Monday, 17 October 2022

Shubhangi - 09

 

आश्रम परिसर के निसर्गरम्य वातावरण में गुरुकुल से ज्ञानार्जन करने वाले और बारह वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन करके, ज्ञान संपादन करने के पश्चात् अपने-अपने घरों को जाने वाले विद्यार्थियों का आज दीक्षांत समारोह था. इस आनंद में विद्यार्थी रात भर जागे हुए थे. कल से उन्हें वापस जाना था, इसका आनंद, और बारह वर्ष एक दूसरे के साथ व्तातीत करने बाद होने वाले विरह का दुःख – दोनों भावनाएँ अनावर थीं, मगर भविष्य का बहुरंगी क्षितिज उन्हें बुला रहा था.

प्रातःकाल के उपरांत का सुरम्य समय, पक्षियों के आकाश में उड़ान भरने का संकेत, अविरत बहने वाला सुखद समीर और सद्यःस्नात अधीर, उत्सुक, प्रसन्न विद्यार्थी.

कालिदास रात भर जाग रहा था. कुटी-कुटी से आ रही हास्य-लहरियां, संवेदनशील स्वर, बिदाई के स्वर और भविष्य का शोध लेने वाले आत्मविश्वासी स्वर उसने स्वयं परिसर में भ्रमण करते हुए सुने थे. विद्यार्थियों को ज्ञान का प्रमाण पत्र मिलने वाला था, अपने घर जाने की अनुमति मिलने वाली थी. उनके पास भविष्य के सुन्दर स्वप्न थे, विवाह करने का स्वप्न भी था.

व्यथित कालिदास कुटी में वापस आया, वह चाहता था कि यह अंधेरी रात कभी समाप्त ही न हो. मेरा विवाह हो चुका है, इसकी यहाँ किसी को भी कल्पना ही नहीं है. उसी प्रकार मेरा कुल-गोत्र भी अज्ञात है. ऐसा कोई भी नहीं, जो अपना हो. जब अपने ही दूर हो जाते हैं, तो जीवन में बचता ही क्या है? और मेरा घर है ही कहाँ, जहाँ मैं प्रसन्नतापूर्वक वापस जा सकूँ?

चाहे कितनी ही गहरी हो, परन्तु रात तो समाप्त होती ही है. रातभर जागने के उपरांत भी विद्यार्थी प्रातःकाल से पूर्व ही शुचिर्भूत होकर आये थे. उनके मुख पर अतीव आनंद था.

और वह क्षण आ पहुँचा. देवी सरस्वती तथा अन्य ज्ञानवती देवियाँ वहाँ उपस्थित थीं. इस दीक्षांत समारोह में चम्पा साम्राज्य के सर्वेसर्वा जयवर्मन आये थे. 

जब देवी मीनाक्षी उन्हें लेकर वटवृक्ष के नीचे सजे व्यासपीठ पर आईं, तो पूर्वी क्षितिज पर सूर्य प्रकट हो गया था. उनका परिचय देते हुए देवी कलावती ने कहा, “चंपानगर का साम्राज्य प्राचीन है. महाभारत में वर्णित चंपानगरी और समुद्र मार्ग से वाल्मीकी लोगों द्वारा बसाया गया चंपानगर. सर्वश्रेष्ठ भद्रवर्मन द्वारा बसाए गए नागरों के नाम हैं – इंद्रपुर, अमरावती, विजय, कौठर, पांडुरंग. उसी नगर के साम्प्रत महाराज विजयवर्मन के सुपुत्र जयवर्मन आज यहाँ उपस्थित हैं. समुद्र मार्ग से वे आज यहाँ इस दीक्षांत समारोह के लिए पधारे हैं.”

सरस्वती देवी ने आश्रम और गुरुकुल के विद्यार्थियों के बारे में और हर छः साल बाद आयोजित होने वाले दीक्षांत समारोह के बारे में विस्तार से बताया. जयवर्मन के बारे में उन्होंने बताया,

“शक संवत्सर आरम्भ होने के अनेको वर्ष पूर्व विविवत सागर नामक राजा ने चंपानगर का निर्माण किया था. इतनी प्राचीन संस्कृति के उपासक, कुलवंशज आज यहाँ उपस्थित हैं, महाराज चन्द्रगुप्त के कारण. अब मैं उन्हें अपना मनोगत व्यक्त करने के लिए आमंत्रित करती हूँ.”

महाराज जयवर्मन मुस्कुराते हुए उठे और विद्यार्थी-सभा को संबोधित करते हुए बोले:

“देवी सरस्वती और ज्ञानदान करने वाली अन्य तपस्विनी! ज्ञानदायिनी एवँ अरण्य के मध्य अनेक स्त्रियों को एकत्रित करके निर्मित यह आश्रम एवँ गुरुकुल स्त्री शक्ति का महान मंगल प्रतीक है. हम यहाँ आये हैं भारत देश के दर्शन करने. भारतीय संस्कृति की जड़ें जिस देश में हैं उसके दर्शन करने. हम धन्य हो गये. हमने भारत की चारों दिशाओं में भ्रमण किया, यहां अनेक धर्मों और संस्कृतियों को एकत्र देखा. और हमें यह भी अनुभव हुआ कि भारतीय सनातन आर्य संस्कृति ने अन्य धर्मों-संस्कृतियों को उदार मन से अपने ह्रदय में स्थान दिया है.

वेदविद्या के मूल स्थान भारत के ह्रदयस्थल में देववाणी है. उस देववाणी में भव्य हिमालय, सरसरिता, वन-अरण्य, तीन महासागर हैं. शैव, वैष्णव, सांख्य, गाणपत्य, वामाचारी, कापालिक, शाक्त सभी को आशीर्वाद देने की सामर्थ्य है. ऐसी देववाणी का सन्मान करते हुए, भारत भूमि का सन्मान करते हुए जब हम अपने नगर वापस जायेंगे, तो अनुभव से काफी समृद्ध हो चुके होंगे.

विद्यार्थी वत्सों! यही संस्कृति तुम भी अपने घर ले जाने वाले हो. सह्रदयता, जीवन का सौन्दर्य, परस्पर सम्मान, सहिष्णुता एवँ स्व-साम्राज्य का अभिमान, मातृभूमि का अभिमान, ज्ञान देने वाले गुरु का अभिमान. जिस देश में तुम्हारा जन्म हुआ, जिन वैदिक ऋषि-मुनियों के आशीर्वाद लेते हुए तुम सज्ञान हुए हो, उस काल का विस्मरण न होने पाए. यह सुवर्णकाल जीवन में दुबारा आने वाला नहीं है, इसे ह्रदय की चन्दन कुप्पी में संभाल कर रखना, बस इतना ही.                          

महाराज चन्द्रगुप्त की राजसभा में ‘सरस्वती गुरुकुल के बारे में सुना, संयोगवश देवी सरस्वती स्वयँ वहाँ पधारी हुई थीं, उनका निमंत्रण हमारे लिए कितने सौभाग्य की बात है, यह यहाँ आकर समझ में आया. शांत, निवांत, एकांत ऐसे अरण्य में सुनाई देती होंगी आश्रम के गोधन की घंटियाँ, पक्षियों की किलबिलाहट और आप सबके मुखों से आती अभिमंत्रित ध्वनि. आश्रम के निकट वेत्रवती का विस्तीर्ण पात्र, और अरण्य मार्ग से आने वाले पथ भी यहाँ आकर रुक जाएँ. राजा भी यहाँ विनम्र हो जाए, रसिक मुग्ध हो जाए, चित्रकार मोहित हो जाए, ऐसा नयनरम्य रूप है आश्रम का!”

महाराज जयवर्मन ने इतना कहकर विद्यार्थियों को दस-दस सुवर्ण मुद्राएँ और आशीर्वाद दिए. उनमें अंतिम विद्यार्थी था कालिदास. महाराज उसे सुवर्ण मुद्राएँ प्रदान करते, तभी देवी सरस्वती ने कहा:

“महाराज, यह सरस्वती पुत्र है. अनेक वर्ष सुदूर रहने के कारण वह ज्ञानार्जन नहीं कर पाया. फिर भी इन पाँच वर्षों में आयुर्वेद, योग, व्याकरण, नाट्य शास्त्र, दर्शन, संहिता और वेदों का अध्ययन करके यह परिपूर्ण हो गया है. यह अपने ही घर पर है, आप इसका सम्मान करें.”

बोलते समय महाराज जयवर्मन की दृष्टि बारबार कालिदास की पर जा ही रही थी. असामान्य रूप सौन्दर्य और सुन्दर देहयष्टि; मुख पर झलकता पांडित्य का विलोभनीय तेज. ये कौन होगा? मन में बारबार उठने वाला प्रश्न अब सहज ही समाप्त हो गया था.

‘यह सरस्वती माता का पुत्र...अर्थात वे कुमारी माता?...’ उनके मन में उठ रहे प्रश्न को कालिदास ने अचूक पहचान लिया. सुवर्ण मुद्रा लेकर आभार प्रदर्शित करते हुए वह बोला, “महाराज, सरस्वती देवी के लिए सभी विद्यार्थी पुत्रवत्त् हैं. यहाँ सभी सरस्वती पुत्र हैं, परन्तु यदि माता ने मनःपूर्वक मुझे ‘सरस्वती पुत्र कहा हो, तो साक्षात देवी सरस्वती प्रकट हुई हैं, ऐसा ही कहना होगा.”                     

कालिदास ने इसके आगे कुछ नहीं कहा. दिन भर विद्यार्थियों के पालको का आना जाना लगा था. सभी विद्यार्थी प्रसन्न मन से स्वगृहों को जा रहे थे. ‘मेरा स्वगृह कौन सा है?’ इस प्रश्न से कालिदास अस्वस्थ हो गया था. मध्याह्न में राजा जयवर्मन ने कहा, “पुत्र, संभव हो तो तुम चम्पा का साम्राज्य देखने के लिए आओ. वह साम्राज्य सम्राट समुद्रगुप्त के, या सम्राट चन्द्रगुप्त ने अभी जो साम्राज्य विस्तारित किया है, वैसा भी नहीं; ‘साम्राज्य’ शब्द भी उसके लिए उपयुक्त नहीं है, परन्तु जितना भूभाग है, वह हमारे लिए स्वर्ग से भी अधिक प्रिय है.”

संध्या छायाएं आश्रम की भूमि से वृक्षों के ऊपर पहुंचकर स्थिर हो गईं. दिन भर की यात्रा से थके हुए रश्मिरथी अपने अश्व रज्जुओं को  संभालते हुए विश्राम हेतु संध्या के प्रासाद की ओर त्वरा से जा रहे थे.

‘कहाँ जाऊँ? या यहीं रह जाऊँ?

अगर यहाँ रहा तो देवी सरस्वती को आनंद होगा, ज्ञानदान भी कर सकूंगा, किसी भी प्रकार का संघर्ष ही नहीं रहेगा.

या विदिशा वापस जाऊँ? वेदवती क्या करती होगी, किस प्रकार जीवन व्यतीत कर रही होगी, जाकर यह देखूँ क्या?

या पर्यटन के लिए निकल जाऊँ? जिसका वर्णन अभी महाराज जयवर्मन ने किया वह चंपानगर देखने महाराज के साथ जाऊँ?

और अकस्मात् उसे महाराज चन्द्रगुप्त के निमंत्रण का स्मरण हो आया. मन में यह विचार आते ही उसने यही निश्चय कर लिया. परन्तु पहले देश पर्यटन या उज्जयिनी – इस पर विचार न करते हुए यहाँ से जाऊँ? अपने निर्णय से उसे प्रसन्नता का अनुभव हुआ.     

रात भर वह विचार करता रहा. मैं दूर से ही सही, वेशांतर करके ही सही, विदिशा जाकर वेदवती को देखूंगा. यदि पिछले पाँच वर्षों में उसने विवाह कर लिया हो तो अति उत्तम. कम से कम सुन्दर, योग्य पुरुष से ही किया होगा. उसके भीतर इतनी सामर्थ्य है कि वह भाग्य बदल सकती है. नियतीने एक बार उसे विवेक-विचार हीन करके उसके भीतर अहम् को जगाया. परन्तु अब उसे ज्ञान प्राप्त हो ही गया होगा. यदि उसने विवाह कर लिया होगा, तो मैं भी कर लूँगा, देवी सरस्वती की साक्षी से करूंगा, शायद मधुरिका से भी कर लूँ.

और वह मन ही मन प्रसन्नता से हंसा. प्रातःकाल की प्रतीक्षा करती रात समाप्त हो गई थी.

 

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