कार्तिक मास
आरम्भ हुआ ही था. उत्तर दिशा से आने वाली शीत लहरों से सारा वातावरण ठिठुर गया था.
अन्य कुटियों में अनेक विद्यार्थी इकट्ठे रहते थे, परन्तु तीन मास बीत जाने पर भी देवी
सरस्वती ने कालिदास को गुरुकुल की पाठशाला में प्रवेश दिया ही नहीं था. उसकी कुटी
सिर्फ उसी की थी, वह
अकेला ही रहता था. इसके पीछे देवी सरस्वती की क्या योजना थी, यह उसे समझ
में नहीं आ रहा था.
प्रातःकाल का
पठन, दोपहर
का लेखन,
सायंकालीन वेदपठन – इसमें वह कहीं नहीं था. सुबह देवी सरस्वती भोज पत्र पर अक्षर
लिख कर देतीं, उनका
अर्थ बतातीं. अरण्य में गोधन लेकर जाता, और निवांत क्षणों में धूल पर उन अक्षरों को
लिखता. सायंकाल में आरती और मन्त्र पठन समाप्त होने के बाद देवी सरस्वती उसे विविध
विषयों के बारे में जानकारी देती. परन्तु अभी भी दो-चार विद्यार्थियों के अलावा
उसका किसी से परिचय नहीं हुआ था.
गोधन और गोशाला
से एक दिन उसे मुक्त करते हुए देवी सरस्वती ने कहा:
“वत्स, आज तुम्हारी
परीक्षा. अक्षरों से परिचय हो गया. उन अक्षरों का अर्थ भी ज्ञात हो गया. अब अरण्य की
अपनी अनुभूति के बारे में, उसके
बारे में तुम क्या सोचते हो, इस पर आज रात को लिख डालो. कल से तुम्हें
गुरुकुल के कुछ विद्यार्थियों के साथ नित्य वेत्रवती से जल कुम्भ भरकर लाना है और
आश्रम के महाकुम्भ को भरना है.”
यह कार्य उसके मन को प्रिय नहीं लगाने वाला था. परन्तु वह मौन रहा. उसने सोचा, यदि मैं इस
परिक्षा में उत्तीर्ण हो गया तो महाकुम्भ को भरने का अविरत कार्य नहीं करना पडेगा.
मध्यरात्री तक उसने अनेक भोजपत्रों का प्रयोग करके ‘अरण्य – ईश्वरीय स्वप्न’ ऐसा
लिखा था. प्रातःकाल वह उसे देवी सरस्वती को दिखाने वाला था, फिर भी
महाकुम्भ जल से भरना ही था.
कुटी का द्वार
खुल गया और शीत लहरों से उसकी देह कंपकंपाने लगी. परन्तु अब निद्रावश होना संभव
नहीं था. चन्द्रमा पश्चिम की और सरक गया था. कार्तिक मास में सूर्य देवता को भी
मेघों का आवरण छोड़कर आना प्रिय नहीं होता. ‘मैं भी कुछ देर... नहीं, निद्रा से मोह
नहीं...इसकी अपेक्षा जमा देने वाली इस ठण्ड में जाकर वेत्रवती का दर्शन लेना उचित
है. शायद वह निद्रावश हो, उसे
हाथ के स्पर्श से जागृत करके...’
उसे वेदवती की
याद आई, जिसे
इन तीन महीनों में उसने भुला दिया था. मन तथा शरीर रोमांचित हो उठा. आभास से ही
अनेक स्पर्श लहरें उसके शरीर में प्रकट हो गईं. ‘सब कुछ स्वप्नवत, परन्तु सत्य
जैसा. अब तो सत्य ही स्वप्नवत हो गया है. लावण्यवती, वेदविद्या,
अस्त्र-शास्त्र विद्या निपुण, शास्त्रार्थ में पराजित करने वाली विद्योत्तमा
वेदवती एक सत्य,
परन्तु अब केवल स्वप्न ही है.
परन्तु वह है.
मैं भी हूँ. दोनों ही सत्य हैं. विवाह भी सत्य है. परन्तु अब स्वप्नवत प्रतीत होने
वाला सत्य. क्या कर रही होगी वह? कैसी होगी? उसके मन पर आघात हुआ, उसका क्रोध
अनावर हो गया. क्रोधवश मुझे सीमापार करके उसके मन को कितनी वेदना हुई होगी... अपमान, अवहेलना, असत्य को सहन
करते हुए शायद वह...’
अपने मन से
उसका विचार निकालने के लिए वह उन शीत लहरों में ही जल कुम्भ लेकर वेत्रवती की दिशा
में चल पडा. अभी पगडण्डी भी निद्रिस्त थी. वृक्ष, विहंग, लता, कलिका सभी
निद्रिस्त थे. कहीं चक्रवाकी चक्रवाक को पुकार रही थी. मोर का कुहकना जारी था.
वातावरण में बस इतनी ही ध्वनियाँ थीं.
चन्द्रमा
पश्चिम की तरफ और अधिक झुक गया और उषा ने अपने रंगप्रासाद के पट खोल दिए. उसे
ज्ञात था कि रविराज के आगमन में अभी बहुत विलम्ब है. उसने अपने केसरी वस्त्र पर
सुनहरा उत्तरीय लिया और वह प्रतीक्षा करती रही. अरुण-रथ के आगमन से पूर्व उसे केवल
विविध रंगों की रंगोली बनानी थी.
कालिदास सब कुछ
भूलकर आकाश के नयनरम्य चित्र को मन में संजोता रहा. वेत्रवती हौले से जाग उठी थी, लहरों के केश
समेटकर वह अब प्रवाहित होने ही वाली थी. कालिदास वहाँ बैठा, उसने वेत्रवती
के जल को स्पर्श किया,
संपूर्ण शरीर में एक शीत लहर प्रवाहित हुई.
‘यह लोकमाता का
आश्वासक स्पर्श है और उस रात वेदवती के प्रासाद में जाने के बाद उसने जैसे ही कंधे
को स्पर्श किया, देह
अनामिक लहरों से कंपित हो गई. स्पर्श एक ही, परन्तु स्पर्श करने वाले व्यक्ति की भावनाओं को
प्रकट करने में समर्थ. और इतनी सहजता से समझ में आ जाता है, कि कुछ कहने
की आवश्यकता ही नहीं पड़ती.
उस दिन देवी
सरस्वती ने अत्यंत स्नेह से कंधा पकड़कर उठाया था. वह था स्नेह का स्पर्श. इस
स्पर्श में कितनी संवेदनाएं होती हैं. वे अत्यंत चैतन्यमयी होती हैं, उनका एक दूसरे
को अनुभव होता है. इन भावनाओं-संवेदनाओं को स्पर्श से अनुभव किया जा सके, इस सामर्थ्य का
निर्माण किसने किया होगा?’
वह खुद ही हँस
पडा. अनावश्यक प्रश्न,
अनावश्यक समय पर ही कैसे उत्पन्न होते हैं, यह भी एक प्रश्न ही है. देवी सरस्वती ठीक ही
कहती हैं, मुझे
प्रश्न ही ज़्यादा सताते हैं. शायद मन को उनका उत्तर मिल जाए तो मेरे मन को परिपूर्णता
प्राप्त होगी.
‘परन्तु
परिपूर्णता की परिभाषा आखिर है क्या?’ विचारमग्न कालिदास के हाथ से मृत्तिका-कुंभ छूट
गया और प्रवाह के साथ बहने लगा. कालिदास ने तत्परता से जल में उतर कर कुम्भ को हाथ
में पकड़ लिया.
अब रविराज हौले
से अपने नेत्र खोलकर वातावरण को देख रहे थे. अब शीत लहरों को किंचित उष्णता का
स्पर्श हुआ. कालिदास ने कुंभ में जल भर लिया. जब तक ऋचापठन चल रहा है, महाकुम्भ भर
लेता हूँ, और
आते-जाते उषासूक्त की ऋचाओं का स्मरण करता रहूँगा. यह भी देख लूँगा कि वे कंठस्थ
हुई हैं अथवा नहीं. यह विचार आते ही उसने मुक्त कंठ से उषासूक्त का गायन प्रारम्भ
कर दिया. रविराज के पूर्व क्षितिज पर प्रवेश करने से पूर्व ही उसका महाकुम्भ जल से
भर गया था.
देवी सरस्वती
इस समय अपने शिष्यों को ज्ञानदान दे रही होंगी. इस समय उनका यही कार्य होता है.
अगर इस समय मैं भी वहाँ जाऊँ तो...! देवी सरस्वती ने इसकी अनुमति नहीं दी थी. फिर
भी अत्यंत अधीरता और उत्सुकता से वह गुरुकुल की ओर मुड़ा.
आश्रम के
विस्तीर्ण परिसर में गुरुकुल की स्वतन्त्र व्यवस्था थी. आश्रम की व्यवस्था में
यज्ञ तथा अन्य उत्सवों का आयोजन होता था, जबकि गुरुकुल में केवल ज्ञानदान होता था. आश्रम
में अनेक अतिथि आते. जब ऋषि, यात्री, पांथस्थ आते तो वे गुरुकुल को भेंट देकर
मार्गदर्शन करते. कालिदास का परिचय देवी सरस्वती के मानस पुत्र के रूप में दिया
जाता. सेविका कालिका तथा कुछ ही सेवक यह बताते कि उसे काली-मंदिर से लाया गया था.
कालिदास ने भी बताया था कि माता से मिलने के लिए वह काली-मंदिर आया था. आगे का
वृत्तांत उसे ज्ञात नहीं है. आश्रम की दृष्टी से विषय वहीं समाप्त हो गया था.
परन्तु देवी सरस्वती को कालिदास का गत जीवन जानने की उत्सुकता थी. कालिदास को भय
था कि कभी अनजाने में उसके मुख से सत्य बाहर न आ जाए.
कालिदास
नियमपूर्वक काली माता के मंदिर में जाया करता. कालीमाता का वह रौद्र रूप देखकर वह
सोचता,
‘अन्याय के प्रतिकारार्थ है यह रौद्र रूप और बगल में ही स्थित शिवमंदिर में
शिवशंकर की अत्यंत मनोहारी प्रतिमा. मानो शिव शंकर असुरों के वध का दायित्व काली
माता को देकर निश्चिन्त हो गए हों, ऐसा था उन दो मंदिरों का दृश्य. यह देखते हुए
पल भर के लिए वेदवती की याद आ जाती. स्त्री यदि ठान ले, तो वह कितने ही
सबल, सुदृढ़
और क्रूरकर्मा असुरों का वध कर सकती है, अमर्याद शक्ति को प्रतिबंधित कर सकती है. यदि
वेदवती ने मुझे सीमापार न करके मेरा पुनर्निर्माण किया होता तो? इस विचार के
प्रबल होते ही देवी सरस्वती का विचार मन में आ जाता.
गुरुकुल की
स्थापना करने वाली, आश्रम
का संचालन करने वाली,
बहुमुखी प्रतिभा वाली स्त्री – देवी सरस्वती. उन्होंने मेरे जैसे असंस्कृत, अज्ञानी पुरुष
का पुत्र के रूप में सम्मान किया. परन्तु वेदवती ने मुझे अस्वीकार कर दिया.
शायद पत्नी का
अधिकार अधिक होगा. हो सकता है, माता क्षमादायिनी होती हो? उसके भीतर
पुत्र की अवस्था जानने की क्षमता होती होगी.
गुरुकुल की ओर
जाते हुए उसके मन में देवी सरस्वती के प्रति सम्मान दुगुना हो गया. गुरुकुल के एक
आम्रवृक्ष के नीचे एक ऊँची शिला पर देवी सरस्वती बैठी थीं. सामने शिष्यगण
अपने-अपने आसनों पर. अत्यंत सात्विक, सुन्दर, मधुरभाषिणी देवी सरस्वती बोल रही थीं.
नंदन ने एक
प्रश्न पूछा,
“साहित्य का अर्थ क्या है?” आगे
उसने यह भी पूछा कि क्या एकत्र करने का अर्थ साहित्य है? काष्ठ, समिधा – क्या
यज्ञ का साहित्य है?
‘देवता-अर्चन साहित्य’ यह शब्द भी प्रयोग में लाया जाता है. क्या साहित्य का
तात्पर्य वस्तुओं के संकलन से है? वास्तव में
नंदन ‘साहित्य’ की परिभाषा जानता है, परन्तु ‘साहित्य’ – यह शब्द समाज में कितने विविध
अर्थों में प्रयुक्त होता है, यह दर्शाने का वह प्रयत्न कर रहा है. उसका
प्रश्न अतिशय तर्कसंगत है.
कालिदास एक
वृक्ष के पास खडा था.
‘मतलब, प्रश्न सिर्फ
मेरे ही नहीं अपितु औरों के मन में भी उत्पन्न होते हैं, और उनके अर्थ
कभी खुद तो कभी औरों से प्राप्त करने होते हैं. परन्तु जैसा देवी सरस्वती कहती हैं
कि उन्हें स्वयँ ही, स्वयँ
के भीतर खोजना होता है.’
“वत्स, नंदन! अर्चना
साहित्य, यज्ञ
साहित्य, खाद्य
साहित्य इन सब ‘साहित्य’ शब्दों में एक विशिष्ठ कार्य के लिए आवश्यक जो जो वस्तुएं
हैं, उनसे
तात्पर्य है. परन्तु यदि हम ‘साहित्य’ की परिभाषा करें तो ‘लिखित साहित्य’ को केंद्र में
रखकर करते हैं. जो-जो सुन्दर है, मन को प्रसन्नता देने वाला है, शब्दों की सरिताएं
जहाँ एकत्रित होती हैं, वह है
साहित्य. उस प्रवाह में मनुष्य के सुख दुःख के, व्यथा वेदनाओं के, समस्याओं के, संघर्षों के
प्रवाह भी होते हैं. मन की जिस स्थिति से हम जा रहे होते हैं, उस प्रकार का
साहित्य प्रवाह हमें प्रिय प्रतीत होता है. परन्तु, जो हमें प्रिय है, वही साहित्य
है, ऐसा अर्थ
कदापि नहीं है.
अपनी विवेक
बुद्धि को जागृत करने वाला, समाज
मन का निदर्शन करने वाला, समाज हित और राष्ट्र हित को संभालने वाले प्रवाह साहित्य
के महासागर में मिलते हैं. स्खलनशील, अधोगति की और ले जाने वाले शब्दों को जो
प्रतिबंधित करता है - वह है संस्कृति दर्शक साहित्य.
आत्मानंद के
लिए निर्मित साहित्य, समाज
को सन्मार्ग की और ले जाने वाला साहित्य, समाज से राष्ट्र हित की ओर जाने वाले शब्द-साहित्य
का अनुभव हमें साहित्य वाचन से होता है.”
“संस्कृति से
क्या तात्पर्य है?”
प्रद्योत ने प्रश्न पूछा.
“जीवन जीने का
अलिखित संविधान – संस्कृति है. मानव के, ऋषिमुनियों के प्रगाढ़ अनुभव से साकार किये गए
उत्तम जीवन के रीति-नियमों का परंपरा से जतन करने का अर्थ है – संस्कृति. मानव के
हित के लिए निर्मित जो कार्य प्रणाली है, उसका अर्थ है - संस्कृति.”
मधुर शब्द
हौले-हौले आयें और निर्झर की तरह प्रवाहित होते रहें, वैसा ही
कालिदास को देवी सरस्वती के शब्द सुनकर लग रहा था, वह अत्यंत प्रभावित हो गया, और
अनजाने ही उसने देवी सरस्वती से अचानक प्रश्न पूछ लिया:
“एक-एक शब्द से
प्रवाहित होने वाला माधुर्य, विनम्रता, बुद्धिवैभव, शुचिता हरेक को कैसे प्राप्त हो सकती है?”
कालिदास यद्यपि
अचानक आया था, मगर
किसी दिन वह स्वयँ ही गुरुकुल में आयेगा, यह विश्वास देवी सरस्वती को था, वह हँसकर बोली, “ स्वागत है, वत्स, तुम्हारा. मैं
सबको तुम्हारा परिचय देती हूँ. यह है मेरा मानस पुत्र कालिदास. यद्यपि इसने जीवन के गुरुकुल में स्वानुभव से
ज्ञान प्राप्त किया है,
परन्तु इसे तुम्हारे ही समान गुरुकुल में ज्ञान प्राप्त करना है. जैसे श्रीकृष्ण
ने विलम्ब से ही संदीपनी के आश्रम में जाकर ज्ञान प्राप्त किया था, वैसे ही.
वत्स! अब तुम्हारे प्रश्न की और आती हूँ, और उसका उत्तर ...”
वह रुकी.
कालिदास अब भूमि पर बैठा था. अब वह अनेक विद्यार्थियों के साथ था, उसकी लज्जा
समाप्त हो गई थी यह स्पष्ट था. देवी सरस्वती को समाधान हुआ. वह बोलीं:
“जीवन की और
देखने का सहृदय दृष्टिकोण, निसर्ग
के प्रति स्नेह, भाषा
का प्रगाढ़ ज्ञान,
विनम्रता यह प्रत्येक गुरुकुल में प्राप्त होती है, ऐसा नहीं है. उसे स्वयँ ही विकसित करना
होता है. किसी भी मार्ग पर विचार पूर्वक चलने से यह सिद्धि प्राप्त होती है.”
माध्याह्न का
समय हो चला था. देवी सरस्वती ने सबको भोजन कक्ष की ओर जाने के लिए कहा. विद्यार्थी
ही पाक कला, नृत्य
कला, संगीत, नाट्य एवँ
अन्य कलाओं में पारंगत हो रहे थे. ज्ञान साधना के साथ-साथ ही इन कलाओं का अभ्यास
भी यहाँ होता था. कालिदास को इस सबका नया अनुभव हो रहा था. अब देवी सरस्वती ने
मनःपूर्वक उसे मुक्त संचार की अनुमति दी थी. जब वह औरों के साथ पाकशाला की और मुड़ा, तो देवी
सरस्वती को मन ही मन आनंद हुआ.
प्रात:काल में
‘अरण्य वाचन’ विषय
पर लिखा हुआ उसका भाष्य अप्रतिम था, परन्तु अक्षरों का समन्वय योग्य नहीं था. परन्तु
अल्पावधि में किये गए उसके प्रयास भविष्य के यश की घोषणा हैं, ऐसा विश्वास
उसे हो गया.
जब कालिदास
अकस्मात् वापस आया तो वह भोजपत्र पर उसकी लिखी हुई इबारत पढ़ रही थी.
“माते, बिना आज्ञा के
मैं गुरुकुल में आ गया, बिना
आज्ञा के ही पाकशाला और भोजन कक्ष की और चला गया. माते, मुझे क्षमा
करो! मुझे जलकुम्भ फिर से भरना होगा, अब सभी जल प्राशन करेंगे.”
“वत्स, जलकुम्भ भरने
के लिए कुछ सेवक और विद्यार्थी हैं. यहाँ निर्मित उपवन को भी नित्य संचित करना
होता है. प्रत्येक वृक्ष को भी सिंचित करना होता है, तुम यह सब नहीं कर पाओगे. क्योंकि
अब तुम्हें अन्य कला-शास्त्रों में पारंगत होना है. इसलिए माध्याह्न समाप्त होते
ही सबके साथ वेत्रवती की ओर जाना, तब जलकुम्भ भरे जायेंगे, अब तुम अन्य
विद्यार्थियों जैसे हो.”
“फिर भी मैं
सरस्वती पुत्र ही रहूँगा न, माते?”
कालिदास के
प्रथम दर्शन से ही मन में स्नेह उत्पन्न हो गया था. एक अनामिक स्नेह रज्जू द्वारा
मैं उससे संलग्न हूँ, यह अनुभूति
उसे थी. ये अचानक मन में सुख की भावना क्यों जाग उठी, कैसे यह सुख
नयनों से बहने लगा...इसका उसे भी आश्चर्य हुआ था. जैसे अपनी दूरस्थ माता से मिलने
आया हो, वही
स्नेह कालिदास के नेत्रों में भी था. इस सबका अनुभव करते हुए वह मौन थी.
“माते, मैं सरस्वती
पुत्र ही रहूँगा ना?”
“वत्स, तुम सरस्वती
पुत्र ही रहोगे. लोक मानस में तुम्हारी प्रतिमा सरस्वती पुत्र कालिदास की ही
रहेगी. विद्या ग्रहण करना तुम्हारे लिए इतना सरल नहीं है, इसलिए तुमको
प्रातःकाल और रात्रि में अधिक परिश्रम करना होगा. यहां शाकम्भरी देवी, देवी मैत्रेयी, देवी वनिता, वसुंधरा ऐसी
दस अध्यापिकाएं हैं. उनका भी परिचय प्राप्त करो. विविध कला गुणों में परिपूर्णता
प्राप्त करो. वत्स, जब
तुम यहाँ से जाओगे तो तुम्हें कोई भी शास्त्रार्थ में पराजित नहीं कर पायेगा.
संगीत, नृत्य, शिल्प, काष्ठ
कलाओं का परिपूर्ण ज्ञान तुम्हें होगा.”
कालिदास मौन था, परन्तु उसके
नेत्र भर आये थे. देवी सरस्वती अपने मन में समझ गई. अनंत वेदनाएं ह्रदय में समाये, अखंड
प्रयत्नशील यह युवक भविष्य में निश्चित ही सरस्वती पुत्र के रूप में प्रसिद्ध
होगा.
वह वहीं खडा
था. देवी सरस्वती अपनी कुटी की दिशा में निकल पडी थीं. उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, वह वहीं खडा
था.
***
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