“मित्र...” अचानक कंधे पर हस्तस्पर्श का अनुभव हुआ. मातृगुप्त ने पीछे मुड़कर देखा, और वह आश्चर्यचकित रह गया. विदिशा नगरी में सत्यपाल के सिवा उसे ‘मित्र’ कहकर संबोधित करने वाला कोई नहीं था. और सत्यपाल को अपनी भगिनी के साथ कहीं और जाना था, अतः वह अकेला ही विदिशा नगरी के रास्ते पर अचंभित घूम रहा था और एक मंदिर की भव्यता को निहारते हुए पल भर को रुका, तभी इस स्पर्श का अनुभव हुआ. उसने अश्व से उतरते हुए युवक को देखा तो था, परन्तु वह इस तरह समीप आ जाएगा, यह उसने नहीं सोचा था.
“डरो नहीं, मित्र! मैं कुमारसेन, राजा भोज की राजसभा में मैं
एक सदस्य हूँ.”
“परन्तु
आपसे मेरा...”
“परिचय
नहीं है, यही कहना चाहते हो ना? वह परिचय हो, इसीलिये मैं बात कर रहा हूँ.”
“परन्तु
आप...मेरा परिचय...सब कुछ अगम्य है...आप राजसभा से, मैं मंदसौर-
दशपुर का निवासी. आपका-मेरा परिचय भी नहीं है...”
“परिचय हो
इसीलिये.”
“परन्तु...”
“मित्र, मेरा परिचय है – कुमारसेन. मुझे अपना मित्र समझो. पिछले कुछ दिनों से
नित्य तुम्हें देख रहा हूँ. समझ गया कि तुम यहाँ के नहीं हो.”
“ऐसा कैसे? क्या विदिशा के प्रत्येक व्यक्ति से आपका परिचय है?”
“नहीं.
परन्तु पल भर में ही मेरे अन्तरंग से तुम्हारा परिचय हो गया. तुम्हारा नाम पूछे
बिना, कुल-गोत्र पूछे बिना.”
और अपने
अश्व पर बिठाकर कुमारसेन उसे महामंत्री के निवास पर ले आया.”
“वत्स,
तुम्हारा परिचय?”
“मैं
गोपालक, मातृगुप्त. कुलगोत्र वैसे ज्ञात नहीं है. मेरे माता-पिता काशीयात्रा को गए
है, अद्याप वापस नहीं लौटे हैं, बस इतना ही है मेरा
परिचय. मैं अपने मित्र, सत्यपाल के साथ विदिशा नगरी देखने
आया हूँ.”
“वत्स, तुम्हें राजा भोज, उनकी लावण्यवती, प्रकांड पंडिता, विद्वत्वती कन्या के बारे में कुछ
ज्ञात है?”
“नहीं, मैं ग्रामस्थ. मुझे ज्ञात हैं, महाराज भोज, उनकी अप्रतिम नगरी. बस, वही देखने आया हूँ.”
“कुमारसेन
तुझे नगर के हर व्यक्ति से परिचित करवा देगा, स्थानों का परिचय
करवा देगा. राजसभा, राजप्रासाद, महाराज
भोज के राजप्रासाद से भी परिचित करवा देगा.”
“क्या विदिशा नगरी में प्रवेश करने वाले हर
आगंतुक को ऐसे दर्शन करवाने की विदिशा नगरी की रीत है?”
“वत्स,” महामंत्री पुत्रवत् स्नेह से बोले, “किसी को
विश्वास भी नहीं होगा, कि तुम गोपालक हो. मुख पर तेज है, वाणी में सौजन्य है, चातुर्य है. सुदृढ़, सुन्दर हो. किसी उच्च विद्या विभूषित ब्राह्मणपुत्र के समान प्रतीत होते
हो.”
“आप यहाँ
तक मुझे किस प्रयोजन से लाए हैं, क्या जान सकता हूँ?”
“किसी भी
तरह की कूटनीति नहीं करना है, तुम्हारे सहज, सरल जीवन में कोई हस्ताक्षेप भी
नहीं करना है. ऐसा प्रतीत होता है, कि तुम्हें देखकर
कुमारसेन के मन में कोई आतंरिक स्नेह भावना उत्पन्न हो गई है, परन्तु मुझे भी तुम पुत्रवत् लगने लगे हो. तुम अपने घर जा सकते हो.
परन्तु यदि इच्छा हो, तो कुमारसेन तुम्हें यहाँ के मंदिर, यहाँ का राजप्रासाद
दिखाएगा. अपने ग्राम वापस जाकर तुम इस सारे वैभव का वर्णन ग्रामवासियों के सामने
कर सकते हो. तुम्हारे मुख से उन्हें भी विदिशा नगरी के दर्शन सहज ही हो जायेंगे.
तुम्हें कल्पना तो होगी, कि मंदसौर, दशपुर ग्राम, अरण्य प्रदेश, और आगे भी दूर-दूर तक राजा भोज का साम्राज्य है.”
“क्या मैं उनके दर्शन कर सकता हूँ?” बालसुलभ उत्सुकता से उसके
यह प्रश्न पूछते ही महामंत्री के मुख पर समाधान प्रकट हुआ. उनका अन्तस्थ हेतु अब उन्हें
सहज ही इच्छित मार्ग पर ले जाएगा, ऐसे शुभ चिह्न दिखाई दिए. कुमारसेन के मुख पर स्मित छा
गया.
“क्यों नहीं? अपने राज्य का एक ग्रामीण युवक श्रद्धायुक्त अन्तःकरण से उनके
दर्शनों के लिए आया है, इससे उन्हें प्रसन्नता ही होगी.”
“क्या मैं अपने मित्र, सत्यपाल को साथ ला सकता हूँ?”
“अवश्य...अवश्य लाओ.”
आनंद की लहरों पर सवार होकर वह महामंत्री विष्णुगुप्त के कक्ष से बाहर आया.
कुमारसेन ने उसके साथ एक सेवक दिया था जो उसे सत्यपाल की भगिनी के घर तक छोड़ने
वाला था.
अब, इस समय कालिदास को ऐसा प्रतीत हुआ कि वह क्षण ही अशुभ था. अन्यथा एक
ग्रामीण युवक की विदिशा के महामंत्री से मुलाक़ात हो, वह एक सेवक के साथ उस युवक
को घर भेजे, ऐसा क्या था उसमें? कोई संदेह भी मन में नहीं आया. मनुष्य विचार शून्य हो
जाए,
ऐसा ही था वह प्रहार.
भूतकाल में गया हुआ उसका मन सजग हो गया. वह आश्रम में था और मधुलिका उसकी
कुटी के पास वाले मौलसिरी के वृक्ष को पानी देने के लिए वहाँ आई थी. उसे विचारमग्न
देखकर वह बड़ी देर तक खडी रही. भूतकाल का पिशाच्च कालिदास के मन से उतरने के बाद
उसका ध्यान मधुरिका की और गया, वह हंसी. धरती पर पड़े हुए मौलसिरी के कुछ पुष्प उसके
हाथों में देकर वह बोली, “आपका चिंतन किस बारे में था? कौन सा शास्त्र आपको प्रिय
है?”
मधुरिका के प्रश्न को उसने वैसा ही छोड़ दिया और मन ही मन बोला,
‘मधुलिका, ये मौलसिरी के जो फूल तुमने दिए हैं, उनके पीछे की भावना मैं समझ
गया हूँ. तुम्हारे मेरे आसपास रहने को मैंने अनुभव किया है. खिलती हुई कली की तरह
तुम्हारा सुगंधित होते जाना मैं देख रहा हूं. परन्तु मैं खूब अलिप्त हूँ. अपने ही कोष
से मैं मुक्त नहीं हो सकता, तुमसे कुछ कह न पाऊंगा. परन्तु तुम्हारे इन मौलसिरी के
पुष्पों को मैं मन के सप्तपाताल में चन्दन की कुप्पी में हमेशा संजोकर रखूंगा. तुम
मुझे रहने दो एकाकी. मेरे जीवन को यह अभिशाप मिला है. वह मुझे ही भोगना है. अपनी
वेदना तुमसे कैसे कहूं...केवल स्त्री ही परित्यक्ता नहीं
होती, पुरुष भी परित्यक्त होता है. सीमाएं भी उसे दूर रखती हैं.
एक स्त्री
द्वारा अपमानित यह कालिदास तुम्हें कैसे न्याय दे सकता है? तुम्हारी भावनाओं को मैं समझता हूँ... प्रणय भावनाओं को. तुम्हारे संकेत, मुझे मोहवश करने वाले तुम्हारे अस्तित्व को मुझे नकारना होगा.
मुझे मालूम
है कि शाप देने वाला भी कभी मुक्त नहीं हो सकता. वह भी इस वेदना में अपना जीवन
व्यतीत कर रही होगी. ऐसी शापवाणी का उच्चारण करके उसे भी मुक्तता नहीं है.
जाओ, मधुरिका, मुझे रहने दो एकाकी...रहने ही दो मुझे
एकाकी. आज भी मेरे मन में तीव्र शल्य है. प्रणय के सपनों को सीमापार होने का
अपमानित शाप. नहीं मधुरिका, कम से कम आज मैं भूल नहीं
पाऊंगा. अपने असत्य पर मैं स्वयं ही लज्जित हूँ. यह मेरे पौरुष को लगा हुआ कलंक
है. यह कलंक कभी भी मिट नहीं सकता. अश्वत्थामा के बहते हुए व्रण जैसा वह हमेशा
ह्रदय में ही रहेगा.
मन में एक
प्रतिशोध भी है, एक संकल्प भी है, स्वयँ को
सिद्ध करने का. मन में एक मोह है – वेदवती के सामने जाकर स्वयँ को प्रदर्शित करने
का. खुद ही प्रदर्शित करने का.
मधुरिका, अभी तो मेरे जीवन का यही प्रयोजन है. कल तक मैं अपने जीवन के प्रयोजन के
बारे में साशंक था. इस क्षण मैंने अपने आप को खोज लिया है. मेरे जीवन का प्रयोजन
निश्चित हो गया है. वास्तव में, इस क्षण मैं तुम्हारा ऋणी
हूँ, मधुरिका.’
कालिदास को
आत्ममग्न देखकर मधुरिका का जी चाहा कि उसके कंधे को स्पर्श करके उसे जागृत करे.
परन्तु वैसा कुछ न करते हुए उसने पूछ लिया:
“कालिदास
आप किन विचारों में खो गए? मेरे पूछे हुए किसी भी प्रश्न का
उत्तर आपने नहीं दिया. मैं इसका अर्थ क्या समझूं?”
“मधुरिका, मैंने तुम्हारी उपेक्षा नहीं की, वंचना भी नहीं
करूंगा. वर्त्तमान में अपने ज्ञानार्जन के सन्दर्भ में मैं विविध शास्त्रों का
अध्ययन और उन पर चिंतन करता हूँ और वही मुझे भविष्य की ओर ले जाने वाला मार्ग है.
ज्ञानार्जन के अतिरिक्त अभी मेरे जीवन का कोई अन्य प्रयोजन नहीं है.
“तुम
गुणवती, ज्ञानवती हो, ईश्वर ने तुम्हें सभी स्त्री सुलभ गुण प्रदान किये हैं. तुम
जिस भी वातावरण में जाओगी, उसे तुम सहज, प्रसन्न मन से स्वीकार करके सबको आनंद प्रदान करोगी, ऐसा मेरा विश्वास है. देवी सरस्वती तुम्हारे लिए वर-संशोधन कर रही हैं, तुम्हारे जैसी गुणवती को वह निश्चित ही प्राप्त होगा.
एक ही बात
पूछना है, बल्कि अपेक्षा करता हूँ, कि फिर कभी मिलेंगे, तो मुझे अपना एक हितचिन्तक समझ कर मुझसे बात करोगी ना?”
अकस्मात्
आये झंझावात से वृक्ष से सारे पुष्प गिर जाएँ, अकस्मात् मेघ
गर्जना के साथ बारिश आये और सब कुछ समाप्त कर दे, वैसा हुआ.
सागर की लहरें अकस्मात् आकर सारी धरती जलमय कर दें, वैसा
हुआ. आकाश फट गया, धरती दुभंगित हो गई. मन के नक्षत्रों का
आकाश ही उसके ऊपर टूट पडा और हर दिशा में अकस्मात् अन्धेरा छा गया.
कुछ देर वह
खडी रही, और उत्तरीय से नेत्रों से कपोलों पर बहते अश्रुओं को पोंछते हुए निकल गई.
एक भी शब्द कहे बिना. तब कालिदास को प्रतीत हुआ कि उसके हाथ से एक कोमल मन की
ह्त्या हो गई है. मैं अपराधी हूँ – मधुरिका का भी.
ज़िंदगी ने
अब मुझे कुछ समझ दी है. चेतना कुछ प्रगल्भ हुई है. ज्ञान से संयत और संयमी हुआ
हूँ. किसी कालिका को मोहवश होने देना अभी मुझे मान्य नहीं है. कुछ समय वह रहेगी
व्यथित, संवारती रहेगी प्रेमवीणा के टूटे तारों को, परन्तु
भविष्य में उसी वीणा से प्रेमगीतों के सुन्दर झंकार गूंजेंगे.
क्या मेरा
जीवन अपराध करने के लिए ही है? एक माता जन्म देकर छोड़ देती है, दूसरी माता गीली मिट्टी का घट बनाकर उसे आकार देती है, नाम देती है, जीवन का भान देती है, और निकल जाती है. तीसरी माता ज्ञान देती है, प्रकाश
देती है, समृद्ध जीवन का मार्ग दर्शाती है, प्रतिष्ठा देती है, और मैं यहाँ से जाने के सपने
देखने लगता हूँ. ऐसा क्यों होता है? बार-बार?
शायद
भविष्य के मार्ग को उज्जवल बनाने के लिए हो यह यात्रा. अज्ञान से ज्ञान की ओर,
अन्धकार से प्रकाश की ओर, आशयघन अर्थ की ओर. घोर अमावस्या के आते ही अनायास ही
प्रकाश के चरण सम्मुख आ जाते हैं, उसी प्रकार जीवन को नया आयाम, नया अर्थ प्राप्त होगा.
अब
ज्ञानसमृद्ध वेदवती के पास जाना चाहिए, और प्रत्यक्ष जाकर
कहना चाहिए,
“देवी
वेदवती, आप विद्योत्तमा, विद्वत्वती हैं. आपने साधना करके
सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया है. हमें भी ज्ञान का श्रेष्ठत्व समझ में आने लगा है, हम भी साधना करके आये हैं.
अब
आमंत्रित करें विद्वद्जनो को, शास्त्रज्ञों को, और हो जाने दें शास्त्रार्थ सभा. उसमें जय-पराजय नहीं होगी, स्वयंवर की वह ‘शर्त’ नहीं होगी. ज्ञान का ‘अहम्’ न
होगा. प्रशस्त मार्ग होगा विचारों का. उसमें प्रशस्त मार्ग होगा ज्ञान-विज्ञान का,
इतिहास का, संशोधन का, उसमें होगा अनुसरण प्रसिद्ध विचारकों
का, वर्त्तमान से रिश्ता रखते हुए शोध होगा भविष्य का.
वेदवती, यह प्रिय नाम मैंने ही तुम्हें दिया था, परन्तु उस प्रिय
नाम को मन ही में रखकर मैं कहूंगा, देवी वेदवती, आप
शास्त्रार्थ का आयोजन अवश्य कीजिये. हम आयेंगे “अस्ति कश्चित्
वाग्विशेष:”? का उत्तर देने.
कालिदास ने मन
ही मन प्रसन्न स्मित किया. उसका हास्य चंहु ओर फ़ैल गया और निरभ्र आकाश में उदित हो
रहे नक्षत्र नृत्य कर उठे.
***
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