उषा देवी प्रसन्नता से मुस्कुराई और संपूर्ण अवकाश में एक नाद गूँज गया, जिसमें पक्षियों के स्वरों का गान था. रविराज के आगमन
की आहट पाते ही अरण्य से पुष्पों की सुगंध लेकर समीर प्रकट हुआ. दिशा-दिशा आलोकित
हो उठी. आकाश के विशाल पटल पर रंगों की रंगोली फ़ैल गई. सृष्टि पुलकित हो गई.
क्षिप्रा की शीतल लहरों ने सृष्टि का श्रृंगार किया और अपने जल में उसका
प्रतिबिम्ब दिखाया.
सृष्टि का यह नव विकसित रूप देखते हुए कालिदास क्षिप्रा के किनारे पर खडा
था. उदित हो रहे सूर्य को अर्ध्य देने के लिए अनेक लोग हाथ में जल लेकर खड़े थे.
पास ही में महिलाएं शुचिर्भूत होकर कमर पर जल कलश लिए नगर की ओर जा रही थी. सभी
कुछ मनोहर था.
अन्धकार का पटल दूर करते हुए रविराज ने पूरब क्षितिज पर हौले से अपने
केसर-पग रखे. इस क्षिप्रा और उसके किनारे पर स्थित श्रीमहाकालेश्वर की साक्षी से
मेरे जीवन का भी कल का अध्याय समाप्त होकर एक नए अध्याय का प्रारम्भ होने वाला है.
‘कल’ इतिहास था, ‘आज’ वर्त्तमान है.
‘महाकालेश्वर प्रभु, मेरा वर्त्तमान काल समृद्ध होने दो. मेरे हाथों से कुछ
ऐसा घटित होने दो, जिससे
इतिहास के पृष्ठ स्वर्णांकित हो जाएँ. उसने मन ही मन महाकालेश्वर को नमस्कार किया.
वह मंदिर की सीढ़ी पर खडा था.
साँची से काशी, हरिद्वार, ऋषिकेश तक जाकर वापस आते हुए आचार्य केशवदास अपने
वचनानुसार उसे उज्जयिनी लाए थे. उसने कहा भी था, “मैं भी आपके साथ ज्ञानार्जन करने वालों के लिए अध्यापन
कर सकूंगा.”
“कालिदास, वहाँ केवल
शास्त्रीय ज्ञान दिया जाता है, उसका अर्थ समाज में ढूढ़ना होता है. मानव की वृत्तियां, स्वभाव, संगठन, सहकार्य, समाज की आवश्यकता, राष्ट्र की आवश्यकता, गुणग्राहकता, रसिकता, मन का सौन्दर्य – यह सब समाज में होता है. पिछले कई माह
से हम भ्रमण कर रहे है. मैंने तुमसे तुम्हारे गत आयुष्य के बारे में पूछा नहीं, परन्तु मुझे अनुभव हुआ कि तुम उतने प्रसन्न नहीं हो, जितना प्रकट करते हो. कुछ तो अवश्य हुआ है, ये कुमार वय के प्रसंग होते हैं, जिन्हें मन में ही जतन करना चाहिए. बिल्कुल मयूरपंख के
समान. परन्तु इस समय तुम निश्चय ही संभ्रमित हो. ऐसे समय में स्वयँ की परीक्षा
देने तुम उज्जयिनी जाओ. उज्जयिनी से तुम्हारा परिचय नहीं है, परन्तु यहाँ के निवासी सहायता करेंगे. सम्राट
चन्द्रगुप्त सद्शील हैं, गुणग्राही हैं.
यदि कुछ भी संभव न हुआ, तो मैं हूँ, तुम्हारी देवी सरस्वती हैं, तुम एकाकी नहीं हो.”
राजमार्ग पर चलकर वह कल दोपहर को राजप्रासाद के सामने आया. तभी उसे सम्राट
चन्द्रगुप्त के निमंत्रण का स्मरण हुआ. अब अगर परीक्षा ही देनी है, तो पहले कठिन परीक्षा देनी चाहिए, तब अन्य परीक्षाएं
सहज ही उत्तीर्ण कर सकूंगा.
कल सम्राट
ने परीक्षा के लिए रोक तो लिया था, अब आगे क्या होगा, इसका विचार अब करना ही नहीं है. वह सीढ़ियों पर बैठ गया और उसे क्षिप्रा
के जल में असंख्य उत्फुल्ल कमलिनी के फूलों के समान नवयुवतियों का समूह जल में
उतरते हुए दिखाई दिया. इन दोनों में कौन अधिक सुन्दर है – उत्फुल्ल कमलिनी अथवा
उत्फुल्ल नवयुवतियां? इनकी तुलना कैसे करूँ और यदि तुलना कर
भी ली, तो साक्षी के लिए किसे निमंत्रित करूँ? मन में यह प्रश्न उठते ही वह मन
ही मन हंसा.
प्रातः की
बेला – मेरा मन कमलिनी और मीनाक्षी में उलझा रहे यह उचित नहीं है. उसने अपनी
दृष्टी मंदिर की सीढ़ियों की और मोड़ ली. सिंगार की हुई राजघराने के स्त्रियाँ
अवगुंठन में लिपटी मंदिर की सीढियां उतर रही थीं. घंटियों की आवाज़ रुक गई थी. इसका
अर्थ – सम्राट अब सीढ़ियों से उतरेंगे. वह सतर्क होकर उनकी प्रतीक्षा में खडा रहा.
पीताम्बर
और उत्तरीय धारण किये हुए सम्राट चंद्रगुप्त एक-एक सीढ़ी उतर रहे थे. उनके पीछे
राजघराने की महिलाएं, राजपत्नी भी थीं. वे किसी से बात कर
रहे थे. उनकी दृष्टी कालिदास पर गई. उन्होंने कालिदास से कहा, “हम राजज्योतिषी वराह मिहिर से आपके बारे में ही कह रहे थे. मंदिर में
दर्शन करने के उपरांत आप राजसभा में आयें.”
“राजसभा
में?”
“कोई
समस्या है?”
“वो बात
नहीं, सम्राट! मैं नया हूँ, एकदम राजसभा में...”
सम्राट
प्रसन्नता से हँसे. ऐसा हुआ कि एक दिन हमारे पिताश्री सम्राट समुद्रगुप्त ने हमसे
कहा, “आज राजसभा में आयें.” मैंने यही वाक्य कहा था,
“राजसभा में?” इस पर उन्होंने पूछा था,
“कोई समस्या है?”
जब हम
राजसभा गए, तो पिताश्री ने कहा, “आपको
स्वतन्त्र रूप से युद्ध पर जाना है. उस दृष्टी से सेना को नियंत्रित करें, निमंत्रित करें.”
“एकदम?” हमने पूछा.
“हाँ, एकदम. घोषणा करके कोई युद्ध नहीं करता, युवराज. और कोई भी घटना कभी न कभी
प्रथम बार ही होती है ना?” समझे, कवि महाशय?
कालिदास
प्रसन्नता से हंसा.
“सम्राट
आपके बारे में अनेक कथाएँ सुनी थीं, मगर किसी को सहज
समझ लेने का आपका स्वभाव आज मैं जान सका.”
“तो, आइये राजसभा में.” सम्राट चन्द्रगुप्त सीढियां उतरकर सुवर्ण रथ में बैठे. सारथी ने घोड़े की लगाम
खींची और घोड़ों को संकेत मिल गया. कालिदास यह सब पहली बार अनुभव कर रहा था. विशेष
बात यह थी कि घोड़ो को संकेत मिलते ही उन्होंने रथ को गति प्रदान की. ऐसा ही एक
संकेत सम्राट ने मुझे भी दिया है. डोर उनके हाथों में है,
परन्तु अब मेरे जीवन को गति देने का कार्य वे सहजता से करेंगे, कालिदास के मन में यह विश्वास जागा.
दर्शन लेकर
लौटते हुए उसके मन में विचार आया, ‘मैं व्यर्थ ही में अपने आप को
नगण्य समझ रहा हूँ. सारे शास्त्र मैने कंठस्थ याद किये है,
यदि इसी क्षण कोई मुझसे शास्त्रार्थ में
भाग लेने को कहे, तो मैं उसका निमंत्रण अस्वीकार नहीं
करूंगा. बल्कि, अब उसी संधि की प्रतीक्षा है.’
विचारों
में खोये हुए उसने अपना मार्ग खो दिया. वह नगर से दूर निकल आया था. अब उसे पता चला
कि वह मार्ग खो चुका है. गला भी सूख गया था. उसे एक वृद्ध स्त्री दिखाई दी जो
जलाशय से जल भरकर ला रही थी. वह मन ही मन प्रसन्न हो गया.
“माते, क्या मुझे जल मिलेगा?”
“अवश्य.
कोई भी फल बिना कर्म के प्राप्त नहीं होता., अतः यदि तुम मेरे दो प्रश्नों के
उत्तर दो, तो तुम्हें जल प्राशन का आनंद मिलेगा, जल तो वैसे
भी मिलेगा ही.”
“पूछो, माते, निःशंक और निश्चिन्त होकर पूछो. प्रश्नों के उत्तर देने के बाद ही
मैं आनंद से जल प्राशन करूंगा.”
“परन्तु, तू है कौन? तेरा परिचय?”
“माते, मैं पथिक हूँ.”
“पथिक तो
सिर्फ दो हैं – चन्द्र और सूर्य, जो दिन-रात अविरत चलते रहते
हैं.”
“मैं अतिथि
हूँ, क्या जल मिलेगा?”
“अतिथि
केवल दो हैं – धन और तारुण्य. काल के साथ वे निकल भी जाते हैं.”
“मैं
सहनशील हूँ, माते. क्या अब पानी मिलेगा?”
:सहनशील तो
केवल दो ही हैं – पापी-सदाचारी लोगों को स्थान देने वाली धरती और पापी तथा
पुण्यवान लोगों को छाया देने वाला वृक्ष.”
“माते, मैं कालिदास हूँ, सरस्वती पुत्र हूँ.”
“कालिदास
भी दो हैं – एक वे जो उसके मंदिर में रहकर सेवा करते हैं, और दूसरे वे जो कालिदास कहलाते हैं, उनमें से तू
कौन है?”
अब कालिदास
को पश्चात्ताप हुआ कि उसने क्यों जल माँगा. कहाँ से इस वृद्धा से जल मांग बैठा, ऐसा विचार मन में आया. बिना उत्तर दिए जल प्राशन करने का मन नहीं था.
“माते, मैं अपने मत का आग्रही हूँ.”
“तू आग्रही
हो ही नहीं सकता. नख और केश आग्रही होते है, बार-बार काटने पर
भी अपना अस्तित्व सिद्ध करते हैं.”
अब तो
कालिदास अस्वस्थ हो गया.
“मैं मूर्ख
हूँ!”
“मूर्ख
कैसे हो सकते हो? मूर्ख तो दो ही हो सकते हैं –
योग्यता न होते हुए राज्य करने वाला राजा और उसे कुछ भी कहने वाला पंडित – दोनों
मूर्ख ही होते हैं.”
अब कालिदास
उसके चरणों में झुक गया.
“माते, मैं अज्ञानी हूँ! वृद्ध स्त्री मनःपूर्वक हंसी.
“माते, नगर की और कौनसा मार्ग जाता है?”
“वत्स, मार्ग तो स्वयँ ही ढूँढना पड़ता है. निश्चित मार्ग से तो अनेक लोग जाते
हैं, फिर भी वे भ्रमित हो जाते हैं. स्वयं के ही नियत किये
गए मार्ग पर जो जाता है, वही निश्चित स्थल तक पहुंचता है.
अरण्य में भटक जाने पर हम क्या करते हैं? चाहो तो बताती हूँ
मार्ग.”
“नहीं,
माता. मैं स्वयं ही ढूंढूंगा अपना मार्ग. परन्तु तुम हो कौन?”
“स्वयँ ही
अपने आप से पूछो.”
“साक्षात
सरस्वती हो, तुम....अब तो मेरा उत्तर...”
उसने
वृद्धा की और देखा. साक्षात सरस्वती खडी हैं, ऐसा आभास हुआ, परन्तु अगले क्षण कोई नहीं था. मगर एक बात का ज्ञान उसे हो गया – शास्त्र
ज्ञान के दर्शन से मैं अपने आप को ज्ञानी समझने लगा था. ये शतमूर्ख होने जैसा है, आज उसे प्रथम पाठ मिला था.
मध्याह्न
के पश्चात ही जब वह नगर वापस लौटा, तो भ्रमित मन को एक नई दिशा मिल चुकी थी. जलतृष्णा
तो क्या क्षुधाशान्ति की भी आवश्यकता का अनुभव नहीं हुआ था. जब वह अपने कक्ष में
आया तो सेवक उसकी प्रतीक्षा ही कर रहा था.
“कवि महाशय, सम्राट चन्द्रगुप्त ने आपको मध्याह्नोपरांत राजसभा में आमंत्रित किया
है.”
“मैं
राजसभा में नहीं था, इसलिए...?”
“महाराज ने
कहा, ‘हमने ही कालिदास को एक कार्य के लिए भेजा है. उसी कार्य का वृत्तांत आप
उन्हें दें.” ऐसा कहते हुए सेवक ने उसे भोजन में अनेक पदार्थ प्रेम से परोसे. तब
कालिदास ने मन ही मन कहा,
“ महाराज,
आप राजश्रेष्ठ हैं, युद्ध में भूमि जीतते हैं, व्यवहार में धन संग्रहीत करते हैं, और भावना से
मानव-मन को जीतते हैं. इसीलिये आप गुणग्राहक और सम्राट है!”
मध्याह्न
के उपरांत जब कालिदास सेवक के साथ सम्राट चन्द्रगुप्त के मनोरंजन कक्ष पहुँचा, तो देखा कि वहाँ अनेक वाद्य हैं. एक तरफ चित्रकला दर्शन है. मध्य में
स्फटिक के स्तम्भ पर एक स्त्री की प्रतिमा खडी है. एक नज़र में कालिदास ने मनोरंजन
कक्ष को देख लिया और मन ही मन सम्राट चन्द्रगुप्त की रसिकता की प्रशंसा की.
“आइये, कवि महाशय. आज आप राजसभा में नहीं आये. हम चिंतित थे कि कल ही आप नगर में
आये हैं, और आज कहाँ खो गए?”
“क्षमा
करें, राजश्रेष्ठ. सत्य यही है कि मैं नगर का मार्ग छोड़कर कब नगर से दूर चला
गया, पता ही नहीं चला. परन्तु एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना
घटित हुई. मुझे – मेरे ‘मैं’ का ज्ञान हुआ.”
“अर्थात्?”
सम्राट ने उत्सुकता से पूछा. कालिदास ने संपूर्ण घटना का वर्णन किया और कहा, “ हमारी देह, हमारा मन, हमारी
बुद्धि – इनमें से कुछ भी हमारा नहीं होता, यही सत्य है. देह से मन को अलग नहीं कर
सकते, मन से बुद्धि को अलग नहीं किया जा सकता.”
“तो फिर
क्या करना चाहिए?”
“देह को
चैतन्य देने वाली आत्मा – हम नहीं; मन अर्थात – हम
नहीं; बुद्धि अर्थात् ...”
“हम नहीं, यही ना? मगर हाथ-पैर,
नेत्र-कर्ण ये सभी अवयव और सारी संवेदनाएं – ये सब मिलकर देह बनाते हैं ना? और वह देह अपने मन के आधीन है. हमें युद्ध में विजय प्राप्त करना है- यह
दृढ़ विश्वास हमारा मन हमें देता है. परन्तु आप तो समूची देह के पिंजरे में गोल-गोल
घूम रहे है. रहने दें इस विषय को. आपको सहज ही समझ में आ जाएगा. परन्तु एक प्रश्न
का उत्तर दें, जो हमारे मन में है.”
“अवश्य, महाराज. सत्य उत्तर ही दूँगा.”
“आप
सरस्वती पुत्र हैं, आपके पिता का नाम? और अभी आप वहीं से आये हैं. इतने विलम्ब से आये?”
“महाराज, आप मेरे लिए बहुवचन का प्रयोग न करें.”
“बात ये है
कि जैसे हम आपको संबोधित करेंगे, वही नाम रूढ़ हो जाएगा. इसलिए आप
स्वयं ही आदर प्राप्त करें तथा औरों को भी प्रदान करें, कवि
कालिदास!”
सम्राट
चन्द्रगुप्त आज फुर्सत में थे. शायद, अनेक दिनों के
पश्चात नगर में वास्तव्य कर रहे थे.
“महाराज, सरस्वती देवी मेरी धर्म-माता हैं. वास्तविक माता-पिता अज्ञात हैं. परन्तु
सरस्वती ऐसी देवता हैं, जो किसी भी वर्ण को ज्ञान प्रदान
करती हैं. सरस्वती देवी मेरी उस प्रकार की माता हैं.”
“ वहीं से
सीधे यहाँ आये हैं?”
“नहीं. हम
वेत्रवती के किनारे पर आये तो नौका तैयार थी. हम उसमें बैठ गए और केशवदास के कहने
पर साँची चले गए. उसके पश्चात भी आठ-दस माह उनके साथ भ्रमण करते रहे.”
“इस भ्रमण
के काल में आपको क्या अनुभव हुआ?”
“महाराज, आर्यावर्त के इतिहास का स्मरण हुआ. वर्त्तमान की दाहकता का अनुभव हुआ और
भविष्य के संकेतों का भी अनुमान हुआ. महाराज, सब कुछ कथन
करने के लिए मेरे पास समय हो तो भी...”
“उसकी
चिंता न करें, आप हमें कथन करें.”
सम्राट
चन्द्रगुप्त अपने आसन पर निश्चिन्त बैठे थे. इस समय माथे पर मुकुट न होने से
कन्धों तक आते हुए उनके कृष्ण कुंतल स्पष्ट दृष्टिगत हो रहे थे. भव्य मस्तक, उस पर चन्दन का टीका, तेजस्वी नेत्र, सुदृढ़ बाहु, उत्तरीय से झांकती रत्नमाला. सुदृढ़ शरीर और तेजस्वी अंगकांती, मुख पर आत्मविश्वास का तेज, और पीताम्बर के ऊपर
रत्न जडितमेखला. उनका दर्शन अत्यंत मनोहारी था. अत्यंत निश्चिन्त थे वे.
“कथन करें, कविराज. हम अखंड युद्ध में व्यस्त रहते है. नगर में आने पर काफी समय
प्रशासन के कामों में बीत जाता है, तथा अत्यल्प समय मनोरंजन
के लिए निकाल पाते हैं, उसीमें से कुछ समय पत्नी एवँ परिवार के लिए होता है.
वर्त्तमान स्थिति का योग्य आकलन हमें चाहिए, बल्कि वह हमारी
आवश्यकता है.”
कालिदास ने
कहना आरम्भ किया.
“सम्राट
अशोक द्वारा निर्मित बौद्ध स्तूप का अवलोकन करने के पश्चात बाकी लोग – शूद्रक, बौद्ध
भिक्खु और नाविक अपने-अपने मार्ग पर चले गए. आचार्य केशवानंद ने कहा, “यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो मेरे साथ यात्रा पर आ सकते
हो.”
“आचार्य, मुझे भी आपके साथ भ्रमण करना अच्छा लगेगा.”
कालिदास
आचार्य के साथ सांची के परिसर में भ्रमण कर रहा था. उस समय केवल कुछ ही लोग हिन्दू
हैं, यह देखकर कालिदास ने अचंभित होकर पूछा:
“क्या यह
भूभाग बौद्ध धर्मियों का है?”
“संभव है
कि भविष्य में सम्पूर्ण आर्यावर्त ही बौद्ध धर्मीय हो जाए. कालिदास, अभी तुम केवल शास्त्र में पारंगत हुए हो. सत्य कहता हूँ कि तुम्हें लोगों
को और लोकजीवन को जानने की नितांत आवश्यकता है. तुम्हें बताता हूँ...
सम्राट
अशोक ने साम्राज्य विस्तार करते हुए सम्पूर्ण आर्यावर्त ही अपने राज्य से जोड़ लिया
था. उसने अनेकों युद्ध किये. परन्तु कलिंग में हुए युद्ध में इतनी अधिक प्राण हानि
हुई कि युद्ध में अनेक लोगों को मृत्यु देने वाले सम्राट अशोक को तीव्र पश्चात्ताप
हुआ. वह अस्वस्थ हो गया और मनःशांति प्राप्त करने के लिए सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के
पास गया. उन्होंने बताया अहिंसा का मार्ग – मन से भी किसी की हिंसा न करो.”
“और सम्राट
अशोक को यह मान्य हो गया?”
“मान्य होना ही था. उसे मनःशांति प्राप्त हुई और
मनःशांति देने वाला बौद्ध धर्म उसने स्वीकार किया.”
“आश्चर्य
है आचार्य!”
“आश्चर्य
की बात नहीं है, कालिदास. किसी भी बात का अतिरेक मनस्ताप का कारण
बन जाता है. आश्चर्य की बात तो आगे है, जिस वैदिक धर्म का, शास्त्र का ज्ञान तुमने आत्मसात किया है, वह धर्म
ही अब किसी मर्यादा तक है.”
“ऐसा कैसे
हो सकता है, आचार्य?”
“क्योंकि
हिन्दू धर्म की मूल वैदिक संस्कृति वर्त्तमान समय में केवल कुछ ही लोगों तक
मर्यादित हो गई है. इस कारण वर्तमान में वैदिक धर्म की कठोरता, मोक्ष की कल्पना, पुण्य की कल्पना और जीवन के प्रति
भय के कारण आई कर्मठता, संकुचितता के फलस्वरूप धर्म में
उत्पन्न हुई विषण्णता – इन्हीं कारणों से गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित धर्म आचरण
के लिए सहज, अहिंसा और सत्य पर आधारित और सभी वर्णों के लिए
समान होने के कारण जनमानस पर उसका गहरा प्रभाव पडा.”
“इसका
तात्पर्य, वैदिक धर्म विलय की ओर...”
“वैसा ही
हुआ. सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया, स्वयँ गौतम बुद्ध
शाक्य कुलोत्पन्न, राजवंश का युवराज था. शुद्धोधन और महामाया
का पुत्र था. वैदिक धर्म का अभ्यासक था क्षत्रिय था. उसने आगे जाकर वैदिक धर्म के
सहज आचरण में लाये जाने वाले तत्वों का प्रतिपादन किया, जो
लोक मानस में सहजता से मान्य हो गए.
गौतम बुद्ध
की दत्तक माता प्रजापती गौतमी ने अनेक महिलाओं के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार किया.
बौद्ध धर्म को दो राजवंशों का आधार प्राप्त हुआ. मेरे द्वारा लिखित ‘वर्त्तमान का
रूप स्वरूप’ यह मीमांसा ही तुम्हें पढ़ने के लिए देता हूँ. उसे पढो. उस पर मनन करो. तुम
नवयुवक हो. यदि राष्ट्राभिमानी, धर्माभिमानी और मीमांसक भी
हो तो सब कुछ समझ कर समाज के सामने किसी सत्य को पुनः प्रस्थापित करो.”
“और, महाराज, उन्होंने मुझे संहिता ही दे दी.”
“आप वह
संहिता हमें दें. परन्तु यात्रा का आपका अनुभव कैसा रहा?”
“महाराज, मैं अधिकार पूर्वक तो नहीं कह सकता, परन्तु वैदिक ऋषि मुनियों द्वारा संवर्धित की गई
संस्कृत भाषा नित्य प्रयोग में आनी चाहिए. वैदिक धर्म के कठोर स्वरूप, मोक्ष की
कल्पना, पाप-पुण्य की कल्पना – इस पर विचार होना चाहिए.
और...”
“और बौद्ध
धर्म की अहिंसा के बारे में आप क्या कहेंगें कविराज?”
“यदि
क्षत्रिय ही अहिंसा स्वीकार कर लेंगे, तो राष्ट्र रक्षण, सीमा सुरक्षा, स्वधर्म और स्वराज्य विस्तार असंभव
है, महाराज. भगवान कृष्ण ने भी साम्राज्य विस्तार के लिए युद्ध किये ही थे. महाराज, यदि क्षत्रिय ही शस्त्रास्त्रों का त्याग कर दें,
तो समाज व्यवस्था कैसे बनी रह सकती है? अर्थात, ये मेरी कक्षा से बाहर के प्रश्न हैं.”
“फिर आपकी
कक्षा कौनसी है? किस कक्षा में आप भ्रमण करते हैं, कविराज?”
“महाराज, महाभारत की युद्धनीति, चाणक्य नीति का अध्ययन मैंने
किया है, फिर भी मेरा मन उनमें नहीं रमता.”
“मान्य है.
आपका मन उनमें नहीं रमता. आपको क्या प्रिय है?”
कालिदास के
सम्मुख वह प्रश्न उपस्थित हो गया, जिसके बारे में उसने अब तक न
सोचा था. कहीं सम्राट चन्द्रगुप्त मेरी और मेरे ज्ञान की परीक्षा तो नहीं ले रहे
हैं? वैसे आचार्य केशवदास ने कहा था कि ‘सम्राट चन्द्रगुप्त
एक बहुआयामी और प्रसन्न व्यक्तित्व हैं. गुणग्राहक हैं. हरेक शास्त्र वे भली भाँति
जानते हैं. इतना ही नहीं, अनेक गुणी जनों का सहवास प्राप्त
हो इस दिशा में वे प्रयत्नशील रहते हैं.’ और कालिदास ने अकस्मात् पूछ लिया,
“क्षमा
करें, महाराज, परन्तु कहीं आप मेरी परीक्षा तो नहीं ले
रहे हैं?”
“मन में
ऐसा भय न आने दें. जो व्यक्ति राजप्रासाद के प्रांगण में प्रवेश करता है, उसके बारे में विश्वसनीय जानकारी हमें पहले ही प्राप्त हो चुकी होती है.
हमारी यंत्रणा सुदृढ़ है, कवि महाशय.”
“यदि मैं
यह पूछूं कि आप मेरे बारे में क्या जानते हैं, तो सत्य उत्तर
देंगे?”
“आचार्य
केशवदास ने आप हमारे यहाँ आने वाले हैं, यह समाचार भेजा था.
सरस्वती आश्रम में ज्ञानार्जन करने वाले आप उनके सहयात्री थे, क्या इसमें कुछ असत्य है?”
“नहीं,” कालिदास का दीर्घ नि:श्वास और मुख पर चैन का भाव उनकी नज़र से छूटा
नहीं.
“अब बताएं, आपको क्या अच्छा लगता है?”
कालिदास
सोच में पड़ गया. क्या बताऊँ? मेरा मन रमता है सरिता की लहरों
में, मेरा मन रमता है प्रकृति की गोद में, उषा के प्रातःकालीन लावण्य रूप में, संध्या की धूसर
छाया में, घनघोर अरण्य में, घनघोर
बरसती वर्षाधाराओं में, खिलते हुए पत्तों में, दुर्वान्कुरों में भी मेरा मन अटक जाता है. समीर के मंद झोंकों में,
नादमय आकाश में, गोधन की घंटियों में,
सौन्दर्यवती की कल्पना में, विश्व को साकार बनाने वाले
चित्रकार में, संगीत निर्माण करने वाले नादब्रह्म में भी, अक्षरब्रह्म में भी और आनंदब्रह्म में भी.
वास्तव में
तो मेरा मन रमता है केवल स्मृति में भी. दग्ध मन की व्यथा में भी.’ उसके नेत्रों
नें आँसू छलक आये. सम्राट चन्द्रगुप्त ने उठकर उसके कंधे पर हाथ रखा और बोले, “हमें याद आया कि एक कार्य का शुभारंभ करना है. फिर मिलेंगे. कल राजसभा
में आइये और आते हुए आचार्य केशवदास के दिए हुए हस्तलिखित अवश्य लायें,”
सम्राट
चन्द्रगुप्त अपना उत्तरीय संभालते हुए उठे और जाने के लिए तत्पर हुए. वह
नम्रता से खडा था.
“कविराज, यदि आपको निसर्ग प्रिय हो, तो शाम को उज्जयिनी में
निर्मित जलाशय की ओर आइये. हमें भी यह सब प्रिय है, परन्तु
हमारे हाथ शस्त्रबद्ध हैं.”
“आप परिवार
के साथ जा रहे होंगे, तो...”
“हम अपनी
रानियों के साथ जायेंगे. पुत्र और पुत्री भी साथ होंगे. आप नगर में नए हैं, आपका भी परिचय हो जाएगा.”
बोलते-बोलते
सम्राट चन्द्रगुप्त कक्ष से बाहर निकल भी गए. कालिदास को आश्चर्य हुआ. मैं कल ही
तो आया हूँ, और कल ही सम्राट चन्द्रगुप्त इतने निकट भी आ गए.
लोकप्रिय राजा को ऐसा ही होना चाहिए, पल भर में ह्रदय में स्थान बनाने वाले.
परन्तु सम्राट ने मुझमें क्या देखा, अथवा आचार्य केशवदास ने
उन्हें क्या लिखा होगा? वह अनुमान न लगा सका. प्रश्न को वैसा
ही छोड़कर वह कक्ष से बाहर आया, तो कार्तिक मास के दोपहर बाद के रोमांचकारी समीर ने
उसे सहलाया. कालिदास का मन प्रसन्न हो गया.
***
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