Monday, 31 October 2022

Shubhangi - 13

 

प्रातःकाल का समय. सम्राट चन्द्रगुप्त शुचिर्भूत होकर राजमंदिर की ओर निकलने ही वाले थे कि राजप्रासाद के महाद्वार की सिंहघंटा जोर-जोर से बजने लगी. समूची नगरी सतर्क हो गई. ‘किसी का आक्रमण तो नहीं हुआ है ना?’ नगरवासियों के मन में यह भय था. हाल ही में युद्ध से वापस लौटे सैनिक आनंद मना रहे थे. सम्राट चन्द्रगुप्त भी आशंकित हो गए. बाढ़, भूकंप जैसी कोई प्राकृतिक आपदा तो नहीं? अभी कल-परसों ही तो गुप्तचर साम्राज्य के विविध प्रान्तों से समाचार लाये थे, और वे समाधानकारक थे. अकस्मात्  ऐसा क्या हुआ होगा?

सम्राट चन्द्रगुप्त छज्जे पर आये. तब तक प्रांगण में नगरवासी एकत्रित हो चुके थे. महारानी समेत अन्य रानियाँ, सेनापति, मंत्री परिषद् के अन्य सदस्य भी तुरंत उपस्थित हो गए थे.

गुप्तचर उग्रसेन और सर्वदमन सिंहघंटा बजा रहे थे.

“सर्वदमन, उग्रसेन...ऐसी कौन सी अघटित घटना हो गई है? कथन करें. वार्ता यदि गुप्त हो, तो राजसभा में आयें.”

“नहीं, महाराजा, यह घटना निंदास्पद और लज्जाजनक है. उसे सबके सम्मुख ही कहना चाहिए,” उग्रसेन ने कहा.

“महाराज, हमारे दंडपाशाधिकारी, दंडपाशिक, महासेनापति की अनुमति से रत्नों से भरी हुई चार नौकाएं कल्याण-जलस्थानक से आधी रात को सागर के मध्यभाग में खडी एक अत्यंत भव्य नौका की ओर निकली थीं. हमारे जलस्थानक से समुद्री यात्रा प्रातःकाल में करने का नियम है. स्थानिक ग्रामवासी इन नौकाओं को देखकर चकित हो गए और ग्रामाधिपति अश्वसेन के पास गए. हम तक यह समाचार पहुँचा.” बोलते-बोलते सर्वदमन रुक गया.

“आगे?

“अधिकृत रूप से ज्ञात हुआ कि नौकाओं में रखी हुई संपत्ति इन तीनों अधिकारियों की अनुमति से अवैध रूप से रोम भेजी जा रही थी. ग्रामाधिपति अश्वसेन नौकाओं  को वापस जलस्थानक पर ले आया. राजस्व का भुगतान किये बिना, उस पर अनुमति की राजमुद्रा न होते हुए भी ये काम हुआ कैसे? जब यह प्रश्न उपस्थित हुआ तो हम तुरंत महाबलाधिकृत इन्द्रसेन के पास गए. जब वस्तुस्थिति का वर्णन किया तो वे भी चकित हो गए. अपने प्रशासन में ऐसा भ्रष्टाचार पहले कभी नहीं हुआ था.”

“इसलिए आपातकालीन घंटा बजाई?

“महाराज, राजसभा में यह समाचार केवल आपको और मंत्रीपरिषद को ही ज्ञात हुआ होता. उस पर दण्ड भी दिया जाता. परन्तु हमारी प्रशासन व्यवस्था इतनी सबल होते हुए भी यह कृत्य हुआ, इसका दुःख हुआ इसलिए...” सर्वदमन बोला.

“महाराज, यह घटना राष्ट्रविरोधी, राष्ट्र के लिए घातक है, यह बात नागरिकों तक पहुंचे इसीलिये घंटा बजाई. क्षमा करें, महाराज, पहले भी एक घटना हम आपके निदर्शन में लाये थे. अवर्षण पीड़ित किसानों से कठोरता पूर्वक राजस्व वसूल करने की वह घटना थी. आपने उदार हस्त से किसानों को आर्थिक सहायता दी और राजस्व अधिकारियों को दंड भी दिया, परन्तु...”

“आपने बिल्कुल योग्य कार्य किया, उग्रसेन और सर्वदमन. दंडपाशाधिकारी, महासेनापति, दंडपाशिक, ग्रामपति. ग्रामाधिपति और प्रांतीय अधिकारी को तत्काल बुलाया जाए. राजप्रासाद के इसी प्रांगण में सबके समक्ष इस सन्दर्भ में निर्णय लिया जाएगा. यह सन्देश तत्काल प्रसारित करें.”

जब सम्राट चन्द्रगुप्त छज्जे से वापस गए, तो सभी ग्रामवासी अपने-अपने कार्यों के लिए तुरंत वापस चले गए. विचार मग्न कालिदास खडा ही रहा. मन में अनेक विचार आ रहे थे. कोइ व्यक्ति अपना परिवार भी नहीं बना सकता. यदि परिवार हो, तो उसका वहन नहीं कर सकता. परिवार के व्यक्ति को दण्ड भी नहीं दे सकता. ऐसी अवस्था में इस विराट साम्राज्य के प्रश्नों-समस्याओं का समाधान सम्राट चन्द्रगुप्त कैसे करते होंगे, यह हमेशा का प्रश्न उसके दिमाग में था. साम्राज्य के विस्तार के लिए युद्ध, युद्ध के लिए सैन्य निर्माण, युद्ध के बाद प्रशासन व्यवस्था और प्राप्त होने वाली मन:शान्ति, उसीमें परिवार का तथा स्वयँ का आनंद. यह सब सम्राट चन्द्रगुप्त कैसे करते होंगे?

कालिदास अनेक पहलुओं से सम्राट चन्द्रगुप्त के बारे में ही विचार कर रहा था. जैसे-जैसे विचारों की तीव्रता बढ़ती जाती, कालिदास स्वयँ से कहता, ‘यह सब अगम्य और कभी कभी अविश्वसनीय प्रतीत होता है.’

कालिदास ने स्वयँ को संभाला और वह चलने लगा, तभी राजकुमारी प्रभावती अपनी दो सखियों के साथ हाथों में फूलों की टोकरी लिए उपवन की ओर जाती दिखाई दी. कालिदास को देखते ही उसने उसके चरण छुए. कालिदास अचंभित हो गया. उज्जयिनी में आते ही देखा था सम्राट की कन्या को. राजसभा में पिता के साथ उपस्थित रहने वाली यह कन्या अब उपवर हो गई है, इसका अनुमान हुआ. वह प्रसन्नता से हंसी, कालिदास भी हँसे.

“शुभप्रभात! शब्दों से शुभसंकेत देने वाले शब्द प्रभु के दर्शन हुए, हम धन्य हो गए. कविराज, पिछले सात-आठ वर्षों से आपको देखते रहे हैं, राजसभा में सुनते भी रहे हैं, परन्तु प्रत्यक्ष दर्शन आज ही हुए. आप हमें शुभाशीर्वाद दें!”  

“हे सुकन्या, आपका दर्शन ही मन को प्रसन्न करने वाला है. कुछ ही समय पूर्व सम्राट चन्द्रगुप्त की सुचारू शासन व्यवस्था में भी ऐसी घटनाएं हो सकती हैं, यह विचार कर रहा था. अब आपको देखा, तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो उष:प्रभा ही सम्मुख खडी हो. राजसभा में आपका विलोभनीय दर्शन ही मन को प्रसन्नता प्रदान करता था, परन्तु स्वयँ जाकर परिचय प्राप्त करने का स्वभाव न होने के कारण इच्छा होते हुए भी आप तक पहुँचा नहीं था.”

“हमें ज्ञात है कि आप हमारे पिताश्री के अन्तरंग मित्र भी हैं. आपकी काव्यरचना से वे इतने अधिक प्रभावित होते हैं कि हमें भी पुन: पुन: सुनाते हैं.”

कालिदास मन:पूर्वक हँसा.

“राजकुमारी...”     

“प्रभावती कहें...हम आपकी कन्या के समान हैं. आज जो घटना घटित हुई वह यह प्रदर्शित करती है कि सुयोग्य आयोजन, नियोजन, कार्यपद्धति होने पर भी मूल प्रवृत्ति पर मानव को स्वयं ही संयम रखना पड़ता है. अनेक बार मूल प्रवृत्ति का झुकाव स्वार्थ की ओर भी होता है. इसीलिये राजव्यवस्था में साम, दाम, दंड, भेद आदि का समावेश होता है. कविराज, कभी कभी महाचौर्यकर्म भी किया जाता है. यह सब ऐसा ही होता आ रहा है.”

कालिदास उसके स्पष्ट, सुमधुर विचारों से अत्यंत प्रभावित हुआ.

“राजकुमारी प्रभावती....” वह कुछ कहता इससे पूर्व ही प्रभावती ने पूछ लिया.

“आपका क्या विचार है महाराज चन्द्रगुप्त के प्रशासन के बारे में?

“सत्य कहूं, तो हमने राजकीय दृष्टी से कभी विचार नहीं किया. परन्तु अब करेंगे.”

“पिताश्री का क्रोध, शासन प्रणाली सुचारू रूप से चले इस दिशा में की गईं योजनाएं, और साम्राज्य समृद्ध हो, चारों ओर सुख शान्ति रहे इसके लिए किये गए परिश्रम ऐसे कोई अचानक तहस-नहस कर दे तो आई हुई निराशा – आगे वे हर कदम सावधानी से उठाएंगे, परन्तु अभी तो तीव्र मन:स्ताप ही है ना....हम समझ रहे हैं उनकी मन:स्थिति को.”

बारह वर्ष की कुमारी कन्या को समाज का इतना ज्ञान होगा, राष्ट्रभाव और सम्राट के राष्ट्रप्रेम तथा उनके परिश्रम से वह भली भाँति परिचित होगी ऐसा कालिदास ने सोचा नहीं था. उसके प्रगल्भ विचार सुनकर वह आश्चर्यचकित हो गया.

“राजकुमारी प्रभावती, आज हमें आपका सत्य परिचय प्राप्त हुआ. हम जब उज्जयिनी आये, और कभी संयोगवश आपको देखा था, तब आप प्रस्फुटित होती हुई कलिका के समान थीं. आज के आपके शब्द और विचार अत्यल्प काल में ही अधिक कर्तव्यक्षम हो गए प्रतीत होते हैं. हम मन:पूर्वक आपका अभिनन्दन करते हैं और आपको शुभकामनाएं प्रदान करते हैं.”  

“कविश्रेष्ठ, जैसे दूध में जन्मघुट्टी पिलाई जाती है, उसी तरह हमें जन्म से ही राजकीय विचारों की घुट्टी मिलती है. हमारी माताश्री कहती हैं कि हमें कुछ अधिक ही दी गई है राजकीय विचारों की घुट्टी, अन्यथा खेलने-खाने की आयु में हम इतिहास को नहीं पढ़ते रहते.”

“क्या आप सचमुच इतिहास का अवलोकन करती हैं?

“क्या आप नहीं करते?

“हम? हम वर्त्तमान काल में अपने भूतकाल को कैसे भूलें, इस पर विचार करते रहते हैं? क्योंकि जितना ही उसे भूलने का प्रयत्न करें वह उतनी ही तीव्रता से याद आता है.”

“हो सकता है. परन्तु अपने पूर्वजों के कर्तृत्व का आलेख इतिहास ही होता है. हमारे राष्ट्र के पूर्वजों का इतिहास भी उनके कर्तृत्वों  का आलेख ही होता है. और हमें प्रिय है इतिहास. आपने पिताश्री को जो हस्तलिखित दिए थे, उन्हें हमने बार-बार पढ़ा है.”

“वे हस्तलिखित, जो हमने उज्जयिनी आने पर महाराज को दिए थे?

“वे ही, परन्तु अब भोजपत्र जीर्ण हो गए हैं.”

कालिदास ने सोचा, कि मैंने साँची के पश्चात उत्तर भारत का कुछ भाग, मध्य देश का कुछ भाग देखा और काशी से वापस आ गया. मगर आचार्य केशवदास के दिए भोजपत्र पढ़े ही नहीं हैं. वही इतिहास होगा. उसने कहा,

“राजकुमारी, आप वे भोजपत्र हमें दें, हम उनका पुनर्लेखन करेंगे.”

“अवश्य. इसकी आवश्यकता थी ही. अब, एक बात कबसे पूछना चाहते थे, परन्तु पूछें या न पूछें इस दुविधा में थे. क्योंकि वैसे हमने आपको केवल राजसभा में या उत्सवों में ही देखा है, अन्यत्र कहीं नहीं. इसलिए...”

“पूछिए, राजकुमारी प्रभावती. जब हम उज्जयिनी आये तो आप लगभग पाँच-छः या सात वर्ष की होंगी. परन्तु अपने पिताश्री के साथ राजसभा में बैठकर आप सब कुछ ध्यान से सुनती रहती थीं. आपने शस्त्रविद्या, अस्त्रविद्या अवगत की है. उत्तम घुड़दौड़ करती हैं, और शास्त्राभ्यास भी करती हैं. ये सब कब करती हैं?

“कविराज, समय के पंख होते हैं. समय का पंछी पल-पल अपने पंख फडफडाते हुए उड़ता रहता है. हमने उन पंखों पर सवार होने का प्रयत्न किया. सब कुछ प्राप्त करना तो संभव नहीं, परन्तु मार्ग तो दृष्टिगोचर होते हैं.” 

“वा:....जिस आयु में कन्याएं अपने भावी जीवन के सपने देखती हैं, उस आयु में आप सपनों को साकार करने और विविध क्षेत्रों की जानकारी में रूचि रखती हैं. प्रथम बार आपसे व्यक्तिगत परिचय हो रहा है.”

“कविराज, आप चतुर हैं. हम क्या पूछने वाले हैं, इसका अनुमान पहले ही करके हमसे ही प्रश्न पूछने लगे, और...”

“नहीं, राजकुमारी, नहीं. ऐसा विचार भी मन में नहीं आया. आपकी बातों से आपकी प्रगल्भता, विविधता और रूचि के दर्शन हुए. अवलोकन करता रहा था, परन्तु अवसर आज प्राप्त हुआ. पूछिए, क्या पूछना चाहती हैं?  

“कविराज, आपके परिवार में कौन-कौन है?

उसके इस अकस्मात् पूछे गए प्रश्न से कालिदास परेशान हो गया. उसने अनेक लोगों को सहज ही बताया था, ‘अर्थार्जन के लिए हम उज्जयिनी में है, हमारा परिवार ऋषिकेश के मार्ग पर स्थित एक गाँव में है. हमारे वृद्ध माता-पिता और हमारी पत्नी पुत्र एवँ पुत्री के साथ वहाँ रहती है. बीच-बीच में हम वहाँ जाते रहते हैं, माता-पिता यहाँ आने के लिए तैयार नहीं हैं.’ बीच-बीच में कालिदास भ्रमण के लिए निकल जाया करते, किसी को भी कोई संदेह नहीं था.

“आप यह प्रश्न क्यों पूछ रही हैं, राजकुमारी?

“क्या आप अपनी कन्या से दूर रह सकते हैं?

यही प्रश्न सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी कभी पूछा था. तब कालिदास ने कहा था, “महाराज, कभी आपको विस्तार से बताऊँगा, तब तक जो उत्तर औरों को देता हूँ, वही आपको दे रहा हूँ. सत्य को छुपाना असंभव है.”

“रहने दें, कविराज,” सम्राट ने कहा, और फिर कभी वह विषय उठा ही नहीं, या उन्होंने समझदारी से नहीं उठाया. परन्तु अब राजकुमारी से क्या कहूं, इस उलझन में कालिदास थे, तभी उन्हें मौन देखकर राजकुमारी प्रभावती ने सहजता से कहा, “आपके मन को भी दुःख होता ही होगा. वैसे भी कन्या अपने मातृगृह में रहती है केवल दस-बारह वर्ष. फिर उसका विवाह, और तब जीवन श्वसुरगृह में ही बीतता है. तब उसके श्वसुरगृह जाते समय आपको अधिक दुःख नहीं होगा. सत्य है ना? परन्तु कविराज, आप मेरे लिए पिता समान है, यहाँ उज्जयिनी में आप हमें ही अपनी कन्या मानें.”

कालिदास की आंखें भर आईं. जब पत्नी ही नहीं, तो कन्या एवँ पुत्र कहाँ से लाऊँ? प्रभावती ने इस प्रश्न का समाधान समझदारी और सहजता से निकाल लिया था. शायद वह मन की बात समझ गई थी. वह अपने पिता के ही समान थी.

“राजकुमारी...”

“केवल प्रभावती. आपकी मानसकन्या, धर्मकन्या.”

अब कालिदास के लिए असह्य हो गया. उत्तरीय से अपने आंसू पोंछते हुए उसने प्रभावती के हाथ अपने हाथों में लिए. फिर उसके मस्तक पर हाथ रखे. मन की भावनाएँ अब शब्दातीत हो चुकी थीं.

 

     

***

Friday, 28 October 2022

Shubhangi - 12

 

उषा देवी प्रसन्नता से मुस्कुराई और संपूर्ण अवकाश में एक नाद गूँज गया, जिसमें पक्षियों के स्वरों का गान था. रविराज के आगमन की आहट पाते ही अरण्य से पुष्पों की सुगंध लेकर समीर प्रकट हुआ. दिशा-दिशा आलोकित हो उठी. आकाश के विशाल पटल पर रंगों की रंगोली फ़ैल गई. सृष्टि पुलकित हो गई. क्षिप्रा की शीतल लहरों ने सृष्टि का श्रृंगार किया और अपने जल में उसका प्रतिबिम्ब दिखाया.

सृष्टि का यह नव विकसित रूप देखते हुए कालिदास क्षिप्रा के किनारे पर खडा था. उदित हो रहे सूर्य को अर्ध्य देने के लिए अनेक लोग हाथ में जल लेकर खड़े थे. पास ही में महिलाएं शुचिर्भूत होकर कमर पर जल कलश लिए नगर की ओर जा रही थी. सभी कुछ मनोहर था.

अन्धकार का पटल दूर करते हुए रविराज ने पूरब क्षितिज पर हौले से अपने केसर-पग रखे. इस क्षिप्रा और उसके किनारे पर स्थित श्रीमहाकालेश्वर की साक्षी से मेरे जीवन का भी कल का अध्याय समाप्त होकर एक नए अध्याय का प्रारम्भ होने वाला है. ‘कल इतिहास था, ‘आज’ वर्त्तमान है.

‘महाकालेश्वर प्रभु, मेरा वर्त्तमान काल समृद्ध होने दो. मेरे हाथों से कुछ ऐसा घटित होने दो, जिससे इतिहास के पृष्ठ स्वर्णांकित हो जाएँ. उसने मन ही मन महाकालेश्वर को नमस्कार किया. वह मंदिर की सीढ़ी पर खडा था.

साँची से काशी, हरिद्वार, ऋषिकेश तक जाकर वापस आते हुए आचार्य केशवदास अपने वचनानुसार उसे उज्जयिनी लाए थे. उसने कहा भी था, “मैं भी आपके साथ ज्ञानार्जन करने वालों के लिए अध्यापन कर सकूंगा.”

“कालिदास, वहाँ केवल शास्त्रीय ज्ञान दिया जाता है, उसका अर्थ समाज में ढूढ़ना होता है. मानव की वृत्तियां, स्वभाव, संगठन, सहकार्य, समाज की आवश्यकता, राष्ट्र की आवश्यकता, गुणग्राहकता, रसिकता, मन का सौन्दर्य – यह सब समाज में होता है. पिछले कई माह से हम भ्रमण कर रहे है. मैंने तुमसे तुम्हारे गत आयुष्य के बारे में पूछा नहीं, परन्तु मुझे अनुभव हुआ कि तुम उतने प्रसन्न नहीं हो, जितना प्रकट करते हो. कुछ तो अवश्य हुआ है, ये कुमार वय के प्रसंग होते हैं, जिन्हें मन में ही जतन करना चाहिए. बिल्कुल मयूरपंख के समान. परन्तु इस समय तुम निश्चय ही संभ्रमित हो. ऐसे समय में स्वयँ की परीक्षा देने तुम उज्जयिनी जाओ. उज्जयिनी से तुम्हारा परिचय नहीं है, परन्तु यहाँ के निवासी सहायता करेंगे. सम्राट चन्द्रगुप्त सद्शील हैं, गुणग्राही हैं.

यदि कुछ भी संभव न हुआ, तो मैं हूँ, तुम्हारी देवी सरस्वती हैं, तुम एकाकी नहीं हो.”

राजमार्ग पर चलकर वह कल दोपहर को राजप्रासाद के सामने आया. तभी उसे सम्राट चन्द्रगुप्त के निमंत्रण का स्मरण हुआ. अब अगर परीक्षा ही देनी है, तो पहले कठिन परीक्षा देनी चाहिए, तब अन्य परीक्षाएं सहज ही उत्तीर्ण कर सकूंगा.          

कल सम्राट ने परीक्षा के लिए रोक तो लिया था, अब आगे क्या होगा, इसका विचार अब करना ही नहीं है. वह सीढ़ियों पर बैठ गया और उसे क्षिप्रा के जल में असंख्य उत्फुल्ल कमलिनी के फूलों के समान नवयुवतियों का समूह जल में उतरते हुए दिखाई दिया. इन दोनों में कौन अधिक सुन्दर है – उत्फुल्ल कमलिनी अथवा उत्फुल्ल नवयुवतियां? इनकी तुलना कैसे करूँ और यदि तुलना कर भी ली, तो साक्षी के लिए किसे निमंत्रित करूँ? मन में यह प्रश्न  उठते ही वह मन ही मन हंसा.

प्रातः की बेला – मेरा मन कमलिनी और मीनाक्षी में उलझा रहे यह उचित नहीं है. उसने अपनी दृष्टी मंदिर की सीढ़ियों की और मोड़ ली. सिंगार की हुई राजघराने के स्त्रियाँ अवगुंठन में लिपटी मंदिर की सीढियां उतर रही थीं. घंटियों की आवाज़ रुक गई थी. इसका अर्थ – सम्राट अब सीढ़ियों से उतरेंगे. वह सतर्क होकर उनकी प्रतीक्षा में खडा रहा.

पीताम्बर और उत्तरीय धारण किये हुए सम्राट चंद्रगुप्त एक-एक सीढ़ी उतर रहे थे. उनके पीछे राजघराने की महिलाएं, राजपत्नी भी थीं. वे किसी से बात कर रहे थे. उनकी दृष्टी कालिदास पर गई. उन्होंने कालिदास से कहा, “हम राजज्योतिषी वराह मिहिर से आपके बारे में ही कह रहे थे. मंदिर में दर्शन करने के उपरांत आप राजसभा में आयें.”

“राजसभा में?

“कोई समस्या है?

“वो बात नहीं, सम्राट! मैं नया हूँ, एकदम राजसभा में...”

सम्राट प्रसन्नता से हँसे. ऐसा हुआ कि एक दिन हमारे पिताश्री सम्राट समुद्रगुप्त ने हमसे कहा, “आज राजसभा में आयें.” मैंने यही वाक्य कहा था, “राजसभा में?” इस पर उन्होंने पूछा था, “कोई समस्या है?

जब हम राजसभा गए, तो पिताश्री ने कहा, “आपको स्वतन्त्र रूप से युद्ध पर जाना है. उस दृष्टी से सेना को नियंत्रित करें, निमंत्रित करें.”

“एकदम?” हमने पूछा.

“हाँ, एकदम. घोषणा करके कोई युद्ध नहीं करता, युवराज. और कोई भी घटना कभी न कभी प्रथम बार ही होती है ना?” समझे, कवि महाशय?

कालिदास प्रसन्नता से हंसा.

“सम्राट आपके बारे में अनेक कथाएँ सुनी थीं, मगर किसी को सहज समझ लेने का आपका स्वभाव आज मैं जान सका.”

“तो, आइये राजसभा में.” सम्राट चन्द्रगुप्त सीढियां उतरकर  सुवर्ण रथ में बैठे. सारथी ने घोड़े की लगाम खींची और घोड़ों को संकेत मिल गया. कालिदास यह सब पहली बार अनुभव कर रहा था. विशेष बात यह थी कि घोड़ो को संकेत मिलते ही उन्होंने रथ को गति प्रदान की. ऐसा ही एक संकेत सम्राट ने मुझे भी दिया है. डोर उनके हाथों में है, परन्तु अब मेरे जीवन को गति देने का कार्य वे सहजता से करेंगे, कालिदास के मन में यह विश्वास जागा.                          

दर्शन लेकर लौटते हुए उसके मन में विचार आया, ‘मैं व्यर्थ ही में अपने आप को नगण्य समझ रहा हूँ. सारे शास्त्र मैने कंठस्थ याद किये है, यदि इसी क्षण कोई  मुझसे शास्त्रार्थ में भाग लेने को कहे, तो मैं उसका निमंत्रण अस्वीकार नहीं करूंगा. बल्कि, अब उसी संधि की प्रतीक्षा है.’

विचारों में खोये हुए उसने अपना मार्ग खो दिया. वह नगर से दूर निकल आया था. अब उसे पता चला कि वह मार्ग खो चुका है. गला भी सूख गया था. उसे एक वृद्ध स्त्री दिखाई दी जो जलाशय से जल भरकर ला रही थी. वह मन ही मन प्रसन्न हो गया.

“माते, क्या मुझे जल मिलेगा?

“अवश्य. कोई भी फल बिना कर्म के प्राप्त नहीं होता., अतः यदि तुम मेरे दो प्रश्नों के उत्तर दो, तो तुम्हें जल प्राशन का आनंद मिलेगा, जल तो वैसे भी मिलेगा ही.”

“पूछो, माते, निःशंक और निश्चिन्त होकर पूछो. प्रश्नों के उत्तर देने के बाद ही मैं आनंद से जल प्राशन करूंगा.”

“परन्तु, तू है कौन? तेरा परिचय?

“माते, मैं पथिक हूँ.”

“पथिक तो सिर्फ दो हैं – चन्द्र और सूर्य, जो दिन-रात अविरत चलते रहते हैं.”

“मैं अतिथि हूँ, क्या जल मिलेगा?

“अतिथि केवल दो हैं – धन और तारुण्य. काल के साथ वे निकल भी जाते हैं.”

“मैं सहनशील हूँ, माते. क्या अब पानी मिलेगा?

:सहनशील तो केवल दो ही हैं – पापी-सदाचारी लोगों को स्थान देने वाली धरती और पापी तथा पुण्यवान लोगों को छाया देने वाला वृक्ष.”

“माते, मैं कालिदास हूँ, सरस्वती पुत्र हूँ.”

“कालिदास भी दो हैं – एक वे जो उसके मंदिर में रहकर सेवा करते हैं, और दूसरे वे जो कालिदास कहलाते हैं, उनमें से तू कौन है?

अब कालिदास को पश्चात्ताप हुआ कि उसने क्यों जल माँगा. कहाँ से इस वृद्धा से जल मांग बैठा, ऐसा विचार मन में आया. बिना उत्तर दिए जल प्राशन करने का मन नहीं था.

“माते, मैं अपने मत का आग्रही हूँ.”

“तू आग्रही हो ही नहीं सकता. नख और केश आग्रही होते है, बार-बार काटने पर भी अपना अस्तित्व सिद्ध करते हैं.”

अब तो कालिदास अस्वस्थ हो गया.

“मैं मूर्ख हूँ!”

“मूर्ख कैसे हो सकते हो? मूर्ख तो दो ही हो सकते हैं – योग्यता न होते हुए राज्य करने वाला राजा और उसे कुछ भी कहने वाला पंडित – दोनों मूर्ख ही होते हैं.”

अब कालिदास उसके चरणों में झुक गया.

“माते, मैं अज्ञानी हूँ! वृद्ध स्त्री मनःपूर्वक हंसी.

“माते, नगर की और कौनसा मार्ग जाता है?

“वत्स, मार्ग तो स्वयँ ही ढूँढना पड़ता है. निश्चित मार्ग से तो अनेक लोग जाते हैं, फिर भी वे भ्रमित हो जाते हैं. स्वयं के ही नियत किये गए मार्ग पर जो जाता है, वही निश्चित स्थल तक पहुंचता है. अरण्य में भटक जाने पर हम क्या करते हैं? चाहो तो बताती हूँ मार्ग.”

“नहीं, माता. मैं स्वयं ही ढूंढूंगा अपना मार्ग. परन्तु तुम हो कौन?

“स्वयँ ही अपने आप से पूछो.”

“साक्षात सरस्वती हो, तुम....अब तो मेरा उत्तर...”

उसने वृद्धा की और देखा. साक्षात सरस्वती खडी हैं, ऐसा आभास हुआ, परन्तु अगले क्षण कोई नहीं था. मगर एक बात का ज्ञान उसे हो गया – शास्त्र ज्ञान के दर्शन से मैं अपने आप को ज्ञानी समझने लगा था. ये शतमूर्ख होने जैसा है, आज उसे प्रथम पाठ मिला था.

मध्याह्न के पश्चात ही जब वह नगर वापस लौटा, तो भ्रमित मन को एक नई दिशा मिल चुकी थी. जलतृष्णा तो क्या क्षुधाशान्ति की भी आवश्यकता का अनुभव नहीं हुआ था. जब वह अपने कक्ष में आया तो सेवक उसकी प्रतीक्षा ही कर रहा था.

“कवि महाशय, सम्राट चन्द्रगुप्त ने आपको मध्याह्नोपरांत राजसभा में आमंत्रित किया है.”

“मैं राजसभा में नहीं था, इसलिए...?”

“महाराज ने कहा, ‘हमने ही कालिदास को एक कार्य के लिए भेजा है. उसी कार्य का वृत्तांत आप उन्हें दें.” ऐसा कहते हुए सेवक ने उसे भोजन में अनेक पदार्थ प्रेम से परोसे. तब कालिदास ने मन ही मन कहा,

“ महाराज, आप राजश्रेष्ठ हैं, युद्ध में भूमि जीतते हैं, व्यवहार में धन संग्रहीत करते हैं, और भावना से मानव-मन को जीतते हैं. इसीलिये आप गुणग्राहक और सम्राट है!” 

मध्याह्न के उपरांत जब कालिदास सेवक के साथ सम्राट चन्द्रगुप्त के मनोरंजन कक्ष पहुँचा, तो देखा कि वहाँ अनेक वाद्य हैं. एक तरफ चित्रकला दर्शन है. मध्य में स्फटिक के स्तम्भ पर एक स्त्री की प्रतिमा खडी है. एक नज़र में कालिदास ने मनोरंजन कक्ष को देख लिया और मन ही मन सम्राट चन्द्रगुप्त की रसिकता की प्रशंसा की.

“आइये, कवि महाशय. आज आप राजसभा में नहीं आये. हम चिंतित थे कि कल ही आप नगर में आये हैं, और आज कहाँ खो गए?”

“क्षमा करें, राजश्रेष्ठ. सत्य यही है कि मैं नगर का मार्ग छोड़कर कब नगर से दूर चला गया, पता ही नहीं चला. परन्तु एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई. मुझे – मेरे ‘मैं’ का ज्ञान हुआ.”

“अर्थात्?” सम्राट ने उत्सुकता से पूछा. कालिदास ने संपूर्ण घटना का वर्णन किया और कहा, “ हमारी देह, हमारा मन, हमारी बुद्धि – इनमें से कुछ भी हमारा नहीं होता, यही सत्य है. देह से मन को अलग नहीं कर सकते, मन से बुद्धि को अलग नहीं किया जा सकता.”

“तो फिर क्या करना चाहिए?

“देह को चैतन्य देने वाली आत्मा – हम नहीं; मन अर्थात – हम नहीं; बुद्धि अर्थात् ...”

“हम नहीं, यही ना? मगर हाथ-पैर, नेत्र-कर्ण ये सभी अवयव और सारी संवेदनाएं – ये सब मिलकर देह बनाते हैं ना? और वह देह अपने मन के आधीन है. हमें युद्ध में विजय प्राप्त करना है- यह दृढ़ विश्वास हमारा मन हमें देता है. परन्तु आप तो समूची देह के पिंजरे में गोल-गोल घूम रहे है. रहने दें इस विषय को. आपको सहज ही समझ में आ जाएगा. परन्तु एक प्रश्न का उत्तर दें, जो हमारे मन में है.”

“अवश्य, महाराज. सत्य उत्तर ही दूँगा.”

“आप सरस्वती पुत्र हैं, आपके पिता का नाम? और अभी आप वहीं से आये हैं. इतने विलम्ब से आये?

“महाराज, आप मेरे लिए बहुवचन का प्रयोग न करें.”

“बात ये है कि जैसे हम आपको संबोधित करेंगे, वही नाम रूढ़ हो जाएगा. इसलिए आप स्वयं ही आदर प्राप्त करें तथा औरों को भी प्रदान करें, कवि कालिदास!”

सम्राट चन्द्रगुप्त आज फुर्सत में थे. शायद, अनेक दिनों के पश्चात नगर में वास्तव्य कर रहे थे.

“महाराज, सरस्वती देवी मेरी धर्म-माता हैं. वास्तविक माता-पिता अज्ञात हैं. परन्तु सरस्वती ऐसी देवता हैं, जो किसी भी वर्ण को ज्ञान प्रदान करती हैं. सरस्वती देवी मेरी उस प्रकार की माता हैं.”

“ वहीं से सीधे यहाँ आये हैं?

“नहीं. हम वेत्रवती के किनारे पर आये तो नौका तैयार थी. हम उसमें बैठ गए और केशवदास के कहने पर साँची चले गए. उसके पश्चात भी आठ-दस माह उनके साथ भ्रमण करते रहे.”

“इस भ्रमण के काल में आपको क्या अनुभव हुआ?

“महाराज, आर्यावर्त के इतिहास का स्मरण हुआ. वर्त्तमान की दाहकता का अनुभव हुआ और भविष्य के संकेतों का भी अनुमान हुआ. महाराज, सब कुछ कथन करने के लिए मेरे पास समय हो तो भी...”

“उसकी चिंता न करें, आप हमें कथन करें.”

सम्राट चन्द्रगुप्त अपने आसन पर निश्चिन्त बैठे थे. इस समय माथे पर मुकुट न होने से कन्धों तक आते हुए उनके कृष्ण कुंतल स्पष्ट दृष्टिगत हो रहे थे. भव्य मस्तक, उस पर चन्दन का टीका, तेजस्वी नेत्र, सुदृढ़ बाहु, उत्तरीय से झांकती रत्नमाला. सुदृढ़ शरीर और तेजस्वी अंगकांती, मुख पर आत्मविश्वास का तेज, और पीताम्बर के ऊपर रत्न जडितमेखला. उनका दर्शन अत्यंत मनोहारी था. अत्यंत निश्चिन्त थे वे.

“कथन करें, कविराज. हम अखंड युद्ध में व्यस्त रहते है. नगर में आने पर काफी समय प्रशासन के कामों में बीत जाता है, तथा अत्यल्प समय मनोरंजन के लिए निकाल पाते हैं, उसीमें से कुछ समय पत्नी एवँ परिवार के लिए होता है. वर्त्तमान स्थिति का योग्य आकलन हमें चाहिए, बल्कि वह हमारी आवश्यकता है.”

कालिदास ने कहना आरम्भ किया.

“सम्राट अशोक द्वारा निर्मित बौद्ध स्तूप का अवलोकन करने के पश्चात बाकी  लोग – शूद्रक, बौद्ध भिक्खु और नाविक अपने-अपने मार्ग पर चले गए. आचार्य केशवानंद ने कहा, “यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो मेरे साथ यात्रा पर आ सकते हो.”

“आचार्य, मुझे भी आपके साथ भ्रमण करना अच्छा लगेगा.”

कालिदास आचार्य के साथ सांची के परिसर में भ्रमण कर रहा था. उस समय केवल कुछ ही लोग हिन्दू हैं, यह देखकर कालिदास ने अचंभित होकर पूछा:

“क्या यह भूभाग बौद्ध धर्मियों का है?

“संभव है कि भविष्य में सम्पूर्ण आर्यावर्त ही बौद्ध धर्मीय हो जाए. कालिदास, अभी तुम केवल शास्त्र में पारंगत हुए हो. सत्य कहता हूँ कि तुम्हें लोगों को और लोकजीवन को जानने की नितांत आवश्यकता है. तुम्हें बताता हूँ...

सम्राट अशोक ने साम्राज्य विस्तार करते हुए सम्पूर्ण आर्यावर्त ही अपने राज्य से जोड़ लिया था. उसने अनेकों युद्ध किये. परन्तु कलिंग में हुए युद्ध में इतनी अधिक प्राण हानि हुई कि युद्ध में अनेक लोगों को मृत्यु देने वाले सम्राट अशोक को तीव्र पश्चात्ताप हुआ. वह अस्वस्थ हो गया और मनःशांति प्राप्त करने के लिए सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के पास गया. उन्होंने बताया अहिंसा का मार्ग – मन से भी किसी की हिंसा न करो.”

“और सम्राट अशोक को यह मान्य हो गया?

“मान्य  होना ही था. उसे मनःशांति प्राप्त हुई और मनःशांति देने वाला बौद्ध धर्म उसने स्वीकार किया.”

“आश्चर्य है आचार्य!”

“आश्चर्य की बात नहीं है, कालिदास. किसी भी बात का अतिरेक मनस्ताप का कारण बन जाता है. आश्चर्य की बात तो आगे है, जिस वैदिक धर्म का, शास्त्र का ज्ञान तुमने आत्मसात किया है, वह धर्म ही अब किसी मर्यादा तक है.”

“ऐसा कैसे हो सकता है, आचार्य?

“क्योंकि हिन्दू धर्म की मूल वैदिक संस्कृति वर्त्तमान समय में केवल कुछ ही लोगों तक मर्यादित हो गई है. इस कारण वर्तमान में वैदिक धर्म की कठोरता, मोक्ष की कल्पना, पुण्य की कल्पना और जीवन के प्रति भय के कारण आई कर्मठता, संकुचितता के फलस्वरूप धर्म में उत्पन्न हुई विषण्णता – इन्हीं कारणों से गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित धर्म आचरण के लिए सहज, अहिंसा और सत्य पर आधारित और सभी वर्णों के लिए समान होने के कारण जनमानस पर उसका गहरा प्रभाव पडा.”

“इसका तात्पर्य, वैदिक धर्म विलय की ओर...” 

“वैसा ही हुआ. सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया, स्वयँ गौतम बुद्ध शाक्य कुलोत्पन्न, राजवंश का युवराज था. शुद्धोधन और महामाया का पुत्र था. वैदिक धर्म का अभ्यासक था क्षत्रिय था. उसने आगे जाकर वैदिक धर्म के सहज आचरण में लाये जाने वाले तत्वों का प्रतिपादन किया, जो लोक मानस में सहजता से मान्य हो गए.

गौतम बुद्ध की दत्तक माता प्रजापती गौतमी ने अनेक महिलाओं के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया. बौद्ध धर्म को दो राजवंशों का आधार प्राप्त हुआ. मेरे द्वारा लिखित ‘वर्त्तमान का रूप स्वरूप यह मीमांसा ही तुम्हें पढ़ने के  लिए देता हूँ. उसे पढो. उस पर मनन करो. तुम नवयुवक हो. यदि राष्ट्राभिमानी, धर्माभिमानी और मीमांसक भी हो तो सब कुछ समझ कर समाज के सामने किसी सत्य को पुनः प्रस्थापित करो.”

“और, महाराज, उन्होंने मुझे संहिता ही दे दी.”

“आप वह संहिता हमें दें. परन्तु यात्रा का आपका अनुभव कैसा रहा?

“महाराज, मैं अधिकार पूर्वक तो नहीं कह सकता, परन्तु  वैदिक ऋषि मुनियों द्वारा संवर्धित की गई संस्कृत भाषा नित्य प्रयोग में आनी चाहिए. वैदिक धर्म  के कठोर स्वरूप, मोक्ष की कल्पना, पाप-पुण्य की कल्पना – इस पर विचार होना चाहिए. और...”

“और बौद्ध धर्म की अहिंसा के बारे में आप क्या कहेंगें कविराज?

“यदि क्षत्रिय ही अहिंसा स्वीकार कर लेंगे, तो राष्ट्र रक्षण, सीमा सुरक्षा, स्वधर्म और स्वराज्य विस्तार असंभव है, महाराज. भगवान कृष्ण ने भी साम्राज्य विस्तार के लिए युद्ध किये ही थे. महाराज, यदि क्षत्रिय ही शस्त्रास्त्रों का त्याग कर दें, तो समाज व्यवस्था कैसे बनी रह सकती है? अर्थात, ये मेरी कक्षा से बाहर के प्रश्न हैं.”

“फिर आपकी कक्षा कौनसी है? किस कक्षा में आप भ्रमण करते हैं, कविराज?

“महाराज, महाभारत की युद्धनीति, चाणक्य नीति का अध्ययन मैंने किया है, फिर भी मेरा मन उनमें नहीं रमता.”

“मान्य है. आपका मन उनमें नहीं रमता. आपको क्या प्रिय है?      

कालिदास के सम्मुख वह प्रश्न उपस्थित हो गया, जिसके बारे में उसने अब तक न सोचा था. कहीं सम्राट चन्द्रगुप्त मेरी और मेरे ज्ञान की परीक्षा तो नहीं ले रहे हैं? वैसे आचार्य केशवदास ने कहा था कि ‘सम्राट चन्द्रगुप्त एक बहुआयामी और प्रसन्न व्यक्तित्व हैं. गुणग्राहक हैं. हरेक शास्त्र वे भली भाँति जानते हैं. इतना ही नहीं, अनेक गुणी जनों का सहवास प्राप्त हो इस दिशा में वे प्रयत्नशील रहते हैं.’ और कालिदास ने अकस्मात् पूछ लिया,

“क्षमा करें, महाराज, परन्तु कहीं आप मेरी परीक्षा तो नहीं ले रहे हैं?

“मन में ऐसा भय न आने दें. जो व्यक्ति राजप्रासाद के प्रांगण में प्रवेश करता है, उसके बारे में विश्वसनीय जानकारी हमें पहले ही प्राप्त हो चुकी होती है. हमारी यंत्रणा सुदृढ़ है, कवि महाशय.”

“यदि मैं यह पूछूं कि आप मेरे बारे में क्या जानते हैं, तो सत्य उत्तर देंगे?

“आचार्य केशवदास ने आप हमारे यहाँ आने वाले हैं, यह समाचार भेजा था. सरस्वती आश्रम में ज्ञानार्जन करने वाले आप उनके सहयात्री थे, क्या इसमें कुछ असत्य है?

“नहीं,” कालिदास का दीर्घ नि:श्वास और मुख पर चैन का भाव उनकी नज़र से छूटा नहीं.  

“अब बताएं, आपको क्या अच्छा लगता है?

कालिदास सोच में पड़ गया. क्या बताऊँ? मेरा मन रमता है सरिता की लहरों में, मेरा मन रमता है प्रकृति की गोद में, उषा के प्रातःकालीन लावण्य रूप में, संध्या की धूसर छाया में, घनघोर अरण्य में, घनघोर बरसती वर्षाधाराओं में, खिलते हुए पत्तों में, दुर्वान्कुरों में भी मेरा मन अटक जाता है. समीर के मंद झोंकों में, नादमय आकाश में, गोधन की घंटियों में, सौन्दर्यवती की कल्पना में, विश्व को साकार बनाने वाले चित्रकार में, संगीत निर्माण करने वाले नादब्रह्म में भी, अक्षरब्रह्म में भी और आनंदब्रह्म में भी.

वास्तव में तो मेरा मन रमता है केवल स्मृति में भी. दग्ध मन की व्यथा में भी.’ उसके नेत्रों नें आँसू छलक आये. सम्राट चन्द्रगुप्त ने उठकर उसके कंधे पर हाथ रखा और बोले, “हमें याद आया कि एक कार्य का शुभारंभ करना है. फिर मिलेंगे. कल राजसभा में आइये और आते हुए आचार्य केशवदास के दिए हुए हस्तलिखित अवश्य लायें,   

सम्राट चन्द्रगुप्त अपना उत्तरीय संभालते हुए उठे और जाने के लिए तत्पर हुए.   वह नम्रता से खडा था.

“कविराज, यदि आपको निसर्ग प्रिय हो, तो शाम को उज्जयिनी में निर्मित जलाशय की ओर आइये. हमें भी यह सब प्रिय है, परन्तु हमारे हाथ शस्त्रबद्ध हैं.”  

“आप परिवार के साथ जा रहे होंगे, तो...”

“हम अपनी रानियों के साथ जायेंगे. पुत्र और पुत्री भी साथ होंगे. आप नगर में नए हैं, आपका भी परिचय हो जाएगा.”

बोलते-बोलते सम्राट चन्द्रगुप्त कक्ष से बाहर निकल भी गए. कालिदास को आश्चर्य हुआ. मैं कल ही तो आया हूँ, और कल ही सम्राट चन्द्रगुप्त इतने निकट भी आ गए. लोकप्रिय राजा को ऐसा ही होना चाहिए, पल भर में ह्रदय में स्थान बनाने वाले. परन्तु सम्राट ने मुझमें क्या देखा, अथवा आचार्य केशवदास ने उन्हें क्या लिखा होगा? वह अनुमान न लगा सका. प्रश्न को वैसा ही छोड़कर वह कक्ष से बाहर आया, तो कार्तिक मास के दोपहर बाद के रोमांचकारी समीर ने उसे सहलाया. कालिदास का मन प्रसन्न हो गया.

 

***

Monday, 24 October 2022

Shubhangi - 11

 

 

         

कालिदास की आंख अचानक खुल गई. ढलते शिशिर के दिन थे. कल ही देखा था कि पत्तों के ढेर वृक्षों के चरणों पर पड़े हैं. इस क्षण गवाक्ष से दिखाई दे रहे निष्पर्ण वृक्षों की शाखाओं के मध्य से आती चंद्रप्रभा वसुंधरा की गोद में शांत पड़ी थी. आकाश-मध्य का चन्द्रमा अब पश्चिम की ओर जाने वाली सीमा रेखा पर स्थिर हुआ प्रतीत हो रहा था और चन्द्रमा के साथ रहने वाली रोहिणी अब चंद्रप्रभा के पटल में समा गई थी.

कल उज्जयिनी में आने के बाद की घटनाओं का स्मरण होते ही आधी रात को भी उसके मुख पर हास्य छा गया. मध्याह्न में सम्राट चन्द्रगुप्त राजसभा से भोजन कक्ष की ओर निकले हैं, ऐसा द्वारपाल ने कहा, तो उसे भी क्षुधा का अनुभव हुआ. उसने द्वारपाल से सहज स्वर में कहा:

“सम्राट को सूचित किया जाए कि कालिदास का आगमन हुआ है.”

वास्तव में अपने लिए श्रेष्ठत्व लेकर वह सम्राट से मिलना नहीं चाहता था. परन्तु सरलता से सम्राट से मिलना संभव नहीं है, यह सोचकर उसने यह वाक्य कहा, और इसका जैसा होना था, वैसा ही परिणाम हुआ.

सम्राट चन्द्रगुप्त ने द्वारपाल से कहा, “उन्हें भोजन कक्ष में भेजो.”

“रण धुरंधर, राजनीति निपुण, विराट साम्राज्य के अधिपति, गुप्तवंश के रश्मिरथी, राजश्रेष्ठ चन्द्रगुप्त की जय हो.” उसने भोजन कक्ष में प्रवेश करते ही कहा.

सम्राट ने उसे आसन पर बैठने का संकेत किया. कालिदास हस्त प्रक्षालन करके आसन पर बैठ गया. उनके साथ दस ब्राह्मण भोजन के लिए स्थानापन्न थे.

“वेदविद्यासम्पन्न, सरस्वती पुत्र, कवि महोदय कालिदास, आपका मनःपूर्वक स्वागत है.”

“महाराज...आप...आपको...”

“हमें स्मरण है...भली भांति स्मरण है.”

“महाराज, वह काव्य नहीं था. कोई बालक धूलपाटी पर किसी तरह आद्याक्षर बनाए, वैसा वह प्रथम प्रयास था.”

“प्रथम प्रयास होते हुए भी उसका भावार्थ हमें प्रभावित कर गया था. और आप ध्यानमग्न थे. आपको प्रदत्त शिव शंकर का अनुपम सौन्दर्य और नैसर्गिक सुदृढ़ता. सरस्वती देवी का कोई पुत्र होगा इसकी हमें कल्पना नहीं थी. अस्तु!

आप भोजन आरंभ करें”

भोजन के पश्चात महाराज ने उसे आसनस्थ होने की विनती की. सम्राट चन्द्रगुप्त सह्रदयता से उससे बातें कर रहे थे. कालिदास को आश्चर्य हुआ. वे सहज होते हुए बोले,
“कवि कालिदास...”

“अभी तक मैंने कुछ लिखा नहीं है, आप मुझे...”

“आपके भीतर की योग्यता को हमने पहचान लिया है. आप अवश्य ही काव्य निर्मिती करेंगे.”

“यह अनुमान क्योंकर लगाया, महाराज?

“जीवन में यदि विसंगति हो, निसर्ग के प्रति, मानव के प्रति आत्मीयता हो, तो स्थापित मूल्यों के अनुसार ही काव्य लिखा जाए, यह आवश्यक नहीं. काव्य जिया भी जा सकता है. हम युद्धभूमि पर वीररस का उत्स्फूर्त काव्य ही जीते हैं. परन्तु हमें याद है – आपके काव्य में...”

“कृपया, आप मेरे लिए आदरयुक्त संबोधन का प्रयोग न करें...”

“सत्य कहूं, तो उस अरण्य में आयोजित वसंतोत्सव में आपका सबसे अलग, ऐसा रूप, युवावस्था में पदार्पण करते समय मन में आने वाले सुन्दर, कोमल और वांछित शब्द उसमें नहीं थे. इसीलिये आप याद रह गए. और न जाने क्यों, हमारे भी मन में आप रह गए.”

“मैं क्या कहूं, महाराज! जीवन की विसंगति कब सुसंगति में परिवर्तित हो जाए और जीवन को एक अर्थ प्राप्त हो जाए, ऐसा...”

“मान्य है, कवि महाशय. हमें सर्वप्रथम आपके जीवन में ‘अर्थ को स्थान देना होगा. आप यहीं, इसी नगरी में वास करें. नई-नई काव्य रचनाएं करके हमें आनंदित करें. ‘अर्थ की चिंता हम करेंगे, आप हमें शब्दों के अर्थ बताएँ.”

“ क्या आपको काव्य प्रिय है?    

यदि जीवन में काव्य न हो, मन में काव्य न हो, और समाज तथा राष्ट्र में काव्य न हो तो सभी कुछ नीरस होने की आशंका है. प्रकृति में काव्य है. सृष्टी की प्रत्येक ऋतू में काव्य है.”

“महाराज, आप...”

“हम सिर्फ जानते हैं. सुनने में प्रिय लगता है. आपसे कहता हूँ, कवि महाशय, धर्म में विसंगति, समाज व्यवस्था में विसंगति, कर्म में विसंगति, वर्णाश्रम में विसंगति, विचारों में विसंगति, मन का संभ्रमित होना, यह भी विसंगति ही है. इस विसंगति में सुसंगत अर्थ को समझना, क्या यह काव्य नहीं है?

कालिदास आश्चर्यचकित हो गया. सिर्फ जीवन की ही नहीं, समाज की विसंगति भी काव्य का विषय हो सकती है, यह उसकी कल्पना से परे था. उसने कुछ नहीं कहा.

“कल आपके निवास स्थान की व्यवस्था हो जायेगी. आज आप अतिथिगृह में निवास करें, और राजसभा में अपना सम्मान का स्थान ग्रहण करें.”

सम्राट चन्द्रगुप्त को वंदन करके जब वह सेवक के साथ अतिथिकक्ष में आया, तब संध्याकालीन छायाएं राजप्रासाद से लगे उद्यान में कुछ देर को ठहर गई थीं. और उसे याद आई यहाँ तक की यात्रा.  

नौका में बैठें और सागर की लहरें तथा वायु की लहरें जिस दिशा में ले जाएँ, उसी दिशा में जाना – ऐसा ही रहा है मेरे भी जीवन का प्रवाह. कोई शिशु हाथों में गीली मिट्टी ले, उसे मनचाहा आकार दे और फिर उसे मिटा दे, वैसा ही मैं नियति के हाथों का खिलौना बन गया हूँ. मन जैसा चाहे, जब चाहे, जहाँ चाहे वहीं जाऊँ ऐसा कुछ भी नहीं है मेरे हाथ में. मन के क्षितिज संकीर्ण करके, उड़ते पंखों को कोई पकड़ के रखे, ऐसा ही हुआ है बार-बार मेरे साथ. मन में कहाँ थी विवाह की इच्छा? कहाँ था आश्रम में जाने का विचार? कहाँ थी प्रवास करने की इच्छा? कहाँ थी इस राजसभा में आने की इच्छा? और सम्राट चन्द्रगुप्त द्वारा मुझे सहज स्वीकार कर लेना?

मन में उठे प्रश्न का उसीने उत्तर दिया:

‘परन्तु देखो, मातृगुप्त, मन में यदि किसी भी प्रकार के विकल्प उठ रहे हों तो पहले उन्हें दूर करो. पहले करो समाज जीवन का अध्ययन. हर परिवार की जाँच करो और ढूंढो ऐसा मनुष्य जो पूर्णतः सुखी हो. सुख एक साथ नहीं आते, दुःख एक साथ आते हैं.’

उस दिन के नौका वाले प्रसंग का स्मरण हो आया.

वेत्रवती के किनारे पर अनेक नौकाएं खडी थीं. हाल ही में यातायात में काफी वृद्धि हो गई थी. ‘सरस्वती आश्रम’ अब काफी प्रतिष्ठित हो गया था. एक नौका में तीन यात्री बैठे थे, वह भी उन्हीके साथ बैठ गया. उसका विश्वास था कि यह नौका राजा भोज की नगरी, विदिशा को ही जा रही है. परन्तु वेत्रवती के प्रवाह में आने पर नौका अत्यंत वेग से किसी और ही दिशा में जाने लगी, तो उसने नाविक से पूछा; परन्तु उसने स्पष्ट शब्दों में कहा, “नौका साँची जा रही है, यह मैंने चार बार कहा था. आपने सुना नहीं, महाशय और अब प्रवाह के विरुद्ध नौका ले जाना असंभव है. आप ऐसा करें कि थोड़ी ही दूर पर एक बस्ती है, वहाँ उतर जाइए, और वापस जाने वाली नौका में बैठकर विदिशा जाएँ. आपको कष्ट हो ऐसा मेरा हेतु नहीं है, परन्तु वायु की दिशा को देखते हुए यह कठिन है, मगर मैं प्रयत्न करूंगा...”

“रहने दो, नाविक मैं आगे उतर जाऊंगा. अपराध मेरा ही था, जो मैंने सुना नहीं.”

नौका में बैठे यात्रियों में से एक ने कहा, “ महाशय, हम अपने मन में कोई मार्ग निश्चित करके चलते हैं. परन्तु वास्तविकता का हमें भान नहीं होता, तब प्रत्यक्ष घटित होने वाली घटनाओं का इसी प्रकार सामना करना पड़ता है.”

कालिदास के सामने कोई पर्याय न था. नौका की ध्वजा भी वायु के वेग एवँ दिशा को दर्शा रही थी. कालिदास ने पहली बार उन तीनों पर दृष्टी डाली. उनमें से एक भिक्खु था, यह उसके वेश से ही स्पष्ट था. दूसरे प्रौढ़ सज्जन ब्राह्मण थे, यह उनकी शिखा से स्पष्ट था. तीसरे के बारे में समझ में नहीं आ रहा था. वह अस्वस्थ मन से बैठा रहा. प्रौढ़ ब्राह्मण को यह बात समझ में आ गई.

“शांत हो जाइए, महाशय, जो जो हमारे सम्मुख आता है, उसका शांत मन से स्वीकार करें. यदि आपने साँची नगरी देखी न हो, और आपके पास समय हो, तो आप भी हमारे साथ चलिए.”

कालिदास मौन था. मन में विचार आया, देवी सरस्वती ने कहा था, “शांत मन से विचार करो, और तब विदिशा जाओ.” मेरे मन में विद्योत्तमा के सामने स्वयँ को सिद्ध करने की अतीव इच्छा थी. एक तरह से अच्छा ही हुआ.

मन का कोई भरोसा ही नहीं. पल में यहाँ तो पल में वहाँ जाता है. मन को कभी इसकी, तो कभी उसकी आस होती है. और जो प्रत्यक्ष में सामने आता है, मन उसे स्वीकारना नहीं चाहता. जैसे उपवन में अनेक कलिकाएँ एक साथ खिलती हैं, उसी तरह मन में कभी सारी ऋतुएँ एकत्रित आकर मन को संभ्रमित करती हैं. वास्तव में तो मन पुलकित था. मन के बारे में कुछ नहीं कह सकते. परन्तु इस क्षण मन ने साँची जाने का निर्णय ले लिया. सोचा तो था कि जहाँ नौका रुकेगी वहीं से वापस लौट आऊँगा. परन्तु नौका में बैठे केशवानंद ने पूछा, “वत्स, तुम्हारा कुल-गोत्र क्या है?

“महाराज, अपना कुलवृत्तांत सुनाऊँ, ऐसा प्रतिष्ठित वेदशास्त्रसंपन्न मेरा कुल नहीं है, राजवंश भी नहीं है. मैं सरस्वती पुत्र हूँ, नाम है – कालिदास. परन्तु शिवशंकर का परम भक्त हूँ. गोत्र, वंश, वर्ण – इसका वर्णन करने की अपेक्षा कर्म और सत्कर्म से वह प्रतिष्ठित हो, यह मुझे अधिक उचित प्रतीत होता है.”

“वत्स, मैंने सहज ही पूछ लिया. मेरी कन्या उपवर नहीं है. नौका में हम सह प्रवासी हैं. प्रवास आनंदमय हो, इसलिए परस्पर परिचय. मैं केशवानंद, साम्प्रत उज्जयिनी से कुछ योजन दूर एकांत प्रदेश में स्थित गुरुकुल का कुलपति हूँ. गुरुकुल में सहस्त्र विद्यार्थी हैं.”

“सहस्त्र विद्यार्थी?” कालिदास ने आश्चर्य से पूछा.

“उज्जयिनी सम्राट चन्द्रगुप्त की नगरी है. अनेक भूभागों पर उनका अधिराज्य है, इसलिए अनेक प्रभागों से विद्यार्थी आते रहते हैं. कालिदास, यदि तुम्हारी इच्छा हो, और तुम कहीं कार्यरत न हो तो अवश्य आओ. स्वागत है तुम्हारा. साँची में एक धर्मं परिषद् है उसी परिषद् के लिए मैं जा रहा हूँ.”

इतनी देर स्तब्ध बैठा भिक्खु आनंद बोला, “मैं भी अपना परिचय देता हूँ. मैं मगध निवासी हूँ. साँची में आयोजित धर्म परिषद् में मैं भी जा रहा हूँ. शायद हम दोनों उसी परिषद् में जा रहे हैं.”

“और मैं शूद्रक, मगध निवासी. नाविक, यदि तुम खाली हो, तो तुम भी दर्शनों के लिए साँची आ सकते हो.”

“अनेक बार यात्रियों को लेकर साँची गया हूँ, परन्तु ऐसा आज तक किसीने नहीं कहा. मैं भी आप लोगों के साथ आऊँगा.” बोलते-बोलते वह अनायास ही खडा हो गया. नौका डगमगाई, परन्तु वह बैठकर नौका को फिर से वेत्रवती के प्रवाह में ले आया.

“भटकी हुई नौका को तू कितनी सहजता से मार्ग पर ले आया!” कालिदास ने कहा.

“नाविक हूँ मैं. यही तो मेरे उदर भरण का साधन. इतना तो मुझे आना ही चाहिए ना. प्रयत्न - अपना. कभी कभी प्रयत्न भी घात कर जाते हैं. इतना अधिक घात कि नैराश्य छा जाता है. तब निश्चित करता हूँ, कि नहीं करूंगा नौकानयन. पर दूसरे ही पल मन में विचार आता है कि ऐसे पग-पग पर मन पराजित होता रहा, तो फिर जियेंगे कैसे? और अगर जीना है, तो बार-बार उठकर प्रयत्न करना ही होगा.”

“मतलब, तुम कहना क्या चाहते हो?

“नौका चलाना ही मेरे उदर भरण का व्यवसाय है. अगर मन में उसका भय हो, तो जीना कठिन ना हो जाएगा? यह वेत्रवती कभी शांत होती है – निद्रित व्यक्ति जैसी, कभी नृत्यांगना के समान अपनी लहरों से नृत्य करती है, कभी अमर्याद होकर अधीरता से भागने लगती है. तब नौका चलाना कठिन हो जाता है. उस समय अपनी चिंता छोड़कर यात्री सुरक्षित अपने घर पहुँच जाएँ, यही चिंता सताती है.”

“तुम्हें नहीं सताती अपने घर की चिंता?

“उस चिंता को ईश्वर पर छोड़ दिया है. मैं सिर्फ जो कार्य करता हूँ, उसीका विचार करता हूँ.”

कालिदास को नाविक का विचार अच्छा लगा. कितनी सहजता से वह सब कुछ बता रहा था! अपनी चिंता की अपेक्षा उसे अन्य लोगों की सुरक्षा की चिंता थी. कालिदास विचार कर रहा था. बचपन में गोपालक होने के कारण अरण्य के संपर्क में रहा. विवाह के कुछ दिनों को छोड़कर आश्रम में रहा. जनजीवन का अनुभव तो शून्य ही रहा. मगर अब जनजीवन, समाजमन के अनुभवों को जानना ही होगा. एक प्रकार से साँची जाने के निर्णय को योग्य ही कहना होगा. मगर मेरे पास न तो धन है, ना ही वस्त्र. इस नाविक को देने के लिए द्रव्य भी नहीं है.

“क्षमा करो मुझे. मुझे आप इसी क्षण भी उतार दें तो उचित होगा?”

कालिदास नौका में उठकर खडा हो गया. नौका डगमगा गई.

“क्या हुआ, वत्स?” केशवदास ने पूछा.

“मुझे क्षमा करें. मेरे पास न तो वस्त्र हैं न ही द्रव्य. मैं सीधा आश्रम से आया और बिना कुछ सोचे समझे नौका में बैठ गया.”

“अब क्या इस प्रवाह में आपको छोड़कर पातक करूँ?

“संकोच न करो. मैं हूँ.”

उस ‘मैं हूँ का आधार शब्दातीत था. ऐसा आधार जीवन में विश्वास उत्पन्न करता है. उसने कुछ कहा नहीं परन्तु केशवदास उसके नेत्रों के भाव जान गए. उसके कंधे पर हाथ रखकर वे बोले, “मैं वापस लौटते समय तुम्हें उज्जयिनी तक ले आऊँगा. चिंता न करो, तुम्हें वापस लौटने की जल्दी तो नहीं है?

“नहीं, आश्रम से विद्यार्जन करके...”

“विद्यार्जन करके?” केशवानंद से आश्चर्य से पूछा.

“इसका अर्थ तुम श्रीकृष्ण हो?

“समझ में नहीं आया आपका अभिप्राय.”

“वत्स, गोपालक कृष्ण वास्तव में क्षत्रिय था. परन्तु बन गया गोपालक, और उसने कंस वध के उपरांत संदीपनी के आश्रम में जाकर ज्ञानार्जन किया. परन्तु वह श्रेष्ठतम हुआ, क्योंकि उसने बाल जीवन में ही मानवी संवेदना, भावना, जीवन  और व्यवहार का ज्ञान सहज ही प्राप्त किया था. व्रतबंध के पश्चात ज्ञानार्जन के लिए गुरुकुल में जाने की प्रथा है, और ज्ञानार्जन के पश्चात गुरुवर्य कहते हैं कि एक बार समाज दर्शन कर लो. श्रीकृष्ण ने प्रथम समाज दर्शन किया. दुष्ट प्रवृत्तियों का दर्शन, भक्ति, स्नेह और प्रीती के दर्शन किये, समाज की समस्याओं को देखा. अरण्य से स्नेह किया. कालिया मर्दन करते हुए स्वयँ-बुद्धि, और चातुर्य से उसका विनाश किया. तो, वत्स, तुम भी पहले इसी तरह ज्ञान संपन्न हुए फिर शास्त्रज्ञान के दर्शन किये.”

कालिदास का मन भर आया. उसे समझने वाला कोई व्यक्ति मिला था, उसे प्रसन्नता हुई.

“मैं सामान्य हूँ, ब्रह्मश्रेष्ठ. श्रीकृष्ण असामान्य हैं.”

“सामान्य लोगों में से अखण्ड कर्म करने वाला वह कर्मयोगी है. सामान्य से असामान्य होने के लिए प्रथम उसने आत्म परीक्षण और समाज निरीक्षण किया. वह क्षत्रिय था, तुम ब्राह्मण हो. मनोवृत्ति भिन्न हो सकती है, परन्तु जीवन को सफल बनाने के लिए जो परिश्रम किये जाते हैं, वे समान होते हैं.”

अब तक मौन बैठकर यह संभाषण सुनने वाले भिक्खु आनंद बोले, “परन्तु सभी देवता प्रथम स्वयँ का और पश्चात राज्य का उदात्तीकरण करते रहे. मगर सिद्धार्थ गौतम बुद्ध ने लोक जीवन सुखी हो, इसलिए राजत्याग, पत्नी-पुत्र त्याग किया और वे बाहर निकल पड़े. लोक जीवन में शान्ति, अहिंसा, बंधुत्व, स्नेह प्रस्थापित करने के लिए वे भिक्षार्थी भी बने. श्रीकृष्ण भी क्षत्रिय और गौतम बुद्ध भी क्षत्रिय...”

“महाशय... मैं दृष्टांत देने के किये श्रीकृष्ण की कथा नहीं सुना रहा था, बल्कि इस युवक को समाज ज्ञान तथा शास्त्रज्ञान भी प्राप्त हुआ, यह कहने के लिए ही मैंने श्रीकृष्ण का दृष्टान्त दिया.

और, महाराज, आज भरतखंड में बौद्ध-धर्म की ध्वजा लहरा रही है, इसीलिये तो हम सम्राट अशोक के काल में उसीके द्वारा निर्मित साँची का स्तूप देखने जा रहे हैं ना?

कालिदास संभ्रमित हो गया. ब्रह्मश्रेष्ठ केशवदास को बौद्ध-धर्म इतना अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत हो, इसका उसे आश्चर्य हुआ. उसे संभ्रमित देखकर शूद्रक बोला:

“धर्म चाहे कोई भी हो, नेता कोई भी हो, राज्यशासन कोई भी हो, सर्वसामान्य जनों को इनसे भी अधिक चिंताएँ होती हैं. साधारण-सी इच्छाएँ भी पूरी नहीं हो पातीं, उस समय आपके साथ कौन होता है? हम अकेले ही होते हैं ना? हम ही बार-बार गिरकर उठते हैं ना? धर्म और अन्य शास्त्र आते हैं क्षुधा-शान्ति के बाद. मैंने काफी कड़वी बात कह दी, क्षमा चाहता हूँ. परन्तु पिछले वर्ष भयानक बाढ़ में सारा गाँव उद्ध्वस्त हो गया, सारे धर्म एकत्रित आ गए. दुःख का वह एक ही धर्म था.”

भिक्खु आनंद और केशवानंद मौन हो गए. शूद्रक ही बोलता रहा.

“नाविक अपनी जीवन कथा सुना रहा था. जीवन में नित्य वेदनाओं से, समस्याओं से संघर्ष करने वालों का वास्तव में क्षत्रिय धर्म होता है. और नित्य जीवन में शास्त्र भी उपयोगी नहीं होता. वहाँ आवश्यकता होती है अनुभव की. जो उस नाविक के पास है. इतना ही नहीं, नित्य अनेक ज्ञानी, अज्ञानी यात्रियों को लेकर जाने वाला वह सर्वज्ञानी हो गया है.”

शूद्रक के सामने कोई कुछ न बोल सका. कालिदास ने उससे पूछा, “मित्र, तुम जो कार्य करते हो, और जो कुछ भी करते हो, वह ईमानदारी से करते हो, यह तुम्हारे कथन से स्पष्ट हो गया है.”

“शायद आप मुझे वेत्रवती में फेंक देंगे. जाने दीजिये.”

हरेक के मन में अनेक विचार कौंध गए. मगर केशावानन्द ने कहा, “ शूद्रक, तू कोइ भी हो, इससे फरक नहीं पड़ता. क्योकि प्राप्त परिस्थिति में हम सब सह प्रवासी हैं. कुछ ऐसा करें कि अपनी साँची तक की यात्रा स्मरणीय रहे. चलो, हम चारों एक-एक ऐसा अनुभव सुनाएं जो जीवन में कभी भूल न पाए हों, मान्य है, शूद्रक?

“मान्य है, महाशय. क्योंकि मन की व्यथा कहीं भी कही नहीं जा सकती. यह अवसर उत्तम है. हम फिर कभी मिलें या न मिलें. यह यात्रा हमेशा याद रहेगी.”

“सर्वप्रथम मैं कहता हूँ,” भिक्खु आनंद ने कहा. सभी सुनने के लिए उत्सुक थे.

“सोमेश्वर शास्त्री, यह सत्य नाम नहीं, उनके घर में महायज्ञ होने वाला था. मुझे समिधा लाने का काम दिया गया. मैं अरण्य में गया और एक वृक्ष के नीचे गहरी निद्रा में सो गया. नूपुर ध्वनी से मेरी आंख खुली, तो सत्य कहता हूँ, मेरे सामने साक्षात् एक वनकन्या खडी थी. समय और स्थल का विस्मरण हो गया और जब जागृत हुआ, तो सात दिन बीत चुके थे. वह स्वप्न सुन्दरी वहाँ आई कैसे और उसने मुझे कैसे मोहित किया, यह विचार आज भी मन को अस्वस्थ कर जाता है.”

भिक्खु आनंद कुछ देर रुके.

“कथा यहीं समाप्त होती है. जीवन के अंत तक वह मेरे साथ व्यथा बनकर रहेगी. अब सोमेश्वर शास्त्री के यहाँ जाने में कोइ अर्थ ही नहीं था. मैं अपने घर वापस आया, तो पत्नी ने कहा, “धन धान्य लेने के लिए गए हुए तुम अब वापस आ रहे हो? यदि सोमेश्वर शास्त्री ने धन धान्य न भेजा होता तो                    बच्चों की मृत्यु हो गई होती. कैसे पिता और कैसे पति हो तुम? शर्म आती है तुम्हारी! और थे कहाँ सात दिन?” मैं क्या कहता उससे...?

मैं घर से निकल गया. मार्ग में अनेक भिक्खु मिले. उनके साथ भ्रमण करते हुए मुझे बौद्ध धर्म अच्छा लगा. मैं फिर घर वापस आया. पत्नी ने कहा, “धर्मं परिवर्तन से भूख नहीं मिटती. मुझे नहीं है प्रिय यह धर्मं परिवर्तन.” ना मैं वैदिक धर्म का, ना ही बौद्ध धर्म का. आखिर एक दिन मैंने अपना घर छोड़ दिया और भ्रमण कर रहा हूँ. बौद्धविहार में मेरा आदर है, परन्तु मैं...मैं...ऐसा हूँ.”  

कोई भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं था. औरों को न्याय देनेवाले, शास्त्रार्थ करने वाले केशवानंद मौन हो गए. पत्नी का कहना गलत नहीं था. परिस्थितिवश भिक्खु आनंद भी सही था. और मन की पीड़ा व्यक्त नहीं की जा सकती थी. कोई भी उस पर विश्वास न करता.

“अब मैं कहता हूँ,” शूद्रक ने कहा.

“मेरी नई-नई शादी हुई थी. नवपरिणीता अपने नाम मधुरा जैसी मधुरभाषिणी नहीं थी, परन्तु अद्वितीय सुन्दरी थी, मतलब, आज भी है. मेरी माता अपनी बीमारी से परेशान थी. उसके लिए वैद्य लाना ज़रूरी था, उसके खान-पान की ओर ध्यान देना आवश्यक था. उसे एक कमरे में रखकर मैं आलीशान घर में रहता था. मधुरा उसे कटु शब्दों से विद्ध करती थी. यह सब मैं देखता था. यह सब असह्य होने पर भी मैं मधुरा को एक भी शब्द नहीं कहता था.

एक रात माता का ज्वर बहुत बढ़ गया. वह मुझे हेमगर्भ की मात्रा देने को कह रही थी, परन्तु मधुरा मुझे अपने कक्ष में ले गई. पूरी रात मैं उसके साथ, उसकी मोहिनी के वश था. जब मेरी नींद खुली तो सुबह का सूर्य काफी प्रखर हो चुका था. मैं माँ के कक्ष में था.

माँ इस दुनिया में ही नहीं थी, मेरा मौन रुदन...मैं किसी से कुछ कह नहीं सकता था, मधुरा भी कभी समझने वाली नहीं थी. ऐसा कोई भी नहीं था, जिससे मन की वेदना बाँट सकूँ. तब मैं भ्रमण करने निकल गया. मुझे हर चीज़ में दोष नज़र आने लगे : धर्म में, राजशासन में, राजा में. मेरा मन ही अब मेरा बैरी हो गया था.”

शूद्रक खामोश हो गया. किसी ने भी कुछ नहीं कहा. दोष तो प्रत्यक्ष रूप से शूद्रक का ही था. विकारवश होने का, संयमहीन होने का दोष. वह अपने कर्तव्य का भान खो बैठा था. उसकी यही सज़ा थी कि जीवन भर व्यथित रहे.

अब ब्रह्मश्रेष्ठ, प्रौढ़, प्रगल्भ और सात्विक देखने वाले केशवानंद बोलने वाले थे. तीनों उन्हीं की ओर देख रहे थे. उनके जीवन में भी कोई लज्जास्पद घटना घटित हो चुकी है, यह उनके चहरे से स्पष्ट था. तब नाविक ने कहा, “अब मैं सुनाता हूँ अपनी कथा.”                     

नौका अब वेत्रवती के शांत प्रतीत हो रहे जल पर हौले-हौले जा रही थी. नाविक ने चप्पू हाथ में लेकर नौका में रख दिए और बोला, “शांत जल किसी धीर-गंभीर व्यक्तित्व की तरह होता है. यह जल स्थिर इसलिए है कि यहाँ वह खूब गहरा है. यदि कोई मनुष्य इसमें गिर जाए, तो वह बहता नहीं है, अपितु अधिकाधिक गहरे पैंठता जाता है, फिर ऊपर नहीं आता.

ऐसा ही एक अनुभव है मेरा, गहरे-गहरे डूब गई मृत घटना को सजीव करने का.

मैं ब्राह्मण पुत्र. सदाचारी, सुसंस्कृत वंश में मेरा जन्म हुआ. परन्तु माता की बचपन में ही मृत्यु हो गई, और मेरे लिए कोई बंधन ही नहीं बचा. पिता विद्वान थे, शास्त्राभ्यास, प्रतिष्ठा और प्रसिदधि में मगन रहते. मेरी ओर किसी का भी ध्यान नहीं था. विद्याभ्यास पर मेरा ध्यान नहीं था, इसलिए जब पिता ने मुझे एक ब्राह्मण परिवार को सहकार्य करने हेतु सौंपते हुए कहा, कि मैं उनका कोई नहीं हूँ, तो मन इतना अधिक क्रोध से भर गया कि, किसी तरह मन को रोकते हुए एक गाँव में चला गया. वहाँ एक किसान के घर रहा. आगे चलकर विवाह हुआ. मेरे मन में पिता के प्रति प्रतिशोध की भावना इतनी प्रबल थी कि एक दिन अत्यंत क्रोधित होकर मैंने उनकी मिट्टी की एक प्रतिमा बनाई और उसका दहन कर दिया. इतना ही नहीं, मैंने काशी जाकर उनका श्राद्ध भी कर दिया. श्राद्ध करके जब वापस आ रहा था, तो मैंने उन्हें किसी का आधार लेकर नौका में प्रवेश करते हुए देखा और मेरा मन भर आया. जिनका श्राद्ध किया था, वह, मेरा पिता अत्यंत अगतिक, असहाय अवस्था में था. मेरी सौतेली माँ की अस्थियों के विसर्जन के लिए वे आये थे. पल भर को लगा, कि जाकर उनसे मिलूँ, बात करूँ, क्षमा मांगू. उन्होंने मुझे जिस उद्देश्य से ब्राह्मण को सौंपा वह शायद मुझे सुसंस्कृत बनाने के लिए था. यदि कहते, कि मैं उनका पुत्र हूँ, तब शायद मझे सम्मान से रखा जाता, और मैं कुछ सीख न पाता....यह भी मैं अब समझ रहा था.

मगर सब कुछ समाप्त हो गया था. अविचार, अज्ञान और निष्ठा के अभाव के कारण यह अपराध हुआ था. इसके बाद मैं नाविक बन गया. कोई ऐसा असहाय पिता दिखाई दे, तो मैं उसकी सहायता करूँ, इस उद्देश्य से. अपनी स्नेहल, सुशील पत्नी को मैंने यह व्यथा कभी नहीं सुनाई.”

कुछ देर किसी ने भी कुछ नहीं कहा. दोपहर ढलने लगी थी. आसपास के अरण्य से आ रहे ठंडी हवा के सुखद झोंके और चमचमाती धूप यात्रा को सुखमय बना रहे थे. और हर कोई अपनी जीवन कथा सुनाकर मुक्तता का अनुभव कर रहा था. अब बचे थे सिर्फ दो – केशवानंद और कालिदास.

केशवानंद ने अकस्मात् कहा, “मैंने चौर्यकर्म किया है. वह भी विद्याभ्यास चुराया है. वह भी परिपक्व आयु में. कुछ ही वर्ष पूर्व एक शास्त्रार्थ का आयोजन किया गया था. मैं कुछ संहिताएँ और उनकी मीमांसा लेकर द्वारका धाम को निकला था. मेरे साथ रामशास्त्री यात्रा कर रहे थे. उनसे बातें करते समय अनुभव हुआ कि उनके प्रकांड पांडित्य के आगे मेरा टिकना असंभव है.

उन्होंने शास्त्र वचनों का, वेदों की टीका का, उपनिषदों की टीका का इतना विस्तृत अध्ययन किया था कि मैं भयभीत हो गया. मुझे शास्त्रार्थ में कोई भी पराजित नहीं कर सकता, ऐसा आज तक मेरा लौकिक था. परन्तु अब यह स्पष्ट था कि मैं पराजित हो जाऊंगा.

एक दिन ऐसे ही नौका प्रवास करके द्वारका पहुँचने से पूर्व मैंने उनके सारे हस्तलिखित चोरी करके समुद्र में विसर्जित कर दिए, अर्थात द्वारका में आयोजित शास्त्रार्थ में मेरी विजय हुई. परन्तु मन ही मन मैं लज्जित था. उसके बाद मैंने कभी भी किसी शास्त्रार्थ में भाग नहीं लिया. एक ज्ञानयोद्धाने ऐसी शरणागति ग्रहण की, जिसके बारे में कभी भी, किसी को भी बताया नहीं जा सकता. इसकी अपेक्षा यदि पराजित हो जाता, तो भी अभिमान से विचरता रहता.

आखिरकार मैंने वह नगरी छोड़ दी और उज्जयिनी के निकट रहने लगा. मैंने एक  गुरुकुल आरम्भ किया. उसमें पहला वाक्य मैंने कहा, “जीवन में कैसी भी विकट परिस्थिति, आये, फिर भी, फिर भी कभी चौर्य कर्म नहीं करना चाहिए. इससे अधिक लज्जास्पद कोई अन्य घटना हो ही नहीं सकती.”

एक बार फिर सब मौन हो गए. संध्या अपने-अपने घरों को लौटते हुए पक्षियों के नाद से गूँज रही थी. वह अपनी सखी, यमुना से मिलने के लिए आतुर थी. साँची नगरी दिखाई देने लगी थी.

कालिदास को अब बोलना था. परन्तु सत्य कहना संभव न था, और असत्य मन को अच्छा नहीं लग रहा था. शूद्रक उसकी मनोदशा को समझ गया. उसके मुख पर चिंता के भाव देखकर वह बोला, “पंडित जी, मेरे मन में कुछ प्रश्न हैं. क्या मैं पूछ सकता हूँ?

“अवश्य पूछो, शूद्रक.”

“ सीता भूमि कन्या थी, वह जनक कन्या  के रूप में प्रसिद्ध हुईं. बचपन में उसने परशुराम को शिव शंकर द्वारा दिया गया धनुष्य सहजता से उठा लिया था. राजकन्या होने के कारण वह अस्त्रशस्त्र निपुण और शास्त्र निपुण भी थी. उसने भिक्षा के उद्देश्य से आये हुए रावण का वध क्यों नहीं किया? क्या, उसके हाथों में धनुष्य-बाण नहीं था इसलिए?

वह पतिव्रता थी, इसलिए अशोक वन में रावण उसे स्पर्श भी नहीं कर सकता था. मगर यदि उसी पतिव्रता ने हनुमान के साथ लंका पार कर ली होती तो? क्या श्रीराम का उस पर विश्वास नहीं था, या हनुमान पर विश्वास नहीं था? पुत्र के साथ माता चली आतीं, ऐसा उसने क्यों नहीं सोचा?

पातिव्रत्य सिद्ध करने के लिए उसे क्यों अग्नि परिक्षा देनी पडी? श्रीराम भी अरण्य में अकेले ही थे ना, उन्हें पत्नी के प्रति निष्ठा सिद्ध करने के लिए अग्नि परिक्षा क्यों नहीं?

और एक प्रश्न...चौदह वर्ष ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले श्रीराम का एक नागरिक के कहने पर गर्भवती सीता का त्याग करना क्या उचित था? महाशय, श्रीराम एक आदर्श राजा थे. यदि उसके लिए वे नगर के बाहर, अथवा नगर के ही किसी प्रभाग में एक संरक्षित कुटी की व्यवस्था कर देते तो? क्या उन्होंने ऐसा नहीं सोचा कि एक आदर्श राजा के साथ ही एक आदर्श पति भी होना चाहिए?

न सिर्फ केशवदास, अपितु अन्य लोग भी विचार करने लगे. इन प्रश्नों के उत्तर देना उनके लिए असंभव था.

कालिदास मन में सोच रहा था, एक सबल राजनीति एवँ अस्त्र-शास्त्रों में पारंगत राजकन्या इतनी प्रभावहीन कैसे हो सकती है?

और, विद्योत्तमा, तेजस्विनी , उसने पल भर में मुझे सीमा पार जाने का दंड दे  दिया. कहीं यह काल-परिवर्तन का महिमा तो नहीं? वह विचार कर रहा था. प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने तरीके से विचार कर रहा था, कि सीता के सन्दर्भ में क्या कहे?

संध्या अब वेत्रवती के प्रवाह में उतर आई थी. नौका अब साँची के किनारे की और मुड रही थी.

 

 

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एकला चलो रे - 4

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