्या भी कम नहीं है. उन्होंने लगभग दो हज़ार से ऊपर चित्र बनाए और
पैरिस में उनका प्रदर्शन किया.
वे
आनंद यात्री थे. वे अनेक बार यूरोप और अमेरिका गए थे. कुछ समय वहां वास्तव्य भी
किया. अनेक देशों के श्रेष्ठतम व्यक्तियों से उनकी मित्रता थी. जितनी उतनी प्रशंसा
हुई, उतने
ही विदारक घाव भी उन्हें झेलने पड़े, परन्तु ‘एकला चलो रे!’ की धुन में वे चलते
रहे.
परतंत्रता, अंधश्रद्धा, कुरीतियाँ, अपने जीवन मूल्यों को खो चुका भारत देश, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक दृष्टि से निम्न स्तर पर पहुँच गया
था, तब
‘सुवर्ण युग’ की राह न देखते हुए चल पड़े थे वे उस दिशा में. ऋषितुल्य जीवन बिताने
के कारण उन्हें ‘महर्षि’ और ‘गुरुदेव’ की उपाधि प्राप्त हुई थी. यदि एक ही वाक्य में उनका वर्णन किया जाए
तो वे ‘लक्षावधानी’, ‘बहुश्रुत’ एवँ बहुआयामी थे.
ऐसे
व्यक्तित्व के बारे में लिखने का साहस मैंने किया है, परन्तु मैं उन्हें पूरी तरह न्याय न दे पाऊँगी.
असमर्थ हूँ मैं. फिर भी जनमानस में उनकी श्रेष्ठता की कम से कम एक सुवर्ण रेखा ही
दिखाई दे, ऐसा
प्रयत्न मैंने किया है. उनके व्यक्तित्व के सारे पहलू मैं पूरी तरह चित्रित न कर
सकी. आकाश के प्रतिबिम्ब को घट में दिखाने का यह प्रयत्न है.
मेरे
प्रकाशक,
मनोरमा प्रकाशन, और
प्रकाशन की संचालिका विद्या फड़के की मैं अत्यंत आभारी हूँ.
मेरे
वाचकों ने हमेशा ही मेरा साथ दिया है. मैं सदैव उनकी ऋणी हूँ. जनता जनार्दन का
विशाल स्वरूप मेरे मन में है, इसका अनुभव मुझे वारंवार हुआ है. इस उपन्यास का भी
हमेशा की तरह स्वागत होगा, ऐसा मुझे विश्वास है.
इस
उपन्यास के लिए बंगाली साहित्य की अनुवादिका मृणालिनी केळकर ने मेरी बहुत सहायता
की है. उन्होंने अनेक पुस्तकें सहजता से मुझे उपलब्ध कराई हैं. मैं उनकी आभारी
हूँ.
शुभांगी भडभड़े
276, ‘पद्मगन्धा’, लोकमान्य नगर
हिंगणा रोड, नागपुर – 440016
9373121437
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