Monday, 24 October 2022

Shubhangi - 11

 

 

         

कालिदास की आंख अचानक खुल गई. ढलते शिशिर के दिन थे. कल ही देखा था कि पत्तों के ढेर वृक्षों के चरणों पर पड़े हैं. इस क्षण गवाक्ष से दिखाई दे रहे निष्पर्ण वृक्षों की शाखाओं के मध्य से आती चंद्रप्रभा वसुंधरा की गोद में शांत पड़ी थी. आकाश-मध्य का चन्द्रमा अब पश्चिम की ओर जाने वाली सीमा रेखा पर स्थिर हुआ प्रतीत हो रहा था और चन्द्रमा के साथ रहने वाली रोहिणी अब चंद्रप्रभा के पटल में समा गई थी.

कल उज्जयिनी में आने के बाद की घटनाओं का स्मरण होते ही आधी रात को भी उसके मुख पर हास्य छा गया. मध्याह्न में सम्राट चन्द्रगुप्त राजसभा से भोजन कक्ष की ओर निकले हैं, ऐसा द्वारपाल ने कहा, तो उसे भी क्षुधा का अनुभव हुआ. उसने द्वारपाल से सहज स्वर में कहा:

“सम्राट को सूचित किया जाए कि कालिदास का आगमन हुआ है.”

वास्तव में अपने लिए श्रेष्ठत्व लेकर वह सम्राट से मिलना नहीं चाहता था. परन्तु सरलता से सम्राट से मिलना संभव नहीं है, यह सोचकर उसने यह वाक्य कहा, और इसका जैसा होना था, वैसा ही परिणाम हुआ.

सम्राट चन्द्रगुप्त ने द्वारपाल से कहा, “उन्हें भोजन कक्ष में भेजो.”

“रण धुरंधर, राजनीति निपुण, विराट साम्राज्य के अधिपति, गुप्तवंश के रश्मिरथी, राजश्रेष्ठ चन्द्रगुप्त की जय हो.” उसने भोजन कक्ष में प्रवेश करते ही कहा.

सम्राट ने उसे आसन पर बैठने का संकेत किया. कालिदास हस्त प्रक्षालन करके आसन पर बैठ गया. उनके साथ दस ब्राह्मण भोजन के लिए स्थानापन्न थे.

“वेदविद्यासम्पन्न, सरस्वती पुत्र, कवि महोदय कालिदास, आपका मनःपूर्वक स्वागत है.”

“महाराज...आप...आपको...”

“हमें स्मरण है...भली भांति स्मरण है.”

“महाराज, वह काव्य नहीं था. कोई बालक धूलपाटी पर किसी तरह आद्याक्षर बनाए, वैसा वह प्रथम प्रयास था.”

“प्रथम प्रयास होते हुए भी उसका भावार्थ हमें प्रभावित कर गया था. और आप ध्यानमग्न थे. आपको प्रदत्त शिव शंकर का अनुपम सौन्दर्य और नैसर्गिक सुदृढ़ता. सरस्वती देवी का कोई पुत्र होगा इसकी हमें कल्पना नहीं थी. अस्तु!

आप भोजन आरंभ करें”

भोजन के पश्चात महाराज ने उसे आसनस्थ होने की विनती की. सम्राट चन्द्रगुप्त सह्रदयता से उससे बातें कर रहे थे. कालिदास को आश्चर्य हुआ. वे सहज होते हुए बोले,
“कवि कालिदास...”

“अभी तक मैंने कुछ लिखा नहीं है, आप मुझे...”

“आपके भीतर की योग्यता को हमने पहचान लिया है. आप अवश्य ही काव्य निर्मिती करेंगे.”

“यह अनुमान क्योंकर लगाया, महाराज?

“जीवन में यदि विसंगति हो, निसर्ग के प्रति, मानव के प्रति आत्मीयता हो, तो स्थापित मूल्यों के अनुसार ही काव्य लिखा जाए, यह आवश्यक नहीं. काव्य जिया भी जा सकता है. हम युद्धभूमि पर वीररस का उत्स्फूर्त काव्य ही जीते हैं. परन्तु हमें याद है – आपके काव्य में...”

“कृपया, आप मेरे लिए आदरयुक्त संबोधन का प्रयोग न करें...”

“सत्य कहूं, तो उस अरण्य में आयोजित वसंतोत्सव में आपका सबसे अलग, ऐसा रूप, युवावस्था में पदार्पण करते समय मन में आने वाले सुन्दर, कोमल और वांछित शब्द उसमें नहीं थे. इसीलिये आप याद रह गए. और न जाने क्यों, हमारे भी मन में आप रह गए.”

“मैं क्या कहूं, महाराज! जीवन की विसंगति कब सुसंगति में परिवर्तित हो जाए और जीवन को एक अर्थ प्राप्त हो जाए, ऐसा...”

“मान्य है, कवि महाशय. हमें सर्वप्रथम आपके जीवन में ‘अर्थ को स्थान देना होगा. आप यहीं, इसी नगरी में वास करें. नई-नई काव्य रचनाएं करके हमें आनंदित करें. ‘अर्थ की चिंता हम करेंगे, आप हमें शब्दों के अर्थ बताएँ.”

“ क्या आपको काव्य प्रिय है?    

यदि जीवन में काव्य न हो, मन में काव्य न हो, और समाज तथा राष्ट्र में काव्य न हो तो सभी कुछ नीरस होने की आशंका है. प्रकृति में काव्य है. सृष्टी की प्रत्येक ऋतू में काव्य है.”

“महाराज, आप...”

“हम सिर्फ जानते हैं. सुनने में प्रिय लगता है. आपसे कहता हूँ, कवि महाशय, धर्म में विसंगति, समाज व्यवस्था में विसंगति, कर्म में विसंगति, वर्णाश्रम में विसंगति, विचारों में विसंगति, मन का संभ्रमित होना, यह भी विसंगति ही है. इस विसंगति में सुसंगत अर्थ को समझना, क्या यह काव्य नहीं है?

कालिदास आश्चर्यचकित हो गया. सिर्फ जीवन की ही नहीं, समाज की विसंगति भी काव्य का विषय हो सकती है, यह उसकी कल्पना से परे था. उसने कुछ नहीं कहा.

“कल आपके निवास स्थान की व्यवस्था हो जायेगी. आज आप अतिथिगृह में निवास करें, और राजसभा में अपना सम्मान का स्थान ग्रहण करें.”

सम्राट चन्द्रगुप्त को वंदन करके जब वह सेवक के साथ अतिथिकक्ष में आया, तब संध्याकालीन छायाएं राजप्रासाद से लगे उद्यान में कुछ देर को ठहर गई थीं. और उसे याद आई यहाँ तक की यात्रा.  

नौका में बैठें और सागर की लहरें तथा वायु की लहरें जिस दिशा में ले जाएँ, उसी दिशा में जाना – ऐसा ही रहा है मेरे भी जीवन का प्रवाह. कोई शिशु हाथों में गीली मिट्टी ले, उसे मनचाहा आकार दे और फिर उसे मिटा दे, वैसा ही मैं नियति के हाथों का खिलौना बन गया हूँ. मन जैसा चाहे, जब चाहे, जहाँ चाहे वहीं जाऊँ ऐसा कुछ भी नहीं है मेरे हाथ में. मन के क्षितिज संकीर्ण करके, उड़ते पंखों को कोई पकड़ के रखे, ऐसा ही हुआ है बार-बार मेरे साथ. मन में कहाँ थी विवाह की इच्छा? कहाँ था आश्रम में जाने का विचार? कहाँ थी प्रवास करने की इच्छा? कहाँ थी इस राजसभा में आने की इच्छा? और सम्राट चन्द्रगुप्त द्वारा मुझे सहज स्वीकार कर लेना?

मन में उठे प्रश्न का उसीने उत्तर दिया:

‘परन्तु देखो, मातृगुप्त, मन में यदि किसी भी प्रकार के विकल्प उठ रहे हों तो पहले उन्हें दूर करो. पहले करो समाज जीवन का अध्ययन. हर परिवार की जाँच करो और ढूंढो ऐसा मनुष्य जो पूर्णतः सुखी हो. सुख एक साथ नहीं आते, दुःख एक साथ आते हैं.’

उस दिन के नौका वाले प्रसंग का स्मरण हो आया.

वेत्रवती के किनारे पर अनेक नौकाएं खडी थीं. हाल ही में यातायात में काफी वृद्धि हो गई थी. ‘सरस्वती आश्रम’ अब काफी प्रतिष्ठित हो गया था. एक नौका में तीन यात्री बैठे थे, वह भी उन्हीके साथ बैठ गया. उसका विश्वास था कि यह नौका राजा भोज की नगरी, विदिशा को ही जा रही है. परन्तु वेत्रवती के प्रवाह में आने पर नौका अत्यंत वेग से किसी और ही दिशा में जाने लगी, तो उसने नाविक से पूछा; परन्तु उसने स्पष्ट शब्दों में कहा, “नौका साँची जा रही है, यह मैंने चार बार कहा था. आपने सुना नहीं, महाशय और अब प्रवाह के विरुद्ध नौका ले जाना असंभव है. आप ऐसा करें कि थोड़ी ही दूर पर एक बस्ती है, वहाँ उतर जाइए, और वापस जाने वाली नौका में बैठकर विदिशा जाएँ. आपको कष्ट हो ऐसा मेरा हेतु नहीं है, परन्तु वायु की दिशा को देखते हुए यह कठिन है, मगर मैं प्रयत्न करूंगा...”

“रहने दो, नाविक मैं आगे उतर जाऊंगा. अपराध मेरा ही था, जो मैंने सुना नहीं.”

नौका में बैठे यात्रियों में से एक ने कहा, “ महाशय, हम अपने मन में कोई मार्ग निश्चित करके चलते हैं. परन्तु वास्तविकता का हमें भान नहीं होता, तब प्रत्यक्ष घटित होने वाली घटनाओं का इसी प्रकार सामना करना पड़ता है.”

कालिदास के सामने कोई पर्याय न था. नौका की ध्वजा भी वायु के वेग एवँ दिशा को दर्शा रही थी. कालिदास ने पहली बार उन तीनों पर दृष्टी डाली. उनमें से एक भिक्खु था, यह उसके वेश से ही स्पष्ट था. दूसरे प्रौढ़ सज्जन ब्राह्मण थे, यह उनकी शिखा से स्पष्ट था. तीसरे के बारे में समझ में नहीं आ रहा था. वह अस्वस्थ मन से बैठा रहा. प्रौढ़ ब्राह्मण को यह बात समझ में आ गई.

“शांत हो जाइए, महाशय, जो जो हमारे सम्मुख आता है, उसका शांत मन से स्वीकार करें. यदि आपने साँची नगरी देखी न हो, और आपके पास समय हो, तो आप भी हमारे साथ चलिए.”

कालिदास मौन था. मन में विचार आया, देवी सरस्वती ने कहा था, “शांत मन से विचार करो, और तब विदिशा जाओ.” मेरे मन में विद्योत्तमा के सामने स्वयँ को सिद्ध करने की अतीव इच्छा थी. एक तरह से अच्छा ही हुआ.

मन का कोई भरोसा ही नहीं. पल में यहाँ तो पल में वहाँ जाता है. मन को कभी इसकी, तो कभी उसकी आस होती है. और जो प्रत्यक्ष में सामने आता है, मन उसे स्वीकारना नहीं चाहता. जैसे उपवन में अनेक कलिकाएँ एक साथ खिलती हैं, उसी तरह मन में कभी सारी ऋतुएँ एकत्रित आकर मन को संभ्रमित करती हैं. वास्तव में तो मन पुलकित था. मन के बारे में कुछ नहीं कह सकते. परन्तु इस क्षण मन ने साँची जाने का निर्णय ले लिया. सोचा तो था कि जहाँ नौका रुकेगी वहीं से वापस लौट आऊँगा. परन्तु नौका में बैठे केशवानंद ने पूछा, “वत्स, तुम्हारा कुल-गोत्र क्या है?

“महाराज, अपना कुलवृत्तांत सुनाऊँ, ऐसा प्रतिष्ठित वेदशास्त्रसंपन्न मेरा कुल नहीं है, राजवंश भी नहीं है. मैं सरस्वती पुत्र हूँ, नाम है – कालिदास. परन्तु शिवशंकर का परम भक्त हूँ. गोत्र, वंश, वर्ण – इसका वर्णन करने की अपेक्षा कर्म और सत्कर्म से वह प्रतिष्ठित हो, यह मुझे अधिक उचित प्रतीत होता है.”

“वत्स, मैंने सहज ही पूछ लिया. मेरी कन्या उपवर नहीं है. नौका में हम सह प्रवासी हैं. प्रवास आनंदमय हो, इसलिए परस्पर परिचय. मैं केशवानंद, साम्प्रत उज्जयिनी से कुछ योजन दूर एकांत प्रदेश में स्थित गुरुकुल का कुलपति हूँ. गुरुकुल में सहस्त्र विद्यार्थी हैं.”

“सहस्त्र विद्यार्थी?” कालिदास ने आश्चर्य से पूछा.

“उज्जयिनी सम्राट चन्द्रगुप्त की नगरी है. अनेक भूभागों पर उनका अधिराज्य है, इसलिए अनेक प्रभागों से विद्यार्थी आते रहते हैं. कालिदास, यदि तुम्हारी इच्छा हो, और तुम कहीं कार्यरत न हो तो अवश्य आओ. स्वागत है तुम्हारा. साँची में एक धर्मं परिषद् है उसी परिषद् के लिए मैं जा रहा हूँ.”

इतनी देर स्तब्ध बैठा भिक्खु आनंद बोला, “मैं भी अपना परिचय देता हूँ. मैं मगध निवासी हूँ. साँची में आयोजित धर्म परिषद् में मैं भी जा रहा हूँ. शायद हम दोनों उसी परिषद् में जा रहे हैं.”

“और मैं शूद्रक, मगध निवासी. नाविक, यदि तुम खाली हो, तो तुम भी दर्शनों के लिए साँची आ सकते हो.”

“अनेक बार यात्रियों को लेकर साँची गया हूँ, परन्तु ऐसा आज तक किसीने नहीं कहा. मैं भी आप लोगों के साथ आऊँगा.” बोलते-बोलते वह अनायास ही खडा हो गया. नौका डगमगाई, परन्तु वह बैठकर नौका को फिर से वेत्रवती के प्रवाह में ले आया.

“भटकी हुई नौका को तू कितनी सहजता से मार्ग पर ले आया!” कालिदास ने कहा.

“नाविक हूँ मैं. यही तो मेरे उदर भरण का साधन. इतना तो मुझे आना ही चाहिए ना. प्रयत्न - अपना. कभी कभी प्रयत्न भी घात कर जाते हैं. इतना अधिक घात कि नैराश्य छा जाता है. तब निश्चित करता हूँ, कि नहीं करूंगा नौकानयन. पर दूसरे ही पल मन में विचार आता है कि ऐसे पग-पग पर मन पराजित होता रहा, तो फिर जियेंगे कैसे? और अगर जीना है, तो बार-बार उठकर प्रयत्न करना ही होगा.”

“मतलब, तुम कहना क्या चाहते हो?

“नौका चलाना ही मेरे उदर भरण का व्यवसाय है. अगर मन में उसका भय हो, तो जीना कठिन ना हो जाएगा? यह वेत्रवती कभी शांत होती है – निद्रित व्यक्ति जैसी, कभी नृत्यांगना के समान अपनी लहरों से नृत्य करती है, कभी अमर्याद होकर अधीरता से भागने लगती है. तब नौका चलाना कठिन हो जाता है. उस समय अपनी चिंता छोड़कर यात्री सुरक्षित अपने घर पहुँच जाएँ, यही चिंता सताती है.”

“तुम्हें नहीं सताती अपने घर की चिंता?

“उस चिंता को ईश्वर पर छोड़ दिया है. मैं सिर्फ जो कार्य करता हूँ, उसीका विचार करता हूँ.”

कालिदास को नाविक का विचार अच्छा लगा. कितनी सहजता से वह सब कुछ बता रहा था! अपनी चिंता की अपेक्षा उसे अन्य लोगों की सुरक्षा की चिंता थी. कालिदास विचार कर रहा था. बचपन में गोपालक होने के कारण अरण्य के संपर्क में रहा. विवाह के कुछ दिनों को छोड़कर आश्रम में रहा. जनजीवन का अनुभव तो शून्य ही रहा. मगर अब जनजीवन, समाजमन के अनुभवों को जानना ही होगा. एक प्रकार से साँची जाने के निर्णय को योग्य ही कहना होगा. मगर मेरे पास न तो धन है, ना ही वस्त्र. इस नाविक को देने के लिए द्रव्य भी नहीं है.

“क्षमा करो मुझे. मुझे आप इसी क्षण भी उतार दें तो उचित होगा?”

कालिदास नौका में उठकर खडा हो गया. नौका डगमगा गई.

“क्या हुआ, वत्स?” केशवदास ने पूछा.

“मुझे क्षमा करें. मेरे पास न तो वस्त्र हैं न ही द्रव्य. मैं सीधा आश्रम से आया और बिना कुछ सोचे समझे नौका में बैठ गया.”

“अब क्या इस प्रवाह में आपको छोड़कर पातक करूँ?

“संकोच न करो. मैं हूँ.”

उस ‘मैं हूँ का आधार शब्दातीत था. ऐसा आधार जीवन में विश्वास उत्पन्न करता है. उसने कुछ कहा नहीं परन्तु केशवदास उसके नेत्रों के भाव जान गए. उसके कंधे पर हाथ रखकर वे बोले, “मैं वापस लौटते समय तुम्हें उज्जयिनी तक ले आऊँगा. चिंता न करो, तुम्हें वापस लौटने की जल्दी तो नहीं है?

“नहीं, आश्रम से विद्यार्जन करके...”

“विद्यार्जन करके?” केशवानंद से आश्चर्य से पूछा.

“इसका अर्थ तुम श्रीकृष्ण हो?

“समझ में नहीं आया आपका अभिप्राय.”

“वत्स, गोपालक कृष्ण वास्तव में क्षत्रिय था. परन्तु बन गया गोपालक, और उसने कंस वध के उपरांत संदीपनी के आश्रम में जाकर ज्ञानार्जन किया. परन्तु वह श्रेष्ठतम हुआ, क्योंकि उसने बाल जीवन में ही मानवी संवेदना, भावना, जीवन  और व्यवहार का ज्ञान सहज ही प्राप्त किया था. व्रतबंध के पश्चात ज्ञानार्जन के लिए गुरुकुल में जाने की प्रथा है, और ज्ञानार्जन के पश्चात गुरुवर्य कहते हैं कि एक बार समाज दर्शन कर लो. श्रीकृष्ण ने प्रथम समाज दर्शन किया. दुष्ट प्रवृत्तियों का दर्शन, भक्ति, स्नेह और प्रीती के दर्शन किये, समाज की समस्याओं को देखा. अरण्य से स्नेह किया. कालिया मर्दन करते हुए स्वयँ-बुद्धि, और चातुर्य से उसका विनाश किया. तो, वत्स, तुम भी पहले इसी तरह ज्ञान संपन्न हुए फिर शास्त्रज्ञान के दर्शन किये.”

कालिदास का मन भर आया. उसे समझने वाला कोई व्यक्ति मिला था, उसे प्रसन्नता हुई.

“मैं सामान्य हूँ, ब्रह्मश्रेष्ठ. श्रीकृष्ण असामान्य हैं.”

“सामान्य लोगों में से अखण्ड कर्म करने वाला वह कर्मयोगी है. सामान्य से असामान्य होने के लिए प्रथम उसने आत्म परीक्षण और समाज निरीक्षण किया. वह क्षत्रिय था, तुम ब्राह्मण हो. मनोवृत्ति भिन्न हो सकती है, परन्तु जीवन को सफल बनाने के लिए जो परिश्रम किये जाते हैं, वे समान होते हैं.”

अब तक मौन बैठकर यह संभाषण सुनने वाले भिक्खु आनंद बोले, “परन्तु सभी देवता प्रथम स्वयँ का और पश्चात राज्य का उदात्तीकरण करते रहे. मगर सिद्धार्थ गौतम बुद्ध ने लोक जीवन सुखी हो, इसलिए राजत्याग, पत्नी-पुत्र त्याग किया और वे बाहर निकल पड़े. लोक जीवन में शान्ति, अहिंसा, बंधुत्व, स्नेह प्रस्थापित करने के लिए वे भिक्षार्थी भी बने. श्रीकृष्ण भी क्षत्रिय और गौतम बुद्ध भी क्षत्रिय...”

“महाशय... मैं दृष्टांत देने के किये श्रीकृष्ण की कथा नहीं सुना रहा था, बल्कि इस युवक को समाज ज्ञान तथा शास्त्रज्ञान भी प्राप्त हुआ, यह कहने के लिए ही मैंने श्रीकृष्ण का दृष्टान्त दिया.

और, महाराज, आज भरतखंड में बौद्ध-धर्म की ध्वजा लहरा रही है, इसीलिये तो हम सम्राट अशोक के काल में उसीके द्वारा निर्मित साँची का स्तूप देखने जा रहे हैं ना?

कालिदास संभ्रमित हो गया. ब्रह्मश्रेष्ठ केशवदास को बौद्ध-धर्म इतना अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत हो, इसका उसे आश्चर्य हुआ. उसे संभ्रमित देखकर शूद्रक बोला:

“धर्म चाहे कोई भी हो, नेता कोई भी हो, राज्यशासन कोई भी हो, सर्वसामान्य जनों को इनसे भी अधिक चिंताएँ होती हैं. साधारण-सी इच्छाएँ भी पूरी नहीं हो पातीं, उस समय आपके साथ कौन होता है? हम अकेले ही होते हैं ना? हम ही बार-बार गिरकर उठते हैं ना? धर्म और अन्य शास्त्र आते हैं क्षुधा-शान्ति के बाद. मैंने काफी कड़वी बात कह दी, क्षमा चाहता हूँ. परन्तु पिछले वर्ष भयानक बाढ़ में सारा गाँव उद्ध्वस्त हो गया, सारे धर्म एकत्रित आ गए. दुःख का वह एक ही धर्म था.”

भिक्खु आनंद और केशवानंद मौन हो गए. शूद्रक ही बोलता रहा.

“नाविक अपनी जीवन कथा सुना रहा था. जीवन में नित्य वेदनाओं से, समस्याओं से संघर्ष करने वालों का वास्तव में क्षत्रिय धर्म होता है. और नित्य जीवन में शास्त्र भी उपयोगी नहीं होता. वहाँ आवश्यकता होती है अनुभव की. जो उस नाविक के पास है. इतना ही नहीं, नित्य अनेक ज्ञानी, अज्ञानी यात्रियों को लेकर जाने वाला वह सर्वज्ञानी हो गया है.”

शूद्रक के सामने कोई कुछ न बोल सका. कालिदास ने उससे पूछा, “मित्र, तुम जो कार्य करते हो, और जो कुछ भी करते हो, वह ईमानदारी से करते हो, यह तुम्हारे कथन से स्पष्ट हो गया है.”

“शायद आप मुझे वेत्रवती में फेंक देंगे. जाने दीजिये.”

हरेक के मन में अनेक विचार कौंध गए. मगर केशावानन्द ने कहा, “ शूद्रक, तू कोइ भी हो, इससे फरक नहीं पड़ता. क्योकि प्राप्त परिस्थिति में हम सब सह प्रवासी हैं. कुछ ऐसा करें कि अपनी साँची तक की यात्रा स्मरणीय रहे. चलो, हम चारों एक-एक ऐसा अनुभव सुनाएं जो जीवन में कभी भूल न पाए हों, मान्य है, शूद्रक?

“मान्य है, महाशय. क्योंकि मन की व्यथा कहीं भी कही नहीं जा सकती. यह अवसर उत्तम है. हम फिर कभी मिलें या न मिलें. यह यात्रा हमेशा याद रहेगी.”

“सर्वप्रथम मैं कहता हूँ,” भिक्खु आनंद ने कहा. सभी सुनने के लिए उत्सुक थे.

“सोमेश्वर शास्त्री, यह सत्य नाम नहीं, उनके घर में महायज्ञ होने वाला था. मुझे समिधा लाने का काम दिया गया. मैं अरण्य में गया और एक वृक्ष के नीचे गहरी निद्रा में सो गया. नूपुर ध्वनी से मेरी आंख खुली, तो सत्य कहता हूँ, मेरे सामने साक्षात् एक वनकन्या खडी थी. समय और स्थल का विस्मरण हो गया और जब जागृत हुआ, तो सात दिन बीत चुके थे. वह स्वप्न सुन्दरी वहाँ आई कैसे और उसने मुझे कैसे मोहित किया, यह विचार आज भी मन को अस्वस्थ कर जाता है.”

भिक्खु आनंद कुछ देर रुके.

“कथा यहीं समाप्त होती है. जीवन के अंत तक वह मेरे साथ व्यथा बनकर रहेगी. अब सोमेश्वर शास्त्री के यहाँ जाने में कोइ अर्थ ही नहीं था. मैं अपने घर वापस आया, तो पत्नी ने कहा, “धन धान्य लेने के लिए गए हुए तुम अब वापस आ रहे हो? यदि सोमेश्वर शास्त्री ने धन धान्य न भेजा होता तो                    बच्चों की मृत्यु हो गई होती. कैसे पिता और कैसे पति हो तुम? शर्म आती है तुम्हारी! और थे कहाँ सात दिन?” मैं क्या कहता उससे...?

मैं घर से निकल गया. मार्ग में अनेक भिक्खु मिले. उनके साथ भ्रमण करते हुए मुझे बौद्ध धर्म अच्छा लगा. मैं फिर घर वापस आया. पत्नी ने कहा, “धर्मं परिवर्तन से भूख नहीं मिटती. मुझे नहीं है प्रिय यह धर्मं परिवर्तन.” ना मैं वैदिक धर्म का, ना ही बौद्ध धर्म का. आखिर एक दिन मैंने अपना घर छोड़ दिया और भ्रमण कर रहा हूँ. बौद्धविहार में मेरा आदर है, परन्तु मैं...मैं...ऐसा हूँ.”  

कोई भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं था. औरों को न्याय देनेवाले, शास्त्रार्थ करने वाले केशवानंद मौन हो गए. पत्नी का कहना गलत नहीं था. परिस्थितिवश भिक्खु आनंद भी सही था. और मन की पीड़ा व्यक्त नहीं की जा सकती थी. कोई भी उस पर विश्वास न करता.

“अब मैं कहता हूँ,” शूद्रक ने कहा.

“मेरी नई-नई शादी हुई थी. नवपरिणीता अपने नाम मधुरा जैसी मधुरभाषिणी नहीं थी, परन्तु अद्वितीय सुन्दरी थी, मतलब, आज भी है. मेरी माता अपनी बीमारी से परेशान थी. उसके लिए वैद्य लाना ज़रूरी था, उसके खान-पान की ओर ध्यान देना आवश्यक था. उसे एक कमरे में रखकर मैं आलीशान घर में रहता था. मधुरा उसे कटु शब्दों से विद्ध करती थी. यह सब मैं देखता था. यह सब असह्य होने पर भी मैं मधुरा को एक भी शब्द नहीं कहता था.

एक रात माता का ज्वर बहुत बढ़ गया. वह मुझे हेमगर्भ की मात्रा देने को कह रही थी, परन्तु मधुरा मुझे अपने कक्ष में ले गई. पूरी रात मैं उसके साथ, उसकी मोहिनी के वश था. जब मेरी नींद खुली तो सुबह का सूर्य काफी प्रखर हो चुका था. मैं माँ के कक्ष में था.

माँ इस दुनिया में ही नहीं थी, मेरा मौन रुदन...मैं किसी से कुछ कह नहीं सकता था, मधुरा भी कभी समझने वाली नहीं थी. ऐसा कोई भी नहीं था, जिससे मन की वेदना बाँट सकूँ. तब मैं भ्रमण करने निकल गया. मुझे हर चीज़ में दोष नज़र आने लगे : धर्म में, राजशासन में, राजा में. मेरा मन ही अब मेरा बैरी हो गया था.”

शूद्रक खामोश हो गया. किसी ने भी कुछ नहीं कहा. दोष तो प्रत्यक्ष रूप से शूद्रक का ही था. विकारवश होने का, संयमहीन होने का दोष. वह अपने कर्तव्य का भान खो बैठा था. उसकी यही सज़ा थी कि जीवन भर व्यथित रहे.

अब ब्रह्मश्रेष्ठ, प्रौढ़, प्रगल्भ और सात्विक देखने वाले केशवानंद बोलने वाले थे. तीनों उन्हीं की ओर देख रहे थे. उनके जीवन में भी कोई लज्जास्पद घटना घटित हो चुकी है, यह उनके चहरे से स्पष्ट था. तब नाविक ने कहा, “अब मैं सुनाता हूँ अपनी कथा.”                     

नौका अब वेत्रवती के शांत प्रतीत हो रहे जल पर हौले-हौले जा रही थी. नाविक ने चप्पू हाथ में लेकर नौका में रख दिए और बोला, “शांत जल किसी धीर-गंभीर व्यक्तित्व की तरह होता है. यह जल स्थिर इसलिए है कि यहाँ वह खूब गहरा है. यदि कोई मनुष्य इसमें गिर जाए, तो वह बहता नहीं है, अपितु अधिकाधिक गहरे पैंठता जाता है, फिर ऊपर नहीं आता.

ऐसा ही एक अनुभव है मेरा, गहरे-गहरे डूब गई मृत घटना को सजीव करने का.

मैं ब्राह्मण पुत्र. सदाचारी, सुसंस्कृत वंश में मेरा जन्म हुआ. परन्तु माता की बचपन में ही मृत्यु हो गई, और मेरे लिए कोई बंधन ही नहीं बचा. पिता विद्वान थे, शास्त्राभ्यास, प्रतिष्ठा और प्रसिदधि में मगन रहते. मेरी ओर किसी का भी ध्यान नहीं था. विद्याभ्यास पर मेरा ध्यान नहीं था, इसलिए जब पिता ने मुझे एक ब्राह्मण परिवार को सहकार्य करने हेतु सौंपते हुए कहा, कि मैं उनका कोई नहीं हूँ, तो मन इतना अधिक क्रोध से भर गया कि, किसी तरह मन को रोकते हुए एक गाँव में चला गया. वहाँ एक किसान के घर रहा. आगे चलकर विवाह हुआ. मेरे मन में पिता के प्रति प्रतिशोध की भावना इतनी प्रबल थी कि एक दिन अत्यंत क्रोधित होकर मैंने उनकी मिट्टी की एक प्रतिमा बनाई और उसका दहन कर दिया. इतना ही नहीं, मैंने काशी जाकर उनका श्राद्ध भी कर दिया. श्राद्ध करके जब वापस आ रहा था, तो मैंने उन्हें किसी का आधार लेकर नौका में प्रवेश करते हुए देखा और मेरा मन भर आया. जिनका श्राद्ध किया था, वह, मेरा पिता अत्यंत अगतिक, असहाय अवस्था में था. मेरी सौतेली माँ की अस्थियों के विसर्जन के लिए वे आये थे. पल भर को लगा, कि जाकर उनसे मिलूँ, बात करूँ, क्षमा मांगू. उन्होंने मुझे जिस उद्देश्य से ब्राह्मण को सौंपा वह शायद मुझे सुसंस्कृत बनाने के लिए था. यदि कहते, कि मैं उनका पुत्र हूँ, तब शायद मझे सम्मान से रखा जाता, और मैं कुछ सीख न पाता....यह भी मैं अब समझ रहा था.

मगर सब कुछ समाप्त हो गया था. अविचार, अज्ञान और निष्ठा के अभाव के कारण यह अपराध हुआ था. इसके बाद मैं नाविक बन गया. कोई ऐसा असहाय पिता दिखाई दे, तो मैं उसकी सहायता करूँ, इस उद्देश्य से. अपनी स्नेहल, सुशील पत्नी को मैंने यह व्यथा कभी नहीं सुनाई.”

कुछ देर किसी ने भी कुछ नहीं कहा. दोपहर ढलने लगी थी. आसपास के अरण्य से आ रहे ठंडी हवा के सुखद झोंके और चमचमाती धूप यात्रा को सुखमय बना रहे थे. और हर कोई अपनी जीवन कथा सुनाकर मुक्तता का अनुभव कर रहा था. अब बचे थे सिर्फ दो – केशवानंद और कालिदास.

केशवानंद ने अकस्मात् कहा, “मैंने चौर्यकर्म किया है. वह भी विद्याभ्यास चुराया है. वह भी परिपक्व आयु में. कुछ ही वर्ष पूर्व एक शास्त्रार्थ का आयोजन किया गया था. मैं कुछ संहिताएँ और उनकी मीमांसा लेकर द्वारका धाम को निकला था. मेरे साथ रामशास्त्री यात्रा कर रहे थे. उनसे बातें करते समय अनुभव हुआ कि उनके प्रकांड पांडित्य के आगे मेरा टिकना असंभव है.

उन्होंने शास्त्र वचनों का, वेदों की टीका का, उपनिषदों की टीका का इतना विस्तृत अध्ययन किया था कि मैं भयभीत हो गया. मुझे शास्त्रार्थ में कोई भी पराजित नहीं कर सकता, ऐसा आज तक मेरा लौकिक था. परन्तु अब यह स्पष्ट था कि मैं पराजित हो जाऊंगा.

एक दिन ऐसे ही नौका प्रवास करके द्वारका पहुँचने से पूर्व मैंने उनके सारे हस्तलिखित चोरी करके समुद्र में विसर्जित कर दिए, अर्थात द्वारका में आयोजित शास्त्रार्थ में मेरी विजय हुई. परन्तु मन ही मन मैं लज्जित था. उसके बाद मैंने कभी भी किसी शास्त्रार्थ में भाग नहीं लिया. एक ज्ञानयोद्धाने ऐसी शरणागति ग्रहण की, जिसके बारे में कभी भी, किसी को भी बताया नहीं जा सकता. इसकी अपेक्षा यदि पराजित हो जाता, तो भी अभिमान से विचरता रहता.

आखिरकार मैंने वह नगरी छोड़ दी और उज्जयिनी के निकट रहने लगा. मैंने एक  गुरुकुल आरम्भ किया. उसमें पहला वाक्य मैंने कहा, “जीवन में कैसी भी विकट परिस्थिति, आये, फिर भी, फिर भी कभी चौर्य कर्म नहीं करना चाहिए. इससे अधिक लज्जास्पद कोई अन्य घटना हो ही नहीं सकती.”

एक बार फिर सब मौन हो गए. संध्या अपने-अपने घरों को लौटते हुए पक्षियों के नाद से गूँज रही थी. वह अपनी सखी, यमुना से मिलने के लिए आतुर थी. साँची नगरी दिखाई देने लगी थी.

कालिदास को अब बोलना था. परन्तु सत्य कहना संभव न था, और असत्य मन को अच्छा नहीं लग रहा था. शूद्रक उसकी मनोदशा को समझ गया. उसके मुख पर चिंता के भाव देखकर वह बोला, “पंडित जी, मेरे मन में कुछ प्रश्न हैं. क्या मैं पूछ सकता हूँ?

“अवश्य पूछो, शूद्रक.”

“ सीता भूमि कन्या थी, वह जनक कन्या  के रूप में प्रसिद्ध हुईं. बचपन में उसने परशुराम को शिव शंकर द्वारा दिया गया धनुष्य सहजता से उठा लिया था. राजकन्या होने के कारण वह अस्त्रशस्त्र निपुण और शास्त्र निपुण भी थी. उसने भिक्षा के उद्देश्य से आये हुए रावण का वध क्यों नहीं किया? क्या, उसके हाथों में धनुष्य-बाण नहीं था इसलिए?

वह पतिव्रता थी, इसलिए अशोक वन में रावण उसे स्पर्श भी नहीं कर सकता था. मगर यदि उसी पतिव्रता ने हनुमान के साथ लंका पार कर ली होती तो? क्या श्रीराम का उस पर विश्वास नहीं था, या हनुमान पर विश्वास नहीं था? पुत्र के साथ माता चली आतीं, ऐसा उसने क्यों नहीं सोचा?

पातिव्रत्य सिद्ध करने के लिए उसे क्यों अग्नि परिक्षा देनी पडी? श्रीराम भी अरण्य में अकेले ही थे ना, उन्हें पत्नी के प्रति निष्ठा सिद्ध करने के लिए अग्नि परिक्षा क्यों नहीं?

और एक प्रश्न...चौदह वर्ष ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले श्रीराम का एक नागरिक के कहने पर गर्भवती सीता का त्याग करना क्या उचित था? महाशय, श्रीराम एक आदर्श राजा थे. यदि उसके लिए वे नगर के बाहर, अथवा नगर के ही किसी प्रभाग में एक संरक्षित कुटी की व्यवस्था कर देते तो? क्या उन्होंने ऐसा नहीं सोचा कि एक आदर्श राजा के साथ ही एक आदर्श पति भी होना चाहिए?

न सिर्फ केशवदास, अपितु अन्य लोग भी विचार करने लगे. इन प्रश्नों के उत्तर देना उनके लिए असंभव था.

कालिदास मन में सोच रहा था, एक सबल राजनीति एवँ अस्त्र-शास्त्रों में पारंगत राजकन्या इतनी प्रभावहीन कैसे हो सकती है?

और, विद्योत्तमा, तेजस्विनी , उसने पल भर में मुझे सीमा पार जाने का दंड दे  दिया. कहीं यह काल-परिवर्तन का महिमा तो नहीं? वह विचार कर रहा था. प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने तरीके से विचार कर रहा था, कि सीता के सन्दर्भ में क्या कहे?

संध्या अब वेत्रवती के प्रवाह में उतर आई थी. नौका अब साँची के किनारे की और मुड रही थी.

 

 

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