शालिवाहन
संवत्सर से पूर्व आचार्य चाणक्य, जो प्रकांड पंडित होने के साथ ही रणनीति, राजनीति, कूटनीति, व्याकरण, ज्योतिष, आयुर्वेद के ज्ञाता थे, सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की राजसभा में मंत्री थे. उन्होंने समाज एवँ
राष्ट्र को वैभवशाली बनाने के लिए ‘कौटिलीय अर्थशास्त्र’ की रचना की. उनकी कूटनीति तथा नीतिसूत्र अजरामर हैं.
उदयशंकर भट्ट एवँ सुदेव भट्ट – ये दो विद्वान काशी से देवी सरस्वती के निमंत्रण पर
आये थे और आश्रम में वास्तव्य कर रहे थे. वे आश्रम के विद्यार्थियों का राजनीति के
सन्दर्भ में मार्गदर्शन कर रहे थे.
कालिदास को
राजनीति में विशेष रूचि नहीं थी. परन्तु उदयशंकर भट्ट की स्पष्ट और सुमधुर वाणी, विषय का गहरा ज्ञान, और उदाहरण देते हुए शांत, संयत आवाज़ में कथन करने का तरीका कालिदास को बहुत अच्छा
लगा था.
पिछले आठ
दिनों से चन्द्रगुप्त मौर्य को धनानन्द का राज्य देकर राज्य प्रतिष्ठित करने वाले
आचार्य चाणक्य के प्रति उदयशंकर भट्ट उत्साह पूर्वक बोल रहे थे. और कालिदास के
नेत्रों के सामने साकार हो गया था अपमान से व्यथित होकर संकल्पसिद्धि के लिए
वचनबद्ध होने वाले आचार्य चाणक्य का रूप, अपनी शिखा को संकल्प
पूर्ती तक मुक्त रखने की प्रतिज्ञा करने वाले आचार्य चाणक्य का रूप, जो प्रकाण्ड पंडित, वेदांती और समाज संघटक थे, कूटनीतिज्ञ थे, दूरगामी विचार करने वाले और संपूर्ण आर्यावर्त का विचार
करने वाले राष्ट्रभक्त थे. अनेक तेजस्वी किरण शलाकाओं के स्त्रोत
सूर्य थे आचार्य चाणक्य. कालिदास के मन में आया कि उनके ऊपर एक महानाट्य लिखना
चाहिए.
उसे याद आया कि चार मास पूर्व
नाट्याचार्य कृष्णदास आये थे. उन्होंने नाट्यशास्त्र के नवरंगों को प्रात्यक्षिकों
सहित प्रस्तुत किया था. वे नृत्य-नाट्य-आख्यान और कथा का नाट्यदर्शन प्रस्तुत करके
उनके मध्य सूक्ष्म भेदों को स्पष्ट करते थे. उन्होंने भरत मुनि का नाट्य शास्त्र
पढ़ाया था. तभी कालिदास को अपने जीवन में आया हुआ हर व्यक्ति नाट्य का पात्र ही
प्रतीत होने लगा था. शायद विधाता महामंच पर मेरे जीवन का नाटक लिख रहा है. और उसका
एक-एक प्रवेश चल रहा है. यह एक नई अनुभूति थी. मन कुछ कहने को
मचल रहा हो, कुछ
लिखने के लिए मन में व्यक्ति एवँ संवाद साकार हो जाएँ, ऐसा अनुभव
कालिदास को पहली बार हो रहा था. शब्द भीतर से प्रस्फुटित होना चाह रहे थे. उन
शब्दों के नूपुरों के झंकार थे. उसका मन अत्यंत प्रसन्न हो उठा. इसी समय उठकर
शब्दों को भोजपत्रों पर साकार करने की तीव्र इच्छा हुई. परन्तु गंगाप्रसाद भट्ट
उतने ही प्रभावशाली ढंग से ‘चाणक्य नीति’ समझा रहे थे. बीच में ही उठना उचित नहीं था. वे
कह रहे थे:
“आचार्य चाणक्य जितने प्रज्ञावंत, रणनीतिज्ञ, राजनीतिज्ञ, अर्थनीतिज्ञ
थे, उतने ही वे
जनसामान्यों के जीवन व्यवहार का सूक्ष्म अवलोकन करके उन्हें उचित जीवन रीति सिखाने
वाले व्यवहारनीतिज्ञ भी थे. अब यदि कुछ
उदाहरण देखें तो वे कहते हैं:
“मेघ के जल जितना शुद्ध जल कोई और
नहीं. आत्मबल जैसा साहस कोई और नहीं. नेत्र जैसी कोई अन्य ज्योति नहीं और अन्न
जैसा रसयुक्त कोई और पदार्थ नहीं. इसका मूल्य अनुभव करना, अर्थात् स्वयँ
को जागृत करना है.”
अब एक अन्य उदाहरण देखें, वे कहते
हैं : “सत्य के बल पर ही पृथ्वी का सतीत्व है. सत्य का प्रकाश सर्वत्र होता है.
सत्य की ही वायुलहरियाँ होती हैं. सब कुछ सत्य पर ही स्थिर है. कुल की रक्षा के
लिए एकाध व्यक्ति का त्याग करना पड़े तो भी कोई बात नहीं, देश की रक्षा
के लिए गृह और ग्राम त्याग करना पड़े तो भी कोई बात नहीं, परन्तु आत्मा
के विकास के लिए स्थिर रहकर कर्म करना महत्त्वपूर्ण है.”
गंगाप्रसाद बोल रहे थे, कालिदास अपने
आप में मग्न था.
“वत्स!” गंगाप्रसाद कालिदास से बोले:
“तुम आत्म मग्न थे. तुम्हें शायद
कौटिल्य अर्थात चाणक्य की अर्थनीति अच्छी नहीं लगी. परन्तु एक महत्वपूर्ण घटना
तुम्हें सुनाता हूँ, “
आचार्य चाणक्य दूरगामी अर्थात दूरदृष्टि वाले थे. उन्होंने अपना साहित्य अगले छः
सौ वर्षों तक अभेद्य रहे, सुरक्षित रहे, जनमानस में दृढ़ रहे, ऐसी व्यवस्था
की थी. उनकी यह नीति भी प्रशंसनीय है. वत्स, जो भी कार्य करो, वह
पूर्वनियोजित और भविष्य में भी दृढ़ रहे ऐसा करना चाहिए.”
कालिदास ने
विनम्रता से ‘हाँ’ कहा.
कालिदास सभी विद्यार्थियों में ज्येष्ठ था. युवा था. सुदृढ़ देहयष्टि और गौरवर्णीय, तेजस्वी, सुन्दर था. अनायास ही
सबका ध्यान उसकी और आकृष्ट हो जाता था. देखने वाले के मन में यह प्रश्न भी अनायास
ही उत्पन्न हो जाता कि यह अभी तक आश्रम में कैसे है? वैसा ही गंगाप्रसाद के मन में भी आया. उन्होंने उसकी और
ऐसी दृष्टी से देखा जैसे किसी उपवर युवक को देख रहे हों.
माध्याह्न
हो चुकी थी. सारे विद्यार्थी भोजन कक्ष की ओर चल पड़े. गंगाप्रसाद ने कालिदास को
रोकते हुए पूछा, “ वत्स, तुम्हारा कुल-गोत्र क्या है? किस कारण से तुम इतने विलम्ब से ज्ञानार्जन कर रहे हो?”
“क्षमा करें, गुरुदेव! मैं आपको कुछ भी बता नहीं पाऊंगा. आप कृपया
देवी सरस्वती से संपर्क करें.”
आश्रम में
आकर पाँच वर्ष हो गए थे. विविध प्रकार के ज्ञान से वह समृद्ध हो गया था. अब यहाँ
से प्रस्थान करने का समय आ गया था. कहाँ जाना है, यह निर्णय नहीं हो पा रहा था. संपूर्ण वेद, उपनिषद्, ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण संहिता और संगीत, नृत्य-नाट्य संहिता का पूरा अध्ययन हो चुका था. साथ ही
काव्य शास्त्र का अध्ययन करते हुए अनेक सूक्तों तथा रामायण और महाभारत जैसे काव्य
ग्रंथों का अध्ययन किया था.
मन के भीतर कुछ प्रस्फुटित हो रहा
था. मन अनजाने ही सुगन्धित हो रहा था, शब्द नादमय हो गए थे. नूपुर ध्वनि से ह्रदय
झंकृत हो रहा था. उसे बहुत कुछ चाहिए था. क्या करे, समझ में नहीं आ रहा था.
देवी सरस्वती उसकी मनोदशा को समझ गई.
वह अपने आप ही कोई संकेत दे, तो अच्छा होगा. वह कालिदास के बोलने की प्रतीक्षा कर
रही थी. हाल ही में उनके ध्यान में यह बात भी आई थी कि उमलती हुई कलिका मधुरिका
उसके आसपास मंडराती है. वह एक भी शब्द नहीं कहती, उसकी तरफ ध्यान आकर्षित हो ऐसा भी
कुछ नहीं करती,
परन्तु वह कालिदास के आसपास ही रहती है. जब से आत्ममग्न कालिदास की व्यथा काव्य के
माध्यम से प्रकट हुई थी, वह
उससे अनेक प्रश्न पूछना चाहती थीं, परन्तु वह उचित अवसर की प्रतीक्षा में थीं.
मधुरिका के लिए अब वर-संशोधन आरम्भ हो गया था. और यदि कालिदास ही उसे वर के रूप
में प्राप्त हो जाए तो यह प्रश्न समाप्त हो जाता. परन्तु उसने कुछ कहा नहीं था, और तुरंत कुछ
कहने वाली भी नहीं थी.
वर्षा ऋतू आरम्भ हो गई थी. आकाश
मेघाच्छादित था. वातावरण धुंधला हो रहा था. वृक्ष-लताएं वर्षा के लिए अधिक उत्सुक
थे. दूर कहीं सौदामिनी की लहर आकाश के अँधेरे को चीर देती थी.
कालिदास अपनी कुटी में अकेला था.
उसने हाथ में भोजपत्र लिया और लेखनी लेकर लिखना आरम्भ किया:
“हे कविता कामिनी, चारुगात्री, चारुचंचले, मनोहारिणी,
मेरे मन में तेरे नूपुरों का नाद है.
तुम्हारे अस्तित्व का ज्ञान है.
तुम्हारे केशकलाप में कमल पुष्प है.
उनकी गंध का अनुभव मैं कर रहा हूँ. मेघों के पीछे चन्द्रमा के समान अवगुंठन में
छुपे तुम्हारे मुख को देखने के लिए मैं आतुर हूँ. ,
हे कविता
कामिनी, लावण्यवती, अर्थवाहिनी, आशयघन
होकर आ जाओ. तुम्हारे सौन्दर्य को उपमा, अलंकार, उत्प्रेक्षा, यमक, वृत्त से
श्रृंगारित मैं देखना चाहता हूं.
हे सुहास्य
वदना, सुनेत्रा, सुमति काव्यकामिनी,
तुम आओ. तुममें मुझे मेरे जीवन का अर्थ ढूँढने दो. पिछले अनेक वर्षों से मैं एकाकी
वेदना सहन कर रहा हूँ. अपनी सांत्वना का मुझे आधार दो. मेरी वेदना शब्द रूप में
लावण्यमय रूप लेकर प्रस्फुटित होने दो. आओ, कविता कामिनी, आओ.’
लिखते-लिखते
उसके मन में वेदवती खडी हो गई. शास्त्रार्थ में वह पराजित हुई थी, फिर भी उसके मुख पर विजय की भावना थी. कालिदास की ओर देखते हुए वह बोली, “आर्य मातृगुप्त, पराजित होने में भी आनंद होता है.
प्रत्यक्ष रूप से मैं पराजित हुई हूँ, परन्तु मैंने ‘शर्त’ जीत ली है. अब मैं विजयी हूँ.”
उसके बाद वाग्निश्चय
विधि, उसका आसपास रहना, विवाह होने तक मिलना नहीं, ऐसा तय किया था, परन्तु फिर भी राजप्रासाद के उत्तर
में स्थित कुंजवन में वह उसकी प्रतीक्षा करती. वह भी अवश्य जाता, परन्तु मौन ही रहता, वह कहती:
“आर्य मातृगुप्त,
आप इतने मौन क्यों रहते हैं?”
“हम कभी
किसी स्त्री के संपर्क में नहीं आये हैं, इसलिए.”
:आप
विद्वान हैं. काव्य शास्त्र और कामशास्त्र का अध्ययन तो किया होगा?”
“नहीं, हमें उसमें रस नहीं था. और पशु-पक्षियों ने कभी कामशास्त्र का अध्ययन
किया होगा यह हमें ज्ञात नहीं.”
वह हंसती. दिल
खोलकर, प्रसन्न. और वर्त्तमान में प्रसन्न, हंसती हुई
मधुरिका.
उसके मन
में किसी भी स्त्री के प्रति कोई भावना नहीं थी. आश्रम में मधुरिका, जानकी, प्रज्ञा और पूर्णा – ये समान आयु की
कुमारिकाएं थीं. उनके बीच कालिदास की सुदृढ़ता के, सौन्दर्य के, मौन के, एकाकी रहने के बारे में वार्तालाप होता था. परन्तु कालिदास ने
अपने मन से स्त्री जाति को दूर कर दिया था.
वेदवती ने
उसे दिया हुआ आदेश, उसका सीमापार जाना, वेत्रवती में स्वयँ को समर्पित कर देना, और किसी
शिशु की तरह पुचकारते हुए किनारे पर रख दिया जाना, यह सब
उसके मन के सप्त पातालों के नीचे दबा था. जीवन का अर्थ समाप्त होने पर पुनरपि जीवन
दिया, तो क्या आश्रम में आने के लिए? जीवन
का प्रयोजन क्या है? यह प्रश्न उसे सताता रहता.
वेदवती की ‘शर्त’ भी अयोग्य नहीं थी. वह पति के रूप में अपने से अधिक ज्ञानी पुरुष चाहती
थी. आर्यावर्त के अनेक क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और ऋषिपुत्र भी परीक्षा देकर अनुत्तीर्ण हुए थे और लौट गए थे.
मातृगुप्त गोपालक था, वेदवती के चरणों की धूल जितना भी ज्ञान
उसे नहीं था. परन्तु कुमारसेन ने कहा, “मित्र, राष्ट्र के लिए, केवल राष्ट्र के हित के लिए वीर
पुरुष सहज ही स्वयँ को समर्पित कर देते हैं. वह वीर मृत्यु का वरण करते हैं, तुम भी केवल राजा भोज के सुख के लिए, उनकी
प्रसन्नता के लिए, प्रजाहित राजा भोज की शान्ति के लिए यह
महान कार्य करो. तुम्हें मृत्यु दंड कोई नहीं देगा. हुआ, तो कारावास का दंड होगा.
हम सब मिलकर तुम्हें मुक्त करेंगे. ये वचन है, मित्र.”
परन्तु
वेदवती ने मगर सीमापार किया था. और अपमानित होने के बाद हम विदिशा नगरी में वापस
जाने वाले थे ही नहीं. जीवन का प्रयोजन पल भर में समाप्त हो गया था. वैसे भी मेरे
जीवन का प्रयोजन था ही क्या? उसका मन भूतकाल में गया, उस समय भी क्या प्रयोजन था जीवन का?
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