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आज सुबह सूरज निकला नहीं था. बादलों के पीछे छुपा हुआ था. सर्दियों में बारिश आरंभ हो गई थी. रवीन्द्रनाथ की नींद
खुलने का सवाल ही नहीं था. देर रात तक वे बैठकखाने में सत्येनदा, ज्योतिनदा और बड़ोदा के साथ सहभागी हुए अनेक साहित्यिक लोगों के साथ चर्चा कर
रहे थे. साहित्य सर्वप्रिय विषय था. इस चर्चा में सभी भाग ले रहे थे.
कल की बैठक में मृणालिनी भी उपस्थित थी. उसे श्रोता के रूप में सुनना अच्छा
लगता था, परन्तु कल उसने कहा, “आज पूरे विश्व के साहित्य में विभिन्न विचारों के प्रवाह प्रकट हो रहे हैं.
अंग्रेज़ी साहित्य आचार-विचार-चिकित्सा की भी दखल रखता है, परन्तु कुछेक
साहित्यकारों को छोड़कर हम अभी भी केवल बंगाल के ही घेरे में घूम रहे हैं और...”
उसने यह सिद्ध किया कि संस्कृत और अंग्रेज़ी भाषाओं में संस्कृत विश्व की
अग्रगामी, विज्ञान का भी परामर्श लेने वाली भाषा है. तब बड़ोदा ने कहा,
“तुम्हारे आज के विचारों को बंगाल के लेखकों को आत्मसात् करना चाहिए. आज तक
तुम कुछ बोली क्यों नहीं, छोटी बहू?”
“आप सब इतने बड़े हैं कि...”
रवीन्द्रनाथ भी चकित रह गए थे. उन्हें याद आया, गाँव की लड़की भवतारिणी रॉय
चौधरी से उनका ब्याह हुआ था. जब तेरह-चौदह वर्ष की भवतारिणी ‘मृणालिनी’ नाम धारण करके विशाल
ठाकुरबाड़ी में आई, तो बौखला गई थी – लोगों को देखकर और इतने सारे कमरों को देखकर. चार ही
अक्षरों से उसका परिचय था. तब द्विजेनदा ने कहा, “रोबी, अपनी छोटी बहू को कुछ दिनों के लिए ज्ञानरंजनी के पास पढ़ने के लिए भेजो. आरंभिक
शिक्षा और शिक्षा की आवश्यकता समझ में आने पर वह यहीं पढ़ाई कर लेगी. उसे सुशिक्षित
और सुसंस्कृत बनाने की ज़िम्मेदारी तुम्हारी है.”
रवीन्द्रनाथ को बात समझ में आ गई थी. परन्तु अभी हाल ही में ब्याह करके आई
हुई सुस्वभावी और सुस्वरूप पत्नी को भेजने का उनका मन नहीं था. कुछ दिन बीते और
सत्येनदा ने कहा,
“रोबी, उसे ठाकुर घराने के शिष्टाचार और शिक्षण का
अनुभव हो, इसलिए शिक्षक की व्यवस्था करो.”
आखिरकार रवीन्द्रनाथ ने उसे अपनी बहिन की ससुराल में भेजा और शिक्षा से
उत्पन्न तेज और आत्मविश्वास लिए छः महीने बाद वह ठाकुरबाड़ी वापस आई. तब प्रसन्नता
से उसका स्वागत करते हुए उन्होंने कहा,
“उत्फुल्ल कमलिनी हो तुम! अब उसमें तेज भी आ गया है. पहले तो विवाह के तुरंत
बाद मुझे तुम्हारा यहाँ से जाना अच्छा नहीं लगा था. दो बार मिला था तुमसे, मगर आगे बढ़ने का साहस
नहीं था. हम लोगों से ही अधिक घबराते हैं. अब हम अभ्यास के लिये तुम्हें अंग्रेज़ी
और बंगला सिखायेंगे!”
“ठीक है,” उसने सिर्फ इतना ही कहा, तब रवीन्द्रनाथ बोले,
“क्या तुम्हें कम और संक्षेप में बोलना सिखाया गया है?”
“ये बात नहीं है.” वह फिर से गर्दन झुकाकर खड़ी रही. रवीन्द्रनाथ ने उसका
चेहरा ऊपर उठाया,
“मृणालिनी, हम तुम्हारे पति हैं, संकोच करोगी तो कैसे होगा? इसके अतिरिक्त तुम्हें पढ़ाना भी है.”
“सीखूंगी मैं. पढ़ाई भी करूंगी.”
सकुचाते हुए, घबराते हुए और गर्दन नीची किये हुए ही उसने पढ़ना शुरू किया.
उस दिन पढाई के दौरान ही द्विजेनदा का सन्देश आया. “आज बैठकखाने में छोटी
बहू को भी साथ लाना.”
रवीन्द्रनाथ ने सोचा कि मृणालिनी मना करेगी, परन्तु उसने वैसा कुछ भी नहीं कहा,
बल्कि बोली,
“बहु भालो आछे, बहुत अच्छा हुआ. वहाँ जाने की मुझे उत्सुकता थी ही.”
वह आती रही, माधुरीलता के जन्म तक. मगर उसके बाद वह काफी दिनों के अंतराल के
बाद आई. उसी ने वर्तमान साहित्य के बारे में अपनी राय प्रस्तुत की. तब रवीन्द्रनाथ
चकित हो गए. उसके विस्तृत वाचन का उन्हें
साक्षात्कार हुआ.
विवाह होने पर देवेन्द्रनाथ जलनौका पर वास्तव्य के लिए जाते हुए बोले थे,
“छोटी बहू बहुगुणी है, उसका सम्मान करना.”
और अतिशय आदर करने योग्य ही वह थी. अत्यंत शांत, अत्यंत समझदार, कभी कोई शिकायत नहीं, और उनकी हर बात का ध्यान
रखने वाली, उनकी पुस्तकें पढ़ने वाली. वे उससे कहते,
“ठाकुरबाड़ी में इतने नौकर-चाकर होते हुए भी तुम क्यों यह सब करती हो!”
“मुझे अच्छा लगता है इसलिए! और आपकी पुस्तकें तो जब आप यहाँ नहीं होते, तब पढ़ती हूँ. ‘छबि ओ गान’, ‘भानुसिंह ठाकुरेर
पदावली’, ‘शैशव संगीत’, इसके अतिरिक्त ‘प्रकृतीर प्रतिरोध’, ‘नलिनी’ नाटक भी मैंने पढ़े हैं. आपके दिमाग़
में यह सब कैसे आया है, यह प्रश्न उठता है.”
“सच कहूँ तो लेखन की प्रक्रिया के बारे में तो हम बता नहीं पायेंगे. परन्तु
मन की उत्कट संवेदनशीलता, देखी हुई अथवा सुनी हुई घटना का मन से मेल कैसे होता है, शब्द किस प्रकार आते हैं, कहाँ से आते हैं – कुछ
समझ में नहीं आता. सचमुच, जब यह विचार हमारे मन में आता है तो आश्चर्य होता है. हरेक के पास कोई न
कोई कला होती ही है,”
“एकाध कला हो, तो ठीक है, परन्तु आपके पास तो लेखन, गायन, संगीत, वाद्य वादन, नाट्य लेखन, निर्देशन, अभिनय है. बालगीत, बालकथा, उपन्यास के अलावा अनेक प्रकार का लेखन आप कैसे करते हैं?”
“हम, सचमुच, बता नहीं सकते. आप, महिलाएं, सुन्दर रंगोली बनाती हैं, कसीदा काढ़ती हैं...”
“आप गलती कर रहे हैं. ये बातें सीखने से, अभ्यास करने से आती हैं, आपकी कला उस तरह की नहीं
है. इन कलाओं के साथ तो आप जीते ही हैं, परन्तु सामाजिक कार्यों में भी आप
अग्रगामी हैं. अभी हाल ही में आप भारतीय कॉंग्रेस कमिटी की मीटिंग में भी गए थे.
अपने पिता जी के साथ किसी काम से मुम्बई भी जाकर आये थे.”
“ये सच है, मगर, जाने दो...तुम पहली बार गर्भवती हो. सभी का सहकार्य तुम्हें प्राप्त है ही.
कुछ महीनों बाद हम कहीं घूम फिर कर आयेंगे.”
और वे माधुरीलता के साथ सपत्नीक सोलापुर, नाशिक, गाजीपुर, दार्जिलिंग, आदि स्थानों पर जाकर
आये. देखते-देखते तीन वर्ष बीत गए थे.
माधुरीलता को रवीन्द्रनाथ ‘बेला’ कहकर पुकारते थे. ‘मृणालिनी, तुम्हें छुटी नहीं कह सकते, परन्तु तुम्हारी ही प्रतिकृति, माधुरीलता को हम सहजता से ‘बेला’ कह सकते हैं.’
इन तीन वर्षों में वे प्रकृति के निकट आ गए थे, और मृणालिनी के भी निकट आ गए थे. कलकत्ता
में ठाकुरबाड़ी पहुंचने पर उन्हें तीव्रता से कादम्बरी की याद आई. दिन, महीने, साल बीत गए, परन्तु स्मृति मन के
सातवें दालान में अभी भी सुरक्षित थी. वे उफ़न आई थीं. पूरे घर में नाचने वाली, और अत्यंत उत्साह से
सबका ध्यान रखने वाली मृणालिनी आ गयी थी, और बेला भी आई थी इसकी सबको खुशी
थी.
धूप निकले और बारिश आये, उस तरह से रवीन्द्रनाथ के मन में यादें आती
रहीं. यह समझ कर मृणालिनी बोली,
“कादम्बरी भाभी की याद आई ना?”
“हाँ, क्या तुम्हें भी आई?”
“हाँ, मुझे भी आई. इस समय यदि वे होतीं, तो भागकर आतीं ना?”
उन्होंने कुछ भी नहीं कहा, और वैसे भी बोलने के लिए था ही क्या! कादम्बरी कहीं नहीं गई थी. उसने वेदना
के रूप में उनके मन में फिर से नया जन्म लिया था. वह वेदना किसी से भी कह नहीं
सकते थे. उसीसे अब कविताएँ जन्म लेने वाली थी, उनमें वह रहने वाली थी.
उन्हें विचारों में डूबा देखकर विषय बदलते हुए मृणालिनी ने कहा,
“बाबूजी से मिलने जलनौका पर कब
जायेंगे?”
“हाँ, हम भी सोच रहे हैं. हम कई बार सोचते हैं, की जिस ठाकुरबाड़ी में ऐश्वर्य में
उनका जीवन बीता, उसे छोड़कर उन्हें एकाकी जीवन नहीं बिताना चाहिए, परन्तु...”
“प्राचीन समय में सम्राट भी वानप्रस्थाश्रम में जाते ही थे ना, बाबूजी भी वही परंपरा
संभाल रहे हैं. जीवन की संध्या बेला में जैसे सारे मोह त्यागकर ईश्वर चिंतन करते
है, वैसा ही वे कर रहे हैं. जो आता है, उसे वांछित ज्ञान प्रदान करते हैं.
वास्तव में वे समाज जीवन के आदर्श हैं.”
“सही है. अभी हाल ही में नरेंद्र दत्त उनसे मिलकर गए हैं. अनेक लोग आते हैं, मिलते हैं, फिर उनकी अपनी साधना भी
होती है, वाचन होता है. जिस तरह प्रौढ़-प्रगल्भ सूर्य शाम को अपनी किरणें स्वयं में
ही समेट लेता है, वैसा ही हुआ है. उनका जीवन परिपूर्ण, सम्पूर्ण हुआ.”
देवेन्द्रनाथ रवीन्द्रनाथ के विवाह से पूर्व ही जलनौका पर वास्तव्य करने के
लिए चले गए थे. विवाह के समय पंद्रह दिनों के लिए ठाकुरबाड़ी आये थे. अपने सबसे
छोटे पुत्र के विवाह के अवसर पर. उन्होंने कहा था,
“रोबी, तुम्हारे द्विजेनदा और सत्येनदा ने ही पिता के समान पूरे परिवार का ध्यान
रखा. हरेक को सुख-आनंद मिले, इसके लिए प्रयत्न किया. हम बीच-बीच में ठाकुरबाड़ी आया करते थे, कुछ ही महीने रहकर वापस
लौट जाते थे. सारी जिम्मेदारियाँ समाप्त हो गईं थीं. तुम्हारे विवाह की ज़िम्मेदारी
अब पूरी हुई.”
“सही है,’ मृणालिनी ने कहा.
तीन ही दिन बाद रवीन्द्र मृणालिनी और बेला के साथ जल नौका पर गए. उस समय वे
ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं का लेखन कर रहे थे. बेला को अपने निकट लेते हुए वे बोले,
“बहुत मोहक है तुम्हारी कन्या, रोबी. बिल्कुल मृणालिनी जैसी ही है दिखने में. यात्रा हो गयी ना? जीवन में विविध देशों को
देखना, प्रकृति को अनुभव करना, व्यक्तियों को पहचानना, इंसानों की अनुभूति लेना, और इसीसे जीवन परिपूर्ण होना – महत्वपूर्ण है. यात्रा आनंदमय होनी चाहिए.
जीवन यात्रा भी वैसी ही होनी चाहिए. कठिनाइयाँ, आड़े-तिरछे मोड़, हर जगह होते ही हैं.
परन्तु हर क्षण आनंद उठाना चाहिए.”
“ये सत्य है, मगर यह कैसे संभव है?”
“बिल्कुल संभव है. हर क्षण मन निरभ्र आकाश जैसा, अथवा कोरे कागज़ जैसा होना
चाहिए, जिस पर सुन्दर चित्र बनाया जा सके, जिस पर शब्द चित्र तैयार होगा. पहले
से लिखे हुए, विकारों के जाल से, भरे हुए, पूर्वग्रह से दूषित मन
में सुंदर विचार कैसे आयेंगे? जैसे हम अपना घर-आँगन रोज़ साफ़ करते हैं, उसी तरह मन को भी साफ़ करना चाहिए,
ये वैसे है तो कठिन, मगर असंभव नहीं है.”
बेला भी आज बहुत शांत थी,
उनकी बातें सुन रही थी. फिर वह उठकर उनकी गोद में बैठ गई, तब उन्होंने कहा,
“आज तक हमारे बच्चों ने भी हमारी गोद में आकर बैठने की हिम्मत नहीं की, तुम्हारी बेटी ने वह कर
दिखाई,” वे मनःपूर्वक हँसे.
वे किसी तपस्वी के समान
प्रतीत हो रहे थे. रवीन्द्रनाथ ने पूछा,
“क्या पढ़ रहे हैं बाबा?”
“ऋग्वेद. इसमें देवताओं
की प्रार्थना है, स्तुति है और उनके कार्य का, देवलोक का वर्णन है. जल, वायु का वर्णन, मन का अध्ययन, यज्ञ-यागादि से प्राप्त
होने वाले लाभ का विवरण है. च्यवन ऋषि के पास वृद्ध होने पर युवा बनने की सिद्धि
है.”
रवीन्द्रनाथ शांत रहे तो
देवेन्द्रनाथ ने कहा,
“जब तुम्हें समय मिले, तो चारों वेद पढ़कर
देखना. ऋग्वेद तो विश्व का पहला ग्रन्थ है, जिसमें मानव विकास की सारी परिभाषाएं
और मार्गदर्शन है.”
“अवश्य पढूंगा.”
“तू प्रकृति का अध्ययन
करता है, समाज-स्थिति का अध्ययन करता है, हमारे यहाँ उपलब्ध वैदिक ज्ञान यदि आत्मसात करोगे
तो जीवन की ओर देखने का दृष्टिकोण बदल जाएगा.”
“अवश्य पढूंगा, बाबा.”
“अपने ही घर की अलमारी में ये सारे ग्रन्थ हैं. जब तू बारह वर्ष का था, तब हम शान्तिनिकेतन
कुटीर गए थे. उस समय हमारे पास दो बक्से थे, एक बक्से में कपड़े और दूसरे में –
वेद, ज्योतिष से संबंधित ग्रन्थ और उपनिषद. उस समय हमने फिर से उनका अध्ययन किया, और नए सिरे से उनका
परिचय प्राप्त किया. जैसे-जैसे हम बार-बार उन्हें पढ़ते हैं, एक नया प्रगल्भ मार्ग
हमारे सामने खुलता जाता है.”
“”हाँ, बाबा, हम अवश्य पढेंगे.”
माधुरीलता उनकी गोद से
उठाकर बाहर की तरफ़ भागी, मृणालिनी भी उसके पीछे गयी.
“रोबी, मृणालिनी सात्त्विक और
सर्वगुण संपन्न है. उसे कष्ट हो, ऐसा कुछ न करना. बस इतना ही कहना था.”
“बाबा, आपके भोजन का क्या
प्रबंध है?’
“रामहरी नामक एक नया लड़का
आया है. पहले वाले श्रीराम का वह भाई है. वह बंगाल का निवासी नहीं है, परन्तु काम के संबंध में
उनका परिवार यहाँ आया, और वे यहीं रह गए. वे पूर्ण शाकाहारी हैं, उनके लिए मछली निषिद्ध है, इसलिए अब हम भी मछली
नहीं खाते.”
“बंगाल में मछली न खाने
वाला एक भी व्यक्ति नहीं है.”
“कुछ फरक नहीं पड़ता, रोबी. क्या अब छोटी-छोटी चीज़ों से मोह नहीं त्यागना
चाहिए? ईश्वर जब तक जीवन से उठा नहीं लेता, तब तक हर चीज़ से मोह रखना ठीक नहीं
है. आज तुम लोग उसका बनाया खाना खाकर ही जाना.”
बेला बहुत खुश थी. उस नौका के तीनों कमरों में वह नाच रही थी.
“देख, बेला खूब प्रसन्न है. हर व्यक्ति को परिवर्तन की चाह होती है.”
“बिल्कुल सही है.”
मृणालिनी ने कहा, “बाबूजी, आप घर आयें. हम सब आपसी सेवा में
रहेंगे.”
“हमें अब किसी भी मोह में न डालो, बेटी. हम जैसे हैं – ठीक हैं. यहाँ
भी लोग मिलने के लिए आते हैं, उनकी यथासंभव सहायता करता हूँ. बचा हुआ समय साधना में व्यतीत करता हूँ, अब
किसी चीज़ की इच्छा नहीं है,” खिड़की से दूर गंगा की तरफ देखते हुए वे बोले.
“देखो, यह गंगा विस्तारित होकर भी वहां से विस्तारित सागर में विलीन होती
है. जीवन चाहे कितना भी समृद्ध हो, उस गूढ़ निराकार में समाने ही वाला है. अब वापस नहीं लौटना है.”
किसी ने कुछ नहीं कहा. विविध रंगी शाम गंगा के पात्र में उतरी थी. निःशब्दता
में शब्द विलीन हो गए थे.
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