दीपदान की ज्योति
बुझाकर कालिदास ने गवाक्ष के बाहर देखा. नक्षत्रों से परिपूर्ण आकाश में चन्द्र
प्रवेश कर ही रहा था. आधी रात हो चली थी. वातावरण में ठंडक थी. दिन भर के थके शरीर
को विश्राम देने के लिए वे शय्या पर लेट गए. शान्ति और प्रसन्नता का अनुभव हो रहा
था.
उस दिन शाम को जब प्रभावती से भोजपत्र ले रहे थे, तो उसने कहा था:
“कविराज, आपको कष्ट तो नहीं होगा? क्या मैं भी कुछ भोजपत्रों का पुनर्लेखन करूँ?”
“प्रभावती, जीवन की सत्यता को समझने में हमें विलम्ब हुआ, उसी प्रकार का विलम्ब
समाजमन के सन्दर्भों को समझने में हुआ है. अब समझ में आया कि हमारे पैरों ने मार्गक्रमण
किया ही नहीं, वे एक ही मार्ग पर मंडलाकार घूमते रहे.”
“कविराज आप जिन अनुपम, उत्कट और भाव मधुर शब्दों से मैत्री करते हैं, वे सम्राट
चन्द्रगुप्त की राजसभा का अलौकिक आनंद हैं, ऐसा प्रतीत होता है, मानो
सरस्वती स्वयँ आपके मुख से बोल रही हों.”
उसके द्वारा की गई स्तुति चाहे कौमार्यावस्था के प्रगल्भ विचारों द्वारा
व्यक्त की गई थी, फिर भी कालिदास को यह अनुभूति हुई कि उसे अनंत मार्ग पर चलना है.
तीन दिन बाद हुई विराट जनसभा में सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा:
“युद्ध से साम्राज्य का विस्तार होता है. उत्तम प्रशासन व्यवस्था से
अंतर्गत समाज सुस्थिति में रहता है, और सेना तथा सैन्याधिकारियों के कठोर कार्य से अंतर्गत
तथा बाह्य सुरक्षा अधिक दृढ़ होती है. साम्राज्य को यदि अन्याय, अत्याचार
और भ्रष्टाचार की छोटी सी भी दीमक लग जाए तो वह समाज और राष्ट्र को खोखला कर देती
है.
ऐसी स्थिति में अपने राष्ट्र की संपत्ति अवैध मार्ग से परदेस ले जाने वालों
को सज़ा, और वह भी कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए. हम न्यायसमिती से विचार विमर्श करके इस
निर्णय पर पहुंचे हैं, कि दंडपाशिक, दण्डपाशाधिकारी और महासेनापति इन उच्चपदस्थ अधिकारियों को मृत्युदण्ड न
देते हुए, क्योंकि मृत्युदण्ड की वेदना एक बार होकर फिर मुक्ति हो जाती है, ऐसा
अवैधानिक कृत्य करने वाले भ्रष्टाचारी अधिकारियों का एक-एक हाथ और पैर तोड़ा जाए.
उन्हें जीवन भर इसी हालत में देखकर अन्य लोगों को ऐसा कृत्य करते हुए भय
होगा. आगे से कोई भी ऐसा दुष्कृत्य करने का साहस न करेगा. इस साम्राज्य का निर्माण
हुआ है आप सबके सहकार्य से. हर परिवार का कम से कम एक सदस्य तो सेवारत है. इन सब
परिवारों का हम आदर करते हैं.
हम नहीं चाहते कि हमें क्रूर सम्राट की ख्याति प्राप्त हो. हमारे राज्य का
हर व्यक्ति सुखी रहे, यही हमारी कामना है. आप सब यदि प्रसन्न हैं, तो हम भी प्रसन्न हैं. आपकी
प्रसन्नता से ही राज्य प्रसन्न है.
और जिन तीनों को यह दण्ड दिया गया है, वे पश्चात्ताप स्वरूप, एक
हाथ और एक पैर के होते हुए भी, जन सेवा कैसे कर सकते हैं इस पर विचार करें.
आज तक हम समझ रहे थे कि यहां गणिकाओं का सम्मान है, शिल्पकला, नृत्यकला, संगीत, क्रीडा
आदि क्षेत्रों के कलाकारों का सम्मान है. किसी को कोई कमी न हो, और वह
शायद न भी हो; परन्तु इस भ्रष्टाचार से यह सिद्ध होता है कि धनलालसा मृगजल के समान
आगे-आगे ले जाती है. इसीलिये, इसी क्षण से हर अधिकारी, ग्रामपति अथवा नगरपति,
सेनापति अथवा कोषाधिपति, या किसी भी अधिकारी को गलत आचरण के लिए क्षमा नहीं किया
जाएगा. आप सहायता प्राप्त करने के लिए आवेदन अपने अधिकारी को दें. सहयोग अवश्य
प्राप्त होगा, परन्तु राष्ट्र की संपत्ति को अवैध मार्ग से परदेस न ले जाएँ. राष्ट्र की
लक्ष्मी का अनादर न करें.”
सम्राट चन्द्रगुप्त बहुत देर तक बोलते रहे, अंत में भावनावश होकर उन्होंने
कहा:
“अनगिनत वीरपुत्रों ने सुख के ये पल आपकी झोली में डाले हैं. उस इतिहास का
स्मरण करें. अपने इतिहास का अवलोकन करें. अपने सनातन धर्म को अबाधित रखने के
उद्देश्य से कितने युद्ध हुए उनका अवलोकन करें. धर्म का अर्थ है – संस्कारों से
वृद्धिंगत हुई शाश्वत, न्याय्य संस्कृति...”
सम्राट चन्द्रगुप्त बोल रहे थे और कालिदास को प्रभावती से लिए हुए भोजपत्रों
की याद आई.
मध्याह्न में जब सभा समाप्त हुई तो सम्राट चन्द्रगुप्त का जयघोष हुआ.
लोकमानस में सम्राट चन्द्रगुप्त की बहुआयामी प्रतिमा प्रतिष्ठापित हो गई थी.
कालिदास लिख रहे थे. ‘इतिहास’ शब्द का विग्रह ‘ह+आस’ है, इसलिए ‘इतिहास’ शब्द का
अर्थ ‘ऐसा हुआ’ – यह है. इतिहास के अध्ययन से भूतकाल की साक्ष प्राप्त होती है, इसीलिये
यह ग्रन्थ महत्वपूर्ण है.
लिखते-लिखते कालिदास रुक गए. ‘सत्य है, भूतकाल की साक्ष वर्त्तमान
काल में भी उपस्थित रहती है. एक जीवन के कितने ही मोड़ों का इतिहास बन चुका होता
है, और चाहे वह लिखा न गया हो, फिर भी याद रहता है. यदि अपना इतिहास अपने मन से मिटाया
जा सकता तो?”
चाहे कितना ही प्रसन्न वातावरण हो, कितना ही हास्यविनोद हो रहा
हो,
फिर भी उसी क्षण विषण्णता की एक हूक अंतर्मन में उठती है. किसी को पता नहीं चलता, परन्तु
हमें उस वेदना की साक्ष प्राप्त हो जाती है. जैसे किसी यक्ष को,
गंधर्वकन्या को अथवा अप्सरा को शाप मिले, वैसा ही मुझे भी मिला है. यह इस जन्म का संचित तो नहीं
है. यह पूर्वजन्म के संचित इतिहास का वर्त्तमान है.’ क्षण भर को विचलित हुए मन को
पुन: भोजपत्र पर केन्द्रित करके उसने लिखना आरंभ किया.
“रीतिनीति-आचारविचार, अधिकार-न्याय इनसे संबंधित धर्मसूत्र वैदिक काल में
लिखे गए थे. प्रशासन-सुव्यवस्था इन पर भी विचार करने वाले धर्मसूत्र हैं - गौतम धर्मसूत्र, बौद्धायन धर्मसूत्र, आपस्तम्भ
धर्मसूत्र, वशिष्ठ धर्मसूत्र, हिरण्यकेशी धर्मसूत्र. सर्वाधिक प्राचीन धर्मसूत्र गौतम
ऋषि ने लिखा है. कौनसे व्यवसाय करने चाहिए, वर्णव्यवस्था का गहरा अर्थ, राजा के
अधिकार तथा कर्तव्य, ब्रह्मज्ञान देने वाला यदि पातक करे तो उसे क्या दण्ड देना चाहिए, ऐसे अनेक
विषयों पर गौतम ऋषि ने २८ अध्यायों में प्रकाश डाला है.
और राजकीय प्रशासन के सन्दर्भ में बौद्धायन सूत्र अधिक महत्वपूर्ण हैं.
इसके चार अध्याय - धर्म का मूल, यज्ञ, संन्यास, वानप्रस्थाश्रम में
कृष्ण-यजुर्वेदाचार्य बौद्धायन ने शालिवाहन शक संवत्त् से काफी पूर्व समाज का सभी
पहलुओं से विचार किया है.
‘स्मृतिग्रंथ’ में है आचार-विचारों की संहिता, अधिकार और न्याय के सन्दर्भ
में मनुऋषि द्वारा रचित यह ग्रन्थ है. इसमें बारह अध्याय और २६८४ श्लोक हैं. न्याय
व्यवस्था, अपराध, दंड, शासन, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक विषयों का प्रतिपादन और साथ ही दान, उसके
अधिकार, संस्कार, कुल के अधिकार, पति-पत्नी के, पुत्र के कर्तव्य इन पर सर्वांगीण रूप से
प्रकाश डाला गया है.
कालिदास लिख रहे थे. वैसे सरस्वती आश्रम में इस ग्रन्थ का अध्ययन हुआ तो था, परन्तु अब, समाज के
वास्तव का सामना करते हुए जो प्रश्न उपस्थित होते हैं, उनके उत्तर ढूँढने के लिए
जब इस ग्रन्थ का आधार लेते हैं, तो इस बात पर ध्यान जाता है कि इन ऋषि-मुनियों ने कितनी
सूक्ष्मता से जीवन का अध्ययन किया है. उन्होंने फिर से भोजपत्रों पर नज़र डाली.
‘विष्णुस्मृति’ मनुस्मृति की संस्कारित आवृत्ति प्रतीत होते हुए भी
आपाद्कालीन घटनाओं से निकालने के लिए उस
स्थिति में सभी वर्णों के लोगों को कौनसी सावधानियां बरतनी चाहिए, कौनसे
व्यवसाय करने चाहिए, किस वस्तु पर कितना राजस्व लेना चाहिए यह बताते हुए शासन व्यवस्था में
कठोर दंड की आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है.
‘नारदस्मृति’ नारद मुनि के अखंड भ्रमण की, मानव स्वभाव और उसके आकलन की गाथा अनुभव से सिद्ध होते
हुए भी उसमें न्याय विषयक साक्षी और दण्ड पर ध्यान केन्द्रित किया गया है.
‘मनुस्मृति’ में स्त्रियों के पुनर्विवाह को अनुमति नहीं दी गई है, परन्तु नारद
मुनि के न केवल पति निधन के बाद स्त्रियों के पुनर्विवाह को मान्यता दी, अपितु पति
के निधन के पश्चात उसकी संपत्ति में पत्नी का भी अधिकार है, ऐसा
स्पष्ट निर्देश भी दिया है. मनु ऋषि को यह मान्य नहीं है. उसमें व्यावसायिक
संगठनों का उल्लेख और तत्संबधी नियम भी हैं.
लिखते-लिखते कालिदास को याद आया कि एक बार सम्राट ने राजसभा के तपोधन, ऋत्विक, शाल्व और
भद्रसेन को इस स्मृतिग्रन्थ से प्रशासन के लिए योग्य नियमों,
सिद्धांतों की लिखित संहिता बनाने का कार्य सौंपा था. वह कार्य पूरा हुआ अथवा नहीं
यह जानने का कोई मार्ग न था, क्योंकि उसके बाद सम्राट चन्द्रगुप्त युद्ध में चले
गए थे. उन चार लोगों का कार्य पूरा न हुआ हो तो मैं भी आसानी से उनके साथ सहकार्य
कर सकता हूँ, यह विचार कालिदास के मन मे आया, और मन में प्रसन्नता का अनुभव हुआ.
ऋषि मुनियों ने अपने अनुभव से, सहानुभव से विचार मंथन करके, सामाजिक तथा सूक्ष्म मानवी
भावनाओं का अध्ययन करके, सुव्यवस्था की दृष्टी से कर्त्तव्य का ज्ञान देने के लिए
स्मृति ग्रंथों की रचना की.
‘पाराशर स्मृति’ ग्रन्थ में पाराशर ऋषि ने प्रत्येक वर्ण के लोगों को
राजस्व कितना और किस स्वरूप में देना चाहिए इसका उल्लेख किया है. व्यवसाय,राजस्व, राजस्व
वसूल करने के मानदंड, प्रायश्चित्त, कर्त्तव्य आदि का प्रमुख उल्लेख है.
‘बृहस्पती स्मृति’ ग्रन्थ में बृहस्पती ऋषि ने न्याय, शासन, अधिकार का
सूक्ष्म विवेचन किया है. न्याय मंडल के कार्य, ईश्वर की साक्षी-शपथ,
न्यायविषयक कार्यपद्धति का इतना सुसंगत विचार प्रस्तुत किया है कि वह तत्कालीन
राजाओं के लिए ही नहीं, अपितु वर्त्तमान सम्राटों के राज्यों की न्यायव्यवस्था
के लिए भी मार्गदर्शक है.
‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ में मानव जीवन और समाज जीवन का ‘मनुस्मृति’ जैसा ही
गहन अध्ययन किया गया है, कि....
लिखते-लिखते कालिदास रुक गए. यदि जीवन का सूक्ष्म अनुभव प्राप्त करना हो तो
समाज के प्रत्येक क्षेत्र का अध्ययन, मानवी मन तथा संवेदना, कर्तव्य और कठोरता इनका भी
अध्ययन किया जाना चाहिए. मैंने अध्ययन तो किया है, परन्तु अनुभव प्राप्त करने
में विलम्ब हो रहा है. याज्ञवल्क्य ने वेद, वेदांग, इतिहास,
अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, दर्शन का इतना सूक्ष्म और संयत अध्ययन किया कि ‘मनुस्मृति’ के २६८४
श्लोकों में जो वर्णित है उसे ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ में केवल १००० श्लोकों में
सुन्दर और सुसंबद्ध रीति से प्रस्तुत करते हुए परराष्ट्र नीति को भी विस्तृत साम्राज्य
के लिए आवश्यक माना है.
कैसा गहन निरीक्षण और अध्ययन, उसके बाद चिंतन, संशोधन और सिद्धांत.
कालिदास स्तंभित हो गए. रामायण, महाभारत – ऋषियों की इन मौलिक काव्यप्रतिभाओं से हम
मुग्ध हो गए थे. परन्तु इन स्मृतिग्रंथों ने सामाजिक जीवन के अर्थ की जैसी समीक्षा
की है वह प्रशंसनीय है.
उन्होंने पुनः भोजपत्रों का लेखन आरम्भ किया. इस सारे साहित्य का एक साथ
अध्ययन करते हुए उनका मन प्रसन्न हो गया था.
विष्णुपंत चाणक्य अर्थात् आचार्य चाणक्य द्वारा लिखित कौटिल्य का
अर्थशास्त्र हो, राजशास्त्र हो, राजसत्ता, परराष्ट्र व्यवहार, मंत्री परिषद्, राजव्यवस्था, गुप्तहेर
पद्धति, राजस्व पद्धति, राजसत्ता की निर्मिती के सिद्धांत, और
साम्राज्य में शान्ति किस प्रकार भंग की जा सकती है, इस सबका उल्लेख चन्द्रगुप्त
मौर्य के काल में रचित इस ग्रन्थ में है.
सम्राट चन्द्रगुप्त ने कौटिल्य शास्त्र का अध्ययन अवश्य किया होगा, इसमें
संदेह नहीं. पाणिनी का ‘अष्टाध्ययी’, चरक-सुश्रुत इनकी ‘सुश्रुत तथा चरक संहिता’ और
वात्स्यायन का ‘कामसूत्र’ यह ग्रन्थ मानव देह और रसिक मन का संवाद ही है. उसमें
रसिकता, श्रृंगार, श्रृंगार के प्रकार, कुमारिका, पत्नी, प्रेयसी से कैसे संबंध रखने चाहिये,
विवाहविधि, गणिका ...
‘गणिका’ शब्द से उन्हें लावण्यवती मधुवंती और विदुषी सुवर्णमयी का स्मरण हो
आया. पिछले कुछ दिनों से मन पर छाई अस्वस्थता एकदम समाप्त हो गई.
आधी रात होने को थी. उन्होंने अंगरखा पहना, उस पर उत्तरीय डाला और
अश्वारूढ होकर मधुवंती के प्रासाद की ओर
निकल पड़े.
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