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22 दिसंबर 1901 को
रवीबाबू के मन की कल्पना साकार हो गई. द्विजेन्द्रनाथ, सत्येन्द्रनाथ - जो उनके
गुरू समान थे, और परिवार सहित वे स्वयं, पहला विद्यार्थी रथींद्र और अन्य पांच
विद्यार्थी, रेवाचन्द, भवानीचरण बैनर्जी, शिवधन विद्यार्णव उपस्थित थे. रवीबाबू ने
‘ईशावास्य उपनिषद का द्वितीय श्लोक
प्रथम मन ही मन पढ़ा:
ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां
जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः
कस्यस्विद्धनम् ॥
जड़-चेतन प्राणियों वाली यह
सृष्टि सर्वत्र परमात्मा से व्याप्त है. इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करें, किंतु 'यह सब मेरा नहीं है’ इस भाव के साथ. पदार्थों
का संग्रह न करें.
प्रत्यक्ष
में उन्होंने कहा,
“आज महर्षि देवेन्द्रनाथ का दीक्षा-दिन है. आज के दिन
हम इस सप्तपर्णी के परिसर में, महर्षि देवेन्द्रनाथ की आध्यात्मिक वास्तु – ‘शान्ति निकेतन’ के परिसर में ‘ब्रह्मचर्याश्रम’ की स्थापना कर
रहे हैं. आज इस आश्रम में अल्पसंख्या में विद्यार्थी हैं, मगर आगे चलकर अनेक
विद्यार्थी पढ़ने के लिए आयेंगे. अनेक कलाओं को आत्मसात कर सकेंगे. हमें पूरा विश्वास
है कि आज का यह ‘ब्रह्मचर्याश्रम’ आगे चलकर अंतरराष्ट्रीय कला शिक्षण केंद्र होगा. आज यहाँ हमारा परिवार है.
इस परिवार के सदस्यों की संख्या निरंतर बढ़ती जायेगी, इसका हमें पूरा विश्वास है.
आज के नवयुवकों को अपने कलागुणों को विकसित करने की संधि देने वाला, प्रकृति और मानव के रिश्ते
को परिभाषित करने वाला, राष्ट्र
और राष्ट्र भावना जागृत करने वाला यह केंद्र कल विश्व के इतिहास मे सुवर्णाक्षरों
लिखा जाएगा, इसमें हमें किंचित भी संदेह नहीं है. जो सपने हम देखते हैं, उनका आरंभ एकदम भव्य रूप में
नहीं होता. परिश्रम से, साधना से वह स्वप्न साकार होता है. भव्य होता जाता है. आज इस
ब्रह्मचर्याश्रम का आरंभ करने के लिए एक गीत गाने वाले हैं:
“मोरा सत्येर मन करिब समर्पण,
जय जय सत्येर जय ....”
इस गीत का अर्थ स्पष्ट ही है. जब मन में दुःख और
दारिद्र्य,
सत्य और असत्य,
धर्म और अधर्म के बीच संघर्ष होगा, तब असत्य,
अधर्म,
दुःख और दारिद्र्य का विचार न करते हुए हम सदा सत्य का ही पक्ष लेंगे. मोहवश होकर
अनाचार नहीं करेंगे. किसी का अशुभ चिंतन नहीं करेंगे, कोई भी मोह मन में नहीं रहेगा. इसके लिए हम
मृत्यु को भी समर्पित हो जायेंगे. हमेशा सत्य की ही विजय होती है.
“और हम सभी शिक्षकों से मनःपूर्वक कहना चाहते हैं, कि यदि शिक्षक का मन
सुसंस्कृत,
सुविचारी और प्रगतिशील न हो तो वे किस प्रकार सुसंस्कृत विद्यार्थी तैयार कर सकते
हैं? सुविद्य होना अलग बात है और सुसंस्कृत होना अलग बात है. जो शिक्षक अध्ययन, अनुभूति, जीवन का अध्ययन, आत्मपरीक्षण, मनन, चिंतन और सामाजिक, राष्ट्रीय विचारों का
अभ्यासक नहीं हैं,
वह कल के विद्यार्थियों के भविष्य का निर्माण कैसे करेगा?
“और विद्यार्थियों पर किसी भी प्रकार का मानसिक दबाव न
हो. उन्हें हंसते-खेलते हुए पढाएं. उनकी मानसिकता समझने का प्रयत्न करें.”
अपना भाषण समाप्त करते हुए उन्होंने कहा,
“ आज हम आप सबको ‘गायत्री मन्त्र’ का उच्चार और उसका आचार करने
के लिए कहेंगे.
ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।
गायत्री को वेदमाता कहते हैं. इस मन्त्र का उच्चार
चारों वेदों के स्मरण करने के समान है. इसमें केवल चौबीस अक्षर हैं. इन चौबीस
अक्षरों से मन,
बुद्धि,
ध्यान का लाभ होता है. गायत्री मन्त्र के उद्घोष में ज्ञान, विज्ञान, शरीर संचलन - सभी कुछ निहित है.
‘अर्थात् वेद, शास्त्र, पुराण, स्मृति, उपनिषद इन सबका सार इन चौबीस अक्षरों में है.
गायत्री,
गीता,
गंगा, गोमाता,
भारतीय संस्कृति के स्तम्भ हैं. भगवद्गीता में प्रत्यक्ष भगवान श्रीकृष्ण ने कहा
है,
‘गायत्री छंद सामहम्’ – मैं स्वयं ही गायत्री मन्त्र
हूँ. तो,
आज यहीं समाप्त करता हूँ.”
वास्तव में तो रवीबाबू यह कहना चाहते थे,
‘गायत्री मन्त्र के उच्चारण में अनेक अस्त्र-शस्त्र,
सोना,
धातु इनकी शक्ति है. अमूल्य औषधियों का शरीर पर होने वाला परिणाम, उच्चतर विद्या, अनेक उपचार, प्राण विद्या, वेधक प्रक्रिया, महाविद्या के लिए आवश्यक
ऊर्जा इस मन्त्र से प्राप्त होती है. विश्वामित्र ऋषि ने अनेक वर्षों की तपस्या के
बाद सम्पूर्ण सामर्थ्य प्रदान करने वाले इस मंत्र का उच्चार किया था.’
परंतु आज ही यह कहना ठीक नहीं है, यह सोचकर वे रुक गए थे. इसके
बाद रेवाचन्द और भवानीचरण ने अपना मनोगत, भविष्य के लिए योजनाएँ, और स्वतंत्रता से पूर्व तथा स्वतंत्रता
के पश्चात् इस संस्था के उद्देश्य और प्रगति के बारे में बताकर कार्यक्रम को
समाप्त किया. इसके बाद सबको मिठाई दी गई. रथींद्र, शमीन्द्र और आये हुए पांच विद्यार्थी वहीं रहने
वाले थे. सत्येनदा, द्विजेनदा
किन्हीं कारणों से नहीं आ पाए थे. देवेंद्रनाथ ने ‘आशीर्वाद’ लिख कर भेजा था. मृणालिनी
बेला,
रेणुका,
मीरा के साथ आई थी.
मृणालिनी कुछ दिन रहकर बच्चियों के साथ वापस जाने वाली
थी,
क्योंकि अब दोनों के विवाह निश्चित करने की जल्दी थी. रवीबाबू आज प्रसन्न थे.
दोपहर को वे अकेले ही जाकर ‘ब्रह्मचारी आश्रम’ का परिसर देखकर आये और मन प्रसन्नता से भर गया.
उन्होंने हाथ में कागज़ लिया और पेन लेकर लिखना आरम्भ किया,
“परम पूजनीय बाबा,
सविनय नमस्कार...
आपके आशीर्वाद से आज शान्ति निकेतन के परिसर में
‘ब्रह्मचर्य आश्रम’ की स्थापना का समारोह अत्यंत उत्साह से संपन्न हुआ. आज वैसे यह ‘ज्ञान
दीक्षा’ समारोह था. कुछ नियमों, कुछ ध्येय,
कुछ अपेक्षाओं के बारे में बताया गया. उसमें प्रमुख है – विद्यार्थी और शिक्षक के
बीच घनिष्ठ संबंध, कलागुणों को प्रोत्साहन, स्वयं के लिए खाद्यान्न उत्पन्न करना, कलात्मक वस्तुओं का निर्माण, उसके लिए आवश्यक बाज़ार को
ढूँढने के बारे में भी चर्चा हुई.
‘मगर हमारा विचार कुछ अलग ही है. पाश्चात्य संस्कृति
के वश हो चुके और उसकी ओर जा रहे युवकों को भारतीय संस्कृति का परिचय देते हुए, तपोवन का आदर्श प्रस्तुत
करते हुए,
अद्वैत का उपदेश देते हुए वेद, उपनिषद, आरण्यक, ज्योतिष तथा अन्य शास्त्रों का ज्ञान वैभव सबको देना. नरेंद्र दत्त आज अमेरिका
गया है भारतीय संस्कृति और वैदिक ज्ञानसम्पन्न भारत का वर्णन करने के लिए. वही
कार्य यहाँ रहकर करते हुए हमारा उद्देश्य है भारतवासियों को स्वयंपूर्ण करना.
और बताऊँ, बाबा, हम यहाँ की प्रकृति के मोहवश हो गए हैं, सचमुच, आपका यह शान्ति निकेतन
विलोभनीय है, सप्तरंगी फूलों और सप्तरंगी
आकाश से अलंकृत है. कल-परसों ही बारिश हुई है – प्रकृति भी सुस्नात है. नव ऊर्जा
से सुसज्जित है. सब कुछ कितना सुखद है!’
और उन्होंने शान्ति निकेतन के वर्तमान स्वरूप का वर्णन
करना आरंभ किया.
‘ बाबा, जब हम यहाँ आये थे तब भी बोलपुर से एक डेढ़ मील की दूरी पर हमारा शान्ति
निकेतन था. आज भी उतनी ही दूर है. परन्तु ‘अपना’ कहने पर चलते हुए दूरी का अनुभव नहीं होता. आश्रम
शान्ति निकेतन की सात एकड़ ज़मीन पर बना है. जैसे किसी बड़े तालाब में चार-पांच कमल
खिले हों. थोड़ी ऊंचाई पर शान्ति निकेतन का पहले का भवन है, फिर भी वह ध्यान कुटी अभी तक
वैसी ही है. उत्तर दिशा में एक मंदिर है. मंदिर सप्तपर्णी के वृक्षों से घिरा है. दक्षिण
दिशा में सागौन के वृक्षों ने अपने हाथ ऊपर उठाए हैं और उनकी शाखाओं का विस्तार भी
हुआ है. आजकल तो उनमें फूल आ गए हैं. बीच वाला मैदान घनी हरियाली से सज गया है.
हमारे शान्ति निकेतन भवन के पीछे वाला आम का वन बहुत फ़ैल गया है. कुछ खजूर के पेड़
भी हैं. आप तो जानते ही हैं. उत्तर दिशा में थोड़ा आगे जाने पर झरने के पास केवड़े
का जंगल है. रात को वातावरण में केवड़े की, सप्तपर्णी की, आम के फूलों की महक तैरती रहती है.
‘ऐसे सुन्दर प्राकृतिक वातावरण में ‘ब्रह्मचर्यं
आश्रम’ स्थापित किया है विद्यार्थियों को बचपन में ही अनुशासन के संस्कार प्रदान
करने के लिए. आप ही कहा करते थे, बाबा,
कि गीली मिट्टी को आकार देने से वह देवी का घट बन जाती है, मगर यदि किसी भी प्रकार तैयार किया जाए तो वह
घड़ा बन जाती है. चाहे देवी का घट हो, अथवा प्यास बुझाने के लिए घड़ा हो, उसे कुशलता से ही बनाना पड़ता है.
‘और इसीलिये यह ‘ब्रह्मचर्याश्रम’ है.
‘बाबा, आपको याद है ना, दक्षिण दिशा की ओर पूरी तरह भरा हुआ कमल का तालाब? वहां केले के पेड़, चमेली की
बेल है. अब यहाँ संथाल लोगों की बस्ती है. बोलपुर से यहाँ तक आने वाला रास्ता अब
ठीक करवा लिया, और कुछ विद्यार्थियों के रहने के लिए कुटियाँ बनवा ली हैं.
‘जब हम बारह वर्ष के थे, तो आपके साथ कुछ महीनों के लिए यहाँ आये थे. अब
यहीं स्थायिक होने वाले हैं. आपके यहाँ के वास्तव्य से पवित्र हुई यह भूमि अब
सच्चे अर्थों में लोक कल्याणकारी होगी, ऐसा हमें विश्वास है. आप यहाँ नहीं आ सकेंगे यह हमें ज्ञात है. इसीलिये
विस्तार से पत्र लिख रहा हूँ.
वास्तव में, हमारा उद्देश्य संकुचित न होकर विश्वव्यापी है.
अध्यापक और विद्यार्थी का आनंददायी प्रवास, कलाओं को प्रधानता, और संस्कृति की मज़बूत नींव
पर बसा यह तपोवन, यह शान्ति निकेतन चैतन्यदायी, मंगलदायी हो और अपने आदर्श तक
पहुंचाने वाला हो.
आपका आशीर्वाद है ही.
हम मृणालिनी को वापस भेज रहे हैं. बेला और रेणुका के
विवाह के बाद वह यहाँ आयेगी. शिक्षण कार्य में उसका सहयोग हमें आवश्यक प्रतीत होता है, और यहाँ आने वाली मृणालिनी न
सिर्फ जननी,
अपितु जगज्जननी के रूप में यहाँ के विद्यार्थियों की माता हो, ऐसी हमारी इच्छा है.
शीघ्र ही आपसे मिलने आऊँगा.
आपका
रोबी.”
रवीबाबू ने पत्र पूरा किया और वे समाधान से बाहर आये.
मृणालिनी, बेला और रेणुका दो महिलाओं के सहकार्य से
सबके लिए भोजन बना रही थीं. बाहर टोकरी में मछली, केले और अन्य सब्जियां गाँव से आई थीं. प्रथम
दिन के भोजन की विशेष तैयारी हो रही थी.
काफ़ी वर्षों के बाद मृणालिनी और परिवार के साथ रहने का
मौक़ा मिला था. रवीबाबू आज बहुत प्रसन्न थे. शायद बचपन से अकेले रहने के कारण हो, मगर परिवार की, प्रेम करने की आदत ही नहीं
थी. वह इच्छा अब पूरी होने वाली थी. वे मन ही मन मुस्कुराए.
‘हम कहाँ थे एकाकी? वह सेवक, श्याम, हमें एक गोल में बिठाकर जाता. शरीर ने उस गोल
को कभी नहीं तोड़ा,
मगर उस समय भी खिड़की से दिखाई देने वाली मर्यादित प्रकृति पर भी हमने खूब प्रेम
किया.
हमने बैठकखाने में प्रवेश किया. अपनी पहली कविता
सुनाई, उस बैठक में हुई प्रशंसा पर भी हमने प्रेम किया. माँ की मृत्यु हुई. खूप
अकेलेपन का अनुभव हुआ. तब कादम्बरी आई. ज्योतिदा की पत्नी. उस पर भी हमने बहुत
प्यार लुटाया. मुम्बई गए और एना का प्यार देखकर मन से उसे प्यार करने लगे. परन्तु
चारों ओर पड़े हुए संस्कारों के घेरे को तोड़ नहीं सके. उस सीमा तक जाकर वापस लौटे
और प्यार किया – शब्दों से, प्रकृति से, पुस्तकों से, भारतीय परंपरा से, संस्कृति से, अपने ही भारत देश से. ब्राह्मो समाज के मतों से कभी सहमत हुए, कभी नहीं; परन्तु हमने अपना
मार्ग खुद ही चलने का निश्चय किया. देश के केवल स्वतन्त्र होने भर से काम चलने
वाला नहीं था. शत-शत लोगों का दारिद्र्य दूर करना था.
राष्ट्रोन्नति के अनेक मार्ग हैं. स्वतंत्रता की हवा
चारों ओर प्रवाहित हो रही थी, उस परिस्थिति में किस दिशा में जाना है, यह दुविधा जब मन में आई, तो हमने अपनी स्वभाव
प्रवृत्ति और परिवार की जिम्मेदारियों को समझा और अपना ही मार्ग तैयार किया.
रवीबाबू अभी भी विचारमग्न खड़े थे. उनकी नज़रों के सामने
तैर रहे थे ‘ब्रह्मचर्य आश्रम’ के आने वाले दिन....
ब्रह्म मुहूर्त हो गया है. घड़ी में चार बजे हैं. बड़े
लड़कों का एक समूह उठ गया है, और वे छोटे लड़कों को उठा रहे हैं. सुबह-सुबह प्रभाती गाई जा रही थी. अपने कमरे की सफाई
करने के बाद सभी शुचिर्भूत होकर बाहर मैदान में आये हैं. अब योग शिक्षक एक मन्त्र
का उच्चारण करेंगे और फिर योगासन किये जायेंगे. प्रत्येक विद्यार्थी अपने साथ
एक-एक छोटी चटाई लेकर आयेगा. अभी पूरी तरह भोर नहीं हुई होगी, परन्तु आकाश में नवरंगों की
रंगोली बनाई जा रही होगी. उस समय ये बच्चे सामवेद के मन्त्र गा रहे होंगे. प्रकृति
भी उनका साथ दे रही होगी. प्रकृति और मानव के माध्यम से ईश्वर का आगमन हो रहा
होगा. इस मन्त्र घोष में फूल खिल रहे होंगे. झरने गा रहे होंगे. हवा वहां कुछ देर
ठहरी होगी. हल्के से प्रकाशित धरती मन ही मन धन्य हो रही होगी. वे स्वप्न देखते
हुए खड़े थे,
तभी रेवाचन्द वहां आये.
“गुरुदेव...” रवीबाबू दिल खोलकर हंसे.
“आप ही हमारे गुरू हैं. हमें संस्कृत आप ही ने पढाई
है. गुरुदेव आप ही हैं.”
“अवश्य, रोबी, तुम्हें हमने ही पढ़ाया है. परन्तु यहाँ, इस आश्रम के आप प्रमुख है.
यदि मैं आरंभ करूँ, तो विद्यार्थी भी वैसा ही कहेंगे ना? ये भी संस्कार ही है. तो, आज से इस तपोवन के
‘ब्रह्मचर्य आश्रम’ के आप गुरुदेव हैं. एक गुरू अपने विद्यार्थी को गुरुस्थान पर
देखे,
यह जीवन का सर्वोत्तम, सुखमय अनुभव है. तो गुरुदेव...”
रवीबाबू को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या कहें.
“आप बताएं, कैसे आना हुआ?
“कल से कक्षाएं आरंभ करें. विद्यार्थी धीरे-धीरे
आयेंगे ही. फिर अनेक आश्रम होंगे. यह गुरुकुल विश्व विख्यात गुरुकुल होगा. सफ़ेद
दाढ़ी,
गर्दन पर झूलते सफ़ेद बालों वाले, गौरवर्णीय, ज्ञानवंत गुरुदेव की वाणी काल प्रवाह
के साथ यहाँ गूंजती रहेगी.
रवीबाबू भावविभोर हो गए. एक गुरू द्वारा हृदयपूर्वक
दिया गया आशीर्वाद पूरा होगा इसका उन्हें विश्वास था.
और अब उन्हें याद आया, कुछ वर्षों से इंग्लैण्ड में रह
रहे जगदीशचंद्र बोस को उन्होंने अपनी भूमिका की स्पष्ट रूपरेखा के बारे में सूचित
किया था, और उनकी शुभेच्छाएं भी प्राप्त हुई थीं. अब उन पर अनेक जिम्मेदारियां आ
पड़ी थीं.
अब वे नए उत्साह से तैयार हो गए थे.
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