Tuesday, 18 October 2022

Shubhangi - 10

 

“माते...,” नेत्र मूंदकर ध्यानस्थ बैठी देवी सरस्वती को कालिदास ने पुकारा. उन्होंने नेत्र खोले, वे प्रसन्नता से हंसी. प्रौढत्व की और झुकती हुई वे मूर्तिमंत सरस्वती प्रतीत हो रही थी. वैसे ही नेत्र, वैसी ही सहनशीलता, वैसी ही सुमधुर झंकृत वाणी. वह विनम्र हो गया.

“कुछ चाहिए, वत्स?

“अनुमति. माते, तुम्हारी अनुमति.”

“वह तो सहर्ष है.” 

“परन्तु, किस बात की अनुमति, यह पूछे बिना ही तुमने मुझे आशीर्वाद भी दे दिया?
“युवा पुत्र को आस होती है विवाह की. परन्तु
, शायद तुम्हारा प्रेम भंग हुआ है. यदि फिर से विवाह करने की मनस्थिति में होते, तो निश्चित ही उस मधुरिका से बात की होती. सत्य है ना, वत्स?

“परन्तु तुम्हें यह कैसे ज्ञात हुआ?”

“पुत्र के मन में क्या चल रहा है, यह माता के मन को सहज ही ज्ञात हो जाता है.”

“परन्तु...”

“जब तुम्हारी कविता सुनी थी, तभी मैं समझ गई थी. अस्तु! परन्तु माता हूँ, इसलिए कहना चाहती हूँ. यौवनावस्था में पदार्पण करने वाले हर व्यक्ति को सहचारिणी की आवश्यकता होती है. यह एक नैसर्गिक भावना है. उसका अनादर न करो. विरक्त मत होना.”

“माते...”

गत जीवन का सन्दर्भ मुझे नहीं पूछना है. परन्तु जब से तुम आये हो, मेरा परिचय हुआ है मौन व्यथा से. आतंरिक वेदना से. आज तुम्हारा यहाँ से जाने को मन कर रहा है, अवश्य जाओ, वत्स! सारे मार्ग, सारी दिशाएं तुम्हारे लिए हैं. सभी कलाओं से समृद्ध हो, शास्त्रज्ञान से संपन्न हो. अब तुम्हें कहीं भी किसी न्यूनता का अनुभव नहीं होगा. परन्तु विवाह अवश्य करना, वत्स! विरह में जीवन न बिताओ.”  
“माते
, यह एकमेव निर्णय मेरे हाथ में रहने दो, इतना ही मांगूं तो?

“पूछना तो नहीं चाहती थी, परन्तु ऐसा क्यों, वत्स?

“मुझसे अपराध हुआ है, एक भाग्यवती को अभागी करने का. उसका दंड नियति मुझे दे, इससे पूर्व क्या मुझे स्वयँ को दण्डित नहीं करना चाहिए? क्या अन्याय और असत्य को दंड नहीं मिलना चाहिए?

“परन्तु ऐसा हुआ क्या है? यदि तुम्हें कहने में अप्रिय लगता हो, तो रहने दो.”

कालिदास ने सत्य कथन कर दिया, इससे उसका मन हल्का हो गया.

“सत्य है, वत्स. तुम्हारे हाथ से एक विद्वत्वती का अपमान हुआ है, तुम्हारा हेतु शुद्ध होते हुए भी.”

“सत्य कहता हूँ, माते, कुमारसेन एवँ विष्णुगुप्तदास उस दिन मुझे राजप्रासाद में ले गए. उस वैभव को देखकर मेरे नेत्र विस्फारित हो गए, मैं चकित हो गया, भाव विभोर हो गया. परन्तु मन में किंचित भी अभिलाषा न थी. मेरे देश का राजा कितना वैभवसंपन्न है, इसका सिर्फ वर्णन ही मैंने सुना था. प्रत्यक्ष देखते हुए अनदेखे राजा भोज के कार्य-कर्तृत्व का आलेख ही मैंने पढ़ लिया.”

“आगे?

“उस समय कुमारसेन ने कहा,’मित्र! राजा भोज अत्यंत अस्वस्थ हैं. चिंता-व्याधि ने उन्हें जर्जर कर दिया है. कार्यतत्पर रहने वाले महाराज अब भोज नगरी की ओर भी ध्यान नहीं देते. ऐसी परिस्थिति में विदेशी आक्रमण की संभावना को नकारा नहीं जा सकता. अंतर्गत सुरक्षा और बाह्य सीमा सुरक्षा की ओर महाराज बिलकुल ध्यान नहीं दे रहे हैं.”

“परन्तु, ऐसा क्यों?

“वही व्यथा. अर्थात चिता से भी अधिक दाहक ऐसी चिंता महाराज को सता रही है. अत्यंत चिंताग्रस्त होने के कारण उन्हें किसी भी बात में रस नहीं है.”
“महाराज को चिंता राष्ट्र की होती है
, उन्हें स्वयँ की भी चिंता होती हैं, यह पहली बार सुन रहा हूँ.”

“मित्र, राजा होने पर भी वे किसी के पिता, किसी के पति एवँ किसी के पुत्र तो हैं ही ना?

“ये तो मेरे ध्यान ही में नहीं आया,” कहते-कहते कालिदास रुक गया.

देवी सरस्वती सुन रही थीं. आम तौर से स्थिताप्रज्ञ रहने वाली देवी सरस्वती कालिदास की कथा सुनते हुए उसके साथ एकरूप हो गई थीं.

“आगे क्या हुआ?” उन्होंने उत्सुकता से पूछा.  

महाराज को चिंता थी अपनी विद्योत्तमा, विद्वत्वती कन्या के विवाह की. वह सुन्दर, अस्त्र-शस्त्र निपुण, सभी शास्त्रों में पारंगत थी. उसने ‘शर्त रखी थी कि जो कोई उसे शास्त्रार्थ में पराजित करेगा, उसीसे वह विवाह करेगी.”

“स्वयंवर की ‘शर्त उचित ही थी.”

“परन्तु अनेक पंडित, वीर योद्धा, ऋषि-मुनि आकर चले गए, वे उससे पराजित हो गए. विवाह के बारे में आरंभिक उत्साह धीरे धीरे कम होने लगा और चिंता का प्रमाण हौले-हौले बढ़ने लगा.”

“परन्तु तुम्हें यह सब बताने का प्रयोजन क्या था? तुम तो अज्ञानी, ग्रामस्थ थे.”

“माते, पुरुष का सौन्दर्य भी घातक हो सकता है, इसका एकमेव उदाहरण कदाचित् मैं हूँ.”

“ऐसा क्यों कहते हो वत्स! शिवशंकर का लावण्य, विष्णुदेव की सात्विकता, रसिकता और ब्रह्मदेव की रसिकता तुम्हारे पास है.”

“ये वर्त्तमान स्थिति में...उस समय मैं केवल एक सुन्दर, सुदृढ़ युवक था. भोज राजा के सुख के लिए और राज्य के हित के लिए, रूपगर्विता, ज्ञानगर्विता के ‘अहम्’ का नाश करने के लिए उन सबने याचक बनकर विनती की. उनका अपराध नहीं था. राजा और राज्य के लिए किसी न किसी की बलि तो चढ़ानी ही थी. मुझे दण्ड मिलेगा, यह भय भी था ही. परन्तु राज्य के लिए देहदान करने के उच्च विचार से मैं प्रभावित हो गया.

दस पंडित – मेरे शिष्य और मैं – ब्रह्मज्ञानी. दसों के मन में यही भावना थी – राजा एवँ राज्य के हित की. और नियति ने ही उसे पराजित किया. उसे विस्मरण हो गया, प्रश्न में ही वह उलझी रही. और, मेरी विजय हुई, माते!”

“असत्य पर आधारित होते हुए भी तुम्हारा तथा औरों का उद्देश्य उत्तम ही था. यह निर्विवाद सत्य है.”

उसने फिर आगे – प्रथम रात्रि का प्रसंग सुनाकर कहा, माते, अब उसके  “अस्ति कश्चित् वाग्विशेष:”? का उत्तर मैं दे सकूंगा.”

“वत्स, शायद तुम मान्य न करो, परन्तु कहती हूँ. शास्त्राभ्यास से तुम सिद्ध हो गए हो, यह सत्य है, परन्तु  प्रत्येक शास्त्र का अनुभव है जीवन की कसौटी. वह अनुभव प्राप्त करके, प्रौढ़-प्रगल्भ होकर तुम उससे मिलो. वह भी शायद तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा कर रही होगी. अद्याप वह समय नहीं आया है. अर्थात् तुम मुझसे सहमत हो, ऐसा आग्रह नहीं है, वत्स.

शास्त्रों के सन्दर्भ ग्रंथों में होते हैं. परन्तु जब वे जीवन में अर्थ लेकर आयेंगे, तभी जीवन में परिपूर्णता आती है. तुम परिपूर्ण पुरुष बनकर उसके पास जाओ. पुरुष को भी स्वयंसिद्ध होना ही पड़ता है. तभी स्त्री उसका सन्मान और सत्कार करती है. विचार करो, तभी अपनी दिशा निश्चित करो. मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ ही रहेगा, वत्स!”

“माते, एक प्रश्न पूछने का अनेक बार मन हुआ. यहाँ उपस्थित सभी स्त्रियाँ ब्रह्मचारिणी हैं, क्या तुम भी वैसी ही हो?

कुछ क्षण वह स्तब्ध रही. शायद वर्म पर घाव लगा था. कालिदास भी मौन था. आश्रम परिसर में शाम उतर आई थी. वातावरण धूसर था. मन अस्वस्थ थे. आखिर कालिदास ने कहा,

“माते, क्षमा करो. परन्तु यहाँ से जाने से पूर्व मन में उठ रहा प्रश्न पूछ लिया. रहने दो.”

“वत्स, काल प्रवाह में जो प्रवाहित हो गया, वह अब वापस तो नहीं आयेगा. अब सन्दर्भों की आवश्यकता ही क्या है?

कालिदास उसके चरणों में नत मस्तक हुआ. उसके मन की अधीर उत्सुकता मौन होते हुए भी, उसे छू गई. उसे याद आया, वह बोली:

“उज्जयिनी के समीप एक ग्राम नें हमारा परिवार था. वृद्ध श्वसुर, पति के दो भाई और एक बालक, कुमार आयु की सीमा पर. हम सब विदिशा नगरी के शिव मंदिर के दर्शनों के लिए आये. वेत्रवती के किनारे पर खडी नौका में बैठे, नौका विहार के लिए. और अचानक आये झंझावात से नौका की दिशा बदल गई, और नौका में एक छेद है यह ध्यान में आया. परन्तु अब कोई पर्याय नहीं था. अंत में जिद्दी लहरों पर सवार नौका और अधिक हिचकोले खाने लगी. दिशाग्रस्त नौका. हम सब भयभीत हो गए.

किसी को भी पता न चला कि नौका का छेद कब बड़ा हो गया, और नौका डूब गई. कोई कहाँ, कोई कहाँ...पता ही नहीं चला. आज पच्चीस वर्ष बीत गए, कोई भी नहीं मिला.

मैं, जहाँ तुम पड़े थे, वहीं, वैसी ही पडी थी. अरण्य के आदिवासियों ने मेरी सहायता की. आगे चलकर यह आश्रम स्थापित किया. ऐसा कोई था ही नहीं जिससे जाकर मिल सकूँ. इन आदिवासियों की सहायता से ही राजा भोज तथा महाराज चन्द्रगुप्त का सहकार्य भी प्राप्त हुआ.

अब यह आश्रम और गुरुकुल ही जीवन का आधार है. तुम यहाँ से जा रहे हो, फिर कभी वापस भी आना. मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करती रहूँगी.”

बोलते-बोलते वह उठी तब शाम गहरी हो गई थी. कालिदास बड़ी देर तक उस अँधेरे में बैठा रहा. अँधेरे को छेद कर जाने वाले प्रकाश मार्ग पर उसे जाना था. विदिशा जाकर विद्वत्वती के सामने खड़े होना था. शास्त्रार्थ में पराजित भी हुआ तो कोइ बात नहीं, मगर शास्त्रार्थ करने की योग्यता भी प्राप्त कर ली थी, यह सिद्ध करना था. ‘आखिरकार मुझमें भी ‘अहम्? मन में प्रतिशोध की भावना है? विद्यार्जन करके क्या मुझे यही प्राप्त हुआ है? 

‘नहीं, विदिशा में वेदवती के पास नहीं जाना है. और यदि वास्तव में मन के ऊपर संयम है, तो उसके प्रति जो अनुकम्पा है, ‘उसका विवाह हुआ अथवा नहीं?’ मन को सदा व्यथित करने वाला जो प्रश्न है, उसका समाधान ढूँढना है. कल को किसी नगर में जाने पर अनेक वधुपिता मेरे पास आयेंगे. क्या कहूंगा उनसे? ‘मैं वह मातृगुप्त हूँ, जिसने असत्य का सहारा लेकर राजा भोज की कन्या से विवाह किया था? नहीं...नहीं...ऐसा नहीं होना चाहिए. पहले मुझे उसके बारे में जानना चाहिए.

‘क्यों जानना है? पुनर्विवाह अद्याप समाज में प्रचलित नहीं है. राजरीति के अनुसार अभी तक ऐसा किसीने किया नहीं है. तुम याद करो, क्या एक भी स्त्री ने ऐसा किया है?

मन के इस प्रश्न ने उसे स्वयँ ही विचारमग्न कर दिया. ‘तो फिर वह क्या कर रही होगी? विवाह हुआ इसलिए – सुहागन, और पति ने त्याग कर दिया इसलिए – परित्यक्ता? 

‘परन्तु, मैंने कहाँ उसका त्याग किया?

‘नगर की प्रजा तो यह नहीं जानती! वे तो इसी समाज रीति को जानते हैं, कि पति पत्नी का त्याग करता है. श्रीराम ने किया, गौतम ऋषि ने किया. परन्तु पत्नी ने पति का त्याग किया हो, ऐसे उदाहरण नहीं मिलते. फिर, मैं प्रकांड पंडित...इसीलिये तो उसने मुझसे विवाह किया था ना?

मन की इस उधेड़बुन में रात समाप्त हो गई. बचे हुए विद्यार्थी नित्य नियमित उच्च स्वर में वेद पठन कर रहे थे. कालिदास का मन अस्वस्थ था. वह वेत्रवती की ओर निकला, मन की सारी अस्वस्थता को उसके जलप्रवाह में विसर्जित करने के लिए.

शुचिर्भूत होने के बाद उसने उस अरण्य को, आश्रम परिसर को और देवी सरस्वती को मन ही मन प्रणाम किया, और मन ही मन उन्हें संबोधित करते हुए बोला, “माते, सरस्वती देवी, जब तुम्हारे पास आया था, तो मैं संभ्रमित था, व्यथित था और अज्ञ था. वेत्रवती के प्रवाह में बहते हुए मैं यहाँ आया था. किसी भी प्रयोजन के बिना अपना संदर्भहीन जीवन लेकर आया था. यहां आकर मेरे जीवन को अर्थ प्राप्त हुआ.

माते, तुमने मुझ पर पुत्रवत माया की, तुम्हें बताये बिना जा रहा हूँ. तुम्हारे सम्मुख आया तो बिदा लेना संभव न हो पायेगा. मैंने भोजन किया कि नहीं, मैं अपनी शैय्या पर सोया या नहीं, अगर कभी मेरा मन व्यथित होता तो कितनी नई-नई कथाएँ सुनाकर मुझे ऊर्जा प्रदान की.

माते, इस वेत्रवती के तट पर कितनी ही बार तुमने सूर्योदय के बारे में बात की, कभी अस्त होते हुए सूर्य के बारे में बताया. जीवन किस प्रकार सदा प्रवाहित होते रहना चाहिए इस बारे में वेत्रवती के किनारे पर बताया. अरण्य से बहते हुए सुखद समीर के बारे में बताया, वृक्ष-लताओं, पर्ण-पुष्पों द्वारा पृथ्वी को दिए गए दान के बारे में बताया. तुमने ही बताया था कि फलभार के कारण वृक्ष विनम्र होता है. ज्ञान से विनम्र होना चाहिए. हर कथा के माध्यम से तुम मुझे ज्ञान देती रहीं. माते, कितनी ही बार अरण्य में घूमते हुए तुम भी मौन रहतीं, मैं भी मौन होता. विधाता द्वारा निर्मित घनघोर अरण्य के असंख्य वृक्षों और पशु-पक्षियों को देखकर मन विस्मित हो जाता.

माते, फिर भी तुमने नहीं बताई अपनी व्यथा, और मैने भी नहीं सुनाई अपनी कथा. कल हम दोनों अपनी-अपनी कथा सुनाकर मुक्त हो गए. मैं नहीं मुक्त हो पाऊंगा. माते, मैं तुम्हारी बात सुनूं और फिर जाऊँ, ऐसा निश्चय करके भी पैर विदिशा की और बढ़ने लगे.

मैं आऊँगा, माते, फिर आऊँगा, निश्चित रूप से आऊँगा.’

उसने वेत्रवती के किनारे-किनारे से विदिशा की और जाने का निश्चय किया. नौका किनारे पर थी. चार व्यक्तियों सहित कालिदास नौका में बैठा और नौकाचालक ने अपने चप्पू जल में छोड़े.

अब सूर्य आकाश मार्ग पर चल पडा था.

 

***

No comments:

Post a Comment

एकला चलो रे - 4

  4 “ रोबी , यह बद्रीनाथ धाम मंदिर बहुत-बहुत प्राचीन है. श्री विष्णु ने इसे ‘योगसिद्ध ’ नाम दिया और  आगे , द्वापरयुग में प्रत्यक्ष श्...