विदिशा
नगरी के बाद अरण्य पार करते ही आता है एक गाँव – मंदसौर. इस मंदसौर को दस मार्ग
जाते हैं, इसलिए इसे दशपुर भी कहते थे. उस मंदसौर के समीप था मातृगुप्त का गाँव.
पहले कभी उसका अस्तित्व था अथवा नहीं, यह उसे ज्ञात नहीं था.
अरण्य के पश्चात समतल भूमि, सुजल, सुफल, समृद्ध. उस गाँव में मातृगुप्त अत्यंत प्रसन्न था. किसी बात की चिंता न
थी. एक ही भगिनी थी. विवाह के पश्चात वह भी उसी ग्राम में रहती थी. एक दिशा में
विदिशा, और दूसरी दिशा में सुदूर उज्जयिनी. कभी वह अपने
मित्रों के साथ मंदसौर गया था तो वहाँ के निवासियों ने विदिशा के बारे में अनेक
रम्य कथाएँ सुनाईं थीं. ‘मंदिरों की रम्य नगरी’ विदिशा को
देखने का मोह उसे बेचैन कर रहा था. मातृगुप्त के मित्र ने कहा:
“ मेरी
बहिन विदिशा में रहती है. उसकी ससुराल में हम अवश्य जायेंगे. दिल तो चाहता है कि
अश्वारूढ़ होकर जाएँ, परन्तु हम जैसे गोपालकों को अश्व कौन
देगा? और अश्व लेकर जायेंगे कहाँ?”
“तू कह रहा
है, मेरे भी मन में अश्वारूढ होकर अरण्य-अरण्य गति से दौड़ने का विचार आया.”
“आखिर तू
अरण्य में ही वापस आयेगा! मेरी बहिन बिन्दु कहती है कि सम्राट भोज का राजप्रासाद
अति भव्य है और वहाँ की राजकन्या अप्सरा से भी अधिक सुन्दर है. हमें उसके दर्शन
होने चाहिए.”
मित्र की
आतुरता देखकर मातृगुप्त ने कहा, “मित्र न तो हमने कभी अप्सरा
देखी है, और न ही राजकन्या को देखने की संभावना है. परन्तु
किसी दिन हम विदिशा अवश्य जायेंगे.”
“क्या
तुम्हारी माता तुम्हें जाने की अनुमति देगी?”
“देगी, अवश्य देगी.”
बचपन का यह
सपना मन में दृढ़ होता जा रहा था, और एक दिन उसकी माता ने कहा,
“मातृगुप्त, अब तुम कौमार्यावस्था में प्रवेश कर रहे हो. एक सत्य बताये बिना हमें
काशी यात्रा का समाधान प्राप्त नहीं होगा.”
“तुम, काशीयात्रा को? और मैं?”
“हम वृद्ध
हैं. काशीयात्रा से वापस आ भी सकते हैं और नहीं भी. परन्तु अब तुम्हें खुद ही अपना
ध्यान रखना होगा. तुम्हें जिस सहकार्य की आवश्यकता होगी, वह ग्रामवासी प्रदान करेंगे. फिर तुम्हारी बहिन इंदुमती भी है. हम वापस
आयेंगे, यह सूर्य प्रकाश जितना ही सत्य है, परन्तु कब बादल छा जाएँ, कब अचानक वर्षा होने लगे, ये कहना संभव नहीं है, इसलिए तू अब...”
“कौनसा
सत्य बताने वाली थीं, माते?”
“यह निश्चय
किया था कि तुझे कभी बताएँगे नहीं, परन्तु देव-यात्रा
करते समय मन में असत्य नहीं होना चाहिए, मन स्वच्छ, सुन्दर
हो, इसलिए...सिर्फ इसीलिये...”
मातृगुप्त
कभी पिता की ओर, तो कभी माता की और देख रहा था. दोनों को ही सत्य
बताने में कष्ट हो रहा था. माता भागीरथी के नेत्रों में पानी था, तो पिता विश्वनाथ मौन थे.
“आप बताएँ, तात!” मातृगुप्त ने कहा, विश्वनाथ बोले:
“पुत्र, पुरुष कठोर प्रतीत होता है, माता भावनामयी प्रतीत
होती है. परन्तु ऐसा नहीं है. वही संयमपूर्वक आचरण करती है. धैर्य प्रदान करती है.
वही संघर्ष करती है, और अपने पुत्र को संघर्ष के लिए
प्रवृत्त भी करती है. तुम्हें अपने जीवन संघर्ष में यश की प्राप्ति अवश्य होगी, परन्तु...”
“मातृगुप्त, सुनो,” माता भागीरथी बताने लगी,
“
प्रातःकाल का समय था. गोमय से सम्मार्जन करके, उस पर रंगोली बनाकर
मैं घर के भीतर आई. तभी तुलसी-वृन्दावन के निकट एक शिशु की हास्य ध्वनि सुनाई दी.
विश्वास नहीं हुआ. मैं फिर से बाहर आई, तो तुम सचमुच हँस रहे
थे, तुलसी के पत्तों को हिलते हुए देखकर. तुम लगभग एक-डेढ़
माह के थे, गौरवर्णीय, सुदृढ़ शरीर, कानों तक आये हुए केश, सतेज नेत्र...”
“परन्तु
मैं था कौन?”
“पुत्र तुम
कौन थे, किसके थे, कहाँ से आये थे...इस बारे में न तो उस
समय कुछ ज्ञात हुआ, ना ही आज तक. तुम्हारी माता को ढूँढने का
प्रयत्न किया. परन्तु इस ग्राम में, और दशपुर में भी इतना
सुन्दर कोई पुरुष अथवा स्त्री नहीं थी. अतः तुम कौन हो,
किसके हो, यह खोज अधूरी ही रही और तुम हमारे ही हो गए. हमारा
व्यवसाय है गोपालन, तुम भी वही करने लगे. मन में बारबार आता
कि इस तेजस्वी पुरुष के तेजस्वी माता-पिता कौन होंगे. कम से कम माता तो कभी न कभी
आयेगी...”
परन्तु कभी
भी, कोई भी नहीं आया, मातृगुप्त, और फिर एक सुखद
वार्ता...मैं इंदुमती की माता हो गई. यह बात उसे ज्ञात नहीं है, और कभी होगी भी नहीं.”
“फिर मेरा
नाम मातृगुप्त किसने रखा?”
“मंदसौर के
मंदिर में एक प्रवचनकार आये थे. सहज ही मैं तुम्हें भी ले गई थी. हम दोनों को
देखकर उन्होंने आश्चर्य से पूछा, “क्या यह पुत्र तुम्हारा ही है?” और हमने उन्हें सारा वृत्तांत बता दिया. तब वे बोले, जिसकी माता गुप्त – ऐसा ये मातृगुप्त. और इस तरह तुम्हारा नामकरण हो गया –
मातृगुप्त.”
कालिदास को
यह सब याद आया. पुत्रवत पालन करने वाले ये धर्म-पिता और माता, परन्तु प्रत्यक्ष जन्मदात्री कौन? मन में यह विचार
आया, और ऐसा भी हो सकता है इस बात पर विश्वास नहीं हुआ, परन्तु जब उसे विश्वास करना पडा, परिस्थिति समझ में आने पर उसे सूतपुत्र
कर्ण का स्मरण हो आया. पाँच पांडवों की माता बनी कुंती, उसे
राजसन्मान प्राप्त हुआ, प्रतिष्ठा भी मिली. शायद मेरी माता
को भी मिली होगी. परन्तु, नहीं, वह केवल जन्मदात्री थी. कर्ण
को अधिरथ पुत्र, सारथी पुत्र कहकर पग-पग पर उसकी अवहेलना की
जाती थी. मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ. मन में सुख का अनुभव हुआ.
“माते, तुम मुझे यह सब न बतातीं तो अच्छा होता. गोपालक के रूप में ही मैं सुखी
था. कोई भी समस्या नहीं थी. परन्तु अब आप दोनों मुझे अनाथ करके काशी जा रहे हो, मैं अकेला ही रहूँगा ना?”
“पुत्र, तू अनाथ नहीं है, यह तुझे मालूम है. अपनी इच्छा
पूरी करने के लिए हमें वृद्धत्व देखना पडा. तेरे कुमार आयु को प्राप्त करने तक इंतज़ार
करना पडा.”
“मैं
रोकूंगा नहीं, माते, परन्तु सत्य बताकर
तुमने मेरे मन में अनेक प्रश्न उपस्थित कर दिए हैं, यह सच है. आप निश्चिन्त मन से
जाएँ. मैं अच्छा रहूँगा.”
“पुत्र यदि
वृद्ध भी हो जाए, तो माता-पिता के लिए वह बालक की रहता
है. हमारे घर जो लक्ष्मी आती है, वह तुम्हारे साथ रहेगी. वह
भी तुम्हारे लिए माँ के समान है, यह तुम अनेक बार कह चुके हो
ना! ”
कालिदास ने
अपने मन को कितना ही समझाया, परन्तु उसे यह प्रश्न सताता
रहता कि मेरी माँ ने ऐसा क्यों किया होगा, और फिर पूरी रात वह बेचैन रहता.
‘जिस माँ
के पास अपने पुत्र का लालन-पालन करने का धैर्य ही नहीं है, उसने पुत्र को जन्म ही क्यों दिया? और वेत्रवती में
प्रवाहित करने के स्थान पर किसी के तुलसी-वृन्दावन के पास क्यों छोड़ दिया? ऐसी कौनसी मजबूरी रही होगी उसकी?’
और, विचार करते-करते उसका मन एक दिन स्वयँ ही शांत हो गया. वर्त्तमान का भान
रखते हुए फिर से मित्रों के साथ मौज-मस्ती करने लगा. देखते-देखते छः मास बीत गए, मगर उसके माता-पिता वापस नहीं आये. आगे भी छः मास और बीते, परन्तु वे नहीं आये. अब उनके आने की आशा ही ख़त्म हो गई. एक दिन घर आकर
इंदुमती बोली,
“बन्धु
मातृगुप्त, अब सारी आशाएं समाप्त हो गईं हैं. मैं नहीं सोचती
कि उनकी और अधिक प्रतीक्षा करने से कोई लाभ होगा. इसलिए तुम्हें लोक व्यवहार के
अनुसार कार्य करना होगा. मेरे पति ने तुम्हारे लिए वधू-संशोधन आरम्भ कर दिया है.
अकेले कब तक रहोगे? युवावस्था में प्रवेश कर रहे हो, पिता का
गोधन है. सब कुछ बढ़िया है...”
मातृगुप्त
दीर्घ काल तक मौन था. प्रथम माता-पिता – अज्ञात, दूसरे
माता-पिता अज्ञात के मार्ग पर तो नहीं निकल गए, इस विचार से
वह मन ही मन दुखी हो गया. परन्तु जब ग्रामवासियों के बीच काशी यात्रा को गए
माता-पिता का उल्लेख होता, तो सब यही कहते, कि ‘अब उनके लौटने की उम्मीद नहीं बची.’ उसका मन भी इस सत्य को स्वीकार
करने के लिए तैयार हो चुका था.
इंदुमती और
उसके पति इन्द्रपाल उसे बारबार समझाते और विवाह कर लेने पर जोर देते. अंत में उसने
कह दिया, “विदिशा जाकर आता हूँ, मित्र की भगिनी के ससुराल
में. बाद में विवाह का देखेंगे.”
“अवश्य जाओ
विदिशा. कौन जाने, तुम्हारे नसीब में राजा भोज की कन्या भी लिखी हो,” इन्द्रपाल ने मज़ाक करते हुए कहा था.
“कुछ भी
कहते हो!” इंदुमती ने कहा था.
“इसमें असंभव
क्या है? नियति के मन में हो, तो तुम्हारे गले में तारों की
माला भी पहना सकता हूँ,” इन्द्रपाल हँसते हुए बोले थे.
अब
मातृगुप्त भी मन ही मन विवाह के लिए तैयार हो रहा था. फिर भी विदिशा का आकर्षण मन में
था. अपना गोधन इंदुमती के सुपुर्द करके उसने विदिशा नगरी में प्रवेश किया.
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