10.
आखिर सियालदह स्टेशन आ गया. रेल का इंजिन साठ-सत्तर मील भागकर थक गया था.
गाड़ी का ब्रेक लगा और भीतर के दस-बारह यात्री एक दूसरे पर गिरते-गिरते बचे. इंजिन
ने एक गहरी सांस छोड़ी. अब रेल गाड़ी सुबह तक आराम से स्टेशन पर सोने वाली थी.
कलकत्ता से सुबह निकली हुई गाड़ी दोपहर बाद पहुँची थी. सियालदह स्टेशन आसपास
के अनेक छोटे-छोटे गाँवों को जोड़ता था. व्यापार के लिए अपने खेत का माल और मछली
लेकर जाने वाले कुछ लोग कलकत्ता से वापस आते हुए प्रसन्न दिखाई देते थे. शरीर पर
कोयले का धुआँ और उस पर कोयले के कण लिए स्टेशन पर उतरते. आज रवीन्द्र भी उतरा था.
दो बक्से लिए. स्टेशन पर आये हुए रामसेवक ने भागकर घुटनों के बल उसे प्रणाम किया
और सिर पर सामान रखकर वह आगे-आगे चला.
“क्या यह गाड़ी रोज़ इतनी देर से आती है?”
“नहीं, बाबू मोशाय, भोजन के समय तक आ जाती है. आज देर से आई है.”
मगर रवीन्द्र को यात्रा उकताहट भरी प्रतीत नहीं हुई थी. कलकत्ते से चलने के
बाद परिसर का निसर्गरम्य दर्शन, प्रकृति, सरोवर, तालाब और उनमें खिली हुई कमलिनी को देखकर प्रसन्न हो गया था.
उनका सामान लेते हुए रामसेवक ने कहा, “बाबू मोशाय, मैंने सियालदह में आपके
लिए एक सुन्दर कुटी बनाई है. आज वहीं आराम कीजिये. फिर बारकोट में आपके पिताजी का
घर है, वहां जायेंगे.”
रवीन्द्र हंस पडा. “तू कह रहा है, इसलिए रहूँगा यहाँ, मगर मैं बिल्कुल भी थका
नहीं हूँ. मगर ये कोयले की धूल मुझे बेचैन कर रही है. इसलिए अगर वहां पद्मा नदी की
धारा हो तो...”
“है. बहुत छोटी धारा है. वर्षाकाल में ये धारा चौड़ी हो जाती है.”
रवीन्द्र एक मील चलकर गया और उसे नज़र आई रामसेवक द्वारा बनाई हुई हरे-हरे
बांस की, नारियल के पत्तों से आच्छादित हरी-हरी कुटी. रवीन्द्र बहुत प्रसन्न हुआ. उसे प्रतीत
हुआ मानो मन की हरियाली प्रत्यक्ष प्रकट हो गई है.
“बाबू मोशाय, आपके लिए चाय लाऊँ या दूध?”
“कुछ भी ला. मगर मुझे रवी बाबू कहा कर. समझ गया?”
सामान रखकर रामसेवक निकट की कुटी में गया. रवीन्द्र देख रहा था. घना-घना
जंगल, उसमें से आ रहा नादमय समीर, संध्या पहला की कदम धरती पर रख रही थी. संध्या रंगबिरंगी वस्त्र पहनने में
मगन थी. वे कपड़े लेकर नदी की तरफ़ गए और विस्मय चकित रह गए. पद्मा का प्रवाह था तो
छोटा, मगर पूरा रंगबिरंगा आकाश उसमें समा गया था. प्रवाह में दिखाई दे रहे आकाश
के उस प्रतिबिंब को वे ज़रा भी हिलाना नहीं चाहते थे.
किनारे पर बैठकर, पानी को ज़रा भी हिलाए बिना, वे सुस्नात होकर वापस आये, तो रामसेवक केले के पत्ते पर बहुत सारे खाद्य
पदार्थ लाया था. साथ में दूध भी था.
“ये सब तू घर से आला है, रामसेवक?”
“नहीं रवी बाबू, अपनी रसोई के लिए निकट ही एक कुटी बनाई है. आपके पिताजी के साथ जैसे मैं
हमेशा रहा, वैसे ही आपके साथ रहूँगा.”
“देखो, मेरे पिता नित्य ध्यान-धारण करते थे. मैं लिखता हूँ, अर्थात् शब्दों का
ध्यान करता हूँ. शब्द लिखता हूँ और शब्द ही जीता हूँ...” कहते-कहते वह रुका और उसने
पूछा,
“मैंने जो कहा, वह तुम समझे क्या?”
“नहीं, मगर सुनने में बहुत अच्छा लगा.”
“क्या तुम्हारा ब्याह हो गया है?”
“हाँ, दो बच्चे हैं.”
“फिर भी तू मेरे लिए यहाँ रहेगा?”
“तो क्या हुआ? सेवा करूँगा तभी तो चार पैसे मिलेंगे ना?”
“ऐसा करो रामसेवक. तुम घर जाओ. मुझे सुबह दूध लाकर दे, फिर भोजन और रात का
खाना. इतना अपने घर से लाते रहो और ज़मींदारी के गाँव जाते समय मेरे साथ चल. ठीक है?”
“मगर रवी बाबू...”
“किसी प्रकार का संकोच मत करो. सचमुच जाओ. तुम्हारा घर...”
“ये सामने ही तो है. मगर मैं आता रहूँगा. पुकारने पर आवाज़ सुनाई नहीं देगी.”
बहुत बार कहने के बाद वह दिया जलाकर वह चला गया. जाते समय उसने तेल की शीशी
दिए के पास रखी. उसका प्रसन्न, मुक्त चेहरा देखकर रवीन्द्र को भी आनंद हुआ.
कुटी बड़ी थी. दो खिड़कियाँ थीं. उन्होंने दरवाज़ा बंद किया. खाना खाने के बाद
वे खिड़की के पास गए और चमचमाता हुआ विशाल आकाश उनसे मिलने आया. वैसे तो ऐसा आकाश
उन्होंने अनेक बार देखा भी था, मगर केदारनाथ का आकाश उनके मन में रह गया था. घने जंगल में, जलाशय में और धरती को
अपने आलिंगन में लेने के लिए आतुर आकाश फिर से उनसे मिलने आया था.
“वैसे तो उषा सूक्त में उष: प्रभा का लावण्यमय वर्णन है, तो रजनी के अनुपम लावण्य
का वर्णन सूक्तों में क्यों नहीं है? यह प्रश्न उनके मन में आया. ‘शायद ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाले ऋषि मुनी
रात को जल्दी निद्रावश हो जाते होंगे.’ उनके ही मन का प्रश्न - उनके ही मन ने उत्तर भी दिया.
वह खटिया पर आकर सो गए. आकाश उनके बिल्कुल निकट आया और याद आई अन्नपूर्णा –
एना. वह ऐसे ही आई थी. रात में उनके कमरे में.
“क्या तारे ओढ़कर सोने का विचार है? मगर रोबी, यह मुम्बई है. यहाँ रात को खिड़की
खुली रखना संभव नहीं है. आसपास के, घर के लोग इधर से ही जाते हैं.”
“जाने दो उन्हें. एक बार नींद लग जाये तो मुझे कुछ भी पता नहीं चलेगा.”
“अच्छा, मैं रात को आऊँगी और तुम्हें...”
सचमुच, एना जागृतावस्था में मन में खिला हुआ सुगन्धित ब्रह्मकमल था. मानो खिलने की
प्रतीक्षा ही कर रहा हो. मन में बसंत खिल उठा. देह सच्चे अर्थ में जाग उठा. मगर
उसका आक्रामक साहस, और यह एहसास की मैं उनके घर पढ़ने के लिए आया हूँ, मेहमान हूँ, इंग्लैण्ड जाना है, यह बात भी मन को ज़रा सा
भी आगे नहीं जाने दे रही थी. एना ने कितने प्रयत्न किये, मन से वे अच्छे भी लगे, परन्तु उसका साथ देने के
लिए मन के उत्सुक होते हुए भी संयम की रेखा मैं तोड़ न सका.
जानता था उसका मन, एहसास था उसके प्रेम का और जानता था उसके आक्रामक स्वभाव को भी. घर में उसे
प्राप्त स्वतंत्रता की.
स्वर्ग से कच शुक्राचार्य के पास आये संजीवनी विद्या प्राप्त करने, और देवयानी उससे प्रेम
करने लगे, ऐसा हुआ. और कच उसे नकार कर संजीवनी विद्या प्राप्त करके लौट जाए, बिल्कुल ऐसा ही हुआ.
एना, मुझे क्षमा करना. मैं स्वार्थी नहीं था. मैं कच के समान स्वार्थी नहीं था;
परन्तु बंगाल के जोडोसान्को के ठाकुरबाड़ी स्थित हमारे ठाकुर परिवार में मैं सबको
पूछने भी वाला था. सचमुच! तुम मुझे अच्छी लगती थीं, मगर मेरे सन्मुख सीमाएँ थीं.
तुम महाराष्ट्र की, मराठी परिवार से, परदेस में शिक्षा प्राप्त. मुक्त स्वभाव की. सचमुच में, मैं इंग्लैण्ड से आकर
अपना प्रस्ताव परिवार के सामने रखने भी वाला था. लेकिन उससे पहले ही पता चला कि आप
लोग कलकत्ता की ठाकुरबाड़ी जाकर आये थे, और बाबा ने कुछ सोचा भी नहीं. मगर, प्रतीक्षा तो करतीं! मुझे पत्र तो
लिखतीं! सत्येनदा से तो मैं कह ही सकता था. अब क्या फ़ायदा. तुम इस दुनिया से जा
चुकी हो. मैंने तुम्हारा नाम ‘नलिनी’ रखा था, और उसीको तुम प्रदर्शित करती रहीं.
आज मैं सोचता हूँ कि अपने आप से मेरी से पहली पहचान तुमने ही करवाई.
‘It was from her that I first heard praise of my
personal appearance. Praise that was often very delicately given!’
रवीन्द्र ने करवट ली. सितारों भरा आकाश उनकी पीठ के पीछे हो गया. अनजाने ही उनकी आंखें भर
आईं. आखिर जीवन कैसे और कितने मोड़ ले. हर मोड़ पर पीछे मुड़ने की संभावना ही नहीं
थी. सामने वाला मोड़ लुभावना था, परन्तु पिछला आकर्षक, इनके बीच ही रास्ता तय होता जाता. और मन ही मन कहता रहा, “IN the middle of every difficult line and
opportunity”. मन में विचार आया, ‘A creative attitude is the fuel of progress.’ मन में चारों ओर से आते विचार, मन को संभालने वाले, कुछ सीख देने वाले, कुछ पीड़ा देने वाले.
विचार करते करते उसे नींद आ गई और दरवाज़े पर खटखट हुई. उन्होंने दरवाज़ा
खोला. आकाश में स्थिर हो रही धूप भीतर आई. हाथ में दूध का गिलास लिए रामसेवक खड़ा
था.
“रवी बाबू, मैं दो बार आकर गया.”
रवीन्द्र ने कुछ नहीं
कहा. उसने दूध और फल एक टोकरी में रखे. रवीन्द्र शुचिर्भूत होकर आये, दूध का गिलास हाथ में
लेते हुए उन्होंने पूछा,
“रामसेवक, घर में और कौन कौन है?”
“माँ, बाबा, दो बच्चे, पत्नी और मैं. बाबा मच्छीमारी का काम करते हैं.
माँ और पत्नी धान के खेत में काम के लिए जाती हैं. बड़े बाबूजी आया करते थे.
उन्होंने ही यह काम दिया था. जब वे थे, तो उनकी सेवा में था. छोटी उम्र से ही काम पर खूब ध्यान देते, अभी कुछ ही दिनों से
उनका मन नहीं लगता था, सदा ईश्वर का स्मरण करते.”
“सही है. अब वे गंगानदी
पर स्थित जलनौका में रहते हैं. माँ के जाने के बाद वे विरक्त से हो गए हैं.”
“जलनौका में?”
“जलनौका में घर बनाया है
उन्होंने. मुझे भी वैसा रहना अच्छा लगेगा, जिससे पद्मा नदी के किनारे के अनेक
गाँवों में जाना आसान हो जाएगा. फिर मुझे लिखना भी तो होता है ना, वह सामान मैं
लेता जाऊंगा.”
उसके चेहरे पर आये कुतूहल
के भावों को पढ़ते हुए रवीन्द्र ने कहा, “रामसेवक, जो हम कहते हैं, कथा कहते हैं, गीत गाते हैं, वह सब मैं शब्दों में लिखता हूँ.”
वह कुछ भी नहीं समझ पाया,
तब रवीन्द्र के मन में आया, “शहर से, गाँव से, शब्दों से परे जंगल में स्थित यह बस्ती अभी भी वैसी ही है.
इस अज्ञान को दूर करना होगा. दिन-रात परिश्रम करके, आधा पेट भूखे रहकर धान, मछली, फल गाडी में ले जाते हैं
परन्तु वे व्यवहार नहीं जानते. जो भी दो, खुशी-खुशी ले लेते हैं. उन्होंने
पूछा,
“मैं तुम्हें पढ़ाऊंगा, तुम पढोगे, रामसेवक?”
“पढ़ना क्या होता है”
“बताऊंगा तुझे. अब मैं बेलापुर न जाकर कुछ दिन यहीं रहूँगा, और फिर बेलापुर के बाद
बाबा के स्थान – शान्तिनिकेतन जाऊंगा. मुझे काफ़ी दिन रहना है. क्योंकि यहाँ की
ज़मीनदारी के काम अब मैं देखने वाला हूँ.”
“मतलब, सौदामिनी देवी के पति शारदा प्रसाद ये सारे काम आपके पिताजी के समान देखा करते थे.”
“हाँ, परन्तु उनकी अचानक मृत्यु हो गई, क्या तुम जानते हो?”
“नहीं. अभी हाल ही में कोई आया भी नहीं.”
“अब मेरे बाबा ने यह ज़िम्मेदारी मुझे दी है. ठीक है?”
रामसेवक गर्दन हिलाते हुए दरवाज़े से बाहर गया और रवीन्द्र खाट पर बैठा रहा, वह मानो चैतन्य शून्य हो
गया था. मानो स्वर्ग से धप् धरती पर गिर पड़ा हो.
घनी आबादी और शोरगुल वाले कलकत्ता के महत्वपूर्ण भाग जोडोसान्को में स्थित
ठाकुरबाड़ी. कितने बड़े परिसर में उनका घर था. उसमें देवेन्द्रनाथ और गणेन्द्रनाथ का
परिवार. सदा लोगों की चहल-पहल. रात में भोजन के बाद कलकत्ता के मान्यवरों की
उपस्थिति, नाटक, कविता, पुस्तकचर्चा, राजकीय घटनाओं पर चर्चा, बैठकखाना गूँज उठता था. रवीन्द्र सबका लाडला ‘रोबी’ था, क्योंकि वह घर में
सबसे छोटा था. देवेन्द्रनाथ की चौदहवीं संतान, रवीन्द्र, जिसकी प्रत्येक कृति
ध्यान देने योग्य थी.
परन्तु माँ शारदा देवी हमेशा बीमार रहती थी. इस बैठक ने उत्पन्न हुए एकाकीपन
को सहज ही सहन कर लिया था. बसंत का वैभव लेकर दिन अवतरित हुए थे. प्रिय ज्योतिदा
का विवाह हुआ था और कादम्बरी भाभी ने ठाकुरबाड़ी में प्रवेश किया था. देखने में
सुन्दर, घना केश संभार, अल्हड और भावनाप्रधान. रवीन्द्र को वह किसी नाटक की नायिका
प्रतीत होती. भाषा मधुर. आवाज़ भी सुरीली. रवीन्द्र की अनेक कविताओं की धुनें बनाकर
वह गाती. सदाबहार के फूलों जैसी सदा खिली रहती. सहजता से उसके इर्द-गिर्द घूमती.
कभी-कभी बालों को तेल लगाते समय हौले से उसके गालों पर अधर रखती. उसके कपडे, उसकी किताबें, उसके लेख, कविता, सभी कुछ उसका हो चूका
था. माँ की कमी को पूरा करने वाली कादम्बरी ज्योतिदा के जीवन में होते हुए भी उसके
मन में घर बसाकर बैठी थी, इस बात का एना के पास जाने पर तीव्र एहसास हुआ.
शारदा देवी की मृत्यु के बाद रवीन्द्र के मन में आये एकाकीपन को कादम्बरी ने
दूर किया. उसके निकट आने पर, उसके स्पर्श से एक नये सुख की अनुभूति होने लगी थी. इस अनुभूति का कोई नाम
नहीं था, मगर वह लालायित करने वाली थी. आसपास उसके न होने से मन बेचैन हो जाता था.
मन में कोइ विपरीत कल्पना नहीं थी, कोई विचार नहीं था, अविचार भी नहीं था. जो कुछ भी चल
रहा था, वह मनःपूर्वक अच्छा लगता था. उस रिश्ते को कोई नाम नहीं था. ‘भाभी’ शब्द से एक नया रिश्ता, नया आकर्षण निर्माण हो
गया था.
‘सचमुच, मेरे मन में कोई न कोई तीव्र आकर्षण होता ही है. अनियंत्रित मोह होता ही
है. कभी शब्दों का, कभी प्रकृति का, कभी देखे हुए सपनों का, तो कभी इंसानों का. हर छोटी-छोटी बात से भावुक हो जाना – ये स्वभाव ही हो
गया है.’
दरवाज़े पर खटखट हुई और आवाज़ भी आई.
‘बाबूमोशाय...’ रवीन्द्र होश में आते हुए उठा.
“आमी आनंदी...तोमार लिए जल...” आठ-दस वर्ष की सांवली लड़की सिर पर छोटा-सा
घड़ा रखे आई थी.
वे दरवाज़े से हेट, वह घड़ा रखकर चली गई.
‘कृष्णसांवली’ उन्होंने फ़ौरन उसका नाम रख दिया. मन ही मन...वे दरवाज़े में खड़े थे, वह भागते हुए घर लौट रही
थी. कलकत्ता से लाये हुए दो बक्से खटिया के नीचे थे, उन्होंने बक्से बाहर खींचे.
‘अब जीवन एकाकी.’ उन्हें एकदम याद आया, स्नान करने जाते तो मृणालिनी कपड़े
हाथों में देती. ठाकुरबाड़ी में भी रामसेवक था. वह गरम पानी की तीन बाल्टियां भर कर
रखता. किस चीज़ की आवश्यकता है, यह सोचने से पहले ही सब कुछ तैयार मिलता था. अब कपड़े ढूंढ कर नदी पर जाना
होगा.’
कल्पना से ही उन्हें हंसी आई. ‘अब बोलना भी खुद से, हंसना भी खुद से, और बातें करना है शब्दों
से प्रकृति से.’
‘परन्तु इस स्थिति का अनुभव तुम उठा चुके हो, रोबी. बारह वर्ष की उम्र में तू
अपने पिता के साथ बोलपुर आया तो था. शान्तिनिकेतन में रहा था, पद्मा नदी पर नहाने के
लिए गया था! भूल गया?’
‘सच है. भूला नहीं हूँ, मगर उस समय मेरे साथ थे मेरे पिता देवेन्द्रनाथ, और
कोई भी ज़िम्मेदारी नहीं थी.’
‘क्या आज तुम उतने ही बड़े हो? ज़िम्मेदारी उठाने की बढ़ती उम्र है तुम्हारी. शादी हो गयी है ना? दो बच्चों के पिता हो तो
क्या हुआ? ठाकुरबाड़ी से, मृणालिनी से, उन छोटे बच्चों से दूर तो हो ना?’
‘सचमुच, रोबी, समझ में नहीं आता कि तुम्हें कैसे समझाया जाए. तू दूर गया है, इसीलिये तो मन से उनके
कितने निकट आ पाया है. पल-पल याद आ रही है ना ठाकुरबाड़ी?’
रवीन्द्र अपनी ही धुन में बक्सा खोले बैठा था.
“छोटे ठाकुर बाबू!” बाहर आँगन से आवाज़ आई तो रवीन्द्र उठा.
“की होबे?”
“कछु ना. मैं आपसे मिलने
आया हूँ. गाँव का मुखिया. पता चला कि आप आये हैं, इसलिए मिलाने आया हूँ.” वह रुका और
आगे बेला, “आमी देवी बाबू.”
उसे अन्दर बुलाऊँ, तो कुर्सी नहीं थी. अपनी
बगल में खाट पर बिठाने का विचार भी सैंकड़ों मील दूर था. आखिर वह आँगन में रखे
पत्थर पर बैठ गया. रवीन्द्र बाहर आकर दूसरे पत्थर पर बैठा. रवीन्द्र ने सोचा कि
शायद रामसेवक ने चार पांच पत्थर लाकर आँगन में रख दिए हैं.
“अपनी ज़मींदारी के काम से
आये हैं, यह पता चला. आपसे भेंट हो इसलिए आया.”
“अच्छा किया जो आये. चार स्थानों पर हमारी ज़मींदारी है. कटक में एक और बंगाल
में तीन. पावना ज़िले की शहज़ादपुर तहसील
में मैं पिछले साल कुछ महीने रहकर गया था. मगर उस समय तहसील के गाँवों से परिचय
नहीं कर पाया था. अब वह करूँगा.”
“सचमुच ये बहुत अच्छा होगा, जिससे आपको गाँवों की असली जानकारी प्राप्त होगी. हमारी तरफ़ से हम निश्चित
रकम देते रहते हैं. मैं पावना जिले के छोटे से गाँव सीतापुर का मुखिया हूँ. उस
गाँव के आसपास से वसूली करके बड़े बाबूजी को दिया करता था. अब आपको दिया करूंगा.
सीतापुर गाँव का मुखिया हूँ, मगर सीतापुर से लगे हुए जंगल में भी अनेक बस्तियां हैं. वहां कभी गया
नहीं.”
“हम खुद वहां जायेंगे, जिससे वहां की स्थिति देख सकेंगे और नादिया जिले की तहसील में आने वाले जेहरामपुर, वहां हम पिछले आये थे, तब सियालदह में रुके थे.
वहां के घोष बाबू ने सहकार्य किया था.”
“आप पिछले वर्ष सियालदह आये थे?”
“हाँ, वह दिन था बीस जनवरी अठारह सौ नब्बे. वहां हम रुके थे अपना नाटक
‘विसर्जन’ लिखने के लिए. उस समय ये कल्पना भी नहीं थी, कि उस ज़मीन की ज़मींदारी की व्यवस्था
हमारे हाथ आयेगी.”
“और राजशाही जिले की कालीग्राम तहसील में स्थित पतीसर भी आप नहीं गए होंगे.”
“ नहीं. नहीं गया था. मगर अब धीरे-धीरे यह सियालदह भाग रामसेवक के साथ देख
लूंगा. यहाँ बोलपुर में कई साल पहले आया था. बोलपुर से दो मील आगे हमारे बाबा ने ‘शान्ति
निकेतन’ नाम से कुटी बनाई थी. वहां उनका ध्यान मंदिर था. वैसे हम अकेले थे, मगर इस सुन्दर वातावरण
में समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला. बाबा ने हमें खूब पढ़ाया. हमारे लिए यह भूमि...” उन्होंने
वाक्य पूरा नहीं किया, परन्तु मन ही मन कहा, ‘हमारे सारे कलागुणों से, सौन्दर्य से, शब्दों से, शास्त्रों से यह भूमि जुड़ी है. संस्कृत, व्याकरण, प्रकृति वाचन, खगोलशास्त्र की शिक्षा
इसी परिसर में पाई थी. परन्तु प्रकट में बोले, “इस स्थान पर मैं पहली ही बार आया
हूँ. उस समय मोटरगाड़ी से आया था, आज रेल से आया हूँ.”
“बाबूमोशाय, उत्तर बंगाल में अपनी ज़मींदारी के गाँव बड़ेबाबू यहीं रहकर जाते थे. आपकी
कुटी रामसेवक ने बनाई है, क्योंकि आपके रहने का स्थान तीन मील दूर है. यहाँ से
गाँव निकट है, नदी भी पास ही है, अधिक चलने की ज़रुरत नहीं. आपको भी और हमको भी.”
रवीन्द्र दिल खोलकर हंसा.
“शायद पढ़े लिखे हो!” उसके बात करने का अंदाज़ देखकर रवीन्द्र ने पूछा.
“हाँ, बाबूमोशाय, चार ‘किताब’ पढ़ा हूँ, वह भी बड़े बाबू से आग्रह से. बहुत सज्जन हैं वे. गंगा
के दक्षिण तीर पर समीर पावना के निकट कुष्टी और गोवाई के बीच यह उपजाऊ ज़मीन है, जो
अपनी ज़मींदारी में है. यहाँ के इस बड़े प्रवाह को यद्यपि गंगा कहते हैं, परन्तु उसके अनेक
छोटे-छोटे प्रवाह अलग अलग नामों से जाने जाते हैं. अब देखिये, पतीसर गाँव आतराई नामक
नदी के किनारे पर है. पतीसर और शहजादपुर में मालगुज़ारी के काम के लिए अंग्रेजों ने
भी घर बनाए हैं. परन्तु सियालदेह स्थित आपका दुमंज़िला घर वास्तव में आपका निवास
स्थान है. आप कुटी में न रहें.”
“हाँ, वहाँ सारे कागज़ात हैं. जाने वाले हैं हम वहां. रामसेवक ने इतनी हरी-हरी
कुटी बनाई है, कि यहाँ से जाने का मन ही नहीं हो रहा है.”
“अब पहले जैसा चलना नहीं पड़ता. सियालदह में अब हाथ रिक्शा भी चलने लगी है.
रामसेवक तो वहीं जाएगा, जहां आप होंगे.”
रवीन्द्र ने हंस कर कहा,
“जाने ही वाला हूँ वहां. आप चिंता न करें.”
“जब आप कहें, मैं आपके साथ आऊँगा. अब मैं चलूँ?”
“चार दिन बाद आईये, तब तक हम खुद भी यहाँ के कामकाज की जानकारी लेंगे.”
मुखिया के जाने के बाद वह पास ही स्थित पद्मा नदी पर स्नान के लिए गया, तब ठाकुरबाड़ी के भव्य और
बंद स्नानगृह का स्मरण हो आया और स्मरण हुआ मृणालिनी का. नदी के उस किनारे पर
कोई भी नहीं था. सबह ढल चुकी थी, अत: किनारा शांत था.
ग्रीष्म ऋतु की आहट आ रही थी। पानी ठंडा था, मस्तक गरम हो रहा था। मन में मृणालिनी
का स्मरण था. वे जल्दी से कुटी के पास आये. दरवाज़े पर दो हांडे लिए रामसेवक खडा था,
और दो भरे हुए हांडे आँगन में थे. रवीन्द्र को देखकर वह कुछ कहे, इससे पहले ही रवीन्द्र
बोला.
“रामसेवक पद्मा कैसी है, देखकर आया. स्नान कर लिया है.” उसने दूध और फल कुटी में रखे थे, यह देखकर रवीन्द्र ने
कहा, “रामसेवक, कल से हम अपनी यहाँ वाली हवेली में जायेंगे. वहां हमारे लिए कैसी व्यवस्था
है?”
“वहां एक महिला रसोइया है.
मैं भी दिनभर रहता ही हूँ. बिलकुल दिन रात.”
“ठीक है. सुबह तुम हमारे साथ चलो. एक बार सारी व्यवस्था कर दो और फिर तुम
दिन में आते रहो; मगर रात को नहीं.”
“ऐसा कैसे हो सकता है, बाबू मोशाय? रात में अगर आपको प्यास लगे, ओढ़ने-बिछाने की ज़रुरत पड़े, तो किसे पुकारेंगे? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं.”
“ऐसा ही होगा. तुम्हारा रात को वहाँ रहना हमें अच्छा नहीं लगेगा. हमें साथ
है – हमारी ही.”
निश्चय करने के बाद भी वे बाबा को और मृणालिनी को पत्र नहीं लिख सके. अगले
दिन वे रामसेवक के साथ बाबा की उस दुमंजिली इमारत में आये. कलात्मक ढंग से बनाए गए
उस घर को देखकर उन्हें मन:पूर्वक देवेन्द्रनाथ की याद आई. अपने कलागुण उन्होंने
सभी में बांट दिए और अब रिक्त होकर जल्नौका में अकेले रह रहे हैं, इसकी सुखद याद आई.
जैसे प्रौढ़-तेजस्वी सूर्य अपनी सहस्त्र किरणें धरती और आकाश को दे दे और
शान्ति से क्षितिज तक जाए, ऐसी अनुभूति. उन्होंने मन ही मन बाबा को नमस्कार किया.
नीचे बैठक का कमरा, रसोईघर, और सेवकों के लिए दो कमरे, साथ ही प्रशस्त स्नानगृह भी था. ऊपरी मंजिल पर दो शयन कक्ष थे. दोनों शयन
कक्षों के बीच काफी खाली जगह थी. वहां कुर्सियां रखी थीं. एक गोलाकार मेज़ थी. बड़े
शयन कक्ष में दो लोहे के मज़बूत बक्से लोहे की जंजीरों से बंधे थे और दो विशाल
अलमारियाँ थीं. देवेन्द्रनाथ ने ऐसी व्यवस्था की थी कि कहीं भी कोई कमी न रहे.
रवीन्द्र के मन में पिता के प्रति आदर दुगुना हो गया.
गाँव की एक वृद्ध स्त्री खाना बनाने के लिए आई थी, अपने दस वर्ष के पोते के
साथ. वह उसके साथ वहीं रहने वाली थी. रवींद्र के मन में विचार आया, ‘ठाकुरबाड़ी के भव्य
परिसर से, बड़े संयुक्त परिवार से यहाँ आया, तो सिर्फ दो-तीन व्यक्तियों से ही
संपर्क है. बाकी, मैं एकाकी ही तो हूँ?
रामसेवक सामान रखकर गया था. मध्याह्न ढल रही थी. रवीन्द्र उस खुली जगह में
कुर्सी पर बैठा और उसका ध्यान नीचे की ओर गया. दस-बारह वर्ष का वह लड़का पत्थर पर
पत्थर रख रहा था और एक बड़े पत्थर से उन्हें गिरा रहा था. रवीन्द्र देख रहा था.
‘सचमुच में, पत्थर इकट्ठा करना और फिर उन्हें गिरा देना, यही तो नियती भी करती है. और
बार-बार पत्थर इकट्ठा करना, मनुष्यों को एकत्र करना – ये इंसान करता है.’
शाम गहरी हो गई. वह लड़का दो लालटेन लेकर ऊपर आया.
“तुम्हारा नाम क्या है?” रवीन्द्र ने पूछा.
“आनंद. आनंद बाबू.”
“आनंद बाबू? अरे तू तो इतना छोटा है. यहाँ दादी के साथ रहता है. अकेलापन नहीं महसूस
होता/ खेलने के लिए भी तो कोई नहीं, और आसपास स्कूल भी नहीं है?”
“कितने सारे सवाल एक साथ पूछते हो? स्कूल मुझे अच्छा नहीं लगता. आगे
चलकर मैं खेतों में काम करने वाला हूँ. तो, वह विषय तो स्कूल में नहीं पढ़ाया
जाता. वह तो खेत में ही मिलता है. फिर क्यों चाहिए स्कूल?”
‘आनंद ठीक कह रहा है, क्या स्कूल में पढ़ाया जा रहा ज्ञान हर क्षेत्र में
मार्गदर्शक है? हम भूगोल, इतिहास, गणित, भाषा आदि सीखते हैं. यह ज्ञान हमें समृद्ध बनाता भी होगा; परन्तु क्या
अंग्रेज़ी सीखकर सबको लाभ होने वाला है? क्या चित्रकार, गायक, शिल्पकार, किसान के लिए स्कूल में पढाये जाने वाले विषय आवश्यक हैं? उन्हें उनकी रूचि के
विषय में अधिक ज्ञान देना चाहिए.’
यह विचार सहज ही मन में आया और उसे सही भी लगा. आनंद कह रहा था,
“मुझे क्यों अकेलापन महसूस होगा? दादी है. कभी उसकी मदद करता हूँ, कभी मिट्टी के
घर बनाता हूँ, कभी पत्थर के ऊपर पत्थर रखकर पहाड़
बनाता हूँ और घड़ों से पानी लाकर पद्मा नदी बनाता हूँ, उसमें पत्तों की नैया बनाता
हूँ.’ रवीन्द्र चकित हो गया. इस बालमन में
खुद को प्रसन्न रखने की कितनी सारी कल्पनाएँ हैं! उसने पूछा,
“और क्या करते हो, आनंद बाबू?”
“मैं ना, इस कोठी के पीछे खेती करता हूँ. फूलों की खेती. खूब सारे फूलों के पौधे
लगाए हैं. एक स्कूल भी बनाया है. मौज मस्ती का. वैसे मैं रोज़ नया-नया स्कूल बनाता
हूँ. मगर मेरे लिए तो स्कूल ही नहीं है.”
“क्यों?”
“बात ये है, कि वहाँ इस तरह खेलने को नहीं मिलता और मुझे जो अच्छा लगता, वो पढ़ाते नहीं हैं.
इसलिए जैसे मैं अपने मनपसंद मिट्टी के बर्तन बनाता हूँ, वैसे ही रोज़ नया स्कूल भी
बनाता हूँ.”
“मैं आऊँगा सब कुछ देखने के लिए.”
“ज़रूर आईये. मैं सिखाऊंगा आपको मिट्टी के बर्तन बनाना. मैंने यहाँ भगवान भी
बनाए हैं और राक्षस भी. दुर्गादेवी राक्षसों को मारती है – इसलिए राक्षस.”
वह खूब बोल रहा था. शायद अनेक दिनों से मन में संचित बातें कह रहा था.
रवीन्द्र शान्ति से सुन रहा था, मन में विचार आ रहे थे, ‘ऐसा स्कूल होना चाहिए, जहां बच्चों को वह न
पढ़ाया जाए जो उन्हें पसंद नहीं है. मुक्त मानस जैसा. वैसे तो हरेक की अपनी-अपनी
पसंद होती है. जैसे मैं लिखता हूँ कविता, नाटक, लेख. इस आनंद के लिए यह सब संभव
होगा, इस विचार से उसने कहा,
“मैं कल तुम्हें पद्मा नदी पर ले चलूँगा. आयेगा?”
“हाँ. अवश्य. इतनी दूर जाकर मैंने नदी देखी नहीं है. दादी बताती है, इसलिए पता चलता है.”
बोलते-बोलते वह निकल गया. तब वह वृद्द्ध स्त्री ऊपर आई. सीढियां चढ़ते हुए
उसकी सांस फूल गई थी.
“की होबे? की काम?”
“कछु ना. भोजन...”
उन्होंने उससे कहा कि वे नीचे आयेंगे, तो वह बहुत खुश हो गई. कितनी छोटी
सी बात में खुशी छुपी है! मनुष्य के भीतर कहीं भी प्रसन्न होने की वृत्ति ही होना
चाहिए. उसने मन में कहा.
खाना खाने के बाद पत्र लिखने का निश्चय किया. वहां पत्र का इन्तजार कर रही
मृणालिनी और बाबा, सत्येनदा, ज्योतिनदा...सभी की याद आई.
यहाँ आने से पहले वह जलनौका पर देवेंद्रनाथ से मिलने गया था. उन्हें ज्वर हो
आया था. उसने एकदम कहा,
“बाबा, घर चलिए. वहां आपकी सेवा कर सकेंगे और उचित दवाएँ मिलेंगी.”
“रोबी, कभी ना कभी, कुछ ना कुछ होने ही वाला है, यह विचार यदि मन में पहले से समा लिया जाए, तो कष्ट नहीं होता. फिर मृत्यु के
लिए कोई ना कोई कारण तो आवश्यक है.”
“ऐसा न कहिये.”
“मृत्यु बुरी नहीं होती, रोबी. उसमें जीवन का पूर्णत्व समाया हुआ होता है. जितना सुन्दर जीवन जब हम
जीते हैं, कठिनाइयों, समस्याओं का सामना करते हुए इस उम्र तक पहुंचते हैं, तब मन में असीम समाधान
की भावना जागती है, जीवन का आलेख पूर्ण करने की खुशी होती है. सूर्य भी अस्त होता ही है और
उदित भी. अगर जीवन के इस तत्वज्ञान को हम समझ लें, तो यदि ज्वर आये, या कोई दैहिक समस्या उत्पन्न
हो, तो ऐसा लगता है कि कहीं ये संकेत तो नहीं है उसका यहाँ आकर मुझे बुलाने का.
सचमुच, मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ.”
रवीन्द्र सुन रहा था, उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो यह ध्वनि अंतरिक्ष से आ रही हो. देवेन्द्रनाथ कह रहे थे,
“देख, रोबी, भगवद्गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं:
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि,
संयाति नवानि देही ॥
“नए पत्तों के आने के लिए पुराने
पत्तों को गिरना पड़ता है, यह प्रकृति का नियम है रोबी. दुखी होना ठीक नहीं है.”
उसका मन भर आया. बोलपुर के उनके सहवास की याद आई. अनेक तरह से उन्हें समझाकर
रवीन्द्र सियालदह आया. पहले उन्हें पत्र लिखना होगा. उसने मन में निश्चय किया.
यहाँ आने के बाद दूर स्थित लोग खूब पास आ गए थे, उसके मन में ही वास्तव्य कर
रहे थे. वह कुर्सी से उठकर भीतर अपने शयनकक्ष में आया. तीनों लालटेन एक साथ रखीं,
मगर लिखने की इच्छा ही समाप्त हो चुकी थी. उसने लालटेन की बत्तियां शांत कीं और
पलंग पर लेट गया. अनेक यादों का ज़ाल मन को घेरे था.
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