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अभी पूरब में सूरज के आगमन में बहुत देर थी. रवीबाबू
उठकर बैठ गए. सारी ठाकुरबाड़ी सपनों की दुनिया में मगन थी. चराचर अभी ज़रा भी नहीं
जागे थे. खिलती हुई कलियों की गंध हवा में फ़ैली थी. चन्द्रमा समाधान से अस्त हो
रहा था. जीवन का आलेख लेकर कुछ ही देर में सूर्य पूर्व क्षितिज की ओर आने वाला
था.
वे उठकर देवेन्द्रनाथ के अध्ययन कक्ष में बैठे. खिड़की
से आकाश के चराचर को सारा तेज दान कर अब निस्तेज हो चुके तारे दिखाई दे रहे थे.
तालाब और वुक्ष कोहरे में खो गए थे. उन्होंने घड़ी देखी. साढ़े तीन बजे थे.
उन्होंने शान्तिनिकेतन की आश्रमशाला की कल्पना लिखना
आरंभ किया. मन में प्रश्न उठा, ‘नाम क्या देना है?’ वे मन ही मन हंसे. जन्म लेने से पहले बालक माँ के गर्भ में नौ महीने रहता
है. जन्म लेने के बाद उसका नामकरण संस्कार होता है. कभी संस्था कायम रहती है, कभी काल के प्रवाह में
विलुप्त हो जाती है.
‘हमें इस संस्था को चिरंतन रखना है. जो भी अध्ययन के
लिए आयेगा,
उसीकी यह संस्था होगी. उसे जाति, धर्म,
पंथ की दीवार नहीं चाहिए. यह सिर्फ भारत की ही नहीं होगी, इसका स्वरूप व्यापक होगा. सब
कुछ तो एकदम संभव नहीं हो पायेगा, मगर नाम में समावेशकता होना चाहिए. ज्ञान संपादन करने वाले हर व्यक्ति के
लिए इस आश्रम के द्वार खुले होने चाहिए. ‘उपनिषद्’ का ज्ञान गुरू ने अपने विद्यार्थियों को अपने
निकट बिठाकर दिया है. प्रत्येक उपनिषद वेदों का सार है. आत्मा-परमात्मा, ब्रह्म और आत्मा का दार्शनिक
ज्ञान है. यह ज्ञान भी आज के युग में आवश्यक है.
दो एक दिन पहले सत्येन्द्रनाथ ने पूछा था,
“रोबी, जो पाठशाला तुम आरंभ करने जा रहे हो, उसमें भाषा कौन सी होगी? क्योंकि आज भारतीय लोग
पाश्चात्य भाषा और आदतें आत्मसात करके अपने आप को अंग्रेज़ी वातावरण में ढाल रहे
हैं. ऐसे समय में...?”
“बड़ो दा, हमारा भी इस ओर ध्यान है. हम वहां तीन भाषाएँ पढाएंगे. एक बंगाली, एक गाँव में बोली जाने वाली
स्थानीय भाषा, और एक संस्कृत भाषा. संस्कृत
थोड़ी कठिन प्रतीत होगी, परन्तु भारतीय जीवन का मूलमंत्र, शाश्वत मूल्य जिसमें है, उस संस्कृत भाषा का ज्ञान सभी भारतीयों को देना
चाहिए.”
“एकदम सही विचार है.”
उन्होंने हाथ में कागज़ लिया और उत्साह से नाम लिखा.
‘विश्वभारती’.
और अब भाषाएँ लिखीं: बंगाली, बोलीभाषा और संस्कृत. अब उसका स्वरूप कैसे होगा उस पर वे विचार करने लगे.
उन्हें ऋषियों के आश्रम का स्मरण हुआ. तपोवन की याद
आई. बाणभट्ट की ‘कादम्बरी’ का तपोवन,
कालिदास के ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’ में कण्व मुनि का आश्रम, मालिनी नदी के किनारे
बसा वह तपोवन और उन्होंने ‘तपोवन’ की संकल्पना प्रस्तुत की. उनके नेत्रों के सामने
चित्र प्रस्तुत हुआ - कण्व मुनि एक वृक्ष
के नीचे विशाल शिला पर बैठे हैं, और उनके सामने बैठे हुए अनेक शिष्य गण. ब्रह्म मुहूर्त में उठे हुए ये शिष्य गण शुचिर्भूत
होकर सामवेद का गायन कर रहे हैं, ऋग्वेदों का अर्थ समझ रहे हैं. सतर्क शिष्य
प्रश्न पूछ रहे हैं. उनमें कुछ शिष्याएं भी हैं. कुछ तापसियों ने आश्रम के उदरभरण
का भार उठाया है.
सुबह नित्य पठन के पश्चात् शिष्य काम कर रहे हैं. नदी
से जलकुंभ लेकर आ रहे शिष्य, कृषि में व्यस्त शिष्य, धनुर्विद्या सीखने वाले शिष्य, संहिता लिखने वाले, पाठ कंठस्थ करने वाले, गोशाला में जाने वाले, गोधन को अरण्य में लेकर जाने वाले, पूरी समय प्रकृति के सहवास में रहने वाले ये
शिष्य और गुरू...और रवी बाबू ने कागज़ पर चित्र बनाया. चित्र को शीर्षक दिया -
‘तपोवन’.
हर व्यक्ति के भीतर एक कला छुपी हुई होती है. उस कला
का विकास होना ही चाहिए. चौसठ योगिनी चौसठ कलाओं की देवता हैं. इनकी कला के विकास
का उल्लेख भी हमारे ‘तपोवन’ की कल्पना में होना चाहिए. हम चौसठ कलाएं तो नहीं सिखा सकते. हमारे निवास
स्थान का नाम बाबा ने जानबूझकर ‘रवीन्द्र सदन’ रखा है. क्योंकि उसे सूर्य की तरह प्रकाशमान
होना है और दुनिया को आलोकित करना है. इसलिए ‘रवीन्द्र सदन’ में ‘संगीत भवन’ होना ही चाहिए. प्रत्येक
मनुष्य मूलतः संगीत प्रेमी होता है. वैसे वह ‘कवि मन’ भी होता है. यदि उसे शास्त्रीय रूप में संगीत
सिखाया जाए तो यहां का वातावरण नादमय हो जाएगा. वृक्ष, लताएं आनंद से झूमने
लगेंगे. बंगाली संगीत तब सर्वत्र गाया जाएगा. यहाँ ‘नृत्य शाला’ भी होना चाहिए. नृत्य भी
आनंद का ही एक भाग है. ‘नाटक’ रसिकों का मनपसंद साहित्य प्रकार है. उसके माध्यम से कलाकार समाज का
वास्तविक चित्र प्रस्तुत करेंगे.
यहाँ सिर्फ ‘तपोवन’ होना ही पर्याप्त नहीं है. ‘अभ्यास भवन’ भी होना चाहिए. प्रकृति के
सान्निध्य में गुरू-शिष्य एक ही चटाई पर बैठें, फिर भी तूफ़ान, बारिश ...इनसे बचने के लिए ‘पाठ भवन’ भी होना
चाहिए. आने वाले विद्यार्थी....यदि इसे फ़ौरन ‘आश्रम शाला’ बनाएं तो भी उसमें इतनी
जल्दी शिष्य कहाँ से आयेंगे? क्या पढ़ाने के लिए हम अकेले ही शिक्षक होंगे?
विद्यार्थियों के आने के बाद क्या उनके लिए निवास
स्थान बनाना चाहिए? कुछ बड़े होने के बड़ा विद्यार्थियों के लिए एक सुसज्जित वाचनालय भी आवश्यक
है और सब कुछ पक्का होना चाहिये, यहां की बदलती हुई प्रकृति का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा.
हमारे बनाए हुए इस ‘तपोवन’ को कौनसा विश्व व्यापक नाम देना चाहिए जिसमें
भारत का उल्लेख हो? जैसे हम परदेस में शिक्षा ग्रहण करने जाते हैं, उसी तरह परदेस से
विद्यार्थी भारत आयेंगे, इसलिए भारतीय संस्कृति का, भारत की मिट्टी का परिचय देने वाला नाम होना
चाहिए. उसी तरह शान्ति निकेतन के चारों ओर के सप्तपर्णी के वृक्षों से सप्तसुर
गूंजें, रवीन्द्र संगीत के. ऐसी उनकी इच्छा थी.
अब सबसे पहले क्या करना चाहिये? इस विचार में वे मगन
थे,
कि रथींद्र भागते हुए आकर बोला,
“बाबा,
माँ कह रही थी कि हमें आपके घर जाना है. है ना? तो वहां भी ऐसा ही बैठकखाना होगा ना? स्कूल भी
होगा ना?”
रवी बाबू ने उसे अपने पास बिठाया. उसके बालों पर हाथ
फेरते हुए उन्होंने कहा,
“यहाँ तुम्हें तुम्हारे टीचर पढ़ाने आते हैं. इस कमरे
में बैठकर तुम पढ़ते हो, फिर तुम बड़े स्कूल में जाओगे, सही है ना?”
“हाँ, मैं जाऊंगा स्कूल.”
“मगर स्कूल में एक ही कमरा होगा. बच्चे होंगे. शिक्षक
होंगे. मगर जैसे यहाँ एक कमरा है, वैसे ही स्कूल में भी होगा. हम तुम्हारे दादा जी के शान्ति निकेतन में एक
स्कूल खोलने वाले हैं. वहां तुम ही पहले विद्यार्थी होगे, रथी. चारों तरफ
सप्तपर्णी से घिरे अरण्य से एक पगडंडी जाती है. वहां एक सप्तपर्णी के वृक्ष के
नीचे बैठकर हम तुम्हें पढ़ाएंगे. सामने फूलों के पौधे होंगे, पद्मावती का बढ़िया समीर
होगा. वहां चटाई पर तुम होगे, और हम होंगे. फिर धीरे धीरे सब लोग आयेंगे. प्रकृति की गोद में हमारी यह
पाठशाला भर जाएगी.”
“सचमुच, बाबा?
क्या ऐसा भी होता है स्कूल?”
“हाँ, हमारा स्कूल ‘आश्रम शाला’ है. मुक्त वातावरण में. हमारे बाबा ने हमें वहां चन्द्रमा-तारों के प्रदेश
दिखाए थे. उनके बारे में जानकारी दी थी, वनस्पतियों की जानकारी दी थी. नक्षत्रों
के नाम बताए थे.”
“मुझे भी अच्छा लगेगा ऐसा स्कूल.”
“तुम्हारी माँ बता रही थी, कि तुम्हें आंगन में मिट्टी से खेलना बहुत
अच्छा लगता है. तुमने अपने मंदिर की दुर्गामाता की प्रतिमा बनाने का प्रयत्न किया
था!”
“हाँ, बाबा.”
“तो फिर हम तुम्हें पढ़ाएंगे.”
“क्या आप अकेले ही सबको पढ़ाएंगे?”
यह विचार रवी बाबू के मन में अब तक नहीं आया था. वह अब
आया. यह विचार महत्वपूर्ण था. उसे समझाते हुए वे बोले,
“रथी, यदि हमें सब कुछ आता भी हो, तो हम अकेले सब कुछ कैसे पढाएंगे? हमारे साथ पढ़ाने वाले शिक्षक हैं ना.”
“व्वा!...मज़ा है!” कहकर रथींद्र वहाँ से निकल गया;
परन्तु रवीबाबू के मन में प्रश्न निर्माण कर गया.
‘प्रथम ‘आश्रम शाला’. मतलब कोई खर्चा नहीं. ज़रुरत
पड़ेगी सिर्फ चटाइयों की. मेज़ें-कुर्सियां नहीं होंगी. इसके अतिरिक्त धरती माता का
स्नेह सबको प्राप्त होगा, परन्तु शिक्षकों को वेतन तो देना पडेगा ना, और फिर मन ही
मन शिक्षकों की खोज शुरू हुई.
और संयोग से दोपहर में शिवधन विद्यार्णव मास्टर जी
आये. वे बचपन में रवीबाबू को संस्कृत सिखाया करते थे. रवीबाबू ने जैसे ही अपनी
कल्पना उन्हें बताई तो वे बोले,
“रोबी, अब मैं सब कामों से निर्वृत्त हो चुका हूँ, परन्तु फिर भी तुमसे सहकार्य
करने अवश्य आऊँगा. सियालदह में मेरे कुछ परिचित हैं. तुम्हारी व्यवस्था होने तक
मैं उनके साथ रहूँगा. फिर गुरुकुल में आऊँगा. मैं पहले निकलता हूँ, दो-चार
विद्यार्थी भी इकट्ठा करूंगा.” उन्हें प्रसन्नता से तैयार हुआ देखकर रवी बाबू को
बहुत खुशी हुई.
उन्हें याद आया, रेवाचन्द सिंधी समाज के होते हुए भी
रवीन्द्रनाथ के परिवार से जुड़े हुए थे. शाम को उनसे मिलने का निश्चय करके वे उठे.
उन्हें एक और नाम याद आया – केशवचंद्र सेन के ब्राह्मो समाज के भवानीचरण बैनर्जी.
बहुमुखी व्यक्तित्व. उन्हें अनेक कलाएं भी अवगत थीं. ब्राह्मो समाज में हो रहे
आधुनिकीकरण और पाश्चात्य प्रभाव से वे रोमन कैथोलिक - इस क्रिश्चियन पंथ के
अनुयायी हो गए थे. फिर भी उनके देशाभिमान, राष्ट्रनिष्ठा, और उनके भीतर की ऊर्जा से रवीबाबू परिचित थे.
किसी भी काम को हाथ में लेते ही वे अपनी पूरी ऊर्जा उसमें उंडेल देते थे.
क्रिश्चियन धर्म छोड़कर वे भारतीय तत्वज्ञान, भारतीय संस्कृति की ओर मुड़े थे. रवीबाबू की
किताब ‘नैवेद्य’
उन्हें बहुत अच्छी लगी थी, इसलिए उन्होंने स्वयं आकर रवी बाबू से भेंट की थी. ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व
के हमारे पास आने से हमारे मन के ‘तपोवन’ को और ‘आश्रम शाला’ को गौरव प्राप्त होगा, ऐसा उन्हें अनुभव हुआ.
रवीबाबू का मन प्रसन्न हो गया.
‘नैवेद्य’ की कवितायेँ संस्कृति की पूजक थीं. ईश्वर के प्रति भक्तिभाव से ओतप्रोत
थीं. भवानीचरण बैनर्जी उनसे अत्यंत प्रभावित होकर क्रिश्चियन धर्म छोड़कर संस्कृति
पूजक हिन्दू धर्म के न केवल अनुयायी, अपितु भक्त हो गए थे. वे सियालदह जाकर रवी
बाबू से मिले थे.
शाम को रेवाचन्द और भवानीचरण से मिलने का निश्चय करके
वे उठे और सत्येन्द्रनाथ के कमरे की तरफ़ मुड़े.
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