आज अद्याप मध्याह्न का समय भी नहीं हुआ था.
कालिदास “ऋतु संहार” की एक और प्रति बनाकर मूल पांडुलिपि अपने पास रखने के
उद्देश्य से भोजपत्र पर लिखी पंक्तियों को पुनः लिखने के लिए हाथ में लेखनी लेकर
बैठे थे. सम्राट चन्द्रगुप्त ने उन्हें मध्याह्न में चंपक उपवन में आने के लिए कहा
था. इस काव्य को उन्होंनें कब का लिख लिया था. कहीं वह अत्यंत प्राथमिक स्वरूप का
तो नहीं है, ऐसा संदेह मन में था.
परन्तु
उन पंक्तियों को फिर से भोजपत्र पर लिखने की इच्छा नहीं हो रही थी. बार-बार कल रात
को मधुवंती के प्रासाद के श्रृंगार का स्मरण हो रहा था. उन पाँच अतिथियों के आने
के बाद हरेक की ज्ञान क्षुधा पूरी हो रही थी, मगर उसके यहाँ जाना संभव
नहीं हो पा रहा था. दो महीने वास्तव्य करने के पश्चात वे फिर से आने का वचन देकर
भ्रमण के लिए उत्तर की ओर गए, और कालिदास को आतंरिक क्षुधा का ध्यान आया, मधुवंती
से मिलन की. वे कल शाम को ही उसके प्रासाद की ओर गए थे.
हाथ
में वीणा लिए वह गा रही थी. अपनी ही धुन में मगन. वे भीतर आये. उसे ज्ञात ही नहीं
हुआ. केवड़े की सुगंध, अभी-अभी प्रज्वलित ज्योति, धुंधला वातावरण, ऊपर से मेघों ने अकस्मात्
वसुंधरा को अपने आगमन का दिया हुआ संकेत, सामने ही देव-मंदिर में देव-प्रतिमाओं के सम्मुख
प्रज्वलित दीप माला, धूम्र वलयों से रेखांकित देव-मंदिर, सभी कुछ मन को मोह रहा था.
वे आसन पर बैठ गए.
“क्या
हमारी ही प्रतीक्षा में थीं?”
“आपको
कैसे ज्ञात हुआ, आर्य ?”
:राधा
की विरह-व्याकुलता तुम्हारे भी मन से छलक रही थी. बिल्कुल घन-घन जलराशी लेकर आये
घनश्याम जैसी.”
“वो
बात नहीं, आर्य...”
“सांझ
के धुंधलके में क्या कोई यूँ ही मारवा राग गाता है?”
“फिर
कैसे?”
“संगीत
का प्रगाढ़ ज्ञान रखने वाले व्यक्ति से यह पूछना वैसा ही है, जैसे
उदयभास्कर से ज्योति कोई प्रश्न पूछे. आप जब भी आते हैं, ना, आर्य, हमें एक
अलग ही अनुभव होता है. नृत्य, संगीत, वेद, शास्त्र, उपनिषद्, आरण्यक – सभी कुछ आपको ज्ञात है. इतना सब कैसे?”
“हे
ललिते, सखे, मधुवंती, हमें ही क्या, यह सब अनेकों को ज्ञात ही होगा!”
“नहीं, नहीं, आपके
जितना ज्ञान किसी और में हो, यह असंभव है.”
“यह
तुम्हारी भ्रामक कल्पना है, सुमती, मधुवंती. इस विषय पर आज नहीं, कल चर्चा करेंगे.
तुम्हारे
आर्त भाव मारवा से व्यक्त हो गए. अब हम आ गए हैं ना...समाप्त हुई आर्तता. वह हंसी.
मानो आकाश की चंद्रप्रभा ही कक्ष में फ़ैल गई.
वह
उठी. जाकर भगवान के सामने बैठ गई. पल भर को उनके मन में आया- वह क्या मांग रही
होगी और अगले ही पल वे सहज ही उसका मारवा राग गाने लगे. उनकी बुलंद होती हुई आवाज़
उसने सुनी थी, मगर इस समय वे विरह-व्याकुल श्रीकृष्ण थे.
वे
गा रहे थे.
मधुवंती
के मुंदे हुए नेत्रों के सामने श्यामल कालिंदी, संधिप्रकाश में आलोकित
कदम्ब वृक्ष, उससे टिककर खड़े कृष्ण बांसुरी बजा रहे थे. वापस लौटती हुई गायें बांसुरी
की धुन सुनकर ठिठक गई थीं, परन्तु राधा नहीं थी. उसके पैरों की नूपुर ध्वनि नहीं
सुनाई दे रही थी. ‘कहाँ गई होगी? संकेत तो भेजा था. निश्चित ही आने वाली थी. बीच ही में
कुछ हुआ तो नहीं उसे? राधा...राधा...राधा...’ मुरली से सुर फूट रहे थे, और हौले से आकर राधा ने
आकर उनके नेत्र मूँद दिए. और मधुवंतीने अत्यंत आनंद से अपने नेत्र खोले. कालिदास
को देखकर वह प्रसन्नता से हंसी, जैसे रजनीगन्धा खिल उठी हो. उसके रूप लावण्य को वह
विस्मित दृष्टी से देख रहे थे. “आर्य...आर्य...आर्य...” वह उन्हें जगा रही थी.
कालिदास
अपने आप में ही मग्न थे. ‘कौन होगा वह शिल्पकार जिसने इस लावण्य रूप को चैतन्य
प्रदान किया, आवाज़ को माधुर्य दिया, नेत्रों को सलज्जता प्रदान की, मन तो उसे किसने दिया? मन और देह
का इतना अनुपम सौन्दर्य...सही में, किसने दिया होगा? उस निराकार की अप्रतिम
कल्पना की यह साकार प्रतिकृति...वास्तव में एक आश्चर्य ही है. उसके एक-एक अंग की
रचना करते हुए प्रत्यक्ष विधाता को भी अद्भुत मोह हुआ होगा. कौन होगा वह विधाता? ऐसे
विधाता ने कहीं सचमुच में वात्स्यायन के ‘कामसूत्र’ का अध्ययन तो नहीं किया?
और
इस विचार से वे हँस पड़े...मन ही मन दिल खोलकर...वात्स्यायन को बनाने वाला वो, जीवन में
अर्थ, काम, मोक्ष बताने वाला वो; निर्माता वो, मानवी भावनाओं का उत्कट
आविष्कारक वो, वह प्रथम कामसूत्र लिखेगा अथवा परस्पर आकर्षित होने वाले देह और मन की रचना
करेगा?
हमारा
मन ही पागल है. कैसे भी विचार मन में आते हैं, और हम अपने आप पर ही अनेक
बार हँसते हैं. अभी भी उनके मुख पर प्रसन्न हास्य प्रकट हुआ, और
मधुवंती ने उनके कंधे पर हाथ रखकर पूछा,
“
ऐसे आत्ममग्न कैसे हो जाते है आप, आर्य?”
“बात
यह है, चारुगात्री, लावण्यलतिके सखी, कि संपूर्ण देह ही तुम्हें समर्पित करके स्वतः को शून्य
कैसे बनाऊँ, इसका विचार कर रहे थे हम. देखा, सखी, मेघ भी आतुर होकर वसुंधरा की ओर झुकाने लगे हैं. अँधेरे
की परछाइयों से सांझ गहरा गई है.”
वह
दिल खोलकर हंसी. उसके केशकलाप में गूंथी हुई पुष्पमाला कन्धों से आगे आ गईं. उसने
कहा,
“आर्य,
भोजन तैयार है. आप आज आयेंगे, यह मैं जानती थी.”
“वह
कैसे, बताओ,” उन्होंने पूछा.
उसके
मुख पर क्षितिज के बदलते हुए रंगों को देखकर उन्होंने कहा, “तुम्हारे चेहरे पर इतनी
उत्सुकता है, हर भाव मुख पर ऐसे दिखाई दे रहा है, मानो दर्पण में प्रतिबिंबित
हो रहा हो.”
“आज
सुबह-सुबह ही संकेत मिले थे. कोयल दिखाई दी. बायाँ कंधा थरथराया. मध्याह्न में काक
पक्षी महाद्वार के निकट वाले वृक्ष पर बैठकर किसी के आने का संकेत दे रहा था. और
आर्य, आज मन ही मन आपका नाम कितनी ही बार याद किया. आपके आगमन की प्रतीक्षा में
हम...”
“क्या
किया हमारे आगमन की प्रतीक्षा में, हे चारुगात्री?”
“विविध
प्रकार के वस्त्रालंकार पहन कर हम स्वयँ को ही दर्पण में निहार रहे थे, और मन ही
मन पूछ रहे थे, ‘बता तो, दर्पण, हमारे प्रियतम कब आयेंगे!’ और अकस्मात् मेघश्याम ही नभ
में प्रकट हो गए. यह भी था संकेत!”
उसकी
प्रसन्नता रोम-रोम से प्रकट हो रही थी और कालिदास आज उसके रोम-रोम को शब्द देने
वाले थे. भीतर का शल्य उसे दिखाने की इच्छा हुई, परन्तु वे मौन रहे. सारा
भूतकाल भूलकर नए जीवन का आरम्भ करने का विचार कई बार मन में आया. हो जाए मन का
आकाश निरभ्र, उड़ने दें मन को दश दिशाओं में मुक्त...मुक्त...वनों-जंगलों में
विचरने दे मुक्त मन को मृग-शावक के समान. देह को भी प्रवाहित होने दे एक ही मार्ग
पर. नहीं चाहिए जीवन के चक्र, वक्र होते गए मोड़. वसुंधरा भी जब अति हो जाता है तो दुभंगित
हो जाती है. हम भी ऐसे ही – दुभंगित. शब्दों का मौन, गले में दबी सिसकी, मधुवंती
जैसी गुणी स्त्री की प्रतारणा कर रहे हैं हम.
गणिका
है तो क्या! वह भी स्त्री ही तो है. उसका मन भी कहता ही होगा. फिर भी हम मौन क्यों
हैं?
सत्य क्यों नहीं कह देते? यदि कोई अपराध है, तो वह है मन को अनुभव होती विद्वत्वती
के पिता की चिंता. अपराध तो हमने भी किया ना? किसी ने कुछ भी कहा और हम
विवाह के लिए सहमत हो गए? अपराध तो हमारा भी था और अपमान हुआ ज्ञान का भी और
पुरुषार्थ का भी.
उन्हें
निश्चल बैठा देखकर मधुवंती ने उन्हें हाथ पकड़कर उठाया. वे हँसे, जैसे घने कृष्णमेघों
से छनकर सूरज की किरण आये. उसने अत्यंत स्नेह से पूछा,
“कुछ
हुआ है क्या, आर्य?”
“नहीं, नहीं, मधुवंती, नहीं.
सम्राट चन्द्रगुप्त ने कल मध्याह्न में हमारा ‘ऋतु संहार’ काव्य सुनाने के लिए चंपकवन में बुलाया है.
परन्तु ग्रीष्म काल में मयूर पंख के नीचे सर्प आश्रय ले, वैसी हमारी स्थिति हो गई
है.”
“सम्राट
चन्द्रगुप्त अनेकों का सत्कार करते हैं. गुणो का आदर करते हैं. आप अवश्य जाए. डर
किस बात का है?”
“किसी
गुणग्राहक, विद्वान टीकाकार को पसंद आना महाकठिन है, मधुवंती.”
“रहने
दें. भोजन कक्ष में चलें.”
अब
उन्होंने भूतकाल को मन की सातवीं कोठरी में रखा और उसका द्वार बंद कर दिया, और उसके साथ भोजन कक्ष में आये. अपने प्रिय
भोजन पदार्थों को देखकर वे आश्चर्यचकित हो गए.
“तुम्हारे
संकेत सत्य थे, प्रिये! तुम्हारे मन की तीव्र इच्छा ही जैसे हमारे मन को स्पर्श कर गई.”
वे उसके आनंद में सहभागी हो गए.
रात
एक एक पंखुड़ी खिलते जाने वाले ब्रह्मकमल के समान थी. मन की व्यथा, देह की
क्षुधा धीरे धीरे कम होती गई और मध्यरात्री के पश्चात निस्तब्ध जलाशय की भाँती
कालिदास भी स्थिर हो चुके थे.
अब
इस समय ‘ऋतु संहार’ के भोजपत्र एकत्रित करते हुए मधुवंती के सहवास में खिलती गई सुगन्धित रात
का स्मरण हो आया. हाथों में भोजपत्र लिए नवचैतन्य के साथ वे चंपकवन की ओर चले.
हाथों
थे ‘ऋतु संहार’ के भोजपत्र और मन में थी मधुवंती.
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