Monday, 31 October 2022

Shubhangi - 13

 

प्रातःकाल का समय. सम्राट चन्द्रगुप्त शुचिर्भूत होकर राजमंदिर की ओर निकलने ही वाले थे कि राजप्रासाद के महाद्वार की सिंहघंटा जोर-जोर से बजने लगी. समूची नगरी सतर्क हो गई. ‘किसी का आक्रमण तो नहीं हुआ है ना?’ नगरवासियों के मन में यह भय था. हाल ही में युद्ध से वापस लौटे सैनिक आनंद मना रहे थे. सम्राट चन्द्रगुप्त भी आशंकित हो गए. बाढ़, भूकंप जैसी कोई प्राकृतिक आपदा तो नहीं? अभी कल-परसों ही तो गुप्तचर साम्राज्य के विविध प्रान्तों से समाचार लाये थे, और वे समाधानकारक थे. अकस्मात्  ऐसा क्या हुआ होगा?

सम्राट चन्द्रगुप्त छज्जे पर आये. तब तक प्रांगण में नगरवासी एकत्रित हो चुके थे. महारानी समेत अन्य रानियाँ, सेनापति, मंत्री परिषद् के अन्य सदस्य भी तुरंत उपस्थित हो गए थे.

गुप्तचर उग्रसेन और सर्वदमन सिंहघंटा बजा रहे थे.

“सर्वदमन, उग्रसेन...ऐसी कौन सी अघटित घटना हो गई है? कथन करें. वार्ता यदि गुप्त हो, तो राजसभा में आयें.”

“नहीं, महाराजा, यह घटना निंदास्पद और लज्जाजनक है. उसे सबके सम्मुख ही कहना चाहिए,” उग्रसेन ने कहा.

“महाराज, हमारे दंडपाशाधिकारी, दंडपाशिक, महासेनापति की अनुमति से रत्नों से भरी हुई चार नौकाएं कल्याण-जलस्थानक से आधी रात को सागर के मध्यभाग में खडी एक अत्यंत भव्य नौका की ओर निकली थीं. हमारे जलस्थानक से समुद्री यात्रा प्रातःकाल में करने का नियम है. स्थानिक ग्रामवासी इन नौकाओं को देखकर चकित हो गए और ग्रामाधिपति अश्वसेन के पास गए. हम तक यह समाचार पहुँचा.” बोलते-बोलते सर्वदमन रुक गया.

“आगे?

“अधिकृत रूप से ज्ञात हुआ कि नौकाओं में रखी हुई संपत्ति इन तीनों अधिकारियों की अनुमति से अवैध रूप से रोम भेजी जा रही थी. ग्रामाधिपति अश्वसेन नौकाओं  को वापस जलस्थानक पर ले आया. राजस्व का भुगतान किये बिना, उस पर अनुमति की राजमुद्रा न होते हुए भी ये काम हुआ कैसे? जब यह प्रश्न उपस्थित हुआ तो हम तुरंत महाबलाधिकृत इन्द्रसेन के पास गए. जब वस्तुस्थिति का वर्णन किया तो वे भी चकित हो गए. अपने प्रशासन में ऐसा भ्रष्टाचार पहले कभी नहीं हुआ था.”

“इसलिए आपातकालीन घंटा बजाई?

“महाराज, राजसभा में यह समाचार केवल आपको और मंत्रीपरिषद को ही ज्ञात हुआ होता. उस पर दण्ड भी दिया जाता. परन्तु हमारी प्रशासन व्यवस्था इतनी सबल होते हुए भी यह कृत्य हुआ, इसका दुःख हुआ इसलिए...” सर्वदमन बोला.

“महाराज, यह घटना राष्ट्रविरोधी, राष्ट्र के लिए घातक है, यह बात नागरिकों तक पहुंचे इसीलिये घंटा बजाई. क्षमा करें, महाराज, पहले भी एक घटना हम आपके निदर्शन में लाये थे. अवर्षण पीड़ित किसानों से कठोरता पूर्वक राजस्व वसूल करने की वह घटना थी. आपने उदार हस्त से किसानों को आर्थिक सहायता दी और राजस्व अधिकारियों को दंड भी दिया, परन्तु...”

“आपने बिल्कुल योग्य कार्य किया, उग्रसेन और सर्वदमन. दंडपाशाधिकारी, महासेनापति, दंडपाशिक, ग्रामपति. ग्रामाधिपति और प्रांतीय अधिकारी को तत्काल बुलाया जाए. राजप्रासाद के इसी प्रांगण में सबके समक्ष इस सन्दर्भ में निर्णय लिया जाएगा. यह सन्देश तत्काल प्रसारित करें.”

जब सम्राट चन्द्रगुप्त छज्जे से वापस गए, तो सभी ग्रामवासी अपने-अपने कार्यों के लिए तुरंत वापस चले गए. विचार मग्न कालिदास खडा ही रहा. मन में अनेक विचार आ रहे थे. कोइ व्यक्ति अपना परिवार भी नहीं बना सकता. यदि परिवार हो, तो उसका वहन नहीं कर सकता. परिवार के व्यक्ति को दण्ड भी नहीं दे सकता. ऐसी अवस्था में इस विराट साम्राज्य के प्रश्नों-समस्याओं का समाधान सम्राट चन्द्रगुप्त कैसे करते होंगे, यह हमेशा का प्रश्न उसके दिमाग में था. साम्राज्य के विस्तार के लिए युद्ध, युद्ध के लिए सैन्य निर्माण, युद्ध के बाद प्रशासन व्यवस्था और प्राप्त होने वाली मन:शान्ति, उसीमें परिवार का तथा स्वयँ का आनंद. यह सब सम्राट चन्द्रगुप्त कैसे करते होंगे?

कालिदास अनेक पहलुओं से सम्राट चन्द्रगुप्त के बारे में ही विचार कर रहा था. जैसे-जैसे विचारों की तीव्रता बढ़ती जाती, कालिदास स्वयँ से कहता, ‘यह सब अगम्य और कभी कभी अविश्वसनीय प्रतीत होता है.’

कालिदास ने स्वयँ को संभाला और वह चलने लगा, तभी राजकुमारी प्रभावती अपनी दो सखियों के साथ हाथों में फूलों की टोकरी लिए उपवन की ओर जाती दिखाई दी. कालिदास को देखते ही उसने उसके चरण छुए. कालिदास अचंभित हो गया. उज्जयिनी में आते ही देखा था सम्राट की कन्या को. राजसभा में पिता के साथ उपस्थित रहने वाली यह कन्या अब उपवर हो गई है, इसका अनुमान हुआ. वह प्रसन्नता से हंसी, कालिदास भी हँसे.

“शुभप्रभात! शब्दों से शुभसंकेत देने वाले शब्द प्रभु के दर्शन हुए, हम धन्य हो गए. कविराज, पिछले सात-आठ वर्षों से आपको देखते रहे हैं, राजसभा में सुनते भी रहे हैं, परन्तु प्रत्यक्ष दर्शन आज ही हुए. आप हमें शुभाशीर्वाद दें!”  

“हे सुकन्या, आपका दर्शन ही मन को प्रसन्न करने वाला है. कुछ ही समय पूर्व सम्राट चन्द्रगुप्त की सुचारू शासन व्यवस्था में भी ऐसी घटनाएं हो सकती हैं, यह विचार कर रहा था. अब आपको देखा, तो ऐसा प्रतीत हुआ मानो उष:प्रभा ही सम्मुख खडी हो. राजसभा में आपका विलोभनीय दर्शन ही मन को प्रसन्नता प्रदान करता था, परन्तु स्वयँ जाकर परिचय प्राप्त करने का स्वभाव न होने के कारण इच्छा होते हुए भी आप तक पहुँचा नहीं था.”

“हमें ज्ञात है कि आप हमारे पिताश्री के अन्तरंग मित्र भी हैं. आपकी काव्यरचना से वे इतने अधिक प्रभावित होते हैं कि हमें भी पुन: पुन: सुनाते हैं.”

कालिदास मन:पूर्वक हँसा.

“राजकुमारी...”     

“प्रभावती कहें...हम आपकी कन्या के समान हैं. आज जो घटना घटित हुई वह यह प्रदर्शित करती है कि सुयोग्य आयोजन, नियोजन, कार्यपद्धति होने पर भी मूल प्रवृत्ति पर मानव को स्वयं ही संयम रखना पड़ता है. अनेक बार मूल प्रवृत्ति का झुकाव स्वार्थ की ओर भी होता है. इसीलिये राजव्यवस्था में साम, दाम, दंड, भेद आदि का समावेश होता है. कविराज, कभी कभी महाचौर्यकर्म भी किया जाता है. यह सब ऐसा ही होता आ रहा है.”

कालिदास उसके स्पष्ट, सुमधुर विचारों से अत्यंत प्रभावित हुआ.

“राजकुमारी प्रभावती....” वह कुछ कहता इससे पूर्व ही प्रभावती ने पूछ लिया.

“आपका क्या विचार है महाराज चन्द्रगुप्त के प्रशासन के बारे में?

“सत्य कहूं, तो हमने राजकीय दृष्टी से कभी विचार नहीं किया. परन्तु अब करेंगे.”

“पिताश्री का क्रोध, शासन प्रणाली सुचारू रूप से चले इस दिशा में की गईं योजनाएं, और साम्राज्य समृद्ध हो, चारों ओर सुख शान्ति रहे इसके लिए किये गए परिश्रम ऐसे कोई अचानक तहस-नहस कर दे तो आई हुई निराशा – आगे वे हर कदम सावधानी से उठाएंगे, परन्तु अभी तो तीव्र मन:स्ताप ही है ना....हम समझ रहे हैं उनकी मन:स्थिति को.”

बारह वर्ष की कुमारी कन्या को समाज का इतना ज्ञान होगा, राष्ट्रभाव और सम्राट के राष्ट्रप्रेम तथा उनके परिश्रम से वह भली भाँति परिचित होगी ऐसा कालिदास ने सोचा नहीं था. उसके प्रगल्भ विचार सुनकर वह आश्चर्यचकित हो गया.

“राजकुमारी प्रभावती, आज हमें आपका सत्य परिचय प्राप्त हुआ. हम जब उज्जयिनी आये, और कभी संयोगवश आपको देखा था, तब आप प्रस्फुटित होती हुई कलिका के समान थीं. आज के आपके शब्द और विचार अत्यल्प काल में ही अधिक कर्तव्यक्षम हो गए प्रतीत होते हैं. हम मन:पूर्वक आपका अभिनन्दन करते हैं और आपको शुभकामनाएं प्रदान करते हैं.”  

“कविश्रेष्ठ, जैसे दूध में जन्मघुट्टी पिलाई जाती है, उसी तरह हमें जन्म से ही राजकीय विचारों की घुट्टी मिलती है. हमारी माताश्री कहती हैं कि हमें कुछ अधिक ही दी गई है राजकीय विचारों की घुट्टी, अन्यथा खेलने-खाने की आयु में हम इतिहास को नहीं पढ़ते रहते.”

“क्या आप सचमुच इतिहास का अवलोकन करती हैं?

“क्या आप नहीं करते?

“हम? हम वर्त्तमान काल में अपने भूतकाल को कैसे भूलें, इस पर विचार करते रहते हैं? क्योंकि जितना ही उसे भूलने का प्रयत्न करें वह उतनी ही तीव्रता से याद आता है.”

“हो सकता है. परन्तु अपने पूर्वजों के कर्तृत्व का आलेख इतिहास ही होता है. हमारे राष्ट्र के पूर्वजों का इतिहास भी उनके कर्तृत्वों  का आलेख ही होता है. और हमें प्रिय है इतिहास. आपने पिताश्री को जो हस्तलिखित दिए थे, उन्हें हमने बार-बार पढ़ा है.”

“वे हस्तलिखित, जो हमने उज्जयिनी आने पर महाराज को दिए थे?

“वे ही, परन्तु अब भोजपत्र जीर्ण हो गए हैं.”

कालिदास ने सोचा, कि मैंने साँची के पश्चात उत्तर भारत का कुछ भाग, मध्य देश का कुछ भाग देखा और काशी से वापस आ गया. मगर आचार्य केशवदास के दिए भोजपत्र पढ़े ही नहीं हैं. वही इतिहास होगा. उसने कहा,

“राजकुमारी, आप वे भोजपत्र हमें दें, हम उनका पुनर्लेखन करेंगे.”

“अवश्य. इसकी आवश्यकता थी ही. अब, एक बात कबसे पूछना चाहते थे, परन्तु पूछें या न पूछें इस दुविधा में थे. क्योंकि वैसे हमने आपको केवल राजसभा में या उत्सवों में ही देखा है, अन्यत्र कहीं नहीं. इसलिए...”

“पूछिए, राजकुमारी प्रभावती. जब हम उज्जयिनी आये तो आप लगभग पाँच-छः या सात वर्ष की होंगी. परन्तु अपने पिताश्री के साथ राजसभा में बैठकर आप सब कुछ ध्यान से सुनती रहती थीं. आपने शस्त्रविद्या, अस्त्रविद्या अवगत की है. उत्तम घुड़दौड़ करती हैं, और शास्त्राभ्यास भी करती हैं. ये सब कब करती हैं?

“कविराज, समय के पंख होते हैं. समय का पंछी पल-पल अपने पंख फडफडाते हुए उड़ता रहता है. हमने उन पंखों पर सवार होने का प्रयत्न किया. सब कुछ प्राप्त करना तो संभव नहीं, परन्तु मार्ग तो दृष्टिगोचर होते हैं.” 

“वा:....जिस आयु में कन्याएं अपने भावी जीवन के सपने देखती हैं, उस आयु में आप सपनों को साकार करने और विविध क्षेत्रों की जानकारी में रूचि रखती हैं. प्रथम बार आपसे व्यक्तिगत परिचय हो रहा है.”

“कविराज, आप चतुर हैं. हम क्या पूछने वाले हैं, इसका अनुमान पहले ही करके हमसे ही प्रश्न पूछने लगे, और...”

“नहीं, राजकुमारी, नहीं. ऐसा विचार भी मन में नहीं आया. आपकी बातों से आपकी प्रगल्भता, विविधता और रूचि के दर्शन हुए. अवलोकन करता रहा था, परन्तु अवसर आज प्राप्त हुआ. पूछिए, क्या पूछना चाहती हैं?  

“कविराज, आपके परिवार में कौन-कौन है?

उसके इस अकस्मात् पूछे गए प्रश्न से कालिदास परेशान हो गया. उसने अनेक लोगों को सहज ही बताया था, ‘अर्थार्जन के लिए हम उज्जयिनी में है, हमारा परिवार ऋषिकेश के मार्ग पर स्थित एक गाँव में है. हमारे वृद्ध माता-पिता और हमारी पत्नी पुत्र एवँ पुत्री के साथ वहाँ रहती है. बीच-बीच में हम वहाँ जाते रहते हैं, माता-पिता यहाँ आने के लिए तैयार नहीं हैं.’ बीच-बीच में कालिदास भ्रमण के लिए निकल जाया करते, किसी को भी कोई संदेह नहीं था.

“आप यह प्रश्न क्यों पूछ रही हैं, राजकुमारी?

“क्या आप अपनी कन्या से दूर रह सकते हैं?

यही प्रश्न सम्राट चन्द्रगुप्त ने भी कभी पूछा था. तब कालिदास ने कहा था, “महाराज, कभी आपको विस्तार से बताऊँगा, तब तक जो उत्तर औरों को देता हूँ, वही आपको दे रहा हूँ. सत्य को छुपाना असंभव है.”

“रहने दें, कविराज,” सम्राट ने कहा, और फिर कभी वह विषय उठा ही नहीं, या उन्होंने समझदारी से नहीं उठाया. परन्तु अब राजकुमारी से क्या कहूं, इस उलझन में कालिदास थे, तभी उन्हें मौन देखकर राजकुमारी प्रभावती ने सहजता से कहा, “आपके मन को भी दुःख होता ही होगा. वैसे भी कन्या अपने मातृगृह में रहती है केवल दस-बारह वर्ष. फिर उसका विवाह, और तब जीवन श्वसुरगृह में ही बीतता है. तब उसके श्वसुरगृह जाते समय आपको अधिक दुःख नहीं होगा. सत्य है ना? परन्तु कविराज, आप मेरे लिए पिता समान है, यहाँ उज्जयिनी में आप हमें ही अपनी कन्या मानें.”

कालिदास की आंखें भर आईं. जब पत्नी ही नहीं, तो कन्या एवँ पुत्र कहाँ से लाऊँ? प्रभावती ने इस प्रश्न का समाधान समझदारी और सहजता से निकाल लिया था. शायद वह मन की बात समझ गई थी. वह अपने पिता के ही समान थी.

“राजकुमारी...”

“केवल प्रभावती. आपकी मानसकन्या, धर्मकन्या.”

अब कालिदास के लिए असह्य हो गया. उत्तरीय से अपने आंसू पोंछते हुए उसने प्रभावती के हाथ अपने हाथों में लिए. फिर उसके मस्तक पर हाथ रखे. मन की भावनाएँ अब शब्दातीत हो चुकी थीं.

 

     

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