“महाराज, चन्द्रगुप्त, दक्षिण में रामेश्वर की ओर जाते हुए हमने मध्यदेश में आपके साम्राज्य के उज्जवल आलेख और आपकी गुणज्ञ अभिव्यक्ति के बारे में सुना. इसलिए आपके बहुचर्चित सिंहासन और नवरत्नों से सुसज्ज राजसभा को देखने के लिए विशेष रूप से आये हैं.”
राजशेखर शास्त्री बोल रहे थे. अतिथि कक्ष में प्रातःकाल ही उनके आगमन की
सूचना प्राप्त हुई थी. परन्तु अतिथियों का स्वागत करने में दोपहर हो गई थी. आज
सम्राट चन्द्रगुप्त ने स्वयँ महाकालेश्वर के मंदिर में अभिषेक किया था. कुछ ही दिन
पूर्व वे प्रदेश की सुव्यवस्था करके वापस लौटे थे.
“आपका मनःपूर्वक स्वागत करता हूँ. आपका आदरातिथ्य त्वरित नहीं कर सका, इसके लिए
क्षमाप्रार्थी हूँ. आपसे अपना परिचय देने की विनती करता हूँ.”
“महाराज, मैं वेदशेखर शास्त्री, मैंने वेदशास्त्रों का अध्ययन किया है. ऋषियों के अनुभव
पर आधारित शास्त्रग्रंथों का प्रमाण और प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर अध्ययन करता
हूँ. ये हैं मेरे गुरुबंधु हरिहरेश्वर पंडित. ये स्वयँ वैय्याकरणी एवँ संस्कृत
भाषा के अध्ययनकर्ता हैं. आपके नगर में प्रवेश करते ही इस बात पर ध्यान गया कि
आपके नगर की, राजप्रासाद की, सर्वसामान्य व्यक्ति से लेकर राजप्रासाद तक बोली जाने
वाली भाषा देववाणी संस्कृत है. हमें बहुत प्रसन्नता हुई.”
“सत्य कहता हूँ, महाराज, पिछले अनेक वर्षों से हम भारत भ्रमण कर रहे हैं, देववाणी
संस्कृत आपकी मातृभाषा है, इसका केवल आपके नगर में ही अनुभव हुआ. यह भी ज्ञात हुआ कि यहाँ हर व्यक्ति
को दो भाषाओं का ज्ञान है. आप संस्कृति एवँ ज्ञान के उपासक हैं, इसकी भी
प्रचीति हुई,” हरिहरेश्वर पंडित ने कहा.
अब अन्य दोनों का परिचय देता हूँ. ये हैं माधवाचार्य. इन्होंने नृत्य, नाट्य,
संगीत और शिल्पकला का गहन अध्ययन किया है. और ये हैं पंडित वासुदेवानंद. इन्हें
केवल भ्रमण में रूचि है. हर स्थान का निसर्ग इन्हें पुकारता है. कवित्व का भी
इन्हें ज्ञान है. ये सांख्यवादी हैं. पिछले कुछ वर्षों से अपने-अपने उद्देश्य का
समाधान प्राप्त हो इस हेतु से हम भ्रमण कर रहे हैं.”
“उत्तम. हमें भी आपके आगमन से आनंद हुआ है. आप नगर में कुछ समय वास्तव्य
करें. आपके ज्ञान का, अनुभव का लाभ हमें भी प्रदान करें.”
“अवश्य, महाराज. हमें भी आपके तथा आपके साम्राज्य के बारे में अनेक कथाएँ सुननी
हैं. हम आपकी अनुमति से कुछ काल वास्तव्य करने ही वाले थे, अब आप ही के कहने से
दुग्ध-शर्करा योग उत्पन्न हो गया.”
सम्राट चन्द्रगुप्त अत्यंत प्रसन्न थे. आज राजसभा में परिवार की महिलाएं
नहीं थीं. महाभिषेक संपन्न होने के उपलक्ष्य में वे महाभोजन के कार्यक्रम की
व्यवस्था में व्यस्त थीं. आज चर्चा के लिए कोई राजकीय विषय नहीं था. न्याय पाने के
लिए भी कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी. अत्यंत सुदृढ़, सुबाहू, सुविचारी, प्रजाहित
दक्ष एवँ गुणी सम्राट के रूप में प्रसिद्ध कीर्ति का तेज उनके मुखमंडल पर था.
आज राजसभा में अत्यधिक संख्या में नागरिक उपस्थित थे. इन चारों के बारे में
सभी के मन में उत्सुकता थी. मुख्यत: राजशेखर शास्त्री का नाम सर्वश्रुत था.
धन्वन्तरी, क्षपणक, अमरसिंह, शंकु, वेताल भट्ट, घटखर्पर, कालिदास, वराहमिहिर, वररुचि इन नवरत्नों के साथ-साथ राजपुरोहित और नगराध्यक्ष भी उपस्थित थे.
“महाराज, हमें चौंसठ योगिनियों के बारे में ज्ञान है, परन्तु आपके सिंहासन की
बत्तीस योगिनियों के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है,” हरिहरेश्वर पंडित ने कहा.
“कालिदास, आप चौंसठ योगिनियों के बारे में जानते हैं?” सम्राट चन्द्रगुप्त ने
पूछा.
“अवश्य, महाराज.”
“क्या पहले उन योगिनियों का परिचय हमें दे सकेंगे? पंडित हरिहरेश्वर, ये
कविराज कालिदास हैं. अनेक शास्त्रों में पारंगत हैं. मुख्यत:, आपके वासुदेवानंद के
समान इन्हें भी भ्रमण और निसर्ग प्रिय है. ये हमारे स्नेही भी हैं, अब बताएँ, कविराज.”
कालिदास खड़े हो गए. सम्पूर्ण राजसभा उनकी मधुरतम वाणी में वक्तव्य सुनने के
लिए नित्य आतुर रहती थी. यह विषय नया होने के कारण सभी उसे सुनने के लिए उत्सुक
थे.
“हम अपनी राजसभा के नवरत्नों का परिचय उनके कार्य के द्वारा ही आपके सामने
प्रस्तुत करेंगे, परन्तु कविराज कालिदास ज्योतिष, आयुर्वेद, शास्त्र, वेद, राजनीति...”
“महाराज, आप हमारी इतनी स्तुति न करें, यह भी संभव है कि जिससे हम स्नेह करते हैं, उसके
अवगुणों को हम दुर्लक्षित करते हैं. अस्तु.
चौंसठ योगिनी वास्तव में स्त्री के ही विविध रूपों के नाम हैं. इन्हें
मातृका भी कहते हैं. और यह भी कहा जाता है कि जब शिवशंकर पार्वती के गुणों का
अवलोकन कर रहे थे, तो उन्होंने पार्वती के प्रत्येक गुण के लिए एक-एक आकृति की रचना की. और
उसे प्रत्येक स्त्री के अन्तरंग में स्थापित कर दिया.”
“हम नहीं समझे,” सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा, तो कालिदास ने कहा:
“महाराज, सभा में कहना नहीं चाहिए, परन्तु, क्या आपने कभी महारानी के गुणों का अवलोकन किया है? क्षमा
करें, महाराज, परन्तु स्त्री के अन्तरंग में उपस्थित संगीत, नृत्य, गायन, वादन,
मृदुभाषिता, सौन्दर्य ऐसे चौंसठ गुणों का प्रतिरूप ये योगिनियाँ हैं.”
“इतने सारे गुणों की प्रतिरूप योगिनियाँ?”
“हमने सभी रूपों का अध्ययन किया नहीं है, परन्तु जो जिस गुण का भक्त
होता है, वह उस योगिनी की आराधना करता है.”
“हो सकता है. परन्तु जिस प्रकार तैंतीस कोटि देवताओं के नाम हमें ज्ञात
नहीं हैं, उसी प्रकार इन योगिनियों के नाम भी हमारे लिए शायद अज्ञात होंगे,”
राजपुरोहित ने कहा.
“अज्ञात इसलिए, कि सभी स्त्री शक्ति स्वरूपों का हमें परिचय नहीं होता, और मनुष्य को जिस
शक्ति की आवश्यकता होती है, उसीकी खोज वह करता है. राजशेखर शास्त्रीजी, हम नामों
का उच्चारण करेंगे और उनसे संबंधित मन्त्र का भी उच्चारण करेंगे, कृपया
देखें कि योग्य हैं अथवा नहीं.”
चौंसठ योगिनियाँ स्त्री शक्ति होंगी और उनके मन्त्र उपासक भी होंगे, इसकी
कल्पना भी हमारे नवरत्नों को है अथवा नहीं, ऐसा विचार सम्राट
चन्द्रगुप्त के मन में आया.
“महाराज आठ योगिनी अत्यधिक प्रसिद्ध हैं. बहुरूपा, तारा, नर्मदा, यमुना, शान्ति, वारुणी,
क्षेमकरी, ऐन्द्री, वाराही, रणवीरा, वानरमुखी, वैष्णवी, कालरात्रि, वैद्यरूपा, चर्चिका, बेतली,
छिन्नमस्तिका, वृषवाहन, ज्वालाकामिनी, घटवार, कराकाली, सरस्वती, बिरूपा, कावेरी,
भलुका, नरसिंही, बिरजा, विकतांना, महालक्ष्मी, कौमारी, महामाया, रती, करकरी, सर्पश्या,
यक्षिणी, विनायकी, विंध्यावासिनी, वीरकुमारी, माहेश्वरी, अंबिका, कामिनी, घटाबरी,
स्तुति, काली, उमा, नारायणी, समुद्रा, ब्राह्मिणी, ज्वालामुखी, आग्नेयी, अदिति,
चंद्रकांति, वायुवेगा, चामुण्डा, मूर्ति, गंगा, धूमावती, गांधारी, सर्वमंगला,
अषिता, सूर्यपुत्री, वायुवीणा, अघोरा, भद्रकाली ऐसे चौंसठ नाम हैं...” कालिदास एक
सांस में बोल गए जिससे उनकी सांस फूल गई.
सम्राट चन्द्रगुप्त हँस पड़े, और बोले,
“कविराज, प्रथम जल प्राशन करें. अब चौंसठ योगिनियों के मन्त्र अभी न सुनाएं. उन पर
हम बाद में विचार करेंगे.
पूरी सभा में प्रसन्नता थी.
“आप सभी वैदिक ग्रंथों के अभ्यासक हैं. उज्जयिनी नगरी की यह विशेषता है.
क्या हमें ऋषि कणाद के बारे में कुछ जानकारी मिल सकती है?” पंडित हरिहरेश्वर ने पूछा.
“एक बात पूछूं पंडित हरिहरेश्वर, क्या आपने हमारी परिक्षा लेने के लिए यह
प्रश्न पूछा है?” वराहमिहिर ने कहा.
“ऐसा दु:साहस हम कदापि नहीं करेंगे. स्वयं हमें ही उनके
बारे में शोध कार्य करते हुए उनके जीवन के बारे में जानने की उत्सुकता थी. बस इतना
ही. अर्थात, यह प्रश्न हम विद्वत सभा में उठाने ही वाले थे.”
“और, पंडित वराहमिहिर, यदि वैसी परिक्षा ली भी जाए तो वह आवश्यक ही है, अन्यथा
वह ज्ञान हम जैसे सदा युद्ध में ही मगन लोगों तक कैसे पहुंचेगा?”
“हमारा वह उद्देश्य नहीं था, महाराज, यूँ ही विनोद पूर्वक पूछ लिया.”
“विनोद पूर्वक पूछते हुए मुख पर हास्य होना चाहिए. आप अत्यंत गंभीर स्वभाव
के हैं. क्या पत्नी के साथ भी इतने ही गंभीर रहते हैं?”
आज की सभा में सहजता थी. अनेक दिनों के पश्चात सम्राट चन्द्रगुप्त अपने
विनोदी स्वभाव से वातावरण को अधिक प्रसन्न बना रहे थे.
“कौन हैं ये कणाद ऋषि?” सम्राट चन्द्रगुप्त ने प्रश्न किया.
“मैं बताता हूँ,” एक षोडश वर्षीय बालक सामने आया. उसने महाराज को प्रणाम
किया और सबके सामने स्पष्ट स्वर में बोलने लगा:
“कश्यप गोत्र के उलूक नामक ब्राह्मण के घर उनका जन्म हुआ था. उस काल में
ग्रहदोषशान्ति और तप:साधना के लिए प्रभास क्षेत्र बहुत महत्वपूर्ण था. कण्व मुनि
ने अपनी धर्मकन्या के लिए इसी क्षेत्र में तपस्या की थी. उसी प्रभास क्षेत्र में
कणाद का जन्म हुआ था. उस भूमि से उसका संबंध तो उसे पुण्य प्रदान कर ही रहा
था.”
उस कुमार की वाणी की मधुरता, स्पष्टता, कहने का ढंग कालिदास को अत्यंत निकट प्रतीत हो रहा था. यह
कौन हो सकता है? यह प्रश्न मन में आया.
“बचपन से ही उसके मन में सृष्टि के प्रति अत्यंत आकर्षण था. इस विश्व का
निर्माण कैसे हुआ होगा. कण-कण से जुडी हुई पृथ्वी कैसे बनी होगी? ये स्वरों
के,
सुरों के स्वर एक-दूसरे से जुड़कर गीत कैसे बनाते होंगे? ऐसे प्रश्न उसके मन में
उत्पन्न होते, वैसे ही वे मेरे मन में भी उत्पन्न होते हैं...” वह कह रहा था.
उसकी बातों से सम्राट को अनुभव हुआ कि यह बालक साधारण नहीं है. उसे बीच ही
में रोककर उन्होंने पूछा,
“ तुम्हारा परिचय क्या है, वत्स? कहाँ से आये हो?”
“महाराज, निराकार से मैं साकार हुआ, परन्तु मुझे अपना कुल-गोत्र ज्ञात नहीं. एक शूद्रक वर्ण
की महिला ने मेरा पालन-पोषण किया है.”
“फिर, ये शास्त्र? ये अध्ययन?”
“महाराज, वह महिला शूद्र होते हुए भी महान पंडिता है. उनका नाम है अनुसूया. और यदि
मेरा नाम पूछें, तो वह भी उसीने रखा है – आदित्य. वह अस्त्र-शस्त्र में निपुण है. महाराज, जब वैश्यों
ने शूद्रों पर आक्रमण किया, तो उसने स्वतः अश्वारूढ होकर सेना के साथ उन्हें वापस
खदेड़ दिया. उसने मुझे एक ही उपदेश दिया: भिक्षु मत होना, सन्यासी न होना, ज्ञानदाता
बनो, ज्ञान पर किसी एक का अधिकार नहीं होता. ऋषि-मुनियों के कुल गोत्र भी अज्ञात
हैं,
परन्तु उनका ज्ञान सबके लिए है.”
“मैं तुम्हारी माता से मिलना चाहूंगा.”
“नहीं, महाराज. परिस्थिति के कारण उसके विचार कठोर हैं, रहने दें.”
कालिदास भी सोच में पड़ गये...कौन हो सकती है यह शूद्र स्त्री अनुसूया?”
“कणाद के बारे में बताओ, आदित्य,” वराहमिहिर ने कहा.
आदित्य ने कणाद की कथा सुनाई:
“एक दिन कणाद अपने पिता के साथ काशी की विद्वत्सभा में जा रहा था. तब घाट
से गुज़रती हुई एक स्त्री के हाथ से चावल का पात्र गिर गया और चारों ओर चावल बिखर
गए. हर कोई उनके ऊपर से चलने लगा. उन चावलों के कण-कण होते जा रहे थे. उन चावलों
के असंख्य कण देखकर और उठाया न सकने वाला कण देखकर कणाद के मन में विचार आया, कि
प्रत्येक वस्तु अणु-परमाणुओं से ही निर्मित है. जब दो पदार्थ एकत्र होते हैं, तो वह
द्विणुक होता है, और तीन पदार्थ इकट्ठे हों तो – त्रिणुक. और फिर कणाद मुनि अणु
कणों तथा परमाणु कणों के बारे में विचार करते हैं....”
कणाद मुनि के बारे में कितना कहूं, और कितना न कहूं, ऐसा
आदित्य को लग रहा था. पञ्च तत्वों से परिपूर्ण ब्रह्माण्ड और उन्हीं तत्वों से
निर्मित मनुष्य. कण कण से एकत्र हुआ विश्व और कण कण से निर्मित देह....ऐसा बहुत
कुछ वह भावनावश होकर कह रहा था.
राज सभा में केवल उसीके शब्द गूँज रहे थे. जब वह रुका तो नीरव शान्ति
व्याप्त हो गई. कुछ देर बाद सम्राट ने कहा:
“आदित्य, तू कौन है, इस बारे
में संदेह करने का कोई कारण ही नहीं है. स्वयँ का ज्ञान प्रकट करने वाला तू आदित्य
है. यदि इच्छा हो, तो तुम राजसभा में आ सकते हो.”
“महाराज, मैं अवश्य आऊँगा. परन्तु इसके पूर्व मुझे एक बार श्री काशी विश्वेश्वर के
दर्शन करना है. बद्रीनाथ जाना है. अद्याप मेरी दिशा निश्चित नहीं हुई है, परन्तु
अकस्मात् आपका सहकार्य प्राप्त हुआ इसके लिए मैं आपका अत्यंत आभारी हूँ.”
“कणाद ऋषि के बारे में तुम्हें इतना ज्ञान कैसे प्राप्त हुआ?”
“महाराज, अभी तो मैं वैदिक शास्त्रों का केवल अभ्यासक हूँ. महर्षि चरक की चिकित्सा
पद्धति, पाचन क्रिया, रोग प्रतिकारक संकल्पना, मानव शरीर के तीन दोष – कफ, वात एवँ पित्त, ऋषि
अग्निवेश के शास्त्र का आधार लेते हुए
स्वमत आग्रही – उनकी ‘चरक संहिता’ का मैंने अध्ययन किया है.”
“और सुश्रुत?” वराहमिहिर ने उत्सुकता से पूछा.
“हाँ, निःसंदेह मैंने ‘सुश्रुत संहिता’ का अध्ययन किया है. इस ग्रन्थ में १८४ प्रकरण हैं और
इसमें ११२० विविध प्रकार के रोगों की जानकारी है. सुश्रुत शल्य विशारद थे, अतः १२०
शल्य क्रियाओं की विस्तृत जानकारी उन्होंने दी है, और ६४ प्रकरणों में विविध
औषधियों की जानकारी दी है. औषधियों के निर्माण के लिए १२० प्रकरण हैं. औषधियों के
निर्माण में प्रयुक्त होने वाली ७०० वनस्पतियों, ६४ खनिज पदार्थों, ५७
प्राणियों की विस्तृत जानकारी है. सुश्रुत ने हड्डियों का पाँच भागों में वर्गीकरण
किया है. शस्त्रक्रियाओं के ८ प्रकार, १४ प्रकार का पट्टीबंधन, और १०० से
अधिक शल्य उपकरणों का वर्णन इसमें है. शस्त्र क्रिया से पूर्व रखी जाने वाली
सावधानी और तदुपरांत की जाने वाली देखभाल का भी वर्णन किया है.”
“अप्रतिम, आदित्य! अप्रतिम! तुम्हारा अध्ययन और कथन करने की पद्धति अप्रतिम है!”
सम्राट चन्द्रगुप्त ने उठकर अपने गले की कंठमाला उसे पहना दी, राजसभा में
सभी ने आदित्य का जयघोष किया.
कालिदास विस्मयचकित थे. किशोरावस्था में पदार्पण करने वाले कुमार आदित्य का
शास्त्राभ्यास, उसकी अलौकिक स्मरणशक्ति, भाषा की स्पष्टता, शब्दों पर उसका प्रभुत्व, और उसका
तेजस्वी मुखमंडल देखकर आदित्य योगी के रूप में प्रत्यक्ष ब्रह्मर्षि प्रतीत हो रहा
था.
दोपहर हुई तो सबको महाप्रसाद के लिए भोजनशाला में निमंत्रित किया गया.
प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने आसन से उठा. उसी समय कालिदास आदित्य को ढूंढ रहे थे, परन्तु
सम्राट चन्द्रगुप्त के जाने के बाद हुई भीड़ में आदित्य कहीं लुप्त हो गया था.
भोजनशाला में आज सम्राट सबके साथ महाप्रसाद ग्रहण करने वाले थे. परन्तु
भोजनशाला में भी जब आदित्य दिखाई नहीं दिया तो कालिदास अस्वस्थ हो गए. अकस्मात्
प्रकट होने और अकस्मात् लुप्त होने का कारण समझ में नहीं आ रहा था.
अंत में अस्वस्थता से भरा दिन समाप्त हो गया. संध्या आरती के लिए कालिदास
महाकालेश्वर पहुंचे और घंटाध्वनि हुई. जैसे पहली सीढी पर ही घंटा ने शुभ संकेत
दिया, ऐसा उन्हें प्रतीत हुआ. सीढी से पाँव पीछे करके वे क्षिप्रा के दक्षिणा भाग
की और मुड़े.
पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्र क्षिप्रा में समा गया था. ऐसा प्रतीत हुआ, मानो
विस्तीर्ण आकाश का चन्द्रमा सरिता के आलिंगन में समा गया हो. वे मन ही मन हँसे.
प्रकृति में स्त्री-पुरुष की प्रतिमाएं देखना उन्हें प्रसन्नता देता था. इस समय भी
सब कुछ भूलकर प्रशांत-प्रसन्न क्षिप्रा के ह्रदय में समाये हुए पूर्ण चन्द्रमा से
उन्हें ईर्ष्या ही हुई. परन्तु अगले ही क्षण वे चलने लगे.
क्षिप्रा नदी की ढलान पर स्थित शूद्र वर्णीय लोगों की बस्ती की तरफ जाने
वाला मार्ग चन्द्रमा के प्रकाश में स्पष्ट दिखाई दे रहा था. क्षिप्रा उनके साथ-साथ
चल रही थी. उन्होंने उस बस्ती में यूँ प्रवेश किया, जैसे किसी अति रम्य उद्यान
में प्रवेश कर रहे हों. उस बस्ती की कुटियाँ सुन्दर और सुनियोजित ढंग से बनी हुई
थीं. प्रत्येक कुटी के सामने एक-एक वृक्ष था. बीच में अश्वत्थ वृक्ष के नीचे बैठने
की व्यवस्था थी. बस्ती की प्रवेश-कमान पर लिखा था – ‘आनंद नगरी’.
यह किसकी कल्पना हो सकती है? अत्यंत रम्य परिसर में कुटियाँ बिखरी हुई थीं.
सायंकालीन भोजन की व्यवस्था की जा रही थी.
उन्होंने एक व्यक्ति को रोककर पूछा, “ कुमार आदित्य यहीं रहता
है ना ?”
“हाँ, हाँ, हमारा ही आदित्य है. यहाँ से पांचवी कुटी में, माता अनुसूया के साथ है.
मगर आप?” कालिदास ने जवाब नहीं दिया और वे शीघ्रता से उस कुटी के पास आये. भीतर
जाऊँ या न जाऊं, इसका विचार कर ही रहे थे कि आदित्य ने कहा,
“महाकवि कालिदास महाराज! आप इस शूद्रों की बस्ती में आये, यह बात
यदि भद्र लोगों को ज्ञात हो गई तो?”
“क्या हम भीतर आ सकते हैं, आदित्य?”
“अवश्य पधारें, महाराज. परन्तु आपको इस बस्ती से वापस जाकर शुचिर्भूत तो नहीं होना पडेगा?”
“ऐसा क्यों कहते हो? आज मध्याह्न में तुमने अपना परिचय देते समय शूद्र वर्ण
का उल्लेख किया था, उस समय किसी ने भी कोई आक्षेप नहीं किया था.”
उन दोनों का संभाषण सुनकर अनुसूया कक्ष से बाहर आई.
“आदित्य, महाराज को आसन दो.”
“महाराज के लिए उच्चासन कहाँ से लाऊँ, माते? हम धरती
से नाता जोड़ते हैं, आकाश केवल निहारते हैं.”
“वत्स, आदित्य, सवर्णों के ऊपर तुम्हारे क्रोध को हम समझते हैं. मगर शांत चित्त होकर हमें
आसन दोगे क्या?”
कालिदास ने वह आसन लिया और वे बैठ गए. उन्होंने अनुसूया से भी बैठने की
विनती की. वह सकुचाती हुई बैठ गई.
“भगिनी, अनुसूया, आपके आदित्य को अन्य वर्णों पर इतना क्रोध क्यों है? क्या हमें
बतायेंगी?”
“महाराज, हम अज्ञानी. शास्त्राभ्यास किया, वह भी अप्रत्यक्ष रूप से. परन्तु, पुत्र
ज्ञानी हो, इस हेतु से जब गुरुकुल गए, तो उत्तर मिला कि धर्मशास्त्र का अध्ययन केवल
ब्राह्मणों को ही करना चाहिए.”
“परन्तु ऐसा तो नहीं है.”
“महाराज,क्षत्रिय युद्ध करें, ब्राह्मण धर्मज्ञान दें, वैश्य व्यापार करें, और शूद्र
समाज के कार्य करें – यही वर्णव्यवस्था है ना? सम्पूर्ण उज्जयिनी नगरी
सुन्दर रहे, इसके लिए हम प्रयत्नशील रहते हैं.”
“भगिनी अनुसूया, हम प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त करके इस संबंध में विचार
करेंगे. परन्तु ऋषि परशुराम ने ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय वृत्ति धारण की थी.
किस कुल में जन्म लें, यह अधिकार हमें नहीं है, परन्तु कुल-गोत्र का इतना गलत अर्थ समाज में है, यह हमें
ज्ञात ही नहीं हुआ.”
“क्योंकि आप उच्च कुल से हैं.”
“उच्च कुल से?” कालिदास मौन हो गए. कौनसा है हमारा गोत्र? कौनसा है कुल? कौन
माता-पिता? किस वर्ण के? यदि माता सरस्वती के आश्रम में न गए होते तो कदाचित ...
“महाराज, अचानक क्यों मौन हो गए?”
“ज्ञान संपादन करने के बाद भारत भ्रमण को गया था. तब सांख्य, गाणपत्य, शाक्त, वैष्णव
जैसे अनेक पंथों के दर्शन हुए. जैनों के संपर्क में आया, बौद्ध मत से परिचय हुआ.
परन्तु चारों वर्णों के बीच के इस अंतर की और ध्यान ही नहीं गया. सम्राट
चन्द्रगुप्त की सभा में भी ऐसा प्रश्न कभी उपस्थित नहीं हुआ. अब मैं इसकी खोज
करूंगा. परन्तु...”
“परन्तु, महाराज, आप इस निर्धन की कुटी में कैसे पधारे?”
“भगिनी अनुसूया, कस्तूरीमृग को कहाँ इस बात का ज्ञान होता है कि उसकी नाभि
में कस्तूरी है? आपकी कुटी में ऐसा रत्न है, जो कुबेर को भी ललचा दे.”
“नहीं...नहीं...महाराज...हमारे पास ऐसा कोई रत्न नहीं है. यह आपसे किसने कह
दिया, महाराज? हम निर्धन हैं. परन्तु चौर्यकर्म नहीं करते. मेरे पति नाविक हैं. वे अभी
यहाँ नहीं हैं.”
वह भयभीत हो गई थी. उसकी अवस्था देखकर कालिदास ने कहा:
“जिसे अपना कुल-गोत्र, माता-पिता ज्ञात नहीं, ऐसा रत्न, कुमार
आदित्य आपके पास है. क्या आपको इसका ज्ञान है?”
“मतलब, उसने क्या अपराध किया है? क्या रत्न का अपहरण किया है?”
उसकी अवस्था और कालिदास के संभाषण का रुख कुमार आदित्य की समझ में आ गया.
वह बोला,
“महाराज एक बार मुझे एक वृद्ध तपस्वी मिले, उन्हें जल चाहिए था. मैने
उन्हें पत्तों के दोने में जल लाकर दिया. उनकी तृष्णा शांत ही नहीं हो रही थी. मैं
बारबार जल ला रहा था. अंततः मैने उनसे पूछ लिया, “ऐसा प्रतीत होता है कि आप
काफी चलकर आये हैं, और क्षुधा भी लगी होगी. आपने केवल जल से ही अपनी क्षुधाशान्ति कर ली.”
“तुम्हारे जल से मैं संतुष्ट हो गया. अब बताओ, तुम्हें क्या चाहिए?”
“आप मेरे पितामह के समान हैं. यदि मैं आपसे दो वर मांगूं तो देंगे?”
“अरे, वत्स, वर देने लायक सिद्ध पुरुष मैं नहीं हूँ.”
“कौन थे वह वृद्ध तपस्वी?” कालिदास ने बीच ही में पूछ लिया.
“संहिताओं के अभ्यासक थे. उनके पास भोजपत्रों का बड़ा संग्रह था. मैंने उनसे
कहा,
“आप केवल मेरी खातिर आठ दिन महाकालेश्वर के मंदिर में वास करें. आप मुझे अक्षरों
से परिचित कराएं, और ये भोजपत्र आप जिनके लिए ले जा रहे हैं, उस प्रवास में मुझे अपने
साथ ले चलें.”
“वत्स, तुम्हें दोनों वर देने के लिए मैं वचनबद्ध हूँ.”
उन्होंने आठ दिनों में मुझे अर्थ सहित अक्षरों का परिचय करवा दिया. माता को
बताये बिना ही मैं उनके साथ दक्षिण की यात्रा पर निकल पडा था. मैं उन भोज पत्रों
का वाचन कर रहा था, कंठस्थ करने का प्रयास कर रहा था. एक दिन उन्होंने मुझसे कहा, “वत्स, अब ये
भोजपत्र तुम्हारे ही हैं. इस यात्रा में यह विश्वास हो गया कि तुम ही उनके अधिकारी
हो. उन्होंने उन भोजपत्रों का बहुत बड़ा संग्रह मेरे हाथों में दिया और मुझे वैदिक
धर्म-शास्त्र, संहिता कंठस्थ हो गए.”
“और वे वृद्ध?” कालिदास ने पूछा.
“जैसे वे अकस्मात् मिले थे, वैसे ही अकस्मात् लुप्त भी हो गए. उनकी प्रतीक्षा करके
मैं वापस लौटा.”
“क्या तुमने अपने माता-पिता का नाम इन माता-पिता से नहीं पूछा?”
“महाराज, मैं शक कन्या. मेरे पति शूद्र वर्णीय. हमारा विवाह होने के पश्चात हम
वेत्रवती के किनारे पर आये. पति नाविक हैं, इसलिए वेत्रवती हमारी माता
ही है. परन्तु हम किनारे पर आये, और उसी रात को भयानक चक्रवात आया होगा. वृक्ष गिरे पड़े
थे. परन्तु कोई नौका दिखाई नहीं दे रही थी. एक दो वर्ष का बालक किनारे पर मूर्छित
अवस्था में पडा था. वही ये आदित्य है.”
कालिदास को ऐसा लगा कि अनुसूया उन्हीं की कथा सुना रही है. परन्तु मैं
समझदार था, विवाहित था. वेत्रवती ने ही मुझे भी बचाया था. कालिदास के मन में अचानक
विचार आया कि कहीं यह देवी सरस्वती का पुत्र तो नहीं? इस घटना का सन्दर्भ लगाने
के लिए ही मैं अनजाने में यहाँ तक आ गया, ऐसा उन्हें प्रतीत हुआ.
“कुमार आदित्य, तुम चाहे कोई भी हो, परन्तु उज्जयिनी में तुम्हें किसी भी प्रकार का
प्रतिबन्ध नहीं है. ना धर्म का, ना वर्ण का. महाराज सभी का सम्मान करते हैं. ईश्वर करे, तुम्हारा
मार्ग प्रशस्त हो, तुम्हें इच्छित ज्ञान की प्राप्ति हो, और संभव हो तो मुझसे मिलते रहो.”
आगे कुछ भी कहे बिना कालिदास उठ गए, कुटी के बाहर आये. उस परिसर
से बाहर आकर क्षिप्रा के किनारे-किनारे महाकालेश्वर के मंदिर की ओर चलने लगे. उन्होने
यूँ ही क्षिप्रा के अथांग जल की और देखा. प्रियकर के सहवास के बाद शांत, समाधानी
क्षिप्रा उन्हें दिखाई दी. नित्य चन्द्रमा का आगमन, नित्य उसका सहवास. और हम?
कभी भूले-भटके मधुवंती के प्रासाद के महाद्वार पर प्रीती के भिखारी!
इतनी देर से प्रसन्न कालिदास मन में खिन्न हो गए. अस्वस्थ मन से चलते हुए
आकर महाकालेश्वर मंदिर की सीढ़ियों पर बैठ गए. अनचाही यादें मन में बार-बार उभर रही
थीं.
***
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