Sunday, 13 July 2025

एकला चलो रे - 11

 

11


सुबह-सुबह दरवाज़े की कुण्डी खटखटाई तो रवीन्द्र उठा. अनेक विचारों के कारण उसे नींद आई ही नहीं थी. ठाकुरबाड़ी के लोगों के विचारों ने उसे घेर रखा था. अब इन विचारों से बाहर आकर नए विचारों की ओर मुड़ना है, नया काम शुरू करना है. स्वतन्त्र एकाकी जीवन जीना है, ऐसा निश्चय करने के बाद ही उसे नींद आई. वह भी टुकड़ों-टुकड़ों में. उसमें एना थी, स्कॉट परिवार था, ठाकुरबाड़ी के सभी लोग थे, और स्पष्ट रूप से महसूस हो रही थी कादम्बरी. एकेक चित्र नेत्रों के सामने किसी मालिका की तरह आगे सरक रहा था. वह उठ ही रहा था, कि फिर से कुंडी बजी, और आवाज़ भी आई, ‘ज़मींदार बाबू, ज़मींदार बाबू ...’ उसने दरवाज़ा खोला, आनंद उसके लिए दूध लेकर आया था. सांवले चेहरे के हंसमुख और मासूम आनंद को देखकर वह मुस्कुराया

“आनंद बाबू, हम नीचे आने ही वाले थे.”

“हाँ. मुझे मालूम था. मगर हमें पद्मा नदी पर जाना है, ऐसा आपने कहा था, इसलिए आया. आपको उठाने के लिए.

वास्तव में तो आज दिन भर पत्र लिखने का काम पूरा करना था, मगर अब आनंद को मना कैसे करें, यह विचार मन में था.

“आनंद बाबू, इस समय साइकिल रिक्शा कैसे मिलेगी?

“वो क्या है, ज़मींदार बाबू, यदि मन में इच्छा हो तो सब कुछ हो जाता है. कल मेरे पिता मुझसे मिलने आये. वे साइकिल रिक्शा ही चलाते हैं. बड़े बाबू उन्हीं को हमेशा बुलाया करते थे. वे सहज ही पूछने के लिए आये हैं.”

रवीन्द्र के सामने अन्य कोई पर्याय ही नहीं था. वे अपने शब्दों में नहीं बंधे थे, परन्तु उस मासूम आनंद की भावनाओं में उलझ गये थे. उन भावनाओं को आहत करना उसके लिए संभव नहीं था.

“अच्छा, मैं तैयार होता हूँ, कपड़े लेता हूँ. स्नान तो तुझे वहीं करना है ना?

आनंद ने प्रसन्न मुस्कान बिखेरी. दूध का गिलास रखकर दनदन सीढियां उतरा और रवीन्द्र को अपनी कन्या माधुरीलता की याद आई. माधुरीलता अब तीन-साढ़े तीन वर्ष की थी. वह भी ऐसी ही लुभावनी थी. लावण्यवती ही थी. हंसती तो इतना मीठा थी, कि उसे उठाकर गोद में लेना पड़ता, तब उसका समाधान होता, उसका मोहक स्पर्श मन को मोह लेता था. उन्हें इस बात से खुशी होती कि उन्होंने उसका नाम बहुत ही योग्य रखा था. उसके बाद हुआ रथीन्द्रनाथ – बाबा जैसा सुन्दर. दोनों के कारण रवीन्द्र का जीवन संगीत सुरों से संपन्न हो गया था. उन दोनों को और मृणालिनी को छोड़कर यहाँ आना उनके लिए कठिन था. उनके सामने आदर्श था देवेन्द्रनाथ का. अपने दीर्घ जीवन के कितने कम दिन उन्होंने परिवार के लिए दिए, और उन अल्प दिनों में उन्होंने ठाकुरबाड़ी में सांस्कृतिक, राजकीय, सामाजिक बैठक का आयोजन किया. वह इतनी दृढ़ थी की उसे कोई नहीं रोक पाया.

बारबार देस-परदेस में भ्रमण करते हुए भी वे पारंपरिक जीवन और श्रद्धा को भूले नहीं थे. वे चाहें वहां हों, अथवा न हों, उनके द्वारा नियत मार्ग पर ही ठाकुरबाड़ी का कामकाज चलता था. वास्तव में जलनौका में उन्हें पत्र लिखना था, जो रह गया था.

आनंद फिर से आया था. रवीन्द्र ने कहा,

“देख, बिलकुल  पांच मिनट में आया.”

और सचमुच, रवीन्द्र कपड़े लेकर नीचे आया. वह तो बहुत उत्साह से तैयार था. उसके पिता रिक्शा लिए तैयार खड़े थे. रवीन्द्र के आते ही उन्होंने उसे साष्टांग दण्डवत् किया.

“आमी किस्न प्रसाद.” रवीन्द्र हंसा . कृष्ण प्रसाद का बेटा आनंद, खूब अच्छी जोड़ी है.

रवीन्द्र के रिक्शा में बैठते ही कृष्ण प्रसाद ने आनंद को रिक्शा के डंडे पर बिठाया. वह भी खुशी-खुशी बैठ गया.

“अरे, उसे हमारे पास बैठने दो.”

“ना...ना...छोटे बाबू...ये ना होबे...आमी सेवक...”..

“कछु सबक ना होबे. अरे कृष्ण प्रसाद सभी को ईश्वर ने ही बनाया है ना? आमि तुमि बंधू होबे. क्या है, हरेक का कर्म अलग है, धर्म अलग है. मगर ईश्वर तो एक ही है ना? बिठाओ उसे हमारे पास. आमार मित्र आनंद बाबू.”

ये शब्द सुनते ही कृष्णप्रसाद के कुछ कहने से पूर्व ही आनंद उनके निकट आकर बैठ गया.

सुबह आज बादलों के बीच आँख मिचौली खेल रही थी. आसपास के जंगल से आ रही मुक्त हवा मन को प्रसन्न कर रही थी. कृष्ण प्रसाद मन ही मन गुनगुना रहा था. रवीन्द्र भी प्रसन्न था. सियालदह वैसे विकसित गाँव था, रेलवे स्टेशन, पोस्ट ऑफिस, स्कूल, बाज़ार और आवश्यक सेवाएँ वहां उपलब्ध थीं. परन्तु रवीन्द्र की वह कोठी पांच-छः मील भीतर, शांत थी. सुधारों की हवा वहां तक पहुँची नहीं थी. वहाँ केवल चार-पांच घर थे, एक दूसरे से अलग-थलग. बगल में नारियल, सुपारी, और बांस का घना जंगल था. देवेन्द्रनाथ ने आध्यात्मिक चिंतन के लिए यह अलग-थलग स्थान चुना होगा. उसके मन में विचार आया,

‘मुझे भी वहीं एकांत जीवन का अनुभव लेना चाहिए.’

“ज़मींदार बाबू...वो देखो पद्मा नदी.

रवीन्द्र अपने विचारों से बाहर आया. अब सूर्य मेघों से बाहर आ गया था. सुस्ताई हुई हवा भी चल पड़ी थी. एक ओर जंगल, तो दूसरी तरफ़ गाँव था. बीच में से जा रही थी पद्मा नदी. अभी-अभी नींद से जागी, अर्धोन्मीलित कली के समान प्रतीत हो रही थी. उसने दोनों हाथ फैलाए, और उसके केशों की लहरें समीर ने इधर-उधर बिखेर दीं. उसका हास्य किनारे तक फ़ैल गया.

नदी पर स्नान करने आये हुए लोग किनारे पर ही थे. जैसे ही रिक्शा रुकी, आनंद फ़ौरन कूद गया.

“मैं दो घंटे बाद आऊंगा,” कृष्ण प्रसाद ने कहा, तो रवीन्द्र बोला,

“कोई जल्दी नहीं है, आराम से आना.” कृष्ण प्रसाद के जाते ही आनंद एकदम मुक्त हो गया. किनारे पर छोटी-छोटी नौकाएं खड़ी थीं. आसपास के गाँवों में जाने के लिए इन नावों का उपयोग होता था. रामसेवक होता तो इन गाँवों में जा सकते थे. मगर उसे आठ दिन बाद बुलाया था. आनंद पानी में जी भर के नाच रहा था. कपड़े गीले हो गए थे. वे उसके पास गए. पूछा, “कपड़े लाए हो ना?

उसने गर्दन हिलाकर इनकार किया.

“देख, आनंद...”

“आनंद बाबू...” उसने सुधारा. रवीन्द्र हंस पडा.

“आनंद बाबू, वे गीले कपड़े रेत पर सूखने के लिए फैला दो, और वैसे ही स्नान करो. यहाँ कोई देखने वाला नहीं है. हम दूर जाकर स्नान करते हैं.”

“आप दूर से देखेंगे तो नहीं ना?

“नहीं.” रवीन्द्र कपड़े लेकर दूर गया. मन में थी कलकत्ते की गंगा. दक्षिणेश्वर के कालीमाता के मंदिर के निकट वाली. और थे रामकृष्ण परमहंस. उनके बारे में बहुत कुछ सुना था, परन्तु भेंट नहीं हो पाई थी. जब रवीन्द्र वहां गया था, तब वे काशीपुर उद्यान में गए थे. पाश्चात्य विद्याविभूषित नरेंद्र दत्त उनसे मिलने गया और उनका शिष्य हो गया, यह वार्ता उनके आने से पहले ठाकुरबाड़ी पहुँच चुकी थी. वह सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश विश्वनाथ दत्त का बेटा था. अचानक उसमें परिवर्तन कैसे आ गया, इस बारे में ठाकुरबाड़ी में आश्चर्य व्यक्त किया जा रहा था.

और जब देवेन्द्रनाथ से मिलने उनकी जलनौका पर रवीन्द्र गया था, तब बताया था कि अत्यंत बुद्धिमान, रूपसुन्दर, तेजस्वी युवक नरेंद्र दत्त उनसे मिलने आया था. इतना ही नहीं, उसने यह भी पूछा कि उसे ईश्वर का प्रत्यक्ष दर्शन करना है, यह कैसे संभव होगा, तब देवेन्द्रनाथ ने कहा,

“नरेंद्र, जब से हम आध्यात्मिक भूमिका से आत्मा और परमात्मा को देखने लगे, तब हमारे मन को समाधान प्राप्त हुआ. परन्तु हमें प्रत्यक्ष ईश्वर दर्शन नहीं हुआ है. यह सही है, कि एक महायोगी का दर्शन हुआ है, उनका नाम है रामकृष्ण परमहंस. तुम उनसे मिलो, और शायद वे तुम्हें ईश्वर से मिलने का मार्ग बताएं!”

आगे उसका क्या हुआ? यदि वह शिष्य बन गया, तो उसकी पढाई-लिखाई का क्या हुआ? क्या वह नौकरी करता था? या दक्षिणेश्वर में ही रह गया? इस बारे में अब तक कुछ पता नहीं था.  

कहाँ कहाँ की यादें यहाँ आने पर जागृत होती हैं! वे किनारे पर आये. पद्मा नदी की हर लहर अब चमक रही थी. हर लहर में मानो नवरत्न हार के मणी बिखरे हुए थे. वे देखते रह गए. ऐसी ही नवरत्नों की कंठमाला मृणालिनी के गले में थी.

और अचानक एहसास हुआ कि यहाँ आकर चार दिन बीत चुके थे, मगर घर में किसी को भी पत्र नहीं लिखा था. अब घर पहुँच कर सबसे पहले यह काम करने का निश्चय किया.

आनंद सूखे हुए कपड़े पहनकर आया था. रवीन्द्र ने पूछा, “आनंद बाबू, नाव में बैठेंगे?’ वह खुशी के मारे नाचने लगा. उन्होंने नाव वाले को अपना परिचय दिया. वह फ़ौरन बोला, “आप रोबी बाबू?

“तुझे कैसे मालूम?

“स्वाभाविक है, बड़े बाबू आसपास के गाँवों में यहीं से जाते थे. घर के किस्से सुनाते-सुनाते आप तक पहुँचते और कहते,               

“रोबी जैसा कोई एकाध ही जन्म लेता है, जिसे सभी कलाएँ अवगत हों.”

रवीन्द्र हंस पड़े. पिता को हमेशा अपना बेटा अनन्य प्रतीत होता है, यही सच है. कवितायेँ लिखने वाले, कथा, नाटक लिखने वाले, अभिनय करने वाले अनेक हैं. प्रत्यक्ष सत्येनदा और ज्योतिदा हैं ही. मगर छोटा बेटा पिता की प्रशंसा का पात्र होता है, यही सत्य है.

“अच्छा, चल, इस आनंद बाबू को नदी में घुमायेंगे.”

“कौन है ये?

“रिक्शाचालक कृष्ण प्रसाद का बेटा.”

रवीन्द्र का हाथ पकड़कर आनंद बहुत खुशी से नाव में बैठा. नाव कुछ हिचकोले लेने लगी. रवीन्द्र उसके पीछे पीछे चढ़ा. दोनों प्रसन्न थे. आज इतनी खुशी क्यों हो रही है, यही वे समझ नहीं पा रहे थे. शायद मैं अपने रथी को इस आनंद में देख रहा हूँ. माधुरीलता का जन्म हुआ. सब उसे बेला कहने लगे. नाम, कहाँ से, कैसे पड़ते हैं, कुछ समझ में नहीं आता. माधुरी अथवा लता न होकर उसका नाम बेला पड़ गया था. मानो मृणालिनी की कोख से किसी लावण्यवती अप्सरा ने जन्म लिया था. और उसके बाद – रथीन्द्रनाथ.

दोनों ही खुश थे. रथी थोड़ा बड़ा हो जाए तो इस आनंद के समान नाचेगा, उछलकूद मचाएगा, सारी दुनिया उत्सुकता से देखेगी. सचमुच, उत्सुक बाल्यावस्था कितनी सुन्दर होती है – भिरभिराती हुई तितली की तरह.             

नाव आगे-आगे जा रही थी, और उसका मन भाग रहा था पीछे-पीछे. कभी वह अपने बचपन में झांकता. उन्हें याद आया. ठाकुरबाड़ी के परिसर में कितने सारे वृक्ष थे! हर ऋतु में आने वाले फल ठाकुर परिवार को आनंद देते थे. एकदा बार उन्होंने उत्सुकतावश देवेन्द्रनाथ से पूछा,

“ये इतने सारे पेड़ लगाता कौन है? ये बड़े कैसे होते हैं?

देवेन्द्रनाथ उसे अपने निकट लेते हुए बोले,

“रोबी, पेड़ों में फल लगते हैं. उनके भीतर के बीज बोने से फिर से पेड़ आते हैं. वही छोटा सा अंकुरित पौधा आगे चलकर बड़ा वृक्ष बनता है, जब वह छोटा होता है, तब उसे पानी से सींचता है हमारा माली. थोड़ा और बड़ा होने पर वर्षा के पानी से वह अधिक बड़ा होता है. देख, आप का अर्थ है – जल, तेज अर्थात प्रकाश, वायु- हवा, आकाश और धरती उसे बड़ा करते हैं. आप, तेज, वायु, आकाश और धरती ये पंचमहाभूत ही समूची सृष्टि का पालन पोषण करते हैं. देखा था ना केदारनाथ जाते हुए घन-घन अरण्य ? ये सारी कृपा है निराकार ईश्वर की. उसके द्वारा निर्माण की गयी सृष्टि की.”

आज रवीन्द्रनाथ को यह सब याद आ रहा था. 

नाव दूर तक जाकर किनारे पर लग गई थी. आनंद तो अपने आनंद में ही मगन था. दोनों किनारे के पास आये. किनारे पर चार-पांच लड़कियां, किनारे पर घड़े रखकर खेल रही थीं. उन्हें आसपास का ज़रा भी होश नहीं था. यह देखकर रवीन्द्र को अपनी आठ-दस वर्ष पहले लिखी हुई कविता याद आई.

“ए तोबे सहोचोरी, हाते हाते धोरी धोरी

नाचिबी गिरी गिरी, गाहिबी गान

आन तोबे बीना,

सप्तम सुरे बांधे तोबे तान!

आओ, सखी, हाथों में हाथ गूंथे हम गोल-गोल नाचें, गाएं. वह वीणा लेकर सप्तम सुर में तान लें!

इसके बाद यही गीत उन्होंने ज्योतिदा के ‘मन्मयी और ‘स्वप्नमयी नाटक में उन्होंने लिया था. ज्योतिदा प्रतिभासंपन्न कलाकार हैं, और पिता के समान ध्यान रखते हैं. इसीलिये हम यहाँ तक पहुंचे, यह भावना हमेशा मन में है.

पशोरिबो भबोना, पशोरिबो जतोना ·

राखीबो प्रोमोदे भोरे दिबानिशी मन प्राण ...

और रवीन्द्र अनजाने ही गाने लगा.

उलसित तोटिनी, उथलित गीतरवे,

खुले दे रे मन प्राण

आनंद ने चौंक कर उसकी तरफ़ देखा. रवीन्द्र को समय का भान ही नहीं था. आनंद ने उसका हाथ कसकर पकड़ा, तब वह होश में आया.

कितना सुन्दर...बहुत अच्छा...छोटे ज़मीनदार बाबू, कितना अच्छा गाते हैं आप. मुझे भी सिखायेंगे?’”

रवीन्द्र दिल खोल कर हंसा, मानो आकाश में रविराज ने दसों दिशाओं में किरणों के फूल बिखेर दिए हों. जैसे मन में मौलसिरी के फूलों की सुगंध बस गई हो.

रिक्शा तैयार थी. दोनों बैठ गए. आनंद के मुख पर छाई प्रसन्नता को देखकर कृष्ण प्रसाद मन ही मन खुश हो गया. उन्हें वापस पहुंचाकर कृष्ण प्रसाद चला गया और आनंद भी अपनी दादी को पूरा हाल सुनाने में मगन हो गया. रवीन्द्र के कक्ष में दूध और फल अभी रखे हुए प्रतीत हो रहे थे.

‘अब सर्वप्रथम बाबा को पत्र लिखना है!’ यह निर्धार करके उसने बक्से में से लेखन साहित्य लिया और ऊपर वाली मंजिल के शयन कक्ष में रखी मेज़ पर बैठ गया. खिड़की से दूर तक का अरण्य प्रदेश और पद्मा नदी की झिलमिलाती रेखा दिखाई दे रही थी. मानो हरी साड़ी पर चांदी की किनार हो.

उसकी आंखों के सामने मृणालिनी प्रकट हुई. हमेशा साड़ी पहन कर पल्लू से बंधा हुआ चाभियों का गुच्छा पीछे डालते हुए पूछती,

सारी भालो लागबे?”

“बहु भालो आछे,” रवीन्द्र जवाब देता. मृणालिनी का प्रेम हर पल महसूस होता. ऐसे लगता, मानो वह केवल प्रेम और प्रेम ही करने के लिए ठाकुर परिवार में आई है. कहीं ये प्रेम दीवानी मीरा तो नहीं है ? वह कृष्ण की दीवानी राधा कृष्ण की दीवानी, और मृणालिनी रवी की दीवानी. क्या सोचती होगी वह मेरे बारे में?

और अपनी ही लिखी हुई कविता का स्मरण हुआ. उस समय उसके मन को जानकर ही उन्होंने लिखा था:

कोतोबार भेबेछिनू आपना भुलिया

तोमार चरण दिवो हृदय खुलिया

चरणे धरिया तबी कहियो प्रकाशी

गोपोने तोमारे सखा कोटो भालोबाशी.

कितनी बार ऐसा लगता है कि स्वयं को पूरी तरह भूल कर तुम्हारे चरणों में अपना मन खोल दूं. तुम्हारे चरण पकड़ कर मुझे कहना है कि मन ही मन मैं कितना प्रेम करती हूँ तुमसे!

भेबेछिनू कथा तुमि स्वर्गेर देवता

केमोने तुमारे कबो  प्रणयेरकथा

भेबेछिनू मने मने दुरे दुरे थाकी

चिरजन्म संगोपने पुजीबो एकाकी...

मन ही मन प्रतीत होता है कि तुम स्वर्ग के देव हो. तुमसे सारी प्रेम कथाएँ कह नहीं पाऊँगी. सच कहूं, मन ही मन बहुत कुछ अनुभव होता है, और यह सब कहना ठीक नहीं, इसलिए मैं कुछ दूर-दूर रहने का प्रयत्न करती हूँ, और चाहे तुम दूर रहो, या पास, मैं चिरकाल तक तुम्हारी ही आराधना करती रहूँगी.

कहो जानिबे ना मोर गंभीर प्रणय

कहो देखिबो ना मोर अश्रू बारीचय

आपनी आजीके जबे शुधाइछो आशी

केमोने प्रकाशी कबो कोतो भालो बाशी...

मेरे इस गहरे प्रेम को कोई नहीं जान पायेगा, ना तो मेरे नेत्रों में अश्रु दिखाई देंगे. परन्तु आज, जब तुम पूछ रहे हो, तो मैं कैसे बताऊँ तुम्हारे प्रति अपने अपार प्रेम को.’

आज भी जब उस कविता की याद आती है, तो मन भीतर ही भीतर अनावर होकर बरसने लगता है. प्रेम शब्दों से व्यक्त नहीं होता, उपमा, अलंकारों से नहीं होता अलंकृत, प्रेम के लिए कोई पर्यायी शब्द ही नहीं है, प्रेम शब्द है – निराकार के समान, अनुभूति से समझने जैसा. सागर की गहराई नापी नहीं जा सकती, आकाश की चौडाई नहीं नापी जाती, दशदिशाओं में प्रवाहित हो रहे वायु को अपनी मुट्ठी में केवल अनुभूति से प्राप्त किया जा सकता है. 

रवीन्द्र हंस पड़ा. इस प्रेम के सहवास से मैं शायद कभी मुक्त नहीं हो सकूंगा. यह प्रेम माँ का, भगिनी का या किसी अन्य रिश्ते का नहीं है. यह प्रेम है राधा-कृष्ण का. राधा के प्रेम से कृष्ण कभी भी मुक्त नहीं हो सके. आठ पत्नियां सदा उनके निकट होते हुए भी राधा की प्रीत जीवन भर मन में रही. मन का विशाल आकाश ‘राधा शब्द में ही सिमट गया था.

रवीन्द्र ने अपने मन में कहा, “सचमुच, प्रीति के इस साम्राज्य में मन पर अंकित गहरी मुद्राएं इतनी गहरी हैं कि वे कभी भी धूमिल नहीं होंगी. ये अमिट हैं, और जीवन की सांझ में मौलसिरी की गंध लेकर मुझे सुगन्धित करेंगी.

रवीन्द्र खिड़की से दूर हटा और अब पत्र लिखना ही है, यह निश्चय करके मेज़ के निकट कुर्सी पर बैठ गया. कागज़ अपने सामने रखा, हाथ में सुनहरा पेन लिया. उस सुनहरे, चमकदार पेन को देखकर याद आया कि सियालदह आते हुए देवेन्द्रनाथ ने अपना सुनहरा पेन उन्हें देकर कहा था,

“सन् 1827 में अमेरिका में पेट्राक पोएनारू ने प्रथम पेन बनाया था. उसमें काफी सुधार करके सन्1884 में लुई वाटरमन ने यह पेन तैयार किया और इंग्लैण्ड में एक अधिकारी ने सन् 1886 में एक समारोह में हमें भेंट किया. आज सन् 1890 में सियालदह जाते समय मेरी तरफ से तुम्हें भेंट दे रहा हूँ. रोबी, इस पेन से लिखे गए तुम्हारे शब्द चिरकाल चिरंजीवी रहेंगे. ”

अनजाने ही उसका मन भर आया. जलनौका में जब उनसे मिलने गया था, तो उन्होंने कहा था,
“रोबी
, जीवन में संसार तो सभी करते हैं, क्योंकि वह प्रकृति की खिलने वाली प्रतिभा है, जो सदा नवसृजन के लिए मोहित करती है. मनुष्य को जीवन भर किसी न किसी चीज़ की प्यास रहती है. मगर तुम हमेशा संपन्न रहना और रहोगे ही. जिसके भीतर नवनिर्मिती की ऊर्जा है, वह सदा संतुष्ट रहता है. इस फाउंटेन पेन से तुम असीमित नवशक्ति को जगा सकोगे.”

वे बोलते-बोलते रुक गए थे. यह समझ में आ रहा था, कि उन्हें  काफ़ी कुछ कहना है. शायद बोलने में कष्ट हो रहा होगा. रवीन्द्र शांत बैठा था. “रोबी, अपने जीवन का लेखा-जोखा किया, जीवन की संध्या बेला में हमने परिवार को सामाजिक, सांस्कृतिक, राजकीय विचारधारा प्रदान की है. आप सबको एक व्यासपीठ दिया. तुम सब उत्तम बनो इसके लिए जितने प्रयत्नों की आवश्यकता थी, सब किये, सोच समझ कर सांस्कृतिक व्यासपीठ बनाया. द्विजेन, सत्येन्द्र, हेमेन्द्र, वीरेन्द्र, पुण्येन्द्र, सोमेन्द्र, बुद्धेन्द्र और चारों कन्याओं को किसी तरह की कमी न हो, इसका प्रयत्न किया. रोबी, तुम्हारा क्रमांक है – चौदहवां, हम चौदह संतानों के पिता रहे.

“आज सोचता हूँ रोबी, कि हमने तुम्हारी माँ को समय ही नहीं दिया, उसका अपना जीवन जीने के लिए. सारी महिलाएँ परिवार के सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सहभागी होतीं, मगर तुम्हारी माँ गर्भभार संभालते हुए जी रही थी. वह खुलकर सांस न ले सकी. आज, उसके जाने के बाद इसका अनुभव हो रहा है.

आज तुम्हें ठाकुरबाड़ी और छोटी बहू मृणालिनी को छोड़कर सियालदह भेजने का मन नहीं था. परन्तु अपने दामाद, शारदाप्रसाद के निधन के बाद, यह व्यापक कारोबार कोई और संभाल नहीं पायेगा यह समझ में आया.”

“बाबा, प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में किसी न किसी कार्य का उत्तरदायित्व संभालना ही पड़ता है. सत्येनदा, द्विजेनदा  - सभी ठाकुरबाड़ी से दूर रहकर यह कार्य कर रहे हैं. वैसे देखा जाए, तो हम बचपन में अनेक वर्ष एकाकी रहे, फिर भी राजभोग का उपभोग करते रहे. कई स्थानों पर घूमे, दो बार इंग्लैण्ड जाकर आये, परन्तु आज सच्चे अर्थों में कार्य का आरंभ हुआ है, इसकी प्रसन्नता है.”

‘रोबी, जाने से पहले हमें अपनी कवितायेँ सुनाओगे?

“अवश्य, बाबा, जो याद आयेगी, वह सुनाता हूँ:

 

तुमि खुशी थाको, आमार पाने चेये चेये,

तोमार अंगीनाते वेडाय जरावन गेये गेये.

तुम मेरी ओर देखकर प्रसन्न रहो. मैं तुम्हारे आँगन के चारों ओर घूम-घूमकर गीत गाता रहूँगा.

 

तोमार परश आमार माझे सुरे सुरे बुके बाजे,

शेई आनंद नाचे छन्द विश्वभुवन छेये .

जिसने हम पर विश्वास किया है, उस व्यक्ति को हम अकेला कैसे छोड़ सकते हैं?

फिरे फिरे चित्तबिनाय दाओ जे नाडा ,

गुंजरिया गुंजरिया, देय शे शाडा.

तोमार अंधार, तोमार आलो दुई आमारे लागलो भालो ,

आमार हाशी बेड़ाय भाशी तोमार हाशी बेये बेये खुशी थाको.

 

“रोबी, खूब भालो आछे! ऐसा सहज गीत, सहज शब्द, सहज बोली में गाने वाले बाहुलों का लोक गीत तुमने सहज ही अपना बना लिया...खूब भालो, रोबी, खूब आनंद...” बोलते बोलते उनका गला रूंध गया. उसे अपने निकट लेते हुए बोले,

“आमार प्रिय रोबी, सुखी भव!”

रवीन्द्र को स्मरण हो आया था देवेन्द्रनाथ का. जीवन की सांझ बेला में जैसे प्रोढ प्रगल्भ सूर्य ने अपनी बची-खुची किरणें समेट ली हों, और क्षितिज के पास इंतज़ार कर रहा हो, रवीन्द्र का मन भर आया.

उसने हाथ में फाउन्टेन पेन लिया और लिखने लगा,

“आमार प्रिय बाबा,

सविनय प्रणाम.

हम यहाँ सियालदह आये हैं. बहुत प्रसन्नता हुई. यहाँ का निरभ्र आकाश, यहाँ का अरण्यप्रदेश, पास ही पद्मा नदी. यहाँ के कृष्ण प्रसाद का आठ-दस वर्ष का बेटा आनंद. यहाँ पर आपके लिखने का स्थान, आपके ही पलंग पर गहरी नींद, और अपनेपन की गरमाहट.

बाबा, आप मेरे लिए हमेशा आदर्श रहे हैं, बोलपुर के निकट शान्ति निकेतन कुटी आपने अपनी ध्यान धारणा के लिए बनवाई. यहाँ आने के बाद अभी तक उस कुटी में गया नहीं हूँ; मगर जाऊँगा. अभी अपने ज़मींदारी के गाँवों में भी नहीं घूमा हूँ, मगर दो दिन बाद जाऊंगा.

अभी सियालदह में हूँ. गाँव ज़्यादा उन्नत नहीं है, परन्तु यहाँ पोस्ट-ऑफिस है, और ख़ास बात, रेल्वेस्टेशन है. बीच-बीच में कलकत्ते की ठाकुरबाड़ी जा सकूंगा और सभी कार्यक्रमों में सहभागी हो पाऊंगा.

     हमारी कविताओं को यहाँ अनेक विषय मिलेंगे, लेखों को नये विषय मिलेंगे. अपने इस दुमंजिले घर में रोज़ का अखबार नहीं आता, मगर हमने उसका इंतज़ाम कर लिया है, जिससे देश में क्या हो रहा है इसकी भी जानकारी होगी.

हम हाथों में शस्त्र नहीं उठा सकते, वह हमारी प्रवृत्ति नहीं है. परन्तु देश में ब्रिटिशों के खिलाफ जो चल रहा है, उसके लिए अपनी सहमति अपने लेखों के माध्यम से देने वाले हैं.

बाबा, आप कर्मयोगी, ज्ञानयोगी तो हैं ही, परन्तु अनजाने ही भगवद्गीता का भक्तियोग भी आपने अपना लिया है. ईश्वर पर भक्ति, संस्कृति पर श्रद्धा, संस्कारों के प्रति निष्ठा आपसे ही हम तक प्रवाहित हुई है.

बाबा, अगर आप ठाकुरबाड़ी आये तो सबको खूब प्रसन्नता होगी. जीवन में कभी भी किसी की सेवा ग्रहण न करते हुए, पूरे मन से देते ही रहे, दोनों हाथों से भर-भर के. सत्येनदा, ज्योतिदा, आपके बारे में बहुत कुछ बताते रहते थे. आज यहाँ, इतनी दूर आकर अनुभव होता है कि आपने एकाकी रहकर दिन कैसे बिताए होंगे.

हमें ही हमेशा लगता था कि, सिर्फ हम ही एकाकी हैं, परन्तु ऐसा नहीं है. आप हमेशा संघर्ष करते रहे, अकेले, तटस्थता से, जैसे जल में रहकर भी कमल उससे दूर रहे, वैसे आप संसार से दूर भी रहे. जी भर के जिए, और सहज ही निवृत्त भी हो गए. सचमुच, इस समय आपके बारे में सोचते हुए असामान्य प्रतीत होता है.

यहाँ सचमुच में बहुत अच्छा लगता है. आपकी मेज़, आपकी कुर्सी, आपका ही पेन, सोने के लिए गद्दा भी आपका. शायद, ऐसा भाग्य क्वचित ही किसी को मिलता है. बाबा, आपका शतश: धन्यवाद!

यहाँ, एक ओर घना जंगल, किनारे पर नारियल के झूलते हुए पेड़, बीच में पद्मा नदी, जैसे हरी साड़ी पर रुपहली किनार हो. इसके बाद यह गाँव सियालदह. आबादी अधिक न होते हुए भी यह मुख्य गाँव है. आसपास के गाँवों के लोग भर भर के धान, मछलियाँ लेकर रेल्वे स्टेशन पर आते रहते हैं. 

मुझे याद आया, बाबा, कि सत्यवती को योजनगंधा, मत्स्यगंधा क्यों कहते थे. शंतनु राजा को वह क्यों प्रिय हुई. यहाँ तो बाज़ार में अनेक मत्स्यगंधाएं, मछलियाँ लेकर बैठी रहती है. सचमुच, उनके शरीर की मत्स्यगंध दूर दूर तक फ़ैली होती है.

बाकी यहाँ रामसेवक है, कृष्ण प्रसाद है. भोजन की व्यवस्था उत्तम है. लिखने के लिए उत्तम एकांत है. फिर भी दो-तीन दिन बाद हम ज़मीनदारी के गाँवों का दौरा करने जायेंगे.

और बीच-बीच में ठाकुरबाड़ी तो आते ही रहेंगे. क्योंकि हमारा सारा मोह विश्व, कला विश्व वहीं तो रह गया है!

अब समाप्त करता हूँ,

आपका विनम्र.

रोबी.”

रवीन्द्र ने पत्र पूरा किया और वैसे ही कुर्सी पर बैठा रहा.

 

 

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