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‘ब्रह्मचर्य आश्रम’ की ढलती दोपहर आज असमय ही संध्या
प्रदेश की ओर जाने का संकेत कर रही थी. रवीन्द्रनाथ डाक से आये पत्रों का ढेर लेकर
खिड़की के निकट वाली कुर्सी पर बैठ गए. सरसरी नज़र से देखते हुए उन्हें एक लिफ़ाफ़े पर
‘सत्येन्द्रनाथ’ का नाम दिखाई दिया. वे लिफ़ाफ़ा खोलने ही वाले थे कि श्यामली कुछ
कहने के लिए आई. वे पत्रों का ढेर लेकर उठे.
मृणालिनी को चक्कर आ गया था. कुछ ही दिन पहले
माधुरीलता और रेणुका का विवाह हुआ था और सब काम समाप्त करने के बाद मृणालिनी
शान्ति निकेतन आई थी. इतने कामों की आदत न होने से, और दोनों बच्चियों के विवाह में हुए अतिश्रम के
कारण उसके लिए सब कुछ बहुत कठिन था. मगर
उन्होंने उससे कहा था, ‘तुम कुछ मत करो, श्यामली और लक्ष्मी को सब कुछ समझा दो.’ उन्होंने प्रसन्नता से कहा था, ‘गुरुपत्नी मृणालिनी देवी, अब आप विश्राम करें’ परन्तु उसने उनकी बात नहीं सुनी.
इस समय भी जब वे आये तो वह सावधान हो गई थी. उन्होंने उसका हाथ पकड़ कर कहा,
“छुटी, तुम्हें बुखार है!”
“मुझे तो कुछ महसूस ही नहीं हुआ. बस, हल्का सा चक्कर आया था.”
“मतलब, तुम्हें बुखार झेलने की आदत पड़ गई है. चक्कर आया है अतिश्रम के कारण. वे
दोनों हैं ना,
चिंता मत करो. चलो, कमरे में चलकर आराम करो. काम का बोझ बढ़ गया है. एकाध नौकरानी और रखना
पड़ेगी. कुछ दिनों के लिए हम ठाकुरबाड़ी जायेंगे. तुम्हें आराम की ज़रुरत है.”
“नहीं, नहीं, बिलकुल नहीं. पिछले वर्ष सिर्फ छह महीने ही बच्चो के साथ हम यहाँ एक
साथ थे. एक साथ रहने के दिन ही कितने कम हैं. अब हम एक साथ रहेंगे. अब हमें
ठाकुरबाड़ी नहीं जाना है.”
“अच्छा, अच्छा, तुम चलो. अब आराम करो.” उन्होंने उसे कमरे में लाकर सुलाया. उसका
यौवन बीत गया प्रतीत हो रहा था. अब उसे सुख के, आनंद के दिन मिलें, प्रेम के दिन मिलें, इसलिए हम उसे यहाँ लाये थे, यह अनुभव गुरुदेव को हुआ, वे बोले,
“ छुटी, अब सब कुछ ठीक हो रहा है...कुछ स्थिरता आ रही है...” और अनजाने ही उनके मन
में ख़याल आया,
‘अनजाने ही हमने अनेक जिम्मेदारियां अपने कन्धों पर ले ली हैं. देवेन्द्रनाथ
द्वारा किया गया घर का बटवारा. सत्येनदा, द्विजेनदा और हमारे बीच करने से
रिश्तेदार नाराज़ हो गए हैं. ठाकुरबाड़ी में रहने वाले, पहले से ही स्वयं को वारिस समझने वाले, क्रोधित हो गए. ओरिसा के कटक
जिले से मिलने वाली धनराशि छत्तीस हज़ार प्रतिवर्ष होने से उसे हर व्यक्ति को समान
रूप से बांटना,
यह कार्य भी अत्यंत सावधानीपूर्वक करना हमारे लिए अत्यन्त कठिन होता जा रहा है.
साथ ही शान्ति निकेतन में ब्रह्मचर्य आश्रम की स्थापना
उत्तरोत्तर कठिन होता जा रहा था, अब कहीं जाकर सुख से एक साथ रहने के दिन आये ही हैं, कि मृणालिनी का बीमार होना उन्हें
चिंतित कर गया.
“क्या सचमुच सब कुछ स्थिर होता जा रहा है?” मृणालिनी ने पूछा तो वे
चौंके.
“देखो, छुटी, अब आराम करो. अब हैं ना हम साथ में. दोनों
मिलकर हर समस्या को आसानी से सुलझा लेंगे.”
“आपको मालूम नहीं, कटक की ज़मींदारी की वसूली आपके बाबा ने बड़े
विश्वास से आपको सौंपी थी. परन्तु ठाकुरबाड़ी में यह किसी को भी अच्छा नहीं लगा.
अपने ही रिश्तेदार आप पर टीका करने लगे हैं. कलकत्ते में तो समाज के लोग भी इस
ब्रह्मचर्य आश्रम के बारे में न जाने क्या-क्या कह रहे हैं. यह खुल्लमखुल्ला
बदनामी मुझसे सहन नहीं होती. लोग तो ये भी कहते हैं, कि जैसे किसी को मदिरा का नशा चढ़ा हो, उसी तरह आपको भी ‘ऋषि’ कहलाने
का नशा चढ़ गया है. और कितने लोग न जाने क्या क्या कहते रहते हैं. ये सब अपने ही
लोग है,
जिनका आपने सम्मान किया था. वे ही लोग निंदा कर रहे हैं.”
“छुटी....छुटी ...समझ गया, इसीके कारण तुम्हें मानसिक कष्ट होता है, मगर
बुद्धू, बिल्ली के दांत अपने पिल्लों को चुभते नहीं हैं.
हमसे ये होगा या नहीं, इस चिंता के कारण वे कहते हैं. और अगर उनकी बात
हम दिल पर लें,
तो हम अधिकाधिक परिश्रम करके उस बात को सिद्ध करके दिखाएंगे. तब वे ही लोग
तुम्हारा आदर करेंगे. पहले तुम इन विचारों को अपने मन से निकाल दो.”
उसने कुछ नहीं कहा, उसने आंखें मूंद लीं. उन्होंने
उसकी ओर देखा. उसका चेहरा किसी मुरझाते हुए फूल जैसा लग रहा था. उसकी चमकती आंखें
थकी हुई लग रही थीं, आंखों के नीचे स्याही गहरा रही थी.
केवल इक्कीस वर्ष की यह युवती पांच संतानों को जन्म
देकर और टीका सुन सुनकर थक गई थी. टीका करना तो मनुष्य का स्वभाव ही है. जो आदमी
कुछ भी नहीं कर सकते, वे टीका अवश्य करते हैं. जिसका
आपसे कुछ लेना-देना ही न हो, दूर का भी संबंध न हो, उनका सिर्फ एक ही गुण होता है, आगे जाने वाले को पीछे घसीटना.
और अंग्रेज तो यह सुनकर तिलमिला गए थे कि एक भारतीय
व्यक्ति ने अपनी स्वयं की नई शिक्षा प्रणाली आरम्भ की है. यह उनके विरुद्ध षडयंत्र
नहीं था,
मगर फिर भी वे इसका प्रबल विरोध कर रहे थे. वैसे तो अभी यह नींव ही थी, फिर भी
उनकी भूमिका यह थी कि उसे नष्ट कर दिया जाए.
वैसे अंग्रेज़ किसके पीछे नहीं पड़े थे? देश की स्वतंत्रता के लिए
प्रयत्नशील व्यक्तियों को उन्होंने कुचल देने का प्रयत्न किया. नरेंद्र दत्त को
अमेरिका जाकर वैदिक काल का महत्त्व बताना पड़ रहा है. अरविन्द बाबू तो...
वे मन में ही यह सब सोच रहे थे, इतने में श्यामली आई.
“गुरुदेव, दस विद्यार्थी आये हैं, परन्तु रेवाचंदजी कह रहे हैं, कि आप ही उनके बारे में निर्णय लें.”
“अच्छा, हम आते हैं. तुम रथी की माँ की तरफ़ ध्यान दो.”
मृणालिनी ने यह वाक्य सुना और बोली,
“आप निश्चिन्त मन से अपना कार्य करें. श्यामली के पास
भी बेहद काम है. तू भी जा श्यामली.”
परन्तु श्यामली ने गर्दन हिलाकर ‘ना’ कहा और पलंग के
पास ज़मीन पर बैठ गई.
रवीन्द्रनाथ उनके बनवाए हुए बांस के कमरे में स्थित
ऑफिस में गए. जाते हुए उनके मन में विचार आया कि कुछ बातों के अधिकार सर्वप्रथम
अपने साथ ब्रह्मचर्याश्रम के लिए आये हुए रेवाचन्द और शिवधन विद्यार्णव को सौंप देना
चाहिये. लड़कियों
को प्रवेश देना चाहिए. यदि विस्तारित कार्य करना हो, तो कार्य की ज़िम्मेदारी अनेक व्यक्तियों को
देना चाहिए. भवानी चरण बहुआयामी व्यक्तित्व वाले हैं. केशवचंद्र सेन के
ब्राह्मोसमाज में कार्य करते हुए उन्होंने कुछ समय के लिए क्रिश्चियन धर्म भी
स्वीकार किया था,
और फिर से हिन्दू धर्म स्वीकार करके वे ब्रह्मचर्याश्रम में आये थे. अनुभूतिसंपन्न
और सुसंस्कृत भवानी चरण पूरे मनोयोग से कार्य कर रहे थे. उन्हें भी कोई ज़िम्मेदारी
सौंपना चाहिए.
हम चाहे कितना भी निश्चय करें, मगर एक ही व्यक्ति के लिए
इतना विस्तारित कार्य करना संभव नहीं है. ठाकुरबाड़ी में पहले से निवास कर रहे लोग
अभी भी ठाकुरबाड़ी में थे और वहीं रहने वाले थे. उनका सम्पूर्ण खर्च रवीन्द्रनाथ को
कटक की ज़मीन्दारी से करना था.
ये तो बात हुई परिवार की. अब देश भी अधिक तीव्रता से
स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में चल पडा था. सशस्त्र क्रान्ति और असहकार – ये दो
विचारधाराएं समाज में निर्माण हो गई थीं. ब्रह्मचर्याश्रम की स्थापना होकर
देवेन्द्रनाथ की पूर्व कुटी के नाम से ‘शान्ति निकेतन’ यह नाम प्रसिद्ध हो रहा था.
इसी सारी भागदौड़ के बीच माधुरीलता और रेणुका का विवाह
हुआ था और वे मृणालिनी के साथ शान्ति निकेतन आये थे. साथ ही उनका पत्र लेखन भी कम
नहीं था, ना ही नाटक, कविताओं,
और लेखों का लिखना कम हुआ था. एक दिन मृणालिनी ने कह ही दिया,
“सचमुच बहुत अद्भुत और अलौकिक प्रतीत होता है यह सब,
इन दो-तीन वर्षों में ‘चैताली’, ‘चित्रा’,
‘नदी’,
‘कणिका’,
‘कथा’,
‘काहिनी’,
‘कल्पना’
काव्य संग्रह प्रकाशित हुए. कैसे झरझर लिखते हैं, मानो वर्षाधाराएं झरझर बह रही हों. अभी–अभी
कविता संग्रह ‘नैवेद्य’ प्रकाशित हुआ. ऐसे कैसे सूझती है कविता?”
“छुटी, ईश्वर ने मन की रचना इस प्रकार की है, कि विश्व की घटनाएं उस निराकार और उलझे हुए मन के हर
खाने में समाई हुई रहती हैं. कविता के शब्द मन में सहज ही तैयार हो जाते हैं.
सिर्फ उन्हें कागज़ पर अवतरित करने के लिए समय की आवश्यकता होती है. वास्तव में तो
यह कवि के हृदय
का एक भाग ही होता है. मन के असंख्य खानों में कविता सम्राज्ञी का अपना एक बरामदा
होता है.”
“हमारे
मन में क्यों नहीं है वह शब्द-सम्राज्ञी का बरामदा?”
रवीन्द्र
मनःपूर्वक हंसे.
हमें तो प्रत्यक्ष ईश्वर से ही यह प्रश्न पूछना
पडेगा.पद्मा नदी पर जाओ, तो पद्मा नदी ही अनेक संवेदनाओं सहित अपनी हो जाती है. वृक्षलता, हवा, जोती हुई खेती भी अपनी हो
जाती है. हम भी उसमें सम्मिलित हो जाते हैं, वह भावनात्मकता अनजाने ही शब्दों के माध्यम से प्रकट होती है. विश्व में एक
भी चीज़ ऐसी नहीं है जिसके बारे में कवि कभी चिंतन ही नहीं करता. इसके अतिरिक्त यह
सब कागज़ पर अवतरित होने में कवि का चिंतन, अनुभूति, उसके बारे में उत्कट संवेदना भी
उपयोगी होती है.
किसी स्त्री का अनुपम लावण्य ईश्वर की देन है. परन्तु
उसमें निहित सुन्दर मन भी उसीकी देन है और छुटी, तुम्हें ये दोनों ही प्राप्त हुए हैं. सुन्दर
मन से ही तुम आज तक सब कुछ करती आई हो. देखो, तुम सर्वप्रिय हो, सही है ना?”
संवाद समाप्त हो गया था, परन्तु मृणालिनी आत्मचिंतन में मगन थी. अपने
लावण्य का और मन के लावण्य का एहसास उसे आज हुआ था.
वे चल ही रहे थे, कि सामने से भवानीचरण आते हुए दिखे. उन्होंने
हाथ जोड़कर भवानीचरण को नमस्ते किया. दोनों मुस्कुराए.
“आश्रम में जा रहा हूं,” रवीन्द्रनाथ ने कहा, तो वे बोले,
“वही बताने आया हूँ. गाँव से बीस बच्चे आये हैं. उन्हें
एकदम प्रवेश देना है, या धीरे धीरे प्रवेश देना है, यह विचार आते ही आपको सन्देश भेजा; मगर यह बात ध्यान में आई कि अब हमें भी
निर्णय लेना आना चाहिये, इसलिए निर्णय ले लिया. उन बच्चों को प्रवेश दे दिया. उनके आवास की और खर्च
की सहायता किस प्रकार की जाए, इसके बारे में न केवल विचार किया बल्कि उसे अमल में भी लाता हूँ यही कहने
के लिए आया था.”
“सचमुच आपने मनःपूर्वक इस प्रश्न का समाधान किया इसकी
खुशी हुई.”
“अब आप निश्चिन्त रहें, रवी बाबू. हम सब मिलकर सब कुछ संभाल लेंगे. वचन
देता हूँ. इस संस्था को प्रसिद्ध बनाने के लिए असंख्य टीकाएँ सहन करते हुए ही हम
आगे जायेंगे.”
रवीबाबू की आँखें भर आईं और उन्होंने अनजाने ही
भवानीचरण को गले लगा लिया. रवीन्द्रनाथ की रचना ‘नैवेद्य’ से भवानीचरण अत्यंत
मंत्रमुग्ध हो गए थे, जो
‘सुनीत’ प्रकार में अनूठी शैली में लिखी गई कविताओं का संकलन था - ईश्वर के बारे
में,
भारत की स्वदेश प्रीति के बारे में और संस्कृति के बारे में. इसलिए
ब्रह्मचर्याश्रम के बारे में उनके मन में अत्यंत उत्सुकता और आनंद का भाव था. वे
खुद ही कलकत्ता छोड़कर शान्ति निकेतन में आये थे. उन्होंने ही रवीन्द्रनाथ को
गुरुदेव कहना प्रारंभ किया था और अब सभी को गुरुदेव कहने की आदत हो गयी थी.
रवीन्द्रनाथ अपने कमरे की तरफ़ जाने लगे. तब वे सोच रहे
थे,
भगवतीचरण ने शुरूआत तो अच्छी की है, परन्तु
उन्हें राजकीय आन्दोलन में सहभागी होना अच्छा लगता था. वे कभी भी चले जायेंगे इस
बात की कल्पना रवीन्द्रनाथ को भी थी. तत्वज्ञान और अंग्रेज़ी साहित्य के विद्वान अजित
कुमार चक्रवर्ती आये थे. ये सब उपलब्धी थी. एक और युवक रवीन्द्रनाथ के सहवास में
आया था – सतीशचन्द्र राय. अत्यंत निर्धन परिवार से. परिवार की सारी आशाएं उसी पर
केन्द्रित थीं,
परन्तु वह नौकरी छोड़कर समाजसेवा की लगन से यहां आया था. अंग्रेज़ी साहित्य उसका
अत्यंत प्रभावी विषय था, साथ ही बंगाली साहित्य और संस्कृत भी उसे अत्यंत प्रिय थे. इसलिए नौजवान
अजित कुमार और वयस्क रवीन्द्रनाथ की अनेक विषयों पर देर रात तक चर्चा भी होती थी. रवीन्द्रनाथ
की कविताओं को वह बहुत पसंद करता था. कभी कभी वह बेसुरी आवाज़ में बड़े प्रेम से
गाता, तब रवीन्द्रनाथ अपनी कविता
कामिनी से मन ही मन कहते, ‘सहन करो. बेपरवाह है, मगर फिर
भी तुमसे अपार प्रेम करता है.’
रवीन्द्रनाथ के कवि मित्र मोहितचन्द्र सेन तो उनकी
कविता से इतने मुग्ध हो गए थे कि उच्च शिक्षा, उच्च अधिकार का पद, प्रतिष्ठा और ऊंची तनख्वाह वाली नौकरी छोड़कर वे यहां आये थे. यहां आते ही
उन्होंने गाँव-गाँव जाकर बच्चों और पालकों को शान्ति निकेतन के कार्य से प्रभावित
किया, और देखते-देखते ब्रह्मचर्याश्रम के विद्यार्थियों की संख्या में निरंतर
वृद्धि होने लगी.
जगदानंद राय, जो एक ज्ञान-विज्ञान साधक विद्वान थे, उनसे आकर मिले थे. वे ‘साधना’ नामक पत्रिका में विज्ञान
विषयक लेख लिखा करते थे. जैसे ही उनसे पूछा ‘यहाँ आयेंगे क्या?” वे फ़ौरन शान्ति निकेतन आ गए
थे. एक प्रकार से अब शान्ति निकेतन में चहल पहल हो गई थी.
पहले देवेन्द्रनाथ यहाँ मौन साधना किया करते थे.
वृक्षलताएं,
समीर और चन्द्र-सूर्य उनकी साधना को मौन आशीर्वाद देते थे. निराकार उनकी साधना में
एकाकार होकर उनमें विलीन हो जाता. अब तो वृक्षलताएं हंसने और डोलने लगी थीं. समीर
अपनी लहरों से बच्चों को आनन्द प्रदान करता था. निराकार अब साकार होकर शब्द रूप
में प्रकट हो गया था. चैतन्य का साक्षात्कार हो रहा था. चैतन्य का एक प्रवाह
शान्ति निकेतन की भूमि पर नंदनवन की रचना कर रहा था.
“भाभीजी भालो आछे?”
“हाँ, हाँ,
भालो लागबे!” वह फिर शाम के भोजन में क्या बना रही है, न पूछते हुए भी बता कर गई. सोलह-सत्रह वर्ष की
यह सांवली कन्या अत्यंत मोहक थी. मधुर भाषिणी थी.
“जल कोथाय?” रवी बाबू संभलते हुए बोले.
“तुमि आराम करो...” और उन्होंने पानी लाकर दिया. अभी
भी उसका ज्वर कम नहीं हुआ था.
“तुम चिंता न करो, छुटी. सब भालो होवे.”
वह फिर से बिस्तर पर लेट गई. उसके मूंदे हुए नेत्रों
से गालों पर अश्रु छलक आये. उन्होंने हौले से उन्हें पोंछा. उन्हें उसकी चिंता का
आभास था. घर के,
आसपास के,
सभी लोग कह रहे थे, ‘रोबी मोशाय बिल्कुल मूर्ख निकले. बेकार ही में उन गरीब बच्चों को पढ़ाने के
लिए जंगल में जाकर बैठ गए हैं.’
वैसे तो बोलपुर भी अब आदिम गाँव नहीं रह गया था. धीरे
धीरे बस्ती बढ़ रही थी. पद्मा नदी के आसपास घनी बस्ती हो गई थी. वहां से
देवेन्द्रनाथ के शान्ति निकेतन आश्रम तक दो मील लम्बी पगडंडी बन गई थी. अब तो वहां
रवीबाबू ने ब्रह्मचर्याश्रम की स्थापना की थी. आसपास के गाँवों में हवा की तरह यह
बात फ़ैल गई थी. परन्तु बच्चों को शिक्षा के लिए वहां रखने की कल्पना अभी ज़ोर नहीं
पकड़ रही थी.
“क्या सब कुछ हमारी इच्छा के अनुसार होगा?” उन्होंने अपने आप से यह
प्रश्न पूछा और अनजाने ही मन ने कहा...
‘जो कार्य औरों के हित के लिए कर रहे हो, उसे अधूरा मत छोड़ो, चलते
रहो. सफलता तुम्हारी राह देख रही है.’
उत्तर मिलते ही मन समाधान पूर्वक मुस्कुराया. उन्होंने
मृणालिनी के मस्तक पर हाथ रखा.
“छुटी, अब और अधिक प्रयत्न करना होगा. अनेक विद्यार्थी यहाँ आयेंगे. देखते देखते
आश्रम का विस्तार होगा. तुम और मैं अब अनेक बालकों के पालक होंगे. तुम माँ की ममता
से उनकी देखभाल करना, और हम पिता बनकर उन्हें सुसंस्कृत, सुविद्य, समझदार नागरिक बनायेंगे.”
रवीन्द्रनाथ मृणालिनी के कमरे की तरफ़ जा रहे थे. अब
शान्ति निकेतन में ब्रह्मचर्याश्रम काफ़ी स्थिर हो गया था. फिर भी आने वाले
विद्यार्थियों को वहां की जीवन प्रणाली आत्मसात करने में कठिनाई हो रही थी. उनकी
कल्पना में वैदिक काल की आश्रम व्यवस्था थी. खंड-खंड भारत को अखण्ड ज्ञान ज्योति
देने की कल्पना और मानवतावादी समाज की स्थापना करते हुए मन में जीवन और शिक्षण के
समन्वय की कल्पना थी.
जीवन में संयम और अनुशासन लाने वाली वैदिक आश्रम
व्यवस्था उनके मन में आई और उन्होंने विदेश में रह रहे डा. जगदीशचंद्र बोस को पत्र
लिखकर अपनी भूमिका बताई थी, और बंगाल प्रांत में भी लोकमान्य तिलक, रैंगलर परांजपे जैसे कर्मयोगी तैयार हों, ऐसी भी उनकी इच्छा थी.
आश्रम की कल्पना तो न जाने कब से मन में थी. कालिदास
के ‘शाकुंतलम’
में वर्णित कण्व मुनि का आश्रम उनके मानस में था. विश्वकर्मा द्वारा निर्मित काशी
और वहां की आश्रम व्यवस्था, वैदिक ज्ञान उन्हें अपेक्षित था, और भारत का संघटन करने के लिए वैदिक धर्म और
वैदिक जीवन प्रणाली उन्हें अपेक्षित थी. उसके अनुसार शान्ति निकेतन में
ब्रह्मचर्याश्रम की स्थापना हुई थी, विद्यार्थियों की संख्या में भी वृद्धि हो रही थी.
“छुटी, क्या सोच रही हो?”
“कुछ नहीं. क्या ऐसा कुछ है, जिसके बारे में सोचना पड़े?”
“प्रत्यक्ष में तो कुछ नहीं. यहां सभी गुरुपत्नी होने
के कारण तुम्हारा आदर करते हैं. सभी तुम्हारी सहायता के लिए हैं. वैसे तो सब कुछ
ठीक ही दिखाई देता है. मगर ऐसा क्यों है, छुटी? बीच बीच में थकी-थकी क्यों लगती हो? और बीच बीच में विचारमग्न क्यों हो जाती हो?”
उसके निश्चित उत्तर सुनकर अब रवीन्द्रनाथ भी अस्वस्थ
हो गए थे. मागे एक दिन उन्होंने कह ही दिया,
“छुटी, यदि तुम मन की बात नहीं बताओगी, तो हम तुमसे बात ही नहीं
करेंगे.” तब मृणालिनी ने बताया कि कैसे परिवार के, घर के लोग भला बुरा कहते हैं. निंदा करते हैं, और यह निंदा उससे बिलकुल भी
सहन नहीं होती. उन्होंने ठाकुरबाड़ी में ही नहीं, यहाँ आने पर भी उसे समझाया था. उन्होंने कहा था,
“छुटी, समाज में कोई भी नया काम शुरू किया जाए तो समाज उसे स्वीकार नहीं कर पाता. हम
स्वयं तो अपने आप से परिचित हैं ना? सभी
ओर से विचार करते हुए, हम जो कार्य कर रहे हैं, वह लोकहितवादी है, इस पर हमें विश्वास है ना? इसके अतिरिक्त ठाकुरबाड़ी में हमारे अनेक दूर के रिश्तेदार भी रहते हैं,
उन्हें अपने खर्च के लिए पर्याप्त धन मिल ही रहा है ना? हम सत्य हैं, सुन्दर कर रहे हैं, इसलिए हमारे मन को पवित्र रहने दो, उसे दूषित न होने दो.”
उन्हें सारे वाक्य याद थे. जैसे ही वे दरवाज़े के पास
आये,
श्यामली बाहर गई. उन्होंने वैद्यराज द्वारा दी गयी दवाएं उसे दीं. शाम हो गई परन्तु बुखार अभी तक नहीं उतरा
था. क्या करना चाहिये, यह प्रश्न सामने था. फिर भी वे सहजता से घूम रहे थे. दिन भर के कामों का अंदाज़
ले रहे थे. आश्रम की सायंप्रार्थना में भी जाकर आये. जब वापस आये, तो मृणालिनी उठकर पलंग पर
बैठी थी.
“कैसा लग रहा है, छुटी?” उन्होंने उसके पीछे तकिया खिसकाया और उसके
बालों पर हाथ फ़ेरते हुए पूछा.
“भालो लागबे,” वह क्षीणता से मुस्कुराई.
“छुटी, बुखार उतर गया है. अब नारियल पानी पी लो. अच्छा लगेगा, और यहाँ नारियल की कमी नहीं
है. रोज़ सुबह-शाम नारियल पानी पीती रहो. हम ही तुम्हें देंगे. आराम करो. चिंता
हमें सौंप दो और प्रसन्न रहो.”
वह भी मनःपूर्वक हंसी. उन्हें याद आया, चार-पांच वर्ष
पूर्व लोकमान्य तिलक पर अदालत में मुकदमा चल रहा था. राजद्रोह क़ानून के तहत
लोकमान्य तिलक पर मुकदमा चल रहा था. उन्हें रिहा करवाने के लिए भी पैसों की
आवश्यकता थी. लोकमान्य तिलक को रिहा करवाना प्रमुख कार्य था. देश की खातिर
शब्द-शस्त्र लेकर लड़ने वाले नेता को रिहा करवाना था. कलकत्ता से फंड एकत्र करना था, और उस समय मृणालिनी बीमार
थी. वह बारबार कह रही थी,
“आप जाइए. उन्हें मदद की ज़रुरत है. फंड इकट्ठा कीजिये.
मेरी सहायता के लिए परिवार के लोग हैं.”
“छुटी, तुम्हारी बीमारी में हम कभी भी नहीं जा सकते.”
वे हताश होकर बैठ गए, और अगले ही दिन वह ठीक हो गई थी.
“छुटी, तुम्हारी मानसिक अस्वस्थता हमें दे दो. पिछली बार अच्छी हो गई थीं, अब भी जल्दी से ठीक हो जाओ.”
“एक अच्छा सा गीत सुनाओ मुझे, अभी नाचने लगूंगी.”
रवीन्द्रनाथ
खुल कर हंसे. उसका चेहरा अपने हाथों में लेकर बोले,
“हम अक्सर एक गीत गाते हैं, वही गाएं?”
“कुछ भी गाओ. शब्द आपके, सुर आपका, साज आपका.”
वे पलंग से उतरे, सामने वाली खिड़की के पास जाकर खड़े हो गए और
मुक्त स्वर में गाने लगे:
बड़ो वेदनार मतो बेजेछो तुमि हे
आमार प्राणे ,
मन जे केमन करे, मने मने ताहा मनई जाने.
तोमार हृदय करे आछि निशिदिन धरे,
येथे थाकि आँखि भरे,
मुखेर पाने.
बड़ो आशा,
बड़ो तृषा, बड़ो अकिंचन तोमारि लागी,
बड़ो सुखे,
बड़ो दुखे, बड़ो अनुरागे
रायेछि जागी.,
ए जन्मेर मतो आर हए गेछे जा हबार,
भेसे गेछे मन प्राण मरण टाने.
उनकी आंखें भर आईं, पलंग से उठ कर आई मृणालिनी ने पीछे से उनका
आलिंगन किया.
“छुटी, आज ऐसा क्या हुआ है?”
उसने कुछ नहीं कहा, उसकी आंखों से अविरत अश्रुधारा बह रही थी.
रवीन्द्रनाथ ने उसे अपने निकट लिया, उन्हें ऐसा लगा की शायद उसका मन निरभ्र हो गया, स्वच्छ हो गया है. कितनी ही देर वे उसके बालों
पर हाथ फेरते रहे.
दो ही दिनों बाद मृणालिनी हमेशा की तरह घूम फिर रही
थी. उन्होंने राहत की सांस ली. उसे कामों में मगन देखकर वे समाधान पूर्वक
मुस्कुराए.
अभी परसों ही जगदानंद राय ने कहा था,
“ गुरुदेव, एक दिन शान्ति निकेतन इतिहास को मात देकर वर्तमान में रहेगा, इसका मुझे पूरा विश्वास है.
इतिहास के पन्ने पलटते हुए उसमें ‘शान्ति निकेतन’ स्थायी रूप से होगा.”
“बाबूमोशाय, अभी तो शान्ति निकेतन का आरंभ हुआ है. मुश्किल
से साल भर हुआ होगा. ऐसे में इसके इतिहास का साक्षी होने के लिए कुछ वर्ष तो
बीतेंगे, यह जितना सत्य है, उतनी
ही शान्ति निकेतन की मुद्रा जनमानस पर अंकित करनी पड़ेगी, सही है ना?”
“गुरुदेव, समाज परिवर्तन की एक लहर इतिहास बनाती है. आज समाज में यही लहर अपना स्थान
दृढ़ करना चाहती है, इसीलिये विरोध की लहर भी उठ रही है. यही विरोध इस लहर को दूर
तक ले जाएगा. समाज में सत्ताधारियों का इतिहास जितना होता है, उतना ही उनका विरोध करने
वालों का इतिहास भी होता है.”
“आप सही कह रहे हैं, बाबू मोशाय. परन्तु इतिहास का अध्ययन
सत्ताधारियों के आक्रमण का, शौर्य का,
साम्राज्य विस्तार का, विजय का इतिहास था. शक, हूण, यवन आये. उन्होंने युद्ध किये. भारत की संपत्ति लूटी यह था इतिहास.
मुस्लिम आये,
उन्होंने आक्रमण किये, भारत पर राज किया, भारत पर अपनी सत्ता स्थापित की. ये इतिहास था. अब भारत
में डच,
पुर्तगाली,
अंग्रेज़ आये. एकेक भाग पर अधिकार करके अंग्रेज़ सत्ताधीश हो गए, ये इतिहास होगा. परन्तु भारत ने हर बार
सहस्त्रों लोगों को खोया, ये इतिहास नहीं है. उनका शौर्य, उनका पराक्रम, उनके परिवार की स्थिति, यह इतिहास नहीं होता. यह दुर्दैवी घटना है.”
“सत्य है. क्योंकि इतिहास विजेता के दृष्टिकोण से ही
लिखा जाता है न गुरुदेव? वे आये,
उन्होंने विजय प्राप्त की – इतिहास हो गया. हम बार बार युद्ध ही करते रहे. बिलकुल
ईसा पूर्व से. मगर पराजितों का इतिहास नहीं होता.”
रवीन्द्रनाथ विचारमग्न हो गए. विशाल सैन्य लेकर आक्रमण
करने वाले भारतीयों को पराजित होना पड़ा. परन्तु ईसा पूर्व से ये आक्रमण रुके नहीं.
इसका अर्थ यह हुआ कि भारत बार बार लड़ता रहा. अपने बल पर विजयी होता रहा. इसीलिये
बार बार आक्रमण होते रहे.
“सत्ताधारी, चाहे कोई भी, कभी भी हो, भारत समृद्ध होता रहा – सर्वसामान्य कामगारों
की बदौलत. सत्ता की राजनीति महलों से युद्ध के मैदान में उतरती है. मरते हैं
सामान्य व्यक्ति जिनका सत्ता से कोइ लेना देना नहीं होता.
“सामान्य व्यक्ति यदि राजनीति से विचलित भी हो जाएं तो
भी वे खेती बाडी करते हैं, अनाज उगाते हैं, कारखाने चलाते हैं, मज़दूर काम करते हैं सबके पेट भरते हैं; परन्तु
उनका इतिहास नहीं बनता. देश का पेट भरने वालों का इतिहास नहीं होता. सामान्य सैनिक
युद्ध के मैदान में शहीद हो जाते हैं, उनका इतिहास नहीं होता, केवल आंकडे बताये जाते हैं. अठारह अक्षौहिणी सेना का कुरुक्षेत्र पर नामो
निशान मिट गया इसका...”
“गुरुदेव, अब चलता हूँ,” जगदानंद राय ने कहा, तो रवीन्द्रनाथ विचारों से बाहर आये. वे अपने कमरे में आये और यूं ही लिखने
लगे,
‘विदेशी सत्ताधारियों के ज़बर्दस्त प्रभाव के काल में
भी भारत का अस्तित्व था ही. वरना इतनी घमासान परिस्थिति में भी कबीर, नानक, चैतन्य महाप्रभु, तुकाराम को किसने बनाया? उस समय सिर्फ दिल्ली और आगरा
ही थे,
ऐसा नहीं है. काशी और नवद्वीप भी थे. उस काल के नित्य नूतन भारतीय जीवन में जो
जीवन प्रवाह धीमे धीमे बह रहा था, प्रयत्नों की लहरें उठ रही थीं, सामाजिक घटनाएं हो रही थीं, उनका वर्णन इतिहास में नहीं है.’ और लेख लिखकर ‘भारत वर्षेर इतिहास धारा’ शीर्षक से प्रकाशन के लिए
भेज दिया.
फिर भी उनके विचार चल ही रहे थे. एक बार वर्षाधाराएं
शुरू हो जाएं तो आठ दिन बरसती हैं, और अपने पैरों के गीले निशान छोड़ जाती हैं, लेख लिखने के बाद ऐसी ही भावना थी मन में.
सामाजिक गड़बड़ जब बहुत ज़्यादा बढ़ जाती है, तो एक युद्ध से दूसरे युद्ध
की ओर प्रस्थान होता है. जब जाति, धर्म, प्रांत, गाँव का टुकड़ों में विच्छेदन होने लगता है, तब देश की अखंडता समाप्त हो
जाती है. यह संकुचित भावना नष्ट करना होगी. धर्म जब बाह्य जगत की वस्तु हो जाता है, अपनी अपनी श्रद्धा का ईश्वर
अपनी धनदौलत के समान अपने अधिकार में होता है, तब इन भेदों को मिटाना कठिन होता
है. जातिभेद के संकीर्ण विचार के कारण संघर्ष बढ़ता जाता है. धर्म को संप्रदाय की
पकड़ से दूर होना होगा. यह विचार भी धर्म के माध्यम से ही आना चाहिए, क्योंकि
सर्वसामान्य जन सिर्फ धर्म की भाषा ही समझते हैं. सचमुच, ऐसा करना चाहिए.
भारत छिन्नविच्छिन्नता से भी विविध जातियों और
सम्प्रदायों को एक साथ लेकर, सर्वस्व की बाज़ी लगाकर लड़ने वाला देश है. यूरोप के
ऐतिहासिक निष्कर्षों पर भारत के इतिहास के मापदंड निश्चित नहीं किये जा सकते.
गुरुनानक,
गुरुगोविन्दसिंह,
छत्रपति शिवाजी के उदाहरण हमारे सामने ही हैं. परन्तु वह प्रांतीय इतिहास था. अब अंग्रेज़ों
से भारत को वापस लेने के लिए सभी भाषाओं, सभी प्रान्तों के लोगों को एकत्रित होकर
संगठित इतिहास बनाना होगा.
हमेशा की तरह विचारमग्न वे अपने कमरे में आये. मृणालिनी
सुस्नात होकर अपने घने केश बाँध रही थी. वह अपने लम्बे, घने बालों को हमेशा कसकर
बांधती थी. तब रवीन्द्रनाथ ने उससे कहा था,
‘जब जब हम तुम्हारे सामने हों तब अपने कृष्णघन केश ऐसे
न बांधा करो,
उन्हें खुला ही रहने दो. हमें वे बहुत अच्छे लगते हैं.’
रवीन्द्रनाथ को कमरे में देखकर उसने बांधते-बांधते केश
खुले ही छोड़ दिए और उसने साभिप्राय उनकी ओर देखा. वे अपने ही विचारों में मग्न थे.
उसने उनसे पूछा,
“ऐसे क्या सोच रहे हैं?”
“कुछ नहीं.”
“ऐसे कैसे कुछ नहीं?” उनका उसकी तरफ़ ध्यान भी नहीं था. वे बोले,
“ सत्ताधारियों ने विभिन्न प्रवाहों को इकट्ठा किया, साम्राज्य के लिए. परन्तु एक
शक्ति अवश्य ऐसी होनी चाहिए, जिससे सत्ताधारी भी विनम्र होंगे. लोकप्रवाह में सहजता से सम्मिलित होंगे, समाज मन का अध्ययन करेंगे.”
“है ऐसी शक्ति – वह है धर्म की शक्ति!” वे एकदम उसकी
ओर मुड़ कर बोले,
“तुम्हें कैसे मालूम?”
“मालूम क्यों न होगा? एक तो मैं ठाकुर परिवार के बड़े बाबूजी
देवेन्द्रनाथ की छोटी बहू हूँ, और लेखक, कवि, उपन्यासकार रवीन्द्रनाथ की इकलौती पत्नी हूँ.”
“फिर आपके विचारों से भी अवगत कराएं.”
“विचार मेरे नहीं, आपके ही हैं. धर्मशक्ति के बारे में. मैं
रामायण का पाठ कर रही थी, तब आप आये थे. बालकाण्ड चल रहा था. विश्वामित्र ऋषि राजा दशरथ के पास
श्रीराम को मांगने के लिए आये. तब आप मुझे रोकते हुए बोले थे, “विश्वामित्र ऋषि थे, मगर उससे पहले कौन थे?” मुझे याद नहीं आ रहा था.
आपने कहा,
“प्रचंड सामर्थ्य वाला, विस्तारित साम्राज्य वाला, वह चक्रवर्ती सम्राट था. जब
वशिष्ठ ऋषि के पास वे उनकी कपिला गाय मांगने के लिए अपने ऐश्वर्यशाली रथ में आये, और वशिष्ठ के हाथ का ब्रह्मदंड देखकर, उसकी अपार सामर्थ्य देखकर
पराजित होकर वापस लौट गए. तब, ब्रह्मदंड प्राप्त करने के लिए विश्वामित्र ने साम्राज्य और अपार संपत्ति
को तिलांजली देकर घनघोर तपश्चर्या आरम्भ कर दी. एक एक दिशा से होते हुए उन्होंने
चारों दिशाओं में उन्होंने घोर तपस्या की. षड्रिपुओं पर विजय प्राप्त की. राजर्षि, ऋषि, महर्षि, और फिर ब्रह्मर्षि पद पर
पहुंचे. आत्मशक्ति प्राप्त की. फिर जब उनके हाथ में ब्रह्मदंड आया, तो उनके मन में साम्राज्य का, सत्ता का मोह न बचा था. तब
उन्होंने विश्वशांति के लिए महायज्ञ आरंभ किए. भोग से त्याग की ओर मदांधता से
विश्व कल्याण की तरफ़ उनकी संयमित, स्थिर यात्रा का आरंभ हुआ. अर्थात्, छुटी, धर्म की विजय हुई.
अनेक बार सत्ता की प्रवृत्ति अन्यायकारक भी होती हैं, परन्तु समाज में सर्वसमावेशक
धर्म प्रवृत्तियाँ भी होती हैं. वे वृद्धिंगत हों. आज के समाज के सामने राजसत्ता
का अन्यायी चित्र है, परन्तु काल की सीढियां उतर कर जाओ,
तो वैदिक व्यवस्था दिखाई देगी. यदि वे जीवनमूल्य समाज में स्थापित हो जाएँ,
तो जनक राजा के समान एक पाँव अग्निकुण्ड में रखकर राजशासन कार्य करेगा. ऐसे
विश्वामित्र और ऐसे राजा जनक हमारे लिए आदर्श हैं.
संगच्छध्वं
संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्,
देवा भागं यथा
पूर्वे सञ्जानाना उपासते |
समानी व
आकूति: समाना हृदयानि व:
समानवस्तु वो
मनो यथा व: सुसहासति।
एक दूसरे के साथ मिलकर
कार्य करो, विचार विमर्श करो, एक दूसरे को समझो. एक ही इच्छा, जो सर्व व्यापक, सब के कल्याण के लिए है, वह सहानुभूति से पूर्ण करने पर विश्वकल्याण और भारत
का कल्याण होगा.”
मृणालिनी विस्मय से सुन
रही थी. रवीन्द्रनाथ उसके लिए हमेशा अकल्पनीय रहे.
अब इस शान्ति निकेतन के
कारण एक अलग ही मार्ग का अवलंबन करने वाले रवीन्द्रनाथ उसे सर्वश्रेष्ठ प्रतीत
हुए. मृणालिनी ने कस कर अपने बाल बांधे और वह उनसे बोली,
“काम मेरी राह देख रहे हैं,
मैं चलती हूँ.” उसे पता नहीं चला कि उन्होंने उसकी बात सुनी अथवा नहीं. वह पल्लू
समेटते हुए बाहर गई.
रवीन्द्रनाथ अपने ही
मनोविश्व में खोये हुए थे. उन्हें प्रतीत हुआ मानो भारतीय संस्कृति माता के रूप
में सभी पुत्रों का वात्सल्य से पालन कर रही है. ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु स पश्यति
सपश्यति’ यह विश्वसंस्कृति आत्म- परमात्मपर है. सब के प्रति स्नेहभाव रखने वाली
है. भारतीय संस्कृति त्याग में है,
लूटने में नहीं. रवीन्द्रनाथ ने मन ही मन इसका अनुभव किया.
उन्हें अपने लेख ‘ The Relation of Individual to the Universe’ के वाक्य का स्मरण
हुआ.
“It is recognized
in the outburst of the Rishi, who addresses the whole world in sudden ecstacy of
joy. Listen to me Listen to me ye sons of the immortal spirit, ye who live in
the heavenly abode, I have known the supreme person whose light shines from
beyond the darkness.”
और वे मन ही मन हंसे. ये
मन, इसमें कितने कक्ष
हैं ये कौन जानता है,
कौनसा दरवाज़ा कब खुलेगा,
यह भी पता नहीं चलेगा. मन के कमरे बंद करते हुए वे कमरे से बाहर निकले.
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