Thursday, 17 November 2022

Shubhangi - 19

 सम्राट चन्द्रगुप्त, आप! ऐसे अचानक...” पंडित विश्वंभर भट्ट को सूझ ही नहीं रहा था कि आगे क्या कहें. सद्यःस्नात, बलशाली, प्रसन्न और राजसी विलोभनीय, जिसके नेत्रों से पुरुषार्थों का पुरुषार्थ छलक रहा था, ऐसे व्यक्तित्व को देखकर विश्वंभर भट्ट ही नहीं, अपितु पंडित सदानंद शास्त्री, पंडित महेश भट्ट, पंडित रामेश्वर शास्त्री और पंडित देवदत्त शास्त्री मुग्ध हो गए थे.

“हमारी उज्जयिनी नगरी में आपका स्वागत है!” सम्राट चन्द्रगुप्त ने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उन्हें आसन ग्रहण करने की विनती की.

“सम्राट चन्द्रगुप्त, आपकी ख्याति सुनते आ रहे थे, परन्तु जो सुना था उससे आप कितने ही गुना अधिक राजसी, सात्विक हैं!”

“आप कहाँ से आ रहे हैं?

“सम्राट, इस समय आप मंदिर में होते हैं, ना?

“हाँ. जब यहाँ होते हैं, तो अतिथि हमारे देव होते हैं, उनके दर्शन प्रथम.”

“तो फिर आप पधारें, सम्राट. हम आपके दर्शन करने के लिए ही आये हैं.”

“आचार्य, आपने अपना परिचय दिया नहीं है, परन्तु सेवकों से ज्ञात हुआ कि लंका द्वीप तक यात्रा करते हुए आप यहाँ आये हैं. अतः ‘अतिथि हमारे आज के देवता हैं. आपको फिर से प्रणाम करता हूँ. आप कुछ काल उज्जयिनी के राज प्रासाद के अतिथिगृह में वास्तव्य करें, और हमें अपना यात्रा वृत्तांत सुनाएं. अब हम आरती के समय मंदिर जा रहे है, मध्याह्न में आप राजसभा में आये, आपको सम्मान पूर्वक निमंत्रण है.”

सम्राट चन्द्रगुप्त आये, और उनकी विनयवृत्ती, स्वागतवृत्ती देखकर विश्वंभर भट्ट ही नहीं, अपितु उनके सहयोगी भी भावुक हो गए थे.

मध्याह्न में सम्राट चन्द्रगुप्त ने पाँचों अतिथियों को राजसभा में आमंत्रित किया, उनका परिचय प्राप्त किया. विश्वंभर भट्ट, पंडित सदानंद शास्त्री, पंडित महेश भट्ट, पंडित रामेश्वर शास्त्री, पंडित देवदत्त शास्त्री – इन पाँचों के आगमन का हेतु जानने के लिए महामंत्री वीरसेन ने पूछा,

“आपके यहाँ आने के प्रयोजन और आपके कार्य को जानने की महाराज की इच्छा है.”

“प्रयोजन तो एक ही है; संपूर्ण भारतवर्ष में अश्व भ्रमण करते हुए जिस जिस स्थान पर हम गए, सम्राट चन्द्रगुप्त की शौर्य कथाएँ, उनके पिताश्री की कथाएँ, और गुप्त साम्राज्य के बारे में सामान्यत: आदर की भावना ही दिखाई दी. सिंहल द्वीप की ओर जाते हुए हम प्रथम पाटलीपुत्र गए. वहाँ से दक्षिण की ओर गए, और गुप्त साम्राज्य की राजधानी उज्जयिनी आने का कब से विचार था. अतः...” देवदत्त शास्त्री उत्साहपूर्वक कह रहे थे.

“हमारे भ्रमण का उद्देश्य पहले तो केवल आर्यावर्त के दर्शन करना ही था.”

“फिर?” सम्राट चन्द्रगुप्त ने उत्सुकता से पूछा.

“फिर? फिर भारत भ्रमण करते हुए दर्शन हुए सनातन हिन्दू धर्म के स्वरूप के, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, सांख्य, गाणपत्य, शाक्त जैसे अनेक पंथ, उन पंथों के कट्टर अनुयायी. यह अनुभव हुआ कि कहीं भी परस्पर पूरक, साहचर्य नहीं है,” सदानंद शास्त्री ने कहा.

“युद्ध, और युद्ध भी आपस में, परस्पर प्रान्तों में, देश विदेश की स्थिति - इस कारण से यदि भारतवर्ष, जिसे अभिमान से आर्यावर्त कह सकें ऐसा है, परन्तु यह भी अनुभव हुआ कि भीतर ही भीतर दीमक लग गई है. सम्राट, हम आपके पास जानबूझ कर आये हैं, सद्य: स्थिति का वर्णन करने के लिए. आप एकांत में हमें आमंत्रित करें,” पंडित रामेश्वर शास्त्री ने कहा.

“और एक बात, महाराज. हमें कुतूहल था ही. आपकी राजसभा में विविध क्षेत्रों के गणमान्य नौ रत्न हैं. इन बहुआयामी व्यक्तियों से भी हम मिलना चाहेंगे. उनके कार्य के बारे में जानना चाहेंगे,” विश्वंभर भट्ट ने कहा.

“अवश्य, अवश्य. महामंत्री आपको उनका संक्षिप्त परिचय देंगे, और अपने यहाँ के वास्तव्य में आप उनका विस्तृत परिचय भी प्राप्त कर सकेंगे. महामंत्री...”

सम्राट ने संकेत किया. महामंत्री वीरसेन ने कहा,

“बहुआयामी प्रतिभा के इन नौ रत्नों को सम्राट ने राजसभा में स्थान दिया है, इसलिए सम्राट चन्द्रगुप्त-विक्रमादित्य के ‘नवरत्न’ चारों ओर प्रसिद्ध हो गए. हमें उनका अभिमान है.”

“महामंत्री वीरसेन, आप प्रत्येक का परिचय प्रस्तुत करें, वैसे वह प्राप्त होगा ही, परन्तु आज हम उन्हें देखना चाहते हैं.”

“अवश्य, महाराज.”

“ये हैं ‘धन्वन्तरी’. भारतीय वैदिक साहित्य में रोगनिदान करने वाला धन्वन्तरी के रूप में प्रसिद्ध है. दैविक, वैदिक और ऐतिहासिक – ऐसे ‘धन्वन्तरी रोगनिदान चिकित्सा के अधिकारी हैं. दैविक ‘धन्वन्तरी - देवताओं के स्वास्थ के लिए हैं. वे उनका उपचार करते हैं. आयुर्वेद साहित्य में ‘धन्वन्तरी प्रतिष्ठित समझे जाते हैं.”

“और ऐतिहासिक धन्वन्तरी? इस प्रकार के बारे में हमने सुना नहीं था.”

“काशी के राजा दिवोदास, इनके...”

“अर्थात, राजसेवा करने वाले ऐतिहासिक, और वैदिक?

“अर्थात ऋषि-मुनियों के आरोग्य की चिंता करने वाले. उनके साथ वनों में जाने वाले – वे वैदिक धन्वन्तरी हो सकते हैं. परन्तु हमारे ‘धन्वन्तरी राजा हो अथवा प्रजा – सबका उपचार करते हैं.”

धन्वन्तरी ने उठकर विनम्र भाव से सबको प्रणाम किया.

“महाराज के युद्धों के समय हमारे धन्वन्तरी राजप्रासाद में न रहकर युद्ध भूमि पर जाते हैं. पीड़ित सैनिकों पर तम्बू में उपचार करते हैं. अंतिम क्षण तक कार्यरत रहने वाले धन्वन्तरी महाराज की सभा के अनमोल रत्न हैं. शकों के विरुद्ध हुए युद्ध में उनकी सेवा प्रशंसनीय थी. सुश्रुत एवँ च्यवन के समान ही यह नाम आदरणीय है.”

“महामंत्री, आपने संक्षिप्त परिचय दिया और हमें धन्वन्तरी के व्यक्तित्व का ज्ञान हुआ,” विश्वंभर भट्ट ने कहा.  

क्या मैंने ज़्यादा परिचय दे दिया?” महामंत्री परेशान हो गए.

“नहीं, नहीं, महामंत्री वीरसेन, वे यह कहना चाहते हैं, कि यह संक्षिप्त आगे के वास्तव्य में अधिक होने ही वाला है. अतः...”

“समझ गया. अब – क्षपणक.”

क्षपणक खड़े हो गए. उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम किया.

“क्षपणक,” महेश भट्ट ने आश्चर्य से पूछा.

“आपने ठीक पहचाना, महाशय. ये जैन पंथ के दिगम्बर साधु हैं, परन्तु राजसभा में आते हुए उन्होंने आवश्यक वस्त्र परिधान किये हैं. महाराज के ‘गुप्तचर विभाग’  जैसे महत्वपूर्ण विभाग का कार्य ये देखते हैं.”

“वा,,,वा...” महेश भट्ट ने कहा.

“आगे बताता हूँ.” महामंत्री ने कहा. “महाराज की नवरत्न सभा का एक और चमचमाता रत्न है – शंकु. ये शबर स्वामी के पुत्र हैं. शंकु मंत्रवादिन, रसाचारी, ज्योतिष विद्या में पारंगत हैं.”

शंकु ने उठाकर सबको प्रणाम किया.

“और ये हैं वेताल भट्ट. वेताल - ये नाम भूत-प्रेत आदि संकल्पनाओं से जोड़ा जाता है, और यह सत्य भी है. वेताल भट्ट वैदिक ब्राह्मण हैं, परन्तु उन्होंने तंत्र विद्या आत्मसात की है और कापालिकों से अघोरी विद्या भी प्राप्त की है.”

सम्राट चन्द्रगुप्त दिल खोलकर हँसे. “महामंत्री, आप तो ऐसे बता रहे हैं कि आगंतुकों को भय प्रतीत हो. परन्तु अतिथिगण, आप भयभीत न हों. जब-जब सत्य-असत्य के बीच संभ्रम उत्पन्न होता है, मन की प्रश्नमालिका समाप्त नहीं होती, तब हम वेताल भट्ट के साथ स्मशान जाते हैं. जलती हुई चिताओं को देखते है, और वेताल भट्ट कहते हैं, “यहाँ है मृत्यु और उस ओर है जीवन. जीवन जीना चाहिए रसिकता से और कार्य करना है राष्ट्र के लिए. इस निर्विवाद सत्य को हम समझ जाते हैं, और तब हम वापस लौट आते हैं.

वेताल भट्ट तब हमें अनेक कथाएँ सुनाते हैं, प्रश्न पूछते हैं, और घूम-फिर कर हम वापस जीवन-मृत्यु की सीमा पर आ जाते हैं.”

“वा, सम्राट वा!...” रामेश्वर भट्ट ने कहा.

“इतना ही नहीं, वेताल भट्ट से हमने आग्नेय अस्त्र, विद्युत् शक्ति और ऐसी अनेक चीज़ें आत्मसात की हैं.”  

मध्याह्न ढल रही थी. सम्राट चन्द्रगुप्त को आज वाकाटक को एक सन्देश भेजना था. महामंत्री के ध्यान में यह बात आ गई. वे बोले,

“अब आप लोग कुछ दिनों तक यहीं वास्तव्य करने वाले है, अतः शेष परिचय कल करवाएंगे.”

“महामंत्री वीरसेन, परिचय पूरे होने दें.”

“महाराज, आपको...”

“हमारे लिए पूरी रात पडी है, वीरसेन, हमारा कार्य हम जानते हैं.”

“और अनुशासनप्रिय होने के कारण आप वह पूरा करेंगे ही. परन्तु कल तक आपने वैशाली, विदिशा, पाटलीपुत्र जाकर प्रान्ताधिकारियों की समस्याएँ सुलझाईं. और...” सम्राट ने आगे बताने का संकेत किया.

“घटखर्पर का परिचय देते हुए यह कहना होगा कि कालिदास के सहवास में इनके काव्य पर बहार आ गई है, इससे पूर्व इनके दो काव्यसंग्रह हैं... माधुर्य, शब्दविन्यास मोहक हैं. इनकी प्रतिज्ञा है कि यदि कोई कवि मुझे यमक रचना में पराजित करेगा, तो मैं उसके घर घट के टुकडे से पानी भरूंगा. इसीलिये इनका विशेष नाम घटखर्पर पडा, और इसी नाम से वे जाने जाते हैं. इनके काव्य को भी घटखर्पर नाम दिया गया है.”

घटखर्पर खड़े हो गए. कवि के लिए उचित ऐसी उनकी वेशभूषा थी. उनके मुख पर सात्विक भाव थे. उन्होंने सबको प्रणाम किया और बोले,

“हमने यह प्रतिज्ञा गर्व से नहीं की है, अपितु यमक से जो नाद उत्पन्न होता है, वह काव्य को अधिक प्रभावशाली बनाता है और यदि पूर्ण पंक्ति ही यमक से बनाई जाये तो कवि का पांडित्य प्रकट होता है, इसीलिये हमने यह कहा था. परन्तु घड़े के टुकडे से किसी के घर पानी भरने की नौबत अभी तक आई नहीं है.”

सबने घटखर्पर का जयघोष किया.

“अब वररूचि का परिचय. ‘पत्रकौमुदी काव्य की रचना इन्होने महाराज के कहने से की, ऐसा वे ‘पत्रकौमुदी में कहते हैं. ‘विद्यासुंदर भी उनका एक अन्य काव्य ग्रन्थ है. ये महाराज की कन्या प्रभावती देवी के गुरू भी हैं. इन्होने पाटलीपुत्र में ‘शास्त्रकार की उपाधि प्राप्त की. कोशाम्बी में ब्राह्मण कुल में इनका जन्म हुआ. अत्यंत मेधावी होने के कारण इन्होंने पाँच वर्ष की आयु में “प्रातिशाख्य” याद किया. इसलिए महाराज के परिचित विद्वान व्याडि इन्हें यहाँ लेकर आये. उस समय महाराज सिंहासन पर आरूढ़ हुए ही थे.”

वररुचि ने उठकर सबको प्रणाम किया. उन वयोवृद्ध ब्राह्मण के लिए अतिथि उठकर खड़े हो गए और उन्हें प्रणाम किया.         

“सम्राट चन्द्रगुप्त....वीर योद्धा और विशाल साम्राज्य के स्वामी हैं, यह तो हम भारत भ्रमण में सुनते आ रहे हैं, परन्तु आप गुणग्राहक, आदरणीय और गुणसंग्राहक भी हैं यह आपके नवरत्नों के परिचय से ज्ञात हो रहा है. सम्राट समुद्रगुप्त ने इस साम्राज्य का निर्माण किया. उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम. परन्तु आपने आकार और आयाम देकर अप्रतिम बनाया है.”

“रामेश्वर शास्त्री, आप यहाँ रहेंगे ही, हमारी स्तुति हमें प्रिय है, वह देवताओं को भी प्रिय है, परन्तु इस बारे में बाद में बात कर सकते हैं.” सम्राट चंद्रगुप्त ने उन्हें रोकते हुए कहा.

“अमरसिंह – एक विनम्र व्यक्ति हैं. उन्होंने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘अमरकोष की रचना की है. शबर स्वामी की शूद्र पत्नी से अमरसिंह का जन्म हुआ है. संस्कृत साहित्य में ‘अमरकोष’ जैसा कोई अन्य ग्रन्थ नहीं है. अत्यंत परिश्रमी, मितभाषी और अभ्यासक-संशोधक के रूप में अमरसिंह प्रसिद्ध हैं.”

“सम्राट चन्द्रगुप्त, एक शब्द में फिर कहने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ. ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय तथा शूद्र – सबको समान स्थान तथा समान आदर देने वाले आप सचमुच में आदर्श हैं.” देवदत्त शास्त्री ने कहा.

“वराहमिहिर भी महाराज की राजसभा का अनुपम रत्न हैं. वे ज्योतिष शास्त्र के प्रगाढ़ चिन्तक, संशोधक, अभ्यासक हैं. ‘बृहतसंहिता’ तथा ‘बृहत् जातक’ ये उनके अनेक ग्रंथ हैं. ‘समाज संहिता’, ‘विवाह पटल’, ‘योगयात्रा’, ‘बृहत् यात्रा’, ‘लघु यात्रा’ आदि ग्रंथ भी हैं. विशेष बात यह है कि उनके मन में यवनों के प्रति आदर है. उनके लेखन में ग्रीक शब्दों का भी प्रयोग होता है.”

“अहो आश्चर्यम् ! सम्राट ‘सर्वधर्मसमभाव’ में भी आपकी विशेषता दिखाई देती है. वास्तव में आश्चर्य की बात है.”

“जिस कारण से हमने यवनों के प्रति आदर भाव व्यक्त किया, उसका अध्ययन करें.”

जैसे ही वे उठने लगे, उनसे बैठने की विनती की. उन्होंने सबको प्रणाम किया.

“ अब एक और रत्न....कवि कालिदास.”

“अब हम इस युवक का परिचय दे रहे हैं. पाँच वर्ष पूर्व वे उज्जयिनी आये और सर्वप्रिय हो गए.” सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा.

कालिदास उठाकर खड़े हो गए. गौर वर्ण, सुन्दर, सुदृढ़ देहयष्टि, तेजस्वी मुखमंडल, अनुपम नेत्र और अधरों पर हास्य. अतिथियों को ऐसा भास् हुआ कि स्वयँ श्रीकृष्ण अपने कृष्णवर्ण को त्यागकर आये हैं. गर्दन तक आते केशकलाप से मुखमंडल सुशोभित था. राजवस्त्र नहीं थे, परन्तु फिर भी पीत वर्ण का कटिवस्त्र, नील उत्तरीय, और दोनों भुजाओं पर बाजूबंध, गले की मौक्तिक माला, देखते ही रहने को जी चाहे ऐसा अप्रतिम पुरुष सौन्दर्य. सम्राट चन्द्रगुप्त उनकी दशा को समझ गए. वे हंसकर बोले,

“कवि कालिदास ने ‘ऋतु संहार नामक काव्य लिखा है, परन्तु जो वे नित्य जीते हैं वह काव्य है, बोलते हैं वह काव्य है और लिखते हैं वह काव्य है. उन्हें प्रकृति में, मानव में जो दिखाई देता है- वह काव्य ही है. ऐसे काव्यमय कवि कालिदास पर कौन प्रेम न करेगा?

पाँच वर्ष पूर्व वे हमसे मिले. प्रथम दर्शन में ही हम उनसे प्रेम करने लगे. वास्तव में उस समय हम युद्ध पर जाने की तैयारी कर रहे थे. कवि महाराज ने क्या कहा होगा? उन्होंने कहा,

‘महाराज, घनघोर वर्षा से पहले मेघों को भी सुसज्ज होना पड़ता है. गडगडाहट से युद्धस्थिति का अनुमान होता है. दूर पर दिखाई देने वाली विद्युल्लता से मानो शत्रु की दिशा का संकेत मिलता है. आप निष्णात वीर योद्धा हैं, परन्तु घनघोर वर्षा में कोमलांगी स्त्री हो या पुरुष – वे समान रूप से भयभीत होते हैं.’           हम, कितनी ही देर तक हँसते रहे. जिसने कभी एक भी युद्ध देखा न हो, शत्रु पर टूट पड़ने का, शत्रु सेना के सैनिकों की लाशों के ढेर को न देखा हो, और विजयोत्सव का अनुभव न किया हो, वह इतनी निडरता से काव्यमय युद्ध प्रसंग का वर्णन करे, इसका हमें आश्चर्य हुआ. मन प्रसन्न हो गया.

इसके बाद जब भी किसी प्रसंग से हम बेचैन होते हैं, हम कवि कालिदास को आमंत्रित करते हैं. हम विवाहित, अनेक पत्नियां हैं हमारी, परन्तु कवि कालिदास अद्याप अविवाहित हैं.”

राजसभा आनंदपूर्वक समाप्त हो गई थी. कवि कालिदास मन ही मन कह रहे थे, ‘मधुवंती के पास हम जाते हैं, इसकी शायद सम्राट को कल्पना नहीं है.’

सम्राट चन्द्रगुप्त ने महामंत्री वीरसेन से कहा, “आप लेखन सामग्री लेकर हमारे प्रासाद में आयें.”

उनके उठते ही सभा समाप्त हो गई.

कालिदास के कंधे पर हाथ रखकर वृद्ध विश्वंभर भट्ट ने कहा,

“ कालिदास, आदरार्थक संबोधन का प्रयोग न करते हुए पुत्र की तरह कह रहा हूँ. ‘अत्यंत सुन्दर हो. मदन के सौन्दर्य के बारे में कहते हैं. उसे किसी ने देखा नहीं है, परन्तु आज हमने प्रत्यक्ष मदन के दर्शन किये. परन्तु मन में प्रश्न उत्पन्न हुआ, अभी तक एक भी रति का ध्यान अभी तक तुम्हारी ओर गया क्यों नहीं? या, अनेक सौन्दर्यवती ललनाओं को देखकर तुम पीछे हट गए?

कालिदास सिर्फ दिल खोलकर हँस दिए. विश्वंभर भट्ट ने ही आगे कहा,
“वत्स
, शायद तुम्हें स्मरण न हो, सरस्वती देवी के आश्रम में हम आये थे.”

कालिदास अचानक थरथरा गए. मौन ही रहे.

“सरस्वती देवी ने तुम्हारी अलौकिक प्रज्ञा की, अध्ययन के लिए किये गए कठोर परिश्रम की मेरे पास खूब स्तुति की थी. वे सोचती थीं, और मैं भी कि तुम वहीं रहोगे.”

कालिदास का परिचय उन्हें प्राप्त हो चुका था. कालिदास के नाम से. परन्तु क्या उन्हें पूर्व इतिहास के बारे में पता चल गया होगा? इस विचार से कालिदास मन ही मन बहुत अस्वस्थ हो गए. परन्तु, या तो उन्होंने विषय बदल दिया था, या उन्हें शायद कुछ भी ज्ञात नहीं था. कालिदास कुछ समझ नहीं पा रहे थे.

“कालिदास, क्या तुम सीधे यहीं आये? बीच के वर्षों में कहाँ थे?

वास्तव में तो कालिदास को स्मरण नहीं था कि उन्हें सरस्वती आश्रम में देखा था, परन्तु वे जो कह रहे थे, वह सत्य था. एक बार पूछने का मन हुआ, परन्तु जब विषय बदल गया है, तो फिर कभी देखेंगे अतः उन्होंनें स्वयँ को रोक लिया.

“बीच के समय में मैंने कुछ यात्राएं कीं. सारनाथ गया, काशी गया, अनेक स्थान देखे. फिर यहाँ आया.”

विषय समाप्त हो गया था. अन्धकार दसों दिशाओं से पृथ्वी पर झुक रहा था. राजपथ के दीप जला दिए गए थे. दोनों दो दिशाओं में चल दिए.

 

कालिदास अपने कक्ष से बाहर आये और पुष्करिणी के सामने ही उनके सामने प्रभावती एवं उसकी सखियाँ आ गईं.

“कविराज, राजसभा में कई बार आपके काव्य के बारे में चर्चा होती है. हमारी राजकुमारी पर एकाध काव्य कीजिये, ना.”

“प्रभावती देवी का व्यक्तित्व ऐसा ही है कि उस पर काव्य की रचना की जाए.”

“वह कैसे?” प्रभावती ने उत्सुकता से पूछा. उसके इस बेधड़क प्रश्न से कालिदास पल भर के लिए निरुत्तर हो गए, मगर अगले ही पल बोले,

“ देवी प्रभावती को तब से देख रहा हूँ, जब वे कुमारिका थीं. जब मैं उज्जयिनी आया, तब वे बालिका थीं. अब वे विवाह योग्य हो गई हैं, परन्तु इस काल में उनसे अनेक बार वार्तालाप करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. तब उनके भीतर रसिकता एवँ गुणवत्ता का अनुभव हुआ, विशेष उल्लेखनीय है उनका राजकीय ज्ञान - महाराज की युद्ध मुहीम, महाराज की विजय, शक, क्षत्रप – इनकी मानसिकता, संपूर्ण एकीकृत साम्राज्य का विचार और हिंदुत्व का विचार.”

“क्या यह सत्य है, प्रभावती?” सखी ने पूछा.

“राजकुमारी ने कहा था, ‘ आज तक सुवर्ण भूमि के रूप में भारत की ख्याति सुनकर हम पर अनेक आक्रमण हुए. शक, हूण, ग्रीक, यवन – सभी आये. और कई बार भारत की संपत्ति ले गए, कुछ यहीं पर स्थायिक हो गए. जब ग्रीक जगज्जेता सिकंदर आया था तो तक्षशिला के नरेश आम्भी ने उससे संधि कर ली, मगर पोरस ने अपनी मातृभूमि के लिए युद्ध किया, पराजित हो गया, क्योंकि भारत एकसंध नहीं था. हमारे पिताश्री ने और उनके पिताश्री ने वह कार्य किया. भारत का एकसंधत्व. इसलिए साम्राज्य विस्तार. ‘आसेतु हिमाचल’ एकसंध राज्य हो.’     

राजकुमारी प्रभावती की, इस षोडश वर्षीय कन्या की इस अदम्य इच्छा को देखकर हम स्वयँ भी आश्चर्यचकित हो गए,” कालिदास ने बीच ही में कहा.

“क्या यह सत्य है, प्रभावती?” दूसरी सखी ने पूछा.

“हाँ, सखियों, कविराज जो कह रहे हैं, वह सत्य ही है. हमारे पिताश्री, सम्राट चन्द्रगुप्त जब उज्जयिनी में होते हैं, तो एक ही बात पर जोर देते हैं, – मातृभूमि का आदर और राष्ट्रीय एकसंधत्व.”
“परन्तु
, सखी प्रभावती, तुमने हमें कभी अपने विचारों की भनक नहीं लगने दी. ऐसा क्यों?

“क्योंकि यह हमारे व्यक्तिगत विचारों का महत्वपूर्ण भाग है. उस दिन जब कविराज आये थे, तो पिताश्री के साथ विचार-विमर्श होने के बाद, जब पिताश्री चले गए, तो हम भी काफी कुछ बोल गए. परन्तु शाम, रम्य उद्यान, पुष्करणी, सुगंधित वातावरण, मेघाच्छादित आकाश यह सब हमें प्रिय है.”

“और सखी, अपने पति के सन्दर्भ में कभी कुछ नहीं कहा. कविराज को बताया है क्या?

“नहीं, क्या बताना है उन्हें? कहते हैं कि स्त्री का जीवन पिता के हाथ में होता है. वह स्वयंवर कर सकती है, वैसे ही शास्त्रार्थ में अनेकों को पराजित करके विजेता से विवाह कर सकती है. हम जब विवाह के सन्दर्भ में विचार करने लगते हैं, तो पिताश्री की बात का स्मरण हो आता है. वे कहते हैं, कि ‘प्राचीन वैदिक काल व्यक्तिगत स्वातंत्र्य का था. द्रौपदी, सावित्री, मैत्रेयी का था. परन्तु राजसत्ता में कब किसी स्त्री को अपने विवाह की कल्पनाओं को तहस-नहस होते देखना पड़े, कह नहीं सकते.’ और इसीलिये उस कल्पना रम्य मार्ग पर हम जाते ही नहीं हैं.”

“कविराज, स्त्री के अन्तरंग का, उसके पारतंत्र्य का, उसके दासत्व का विचार करके लिखिए न कोई काव्य!”

“राजकुमारी की सखियों, यदि हमने आपकी विनती मान्य कर ली तो वर्त्तमान समाज के पुरुष हमें उठाकर समुद्र में फेंक देंगे. साथ ही सुख के साथ ही दुःख को भी भोगना चाहिए, ऐसी हमारी भूमिका है. अतः क्षमा करें, हमें कोई अन्य विषय सुझाएँ.”

वे उन सबको प्रणाम करके आगे चल पड़े. उन्हें जाना था अतिथि कक्ष की ओर. उज्जयिनी आये हुए पाँच अतिथियों की भारत-यात्रा का वर्णन सुनने. सम्राट चन्द्रगुप्त विदर्भ गए थे. पंद्रह दिन हो गए थे. और यदि अतिथियों को भी आनंद प्रदान कर सकूँ तो, इस उद्देश्य से वे निकले थे. और वे पाँचों अतिथि उन्हें उपवन की ओर जाते हुए दिखाई दिए. कालिदास तेज़ कदमों से उनके समीप पहुंचे.

“विश्वंभर भट्ट महाशय...” कालिदास की आवाज़ सुनकर वे रुक गए.

“आपसे मिलने हम अतिथि कक्ष की ओर निकले थे.” 

“चलिए, हम अतिथि कक्ष में ही चलें.”

अतिथि कक्ष में आराम से आसन पर बैठकर कालिदास बोले,

“ आप लंका द्वीप तक जाकर आये हैं, वह भी अश्व पर. अतः जबसे आप आये हैं, आपकी यात्रा का वर्णन सुनने की इच्छा थी.”

“क्या हुआ, महाशय, कि एक बार हम पाँचों गंगा के किनारे पर मिले. सहज ही परिचय कर लिया. परिचय दृढ़ होता गया और इस बात का ज्ञान हुआ कि हमारी आवश्यकताएं अधिक नहीं हैं. सुखमय जीवन की कल्पना नहीं, और अध्ययन की, यात्रा की वृत्ति है. निर्भयता है. बस, निश्चय कर लिया और निकल पड़े यात्रा पर.”

“अनुभव ढेर सारे होंगे, साथ में प्रकृति भी होगी, और ऋतुओं का परिवर्तन भी होगा. सब कुछ अत्यंत सुन्दर रहा होगा. और अपने आर्यावर्त की स्थिति?

“महाशय, हम केवल आर्यावर्त की स्थिति ही जान रहे थे. प्रकृति तभी सुन्दर प्रतीत होती है, जब मन में सुन्दरता हो. परन्तु भारतवर्ष के दक्षिण में, पश्चिम में व्याप्त अज्ञान, निर्धनता और प्रकृति से टक्कर देते-देते हुई दयनीय स्थिति देखी नहीं जाती थी.”

“और दुःख हुआ कि कहाँ गया वह सुवर्ण युग,” विश्वंभर भट्ट ने विषण्णता से कहा और उनके नेत्रों के सामने साकार हो गया भारत का सुवर्णकाल. उस समय भी युद्ध होते ही थे. राष्ट्रपुरुष कहता...हमारी वसुंधरा के ये बच्चे...आपस में युद्ध करते हैं, परन्तु फिर भी राजा के आधिपत्य में समाज सुखी था, संपन्न था.”

फिर वे बताने लगे, “पुरू, अनु, द्रह्यु, यदु, तुर्वसु इन पाँच राजाओं के सामर्थ्यवान राज्यों का आर्यावर्त में अस्तित्व था. इन्हें पंचजन कहते हैं. उसी समय भरत नामक आर्य का राज्य इन पञ्चजन की अपेक्षा अधिक विस्तारित था. उस समय सुक्षस राजा था. परन्तु सिकंदर के समान भारत के स्वायत्त राज्यों को एकत्रित करने की उसकी महत्वाकांक्षा थी. विश्वामित्र भरत नामक आर्यों के प्रदेश के सुदास के राजपुरोहित थे. किसी कारण से सुदास ने उन्हें निलंबित कर दिया, जिससे उनका क्रोध अनावर हो गया. उन्होंने फिर आर्यों के पांच राज्यों और अनार्यों के पांच राज्यों का महासंघ बनाकर सुक्षस के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया, और इस दशराज्य संघ और भरत संघ के बीच भीषण युद्ध हुआ. भरत संघ की विजय हुई. सप्तसिंधु का प्रदेश उनके अधीन हो गया और भरत की सार्वभौम सत्ता स्थापित हो गई.

और सचमुच में उस काल में सधनता, संघटितता, परस्पर सौहार्द्र के कारण कुटुंब व्यवस्था और अधिक सुदृढ़ हो गई.

आर्यों के इस पूर्व इतिहास को देखते हुए एक ही बात ध्यान में आती है: साम्राज्य विस्तार के लिए किये गए युद्ध, राष्ट्रसंघ निर्माण करने के उद्देश्य से किये गए युद्ध, अहंकार की तुष्टि हेतु, प्रतिशोध लेने के लिए किये गए युद्ध आदि अनेक प्रकार के युद्ध हैं. इनमें सैनिक तथा उनके परिवार, तथा राजा द्वारा लगाए गए अधिनियम और अतिरिक्त कर भारों के कारण सामान्य समाज अनेक बार दुर्लक्षित रहा है.”

“आप जो कह रहे हैं, वह सत्य है फिर भी युद्ध और शान्ति, हिंसा और अहिंसा, धनिक और निर्धन, प्रकाश तथा अन्धकार के समान दो पक्ष होने के कारण वे होते ही रहेंगे,” कालिदास ने शान्ति से कहा.      

“ये क्या कह रहे हैं, महाशय?” रामेश्वर शास्त्री ने पूछा.

“वैदिक काल में गुरुकुल थे, सभी प्रकार का शास्त्राभ्यास था, पौर्णिमा के समान गुरू थे. राजकीय, सामाजिक जीवन में स्थिरता थी, स्त्री-स्वातंत्र्य था, परन्तु जैसा कि आपने कहा, अनेक कारणों से युद्ध होते ही थे.”

“क्या तुम ऐसा सोचते हो, कि युद्ध होना चाहिए?” विश्वंभर भट्ट ने पूछा.

“अंतर्गत सुरक्षा भी समाज के लिए आवश्यक है. उसी तरह राज सीमा की रक्षा के लिए बाह्य सुरक्षा, और आक्रमण होने की स्थिति में युद्ध अवश्यंभावी हो जाते हैं. राजा परिवार के पिता समान होता है. उसका प्रथम कर्तव्य है राज्य सुरक्षा, राज्य प्रशासन से सामाजिक सुव्यवस्था! अब, दारिद्र्य क्या श्रीकृष्ण के काल में नहीं था? सुदामा मुट्ठीभर पोहे ही ले गया था ना? कर्ण, एकलव्य उपेक्षित और राजसत्ता के बलि ही सिद्ध हुए. कारण – राजसत्ता की स्वार्थी नीति. परन्तु हर राजा ऐसा नहीं होता. प्रत्यक्ष सम्राट चन्द्रगुप्त वेश बदलकर अनेक राज्यों में गए हैं. राजा का जीवन अत्यंत सार्वजनिक होता है. फिर भी कहीं न कहीं कोई कमी रह ही जाती है. ऐसी स्थिति में उन्हें राजा के पास पहुँचना चाहिए. कालिदास शांतिपूर्वक, अत्यंत मधुर स्वर में बोल रहे थे. विश्वंभर भट्ट पर इसका गहरा परिणाम हुआ. फिर भी मन में खदखदा रहा एक प्रश्न उन्होंने पूछ ही लिया,

“वैदिक काल जैसे गुरुकुल, आश्रम विद्यापीठ हर जगह पर होने चाहिए ना? कण्व मुनि के आश्रम में ‘ब्रह्मस्थान’, ‘विष्णुस्थान, ‘महेंद्रस्थान, ‘गरुडस्थान. ‘सोमस्थान, ‘विवस्वतस्थान’- आश्रम-विद्यापीठ की ऐसी छः शाखाएं थीं. उस समय अनेक आचार्य वेद-वेदान्त, नीति शास्त्र, गणित, भाषा शास्त्र, छंद रचना, विष विद्या, गायन, वादन, नृत्य, नाटक, संगीत के अतिरिक्त अर्थशास्त्र, राज्यशास्त्र, युद्ध नीति, युद्ध शास्त्र, सैन्य व्यवस्था, महामार्ग निर्मिती ज्ञान, वनस्पती शास्त्र, कृषि शास्त्र, खगोल विज्ञान की संपूर्ण शिक्षा देते थे...”

कालिदास समझ नहीं पा रहे थे, कि इससे विश्वंभर भट्ट कौनसा प्रश्न पूछना चाह रहे थे. उनके मुख पर ऐसे भाव देखकर विश्वंभर भट्ट पल भर को रुक गए.

“उस काल में शूद्र, वैश्य, क्षत्रिय, ब्राह्मण ये सारे विद्यार्थी वर्ग ज्ञानार्जन करते थे. परन्तु आगे चलकर ब्राह्मण इतने अहंकारी और स्वकेंद्रित हो गए कि उन्होंने अन्य लोगों का ज्ञानमार्ग ही बंद कर दिया. ज्ञानमार्ग को संकुचित कर दिया और इसीलिये जगह-जगह पर अज्ञान, अंधश्रद्धा, दारिद्र्य के दर्शन हुए, प्रकाश मार्ग ही जैसे समाप्त हो गया था. मैं स्वयं भी यह देखकर व्यथित हुआ. क्या यह योग्य है?” 

कालिदास ने मन ही मन कहा, ‘ज्ञान प्राप्त किया हमने. परन्तु हम कौन हैं? ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र?’ मगर प्रगट में उन्होंने कहा,

“आप जो कह रहे हैं, वैसा सर्वत्र नहीं है. सरस्वती आश्रम में सभी ज्ञानार्थी समान थे. परन्तु यह सत्य है कि गुरुकुल हर राज्य में होने चाहिए. हम महाराज से इस बारे में कहेंगे.”

विश्वंभर भट्ट शांत हो गए थे. उन्होंने शान्ति से कहा,

“बात यह है, कालिदास कि मैं वैदिक शास्त्रों का, समाज जीवन का अभ्यासक हूँ, इसलिए वर्त्तमान परिस्थिति कभी कभी असह्य हो जाती है. बस यही बात है.”

“जैसा आप कह रहे हैं, सिन्धु संस्कृति, उससे पूर्व वैदिक संस्कृति, नए आचार विचारों को प्रेरणा देने वाली और शाश्वत मूल्यों की रक्षा करने वाली, विश्वात्मक सुख की कल्पना करने वाली, सुविचारी संस्कृति थी. परन्तु राष्ट्र पर होने वाले आक्रमणों, संस्कृति पर भी अन्य देशों से आई संस्कृतियों के आक्रमणों का सामना करते हुए काफी परिश्रम किये गए. फिर भी अनेक युग बीत गए, और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के लिए युद्ध करने वाले, अपने प्राणों की आहुति देने वाले राजा-महाराजा आज भी हैं, अतः आप दुखी न हों.” उन्होंने विश्वंभर भट्ट को समझाते हुए कहा, तो रामेश्वर शास्त्री बोले,

“कालिदास जो कह रहे हैं, वह सत्य है. परिवर्तन प्रकृति का नियम है. परन्तु जीवन मूल्यों का विचार – संस्कृति है. ऐसा है ही. सिन्धु संस्कृती में सामाजिक सुख का विचार पहले किया गया, क्योंकि उस काल में उन्हें समाज की रचना करनी थी.”

विश्वंभर भट्ट को मन ही मन यह स्वीकार था. परन्तु उस काल के महामार्ग, पथदीप, निवास स्थान, महास्नानगृह, जलकूप, नगर रचना, अपशिष्ट जल की निकास व्यवस्था, अनाज के भण्डारगृह, कामगार लोगों के लिए स्वतन्त्र निवास स्थान, राज्य शासन के कार्यों का विभाजन और उसके लिए स्वतन्त्र कार्यालय, नगरों के लिए तटबंदी, यह सब आज सुधारित रूप में होते हुए भी वह वैचारिक भावना आज नहीं है, इसका अनुभव उन्हें हो रहा था. काल का संक्रमण करते हुए उन्हें कष्ट हो रहा था.

उनके चारों सहयोगियों ने और कालिदास ने यह भांप लिया था, इसलिए उन्होंने कहा,
“ आप वैदिक संस्कृति के पूजक हैं
, परन्तु महाशय, आज भी ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, उपनिषद, संहिताओं का अध्ययन होता है. वह ज्ञान का भण्डार है. कृष्ण एवँ शुक्ल यजुर्वेद का अध्ययन किया जाता है, क्योकि वह ज्ञान का दीपस्तंभ है, मानते हैं ना आप?

वेदांगो, शिक्षा, दीक्षा, कल्प, श्रोत्रसूत्र, गृहसूत्र, धर्मसूत्र, शुल्ब सूत्र, व्याकरण, निरुक्त, छंद शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, षडांग शास्त्र, न्याय दर्शन, वैशोषिक, दर्शन, सांख्य दर्शन, योग दर्शन, पूर्व मीमांसा दर्शन, उत्तर मीमांसा दर्शन, इस वैदिक ज्ञान को युगों युगों से अर्जित किया ही जा रहा है ना? उसमें अन्य अधिक शास्त्रों की भी वृद्धि हुई है, बस इतना ही, और, अन्य क्षेत्रों में भी ऐसा ही होता गया, इसलिए आप विगत की घटनाओं का विचार करके दुखी न हों. और उस काल में भी आर्यों, अनार्यों, दस्युओं का संघर्ष था ही ना? अतः वर्तमान प्रसन्नता से जीना चाहिए.”

“महाशय, गुप्त वंश का इतिहास भी राष्ट्र प्रेम का प्रतीक है, ऐसा महामंत्री वीरसेन कह रहे थे. उसे भी आप श्रवण करें.” कालिदास एक सांस में बोल गए और फिर बोले, “क्षमा करें.”

“नहीं, नहीं, कालिदास, तुमने मुझे नई दृष्टी दी है,” विश्वंभर भट्ट ने कहा.

“आप सत्य कह रहे हैं, कालिदास. क्योंकि ऋग्वेद काल में वर्णित सभी समितियां आज भी विद्यमान हैं. कर्तव्यों में वृद्धि हुई है, क्योंकि साम्राज्य का विस्तार हुआ है. आज विशाल भारत का चित्र सप्तसिंधु के पार तक है. परन्तु राजकर्तव्य वे ही हैं. समितियां, मंत्रीमंडल है, जहाँ युद्ध अथवा संधि के बारे में निर्णय लिए जाते हैं. सामाजिक समस्याओं का निवारण होता है. शास्त्रार्थ और विद्वत्सभा है. सब कुछ वही है,” देवदत्त शास्त्री ने प्रथम बार कहा.

“राजपुरोहित, सेनापति अथवा सेनानी, गुप्तहेर, कायदा, अधिकार, न्याय, सुव्यवस्था, युद्ध प्रशिक्षण सब कुछ आज विस्तारित स्वरूप में है.”

“सत्य है, देवदत्त शास्त्री, हम एक ही परिधि में चक्कर लगा रहे थे. परन्तु आज नई दृष्टी प्राप्त हुई है. कविराज, आप केवल कवि कल्पना में ही मग्न नहीं हैं, अपितु सभी शास्त्रों के उत्तम अभ्यासक हैं, इसका भी अनुभव हुआ.”

“अब एक ही इच्छा है, तुम्हारे ही मुख से गुप्त कुल की कथा सुनें.” विश्वंभर भट्ट ने कहा.

कालिदास ने मन ही मन कहा, ‘हमें ही कबसे उसका अध्ययन करना है,’ परन्तु प्रकट में बोले, “अवश्य, अवश्य!”

मध्यरात्रि उत्तररात्रि की ओर चल पडी थी. देवदत्त शास्त्री ने कहा,

“पता ही नहीं चला कि मध्य रात्रि कब आई और कब चली गई. अब आप पधारें, कविराज!”

उनसे बिदा लेकर कालिदास उपवन से होते हुए अपने कक्ष की ओर निकले, तब नीरव, शांत रजनी, निरभ्र नीलाकाश, और मंद-मंद वायु के झोंके, प्रौढ़, प्रगल्भ, शांत रजनीकांत के दर्शन हुए और उसी क्षण उनके मन में आया, ‘क्या ऐसे सर्व सुख प्राप्त प्रौढ़-प्रगल्भ, रजनीकान्त जैसा शांत होना मेरे लिए संभव है? ’

     

 

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