“वत्स, यहाँ अकेले
क्यों बैठे हो? सभी
वन विहार के लिए आये है, यह अरण्योत्सव
है. उज्जयिनी के सम्राट चन्द्रगुप्त ने विशेष रूप से यहाँ सबको इस कार्यक्रम के
लिए आमंत्रित किया है. वे स्वयँ भी इस कार्यक्रम में सहभागी होने वाले हैं, कल रात को ही
वे आश्रम में आ गए हैं.”
“माते, हम कहाँ हैं?”
“इस आश्रम में
आये हुए तुम्हें बारह मास हो गए हैं, तब अभी यह प्रश्न पूछने का मन क्यों हुआ? तुम्हारे नाते
रिश्तेदार कौन हैं?
तुम्हारा जन्म स्थान कौनसा है? कुल गोत्र कौनसा है? ऐसे अनेक प्रश्न मेरे मन में कब से
हैं. अभी भी बताने का मन हो, तो बताओ. परन्तु तुम ऐसे मौन न रहो, एकाकी न रहो.
वत्स, हमारे
आश्रम में ऐसे अनेक व्यक्ति हैं, जिनके माता-पिता, रिश्तेदार कोई नहीं हैं. किसी
ने उन्हें इस आश्रम की सीमा पर, द्वार पर लाकर छोड़ दिया था. जैसे मेनका ने
शकुन्तला को कण्व मुनि के आश्रम के पास रख दिया था, वैसे ही
मधुरिका भी यहाँ आई थी. वही मधुरिका आज शकुन्तला के समान उपवर हो गई है. आश्रम में
कोई भी एकाकी नहीं है. सब प्रसन्न हैं – सब कुछ स्वीकार करके!”
कालिदास
मौन था. अपने मन की उत्सुकता को मन में ही रखकर वह बोली:
“सम्राट
चन्द्रगुप्त आने वाले हैं, तुम अपना संगीत सादर करो.” तब भी
उसने कुछ नहीं कहा. तब उसके कंधे पर हाथ रखकर देवी सरस्वती ने पूछा, “विद्यार्जन करने वाले विद्यार्थी तुम्हारी आयु के नहीं है, क्या इसका तुम्हें बुरा लगता है?”
“क्या मैं
अपना काव्य सादर करूँ?”
“तुम्हारा
अपना? उत्तम! अति उत्तम!!”
कालिदास जब
उसके सामने से गया तो उसे आनंद हुआ था; अब कालिदास को अभिव्यक्त होने के लिए शब्द
प्राप्त हो गए थे. अब संवेदनाएं प्रकट हो सकती थीं.
अरण्य की
वह समतल भूमि हरे वृक्षों से सहज ही सुशोभित थी. एक ऊंचे आसन की व्यवस्था की गई
थी. दो दिनों के इस समारोह में शास्त्रार्थ भी होने वाला था. नृत्य, संगीत तथा
अन्य अनेक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया था. कालिदास ने स्वरचित काव्य प्रस्तुत
किया था.
सम्राट
चन्द्रगुप्त रात को ही अपनी राजस्त्रियों सहित यहाँ आ गए थे. उज्जयिनी से यहाँ तक
आना सरल नहीं था. परन्तु देवी सरस्वती के निमंत्रण को कभी भी किसी ने अस्वीकार
नहीं किया था.
सम्राट
चन्द्रगुप्त आ रहे हैं, यह वार्ता लेकर दूत आये थे. कुछ ही
देर में उनका आगमन हुआ, तब आश्रम की बालिकाओं ने उनके ऊपर
पुष्प वृष्टि की. हरित सृष्टि ने बहुरंगी पुष्पों से सिंगार किया था.
सम्राट
चन्द्रगुप्त के उच्चासन पर स्थानापन्न होते ही उनके सम्मान में मंगल वाद्यों का
घोष किया गया. मधुरिका ने मधुर सुरों से सबका स्वागत किया.
अरण्योत्सव
की भूमिका स्पष्ट करते हुए देवी गार्गी ने कहा:
“सम्राट
चन्द्रगुप्त हमारा सम्मान करने के लिए प्रतिवर्ष यहाँ आते हैं और हम आश्रमवासियों
को प्रतिष्ठित करते हैं. आश्रमवासियों को उनका स्नेह प्राप्त होता है. उन्होंने
अनेक विद्यार्थियों को आर्यावर्त के अनेक स्थानों पर भेजकर उनका सम्मान किया है. मूलतः
अरण्योत्सव आयोजित करने का प्रयोजन यही है. इस आर्यावर्त के अरण्य में ऋषिमुनियों
ने शाश्वत सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना की. ईश्वर द्वारा निर्मित इस और इसके
समान अनेक अरण्यों से सांस्कृतिक अनुभवों पर आधारित प्रतिध्वनियाँ प्रकट हुईं और
फिर उस संस्कृति के चिह्न समाज मन पर दृढ़ता से अंकित हो गए.
इस अरण्य
के, इस अरण्यनिर्माता के हम शतशः आभारी हैं. आर्यावर्त का एक शाश्वत परिचय
करवाने वाले ऋषिमुनियों के आभारी हैं. और आज उज्जयिनी के सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य होने के मार्ग पर अग्रसर हैं, यह भी
भाग्य-योग है. एकसंघ राज्य का निर्माण होने पर राष्ट्र को भय नहीं होता, यह उनका
मत है, जो हम उन्हींके मुख से सुनेंगे. उन्होंने हम सभी को अभय प्रदान किया ही
है. अब कृपया शुभेच्छाएं भी प्रदान करें.”
मधुरिका द्वारा बनाई गई रंग बिरंगे पुष्पों की माला उनके गले में पहनाई गई और
विविध प्रकार के फलों से भरा हुआ मृत्तिका पात्र उन्हें प्रदान किया. उन्होंने उसे
सहर्ष स्वीकार करते हुए कहा:
“विविध फलों से भरा हुआ यह मृत्तिका पात्र – इसमें हमें अपने इच्छित
आर्यावर्त, अखंड भरतखंड के दर्शन हो रहे है. श्रीरामचंद्र अयोध्या से लंकाद्वीप जाकर, दशानन का
वध करके जानकी माता को सम्मान पूर्वक वापस लाये. श्री रामचंद्र प्रभु की यात्रा का
मार्ग दुष्कर था. वामाचारियों और असुरों से संघर्ष करते हुए, अरण्यवासी
ऋषि मुनियों को अभय देने वाले श्री राम एवँ श्री लक्ष्मण विराट योद्धा थे. उस
तुलना में हमारी यात्रा अल्प-सी है.
हमारे पिता समुद्रगुप्त कहते थे, ‘विश्व को संगठित करने का एक ही मार्ग है, और वह है
वैदिक धर्म को न्याय देना. और क्षात्र धर्म का विचार. अपने राज्य का सुचारू और
सुरक्षित रखना, और अपने राज्य की सीमाओं को सुरक्षित रखना जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना ही महत्त्वपूर्ण है अपने धर्म के साम्राज्य को व्यापक बनाना.’ उनके
ये विचार सर्व व्यापक थे.
‘समुद्रपर्यन्ताया
पृथिव्या: एकराष्ट्र’ इसका अर्थ सहज, स्पष्ट और वैदिक
धर्म को मान्यता देने वाला है. समुद्र तक की पृथ्वी का शासक एक ही हो, और वह आर्य शासन पद्धति से राज्य करे यह संकेत इन शब्दों से प्रकट होता
है. आज हम घने अरण्य में यह उत्सव संपन्न कर रहे हैं. ऋषियों के निवास स्थान अरण्य
होते थे. उस समय विश्व का राजकारण अरण्य से चलता था. सम्राट स्वयँ अरण्य में आया
करते, तब विश्व कल्याण के लिए शान्ति यज्ञ का आयोजन किया जाता था. ‘शान्ति:
शान्तिः शान्तिः’ इन तीन ‘शान्तिः’
शब्दों का अर्थ है – वैयक्तिक शान्ति, राष्ट्र में शान्ति, और विश्व में शान्ति. इसलिए राष्ट्र को एक ऐसे प्रशासक की आवश्यकता है, जिसने समुद्र तक सार्वभौम राज्य स्थापित किया हो.
हम आप सबको
अभय देकर, आप सबके शुभ मंगल आशीर्वाद लेकर जा रहे हैं”.
“रत्नाकरौ क्षौतपदाम् हिमालय किरीटीनाम्,
ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्याम् वन्दे भारतमातरम्.
”
सम्राट चन्द्रगुप्त के अपने विचार प्रकट करने के बाद शास्त्रार्थ का आरम्भ
हुआ. अनेक विद्वत् मंडलियों का यह शास्त्रार्थ “आर्य संस्कृति का पूर्व और उत्तर
प्रवाह” – इस विषय पर था.
कालिदास को विदिशा नगरी के राजप्रासाद में राजा भोज की कन्या के स्वयंवर
के अवसर पर आयोजित शास्त्रार्थ की याद आ गई. वेदवती ने शास्त्रार्थ में अनेकों को
पराजित किया था और कालिदास दक्षिण के अति विद्वान पंडित मातृगुप्त के रूप में वहाँ
गया था.
राजप्रासाद की सीढियां चढ़ते हुए उसका ह्रदय तीव्र गति से धड़क रहा था और
कंठ सूख गया था. कुमारसेन उससे कह रहा था, “मित्र, ऐसे भयभीत न हो. दस विद्वान पंडित शिष्यों के रूप
में तुम्हारे साथ आयेंगे, तुम्हें एक भी शब्द कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी.’
विषय भी ऐसा ही था, “क्या वैदिक ऋषियों की विचारधारा आज गतिमान है?” आगे
उन्होंने क्या कहा, इसका अर्थ भी उस समय कालिदास को समझ में नहीं आया
था. मगर इस समय वह ध्यान से शास्त्रार्थ सुनने के लिए तत्पर था.
गंगाप्रसाद भट्ट ने शास्त्रार्थ का आरम्भ करते हुए कहा:
“एतद्देशप्रसूतस्य
सकाशादग्रजन्मन:।
स्वं
स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्याम् सर्व मानवा:।।”
“यह
मनुस्मृति का वचन है. इसका अर्थ अत्यंत महत्वपूर्ण है. पृथ्वी के सभी लोग देश के
गुरुजनों के पास आएं और सहज, सरल जीवन कैसे बिताएं, जीवन को
सुखमय कैसे बनाएं, इसकी शिक्षा ग्रहण करें.
वैदिक काल
में ऋषि मुनियों ने एक विचारधारा का निर्माण किया, जिसमें
विश्व कल्याण का मार्ग प्रस्तुत किया गया था. उस समय भारत की भूमिका वैयक्तिक न
होकर लोक समुदाय के कल्याण के लिए थी. वैदिक ऋषि विश्व रूप में ही परमेश्वर को
देखते थे और यह प्रतिपादन करते थे कि मानव उस विश्वरूप ईश्वर को सत्य माने.
‘पुरुष एव
इदं सर्वम्’ ऐसा ऋग्वेद में कहा गया है, और उसकी सत्यता को दर्शाते हुए ‘पूर्णमद:
पूर्णमिदं’ कहते हुए यज्ञ करते थे. इस यज्ञ से वैयक्तिक, सामूहिक, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय कल्याण
अवश्य होगा ऐसा उन्हें दृढ़ विश्वास था. भगवद्गीता में भी कहा गया है ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्यं
सिद्धिं विन्दति’.
तत्कालीन
ऋषिमुनियों ने विश्वरूप परमात्मा को माना और ये माना कि मानव विश्व देह का एक भाग
है. मनुष्य के बारे में उन्होंने अत्यंत सात्विक, सुन्दर भाव
प्रकट किये हैं.
जिस प्रकार यज्ञ करते समय विश्व
समृद्धि अपेक्षित है, उसी तरह ईश्वर द्वारा निर्मित स्त्री जाति के प्रति शुभ कामना
भी व्यक्त होती थी. शरीर देवताओं का मंदिर, सप्त ऋषियों का आश्रम, इच्छित प्राप्त करने वाला
कल्पवृक्ष है, इसलिए
देह को सामर्थ्यवान होना चाहिए, ऐसी ऋषिमुनियों की अपेक्षा थी.
वैदिक ऋषियों के काल में युवकों को
सामने रखकर तत्व प्रतिपादित किये जाते थे. चतुर्विद पुरुषार्थ करके अभ्युदय और
नि:श्रेयस साधन प्राप्त करने के लिए अनुशासन आवश्यक है. युवकों का प्रत्येक क्षण
कार्यशील रहे इसके लिए उन्होंने आचार संहिता की रचना की. वही है सनातन धर्म. जिसके
केंद्र में थी संस्कृति.
इसके फलस्वरूप आर्य जाति सामर्थ्य
सम्पन्न, ऐश्वर्य संपन्न, और सर्व ज्ञानी हुई. इसी में
‘समुद्रवलायांकित सर्व भूमि’ का एक राजा हो, यह संकल्पना है.
यह है संस्कृति का पूर्व रंग, उत्तर रंग में
जैन और बौद्ध सम्प्रदायों की निर्मिती हुई.
सम्प्रदाय इसलिए कि महावीर जैन और
सिद्धार्थ बुद्ध – दोनों राजकुमार थे. क्षत्रिय थे. आरम्भ में उन्होंने वैदिक धर्म
का ही पालन किया था. परन्तु जब सनातन वैदिक धर्म की कठोरता, कर्म बंधन आदि
की ओर उनका ध्यान गया, तब
उन्होंने वैदिक धर्म की उत्तम व्यवस्था को मान्य करके कर्म कठोरता को कम करने के
लिए नया विचार प्रस्तुत किया.
बुद्ध से पूर्व मानव जाति के कल्याण
के लिए महावीर जैन ने अपनी विचार प्रणाली प्रस्तुत की. सर्व सामान्य जनों को दोनों
विचार धाराएं सरल प्रतीत हुईं. उन विचार धाराओं का धर्म में परिवर्तन हुआ. आचार
संहिताएं बनी. परम्परा से ये आचार संहिताएँ समाज में दृढ़ हो गईं. उसी प्रकार
शालिवाहन शक संवत्सर से शक, हूण,
यवन आर्यावर्त में आये. उनकी भी बस्तियां बनीं. उनका भी धर्म उदित हुआ. यह आज के
शास्त्रार्थ की भूमिका है.”
गंगाप्रसाद भट्ट ने अपनी भूमिका
स्पष्ट की और शास्त्रार्थ का आरम्भ हुआ. वास्तव में यह शास्त्रार्थ नहीं था, बल्कि
तत्कालीन विचार धाराओं के प्रवाह में वैदिक धर्म का स्थान कहाँ है, इस पर विचार
मंथन था.
माध्याह्न तक यह विचार मंथन चल रहा
था, और उसके पूर्ण
होने का कोई संकेत नहीं दिखाई दे रहा था. तब सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा:
“गुणज्ञ और रसज्ञ रसिकों, आप इसी विषय
को लेकर उज्जयिनी के राजप्रासाद में आयें. यह विचार मंथन अति आवश्यक है और
वर्त्तमान काल में अत्यंत महत्वपूर्ण है. यह विचार प्रवाहों का इतिहास है. राजसभा में इसे पर अवश्य महत्त्व दिया जाएगा. अब मनोरंजन
के कार्यक्रम आरम्भ किये जाएँ. प्रातःकाल हमें प्रस्थान करना है. इससे पूर्व हम यह
कहना चाहते हैं कि हम आपके अत्यंत ऋणी है. हम आश्रम व्यवस्था के लिए
सहस्त्र लक्ष सुवर्ण मुद्रा, धनधान्य उपलब्ध करवा रहे हैं.”
“सम्राट चन्द्रगुप्त,” देवी सरस्वती
उनके सम्मुख आते हुए बोलीं.
“आप सहस्त्र लक्ष सुवर्ण मुद्रा देकर
कृपया आश्रम के विद्यार्थियों को सुखासीन न बनाएं. कष्टसाध्य और समाज-परिश्रम से
उनका जीवन परिपूर्ण होने दें. इसे अपने धन का अपमान न समझें. आप अपनी ही प्रजा की
भावी पीढी को सबल, सदृढ़
सज्ञानी होने के लिए परिश्रम का संकल्प दें.
ज्ञान से परिपूर्ण होने पर इनमें से
कुछ कुमार आपके पास आयेंगे, तब आप
उन्हें आधार दें, बस
इतनी ही विनती है. आश्रम में कृषिबलों के द्वारा विद्यार्थियों को कृषि का ज्ञान
भी दिया जाता है, यह
आपको ज्ञात ही है.
क्षमा करें, सम्राट, परन्तु...”
“स्वकर्मणा तमभ्यर्च्यं सिद्धिं
विन्दति मानवा:” भगवद्गीता के इस वचन और कुछ ही समय पूर्व गंगाभट्ट ने जो कहा,
उसका प्रत्यय आने दें .”
“देवी सरस्वती, आपने जो कार्य
आरम्भ किया, जिसे
प्रतिष्ठित किया, उसके
लिए मैं राष्ट्र की ओर से आपका ऋणी हूँ. माता तथा गुरू के सहवास में ही
राष्ट्रनिर्माताओं का निर्माण होता है. अस्तु! ”
इसके पश्चात अनेकों ने अपनी कला सादर
की. अब संध्या छायाएं धरती पर उतर रही थी, पशु पक्षी अपने-अपने घरों को लौटने लगे थे.
देवी सरस्वती ने कालिदास की ओर देखते
हुए पूछा:
“तुम्हें कुछ कहना है, वत्स कालिदास?”
कालिदास अत्यंत नम्रता से आगे आया, परन्तु
भोजपत्र पर लिखी अपनी रचना को पढ़ने से पहले मन भयभीत, कंपित हो गया.
पढूं या न पढूं? या
यहाँ से वापस जाऊँ? ऐसी संभ्रमावस्था
मन में उत्पन्न हो गई. देवी सरस्वती ने उसका हाथ पकड़ा, उसके कंपकंपाते हाथों में
भोजपत्र को संभाला. “पढो, वत्स, पढो!”
और कालिदास ने कहा, “ मुझे किसी
भी बात का ज्ञान नहीं है. लोकभाषा ही मेरी भाषा है, संस्कृत का अभ्यासक मैं नहीं, परन्तु होने
वाला हूँ. आपसे विनती करता हूँ कि आप मेरा काव्य सुनें.”
देवी सरस्वती
को कालिदास की भावावस्था और पूर्वकथा समझ में आई, और सम्राट चन्द्रगुप्त को उसका
काव्य समझ में आ गया. वे उठकर बोले:
“विद्याभ्यास समाप्त होने पर जिस
क्षण तुम उज्जयिनी आओगे, हम
तुम्हारा स्वागत करेंगे.”
संध्या की घनी छायाएं अरण्य पर छाने
लगीं, तो सब
आश्रम की ओर लौटने लगे.
***
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