Monday, 21 November 2022

Shubhangi - 21

 

 

“महाराज, यहां तो केवल दो-तीन ही चम्पक वृक्ष हैं, बाकी मधुमालती खिली है, फिर भी इसका नाम चम्पक वन क्यों है?

“दो-तीन चम्पक वृक्ष मधुमालती की कितनी सारी लताओं को अपनी देह पर लपेटे खड़े हैं, तो श्रेष्ठ कौन हुआ? परन्तु पहल्रे यह चम्पकवन ही था.”

महामंत्री वीरसेन, सेनापति देवदत्त और सम्राट चन्द्रगुप्त दिल खोलकर हँसे.

“आप श्रेष्ठ मीमांसक हैं, महाराज. और ऊपर से पुरुषत्व को प्रधानता देने वाले हैं. पृथ्वीपति, राजाधिराज और अनेक उपाधियों से विभूषित हैं. अतः कुछ...”

“कवि कालिदास, हम भी कुछ प्रश्न तैयार करके लाये हैं,” देवदत्त ने कहा.

“पूछिए ना!”

“कुछ प्रश्न हमसे भी पूछिए, सेनापति देवदत्त,” सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा.

“प्रथम कवि कालिदास से पूछता हूँ, विश्व में ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना कौन सी है?

“माता.”

“और सर्वश्रेष्ठ पुष्प कौनसा है?

“निःसंदेह रूई का.”

“और सबसे उत्तम सुगंध?

“वर्षा ऋतु के आगमन से तप्त धरती द्वारा छोड़े गए निःश्वास की.”

“मधुरता किसमें होनी चाहिए?

“निःसंदेह वाणी में. जिसने यह बात समझ ली, उसने, समझो, जग जीत लिया.”

“कालिदास, ऐसी मधुर वाणी से अलेक्सांडर ने युद्ध नहीं जीते थे. साम्राज्य के सुख के लिए अपने पुत्र का वध करने वाली माताएं भी हैं. मधुर वाणी से सारे कार्य नहीं होते.”

“महाराज, आप जो कह रहे हैं, वह सत्य है. परन्तु देश के अन्दर हर नागरिक में स्नेह भाव होना आवश्यक है, उसके लिए आवश्यक है मधुर वाणी.”

सम्राट चन्द्रगुप्त को उनका उत्तर मान्य ही था.

“सबसे ज़्यादा कष्ट देने वाली चीज़ कौन सी है?

“अपने ऊपर निष्कारण लगा हुआ कलंक.”

“और सबसे सस्ती और सहज वस्तु?

“उपदेश! वह कोई भी, कभी भी, कितना ही समय व्यर्थ गंवाकर दे सकता है.”

“और सबसे मूल्यवान वस्तु?

“परस्पर सहकार्य, द्वेषरहित सहयोग.”

“सबसे कटु उत्तर कौन सा हो सकता है?

“सेनापति देवदत्त, सत्य. किसी के ‘सत्य को उजागर करना कटु प्रसंग है. उससे द्वेष, वैमनस्य, जीवित हानि और क्रौर्य ही निर्माण होता है.”

“हमारे प्रश्न समाप्त हुए, महाराज, और...”

“अब हमसे भी प्रश्न पूछें, सेनापति देवदत्त.”

“आपसे? आप तो सर्वश्रेष्ठ हैं.”

“मानते हैं, ना? तो फिर समय-समय पर उसीकी परिक्षा लेना, उसे सजग करना, उसे नवीनतम समाचार देना, यह तो हरेक का कर्तव्य है. इसके अतिरिक्त हम यहाँ सम्राट के रूप में नहीं आये हैं. हर समय सम्राट होना हमें पसंद नहीं है.”

“हम पूछते हैं,” महामंत्री वीरसेन ने कहा.

“अभी हाल ही में, हम वेषांतर करके नगर में घूम रहे थे. एक कुटी के सामने, आँगन में, एक स्त्री अपनी कन्या से कह रही थी, “अपने हाथ की पाँच उँगलियों का अर्थ तुझे ज्ञात है?” कन्या होगी सात-आठ वर्ष की. वह बोली, “ज्ञात है, माते. करांगुली का अर्थ है – जलतत्व, अनामिका – अर्थात् पृथ्वीतत्व, मध्यमा – अर्थात् आकाश, उसके बाद है वायुतत्व की उंगली, और अन्गुश्ठा का अर्थ है – अग्नितत्व....सत्य कहता हूँ, हमारे नेत्र आनंद से भर आये. जिस नगर में विद्वान गणिकाएं, ऐसा ज्ञान ग्रहण करने वाली बालिकाएं हैं, वह हमारी उज्जयिनी कितनी श्रेष्ठ है, इसका प्रमाण हमें मिल गया.”

“यथा राजा, तथा प्रजा,” कालिदास ने कहा और सभी प्रसन्नता से हँसे. और बोले, “प्रश्न तो हम बाद में भी पूछ सकते हैं, प्रथम ‘ऋतू संहार सुनें.”

अब तक चलते हुए सेनापति देवदत्त और मंत्री वीरसेन ने आगे जाकर सम्राट चन्द्रगुप्त के लिए चंपक वृक्ष के नीचे आसन रखा, और सभी निश्चिन्त होकर बैठ गए.

“महाराज, हमने ग्रीष्म ऋतु से काव्य का आरंभ किया है. जीवन में हो, अथवा प्रकृति में – यह ऋतू कष्टदायक ही होती है. ऋतू की दाहकता, अथवा मानवी जीवन की घटनाओं की दाहकता समान ही होती है. यदि प्रकृति सजीव होकर बोलने लगे, तो वह भी अपनी घटनाओं का वर्णन करने लगेगी. हमने निसर्ग रूप धारण किया है और उस ग्रीष्म ऋतु की दाहकता से परस्पर शत्रु भी कैसे एक हो जाते हैं, यह अतिशयोक्ति प्रतीत होते हुए भी सत्य है.

“हमारी उत्सुकता और न बढाएं, कालिदास. आरम्भ करें.”

“अवश्य...

प्रचण्डसूर्यः स्पृहणीयचंद्रमा: सदावगाहक्षतवारिसंचय: ।

दिनान्तरम्योsभ्युपशान्तमन्मथो: निक्षधकालोsयमुपागत: प्रिये ।।

 

“वा, कल्पना सुन्दर! ग्रीष्म के दाह से कोई प्रियतम अपनी प्रियतमा से कहता है,              

यह ग्रीष्म ऋतू आई है. चन्द्रमा की शीतलता की प्रतीक्षा है., अर्थात रात्रि की. देह की उष्मा शांत कर रहे प्रियकरों के स्नान से सरिता का जलस्तर कम हो गया है और संध्यासमय आतुर होकर प्रियतमा के पास जाएँ तो इस ग्रीष्म ने इतना तंग किया है कि कामवासना ही शांत हो गई है. वा कविराज, केवल प्रथम चरण की काव्य पंक्तियों से ही अगली काव्य पंक्तियाँ सुनने की इच्छा हो रही है, वह भी हमारे रसिक, विलासी मन को.”

सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा. वे अब सम्राटपद एक ओर रखकर आस्वादक के रूप में आनंद ले रहे थे.

कालिदास ने प्रथम सर्ग की केवल छः पंक्तियाँ ही पढी थीं, कि सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा, “हमें छठी पंक्ति एकदम यथार्थ प्रतीत होती है. प्रियतमा के बहाने से प्रियकर अखिल स्त्री जाति का ग्रीष्म काल में जैसा वर्णन कर रहा है, वह आपके रसिक मन और सूक्ष्म निरीक्षण की साक्ष देने वाला है.”

सम्राट चन्द्रगुप्त ने उन पंक्तियों को फिर से सुना. कालिदास अब एक के बाद एक काव्य पंक्तियाँ पढ़ रहे थे. प्रियतम, प्रेयसी के बीच श्रृंगार में बाधा डालने वाले ग्रीष्म को वे सुन रहे थे. तप्त धरती, पर्णहीन वृक्ष, तृष्णा से पीड़ित, जल की खोज में भागते मृग, अपना चिर वैर भाव भूलकर मयूर पंखों के नीचे गोलाकार बैठा नाग, और नाग के फन के नीचे सुख से सोया मंडूक, इन सबका वर्णन कर रहे थे. प्रकृति का हरा काव्य ही जैसे खो गया हो, दुर्वाकुर भी आश्रय लेने के लिए धरती के भीतर चले गए हैं. असह्य गर्मी के कारण पक्षीगण भी परेशान हैं, और गायें तथा अन्य जानवर थोड़ी सी छाँव में बैठकर मुख से लार गिरा रहे हैं.           

और प्रथम सर्ग की अंतिम पंक्ति में वे कहते हैं,

व्रजतु तव निदाघः कामिनीभि: समेनो।

निशि सुललितगीत्ते  हर्म्य पृष्ठे सुखेन।।

 

“प्रकृति वर्णन यथार्थ है परन्तु कहीं कहीं अतिशयोक्ति भी आ गई है. परन्तु उसमें, जैसा कि आपने कहा है, जब जान पर बन आये, तो शत्रु भी मित्र हो जाते हैं. उत्तम! कालिदास, उत्तम! अब आगे आयेगी वर्षा. कामजीवन को प्रसन्न करने वाली. ऐसा ही ना?

“महाराज, आपने योग्य टीका की है. अब आगे पढ़ें या...”

“अब तो उत्सुकता, अधीरता बढ़ रही है. अवश्य पढ़ें.”

 

ससीकराम्भोधरमत्तकु जरस्तडित्पताकोs शनिशब्द मर्दल: ।

समागमो    राजवदुद्धतद्युतिर्घनागम: कामिजन: प्रिये ।।

“वाह, वाह...अति सुन्दर! अब तो वर्षा ऋतू को राजा का वैभवशाली ठाठ दिया है आपने, कवि कालिदास. जलबिन्दुओं से परिपूर्ण मेघ, मदमस्त हाथियों पर आरूढ़ होकर, विद्युल्लता की पताका फहराते हुए, गर्जना करते हुए, मृदंग बजाते हुए वर्षा ऋतू राजा के समान अवतरित हुई है. अब तो हमें ही प्रियकर-प्रेयसी की श्रृंगार कथा और प्रकृति का अनुपम काव्य दिखाई दे रहा है. आप पढ़ें, हम आपके साथ उस हरित मार्ग से, वृक्षों के पर्णों से होकर बहती जलधाराओं के नीचे से जा रहे हैं, ऐसा अनुभव हो रहा है.” सम्राट चन्द्रगुप्त भावुक हो गए थे. “फिर भी, एक प्रश्न पूछूं. जो कबसे हमारे मन में है?

महामंत्री वीरसेन और सेनापति देवदत्त सम्राट के कहने पर पुष्पवाटिका से प्रभावती और कुमार को लाने गए थे. इस संधि का लाभ उठाते हुए सम्राट ने यह प्रश्न पूछा.  

“पूछिए, महाराज, हम पहले ही आपको अपनी जीवन गाथा सुना चुके हैं, और नए मार्ग पर जाते हुए भी उस शल्य को भूले नहीं हैं.”

“मधुवंती के साथ नए मार्ग पर जाने से पूर्व ही आपने ‘ऋतू संहार लिखा है ना?

“निःसंदेह!”         

“ तो फिर प्रियकर-प्रेयसी, प्रकृति की स्त्री-पुरुष प्रतिमा – इसका इतना अप्रतिम वर्णन आपने कैसे किया है, कवि महाशय?”

“शायद हमारा अधीर मन और अन्तरंग की रसिकता, शायद किसी व्यक्ति को हुई प्रेमरोग की बाधा, शायद इसीसे प्रकृति में विद्यमान स्त्री-पुरुष प्रतिमाएं और उनकी संवेदनाएं प्रकट हुई हों.”                          

  “संभव है. परन्तु अब ऐसा लगता है कि आपको विवाह करना चाहिए.”

“अब वर्षा ऋतू की अंतिम पंक्तियाँ पढ़ता हूँ, राजकुमार के यहाँ आने से पूर्व...”

कालिदास ने वे पंक्तियाँ पढ़ीं . सम्राट के मुख से निकला,

“सुन्दर!”

“अब शरद ऋतु! महाराज, वर्षा ऋतु हमें ऐसी प्रतीत होती है, मानो आगे-पीछे मेघों को सेनिकों की भाँति रखकर रथारूढ़ होकर ठाठ से दिग्विजय को निकले सम्राट हों, मगर शरद ऋतु सौम्य, शांत प्रेयसी की भाँति प्रतीत होती है जो अपने प्रियतम की प्रतीक्षा कर रही हो. मेघराज के सर्वस्व का दान लेकर तप्त धरती तृप्त हो चुकी होती है, और उस सर्वस्व से अंकुरित वृक्ष लताओं का, दूर्वान्कुरों पर स्नेह लुटाने वाली एक स्त्री की प्रतिमा की भांति लगती है. शरद ऋतू हमारे काव्य का स्त्री रूप है.

काशान्शुका विकचपंचमनोज्ञवक्त्रा सोन्मादहंसरवनूपुर नादरम्या।

आपक्वशालिरुचिरा नतगात्रयष्टिः प्राप्ता शरन्नवधुरिप रूपरम्या।।

खिले हुए कांस्य पुष्प जैसा वस्त्र पहने, हंस की मधुर वाणी के अंगुष्ठमणि धारण किये, खेतों में फ़ैली धान की विनम्रता से कमलानना नववधू के समान विनयपूर्वक प्रवेश कर रही है.”

“आज तक शरद ऋतू को किसीने स्त्री रूप दिया हो, यह स्मरण नहीं है. वैसे ऋतुओं को सजीवत्व प्रदान करके मानवी श्रृंगार और वाणी देने वाले शायद आप ही है, कवि महाशय! अब वास्तविक स्त्रियों की क्या श्तिति है?

नद्यो विशालपुलिनान्तनितम्बबिम्बा मन्दं प्रयाति समदा: प्रमदा इवाद्य: ।    

“वाह, कविराज, सरिता को कामिनी की उपमा देते हुए उसका अति सुन्दर वर्णन किया है. अनुपम कामिनी सरिता ने लहरों पर तैरते हुए मत्स्यों की मेखला धारण की है, किनारे पर उपस्थित शुभ्र पक्षियों की उसकी माला है, और ऊंचे-ऊंचे रेत के ढेर...कवि महाशय, आपकी कल्पना को क्या नाम दें, समझ ही में नहीं आता.”

कालिदास पढ़ रहे थे, और सम्राट चन्द्रगुप्त के मुंदे हुए नेत्रों के सामने हरित वसना शरद ऋतु अवतरित हुई. कृषिबलों की कृषि में लहलहाती, पुष्पों के माध्यम से अनेक रंगों को बिखेरने वाली, पुष्पभार से वृक्षों को झुकाने वाली, मयूरों को नृत्य करवाने वाली, किसी रमणी जैसी. श्रृंगारित. रमणी के केशकलाप में मालती पुष्पहार गूंथने वाली, रात्रि के श्रृंगार का वर्णन अपनी प्रिय सखी को बारबार सुनाते हुए लज्जित होने वाली शरद ऋतू मदन की रति हो जाती है, और

 

विकचकमलवक्त्रा फुल्लनीलोत्पलाक्षी।

विकसितवकाशश्वेतवासो वसना।।

कुमुदरूचिरकान्ति कामिनीवोन्मदेयं ।

प्रतिदिशतु शरद्वश्चेतस: प्रीतिमग्रयाम् ।।

 

जिसका मुखकमल प्रफुल्लित है, नवोन्मीलित कमलपुष्प के समान नेत्र हैं, कांस पुष्पों का शुभ्र वस्त्र धारण करने वाली, रूपवती कामिनी के समान शरद ऋतू की प्रतिमा प्रकृति के अंग-प्रत्यंग को चैतन्य प्रदान करने वाली है.

“महाराज, चौथे ऋतू हेमंत के बारे में पढूं क्या? क्योंकि मध्याह्न समाप्त होकर शरद ऋतू की अंधेरी परछाईयाँ वृक्षों के ऊपर से, आकाश मार्ग से होते हुए अब सम्पूर्ण वातावरण को अपने आलिंगन में लेने वाली हैं. कल आई अकस्मात् वर्षाधाराओं से चारों ओर ठंडक हो गई है.”

“अभी प्रभावती और कुमार आये नहीं हैं, और संधिप्रकाश भी है, अतः आपके ‘हेमंत के दर्शन करना हमें प्रिय होगा,” सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा.

 

नवप्रवालोद्गमसस्यरम्य: प्रफुल्ललोध्रा: परिपक्वशालिः ।  

विलीन पद्म: प्रपतत्तुषारो: हेमंत काल: समुपपागतोSयं ।।                   

“अत्यंत सुंदर, कवि महाशय...और हेमंत ऋतू की वे रसिक सुंदरियां?

कालिदास पढ़ते गए. रति क्रीडा का सूक्ष्म अवलोकन अपने शब्दों से प्रकट करने वाले कालिदास सम्राट चन्द्रगुप्त को अत्यंत आश्चर्यचकित कर रहे थे. युवती खुल कर हंसती नहीं, क्योंकि अधर व्रणों को कष्ट हो रहा है. ओस की बूंदे, मुक्त विहार कर रही हैं, और प्रेमी जनों की रसिक प्रीति देखकर कलहंस मुक्त विहार कर रहे हैं, और प्रेयसी प्रियतम के लौटने की प्रतीक्षा कर रही है, प्रियंगु लता पीतवर्ण हो गई है, प्रियकर के हाथों से छूटी प्रेयसी के समान. सर्वत्र व्याप्त सुगंध श्रृंगार में भी सम्मिलित हो गया है. और रात्रि के श्रृंगार से गलितगात्र युवती रात के श्रृंगार को स्मरण करते हुए आनंदित हो रही हैं.

यहाँ बहुगुणो से रमणीय प्रतीत होने वाले हेमंत ऋतू का वर्णन समाप्त होता है, महाराज.”        

“अब दो ऋतू शेष हैं, परन्तु शरद का अन्धकार हौले-हौले वन में प्रवेश कर रहा है. प्रभावती और कुमार अब रास्ते में ही मिल जायेंगे. इस समय आगे का वर्णन पढ़ना आपके लिए असंभव होगा. अतः वह ‘ऋतू संहार हमें दें, महारानी के साथ पढेंगे.”

“महाराज, हमें कंठस्थ है, अतः मार्गक्रमण करते हुए हम कथन करते हैं.”  

“कंठस्थ है?

“महाराज, एक तो जिसकी रचना हो, वह उसे याद रहती ही है, और फिर एक बार लिखते समय मुझे सहज याद रह जाता है.”

“इसका अर्थ, आप एकपाठी हैं...’

“संभवत: हूँ.”

सम्राट चन्द्रगुप्त आसन से उठे. वह वस्त्रासन कालिदास ने अपने साथ लिया. दोनों चम्पक वन की अंधेरी परछाइयों से नागरी उपवन की और जा रहे थे. कालिदास के पास ‘ऋतू संहार की प्रतिलिपि न होने के कारण वे सम्राट को भोजपत्र नहीं देना चाहते थे. इसलिए उन्होंने पांचवी ऋतू ‘शिशिर’ के बारे में बताना आरम्भ किया.

 

प्ररूढशालीक्षुचयावृतक्षिती क्वचित्स्थितक्रौंचनिनादराजिताम् ।

प्रकामकामं प्रमादजनप्रियं वरोरूकालं शिशिराहृयं श्रृणुं ।।


“अर्थात् इस ऋतू में हम कामातुर कामिनी का प्रकृति के साथ वर्णन करेंगे!”

 “अर्थात् यह ऋतू वैसे ही मनोहारी है. फलती-फूलती प्रकृति, फलों से लदे वृक्ष विनम्र होकर धरती के अंक में दान देने को उत्सुक...और ललनाएं सिंगार करके पुरुष को संकेत करने वाली और पुरुष?

महाराज यही विषय इस सर्ग में सर्वत्र है. इसलिए अंतिम पंक्ति का किंचित वर्णन करता हूँ:

 

प्रचुरगुडविकार स्वादुशालीक्षुरम्य

प्रबलसुरतकोलिर्षात कन्दर्पः।

प्रियजन रहितां चित्तसंतापहेतु:

शिशिरसमय एष श्रेयसे वोSस्तु नित्यम् ।।

यह शिशिर ऋतू का सर्ग हमने संक्षेप में कहा है, महाराज! हमारी शब्द सरिता अधिक प्रवाहित होकर कुछ अवांछित न लिख बैठें, यह भय था.”

“धन्य हैं, कविराज! यदि यह कम लिखा है, ऐसा सोचते हैं, तो अधिक सूक्ष्म श्रृंगार छटा कौनसी हो सकती हैं? 

दोनों दिल खोलकर हँसे. संध्या शीघ्रता से प्रवेश कर रही थी. वे आगे चले, सामने से से प्रभावती, कुमार, महामंत्री तथा सेनापति आते हुए दिखाई दिए, तब वे बोले,

“छठी ऋतू का अति संक्षिप्त वर्णन करें.”

“महाराज, नवनवउन्मेषशालिनी वसुंधरा पर अब चंहु ओर से बहार आई है, वही स्थिति नवयुवतियों की भी है. उपवन में खिले विविध पुष्पों के रंगों के समान वे ऐसे रेशमी वस्त्र परिधान करती हैं कि आवृत और अनावृत दिखें. और ‘काम’ तो  जीवन का स्थायी भाव है, उसका त्याग करना तो असंभव है ना...!”

अड़तीस श्लोकों की काव्य पंक्तियाँ लिखी हैं ऋतू वसन्त पर - वन के और मानव जीवन के वसन्त पर, और यह सदिच्छा भी है कि यह ऋतू सबको सुख, समाधान प्रदान करे.”

“हम फिर से आराम से इसका पठन करेंगे ही. कदाचित इसे पढ़कर हम युद्ध पर जाना भी छोड़ दें.” 

“असंभव, महाराज, शतवार, सहस्त्रवार असंभव, कदापि संभव नहीं. महाराज, आप नित्य अपनी शौर्य गाथा युद्धभूमि पर लिखते हैं, वापस लौटने के बाद समाज तथा समस्याओं की ओर ध्यान देते हैं. कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि आपके शौर्य पर, धैर्य पर लिखूं. रणनीति, राजनीति, चाणक्य की कूटनीति, उसके प्रशासन का, अर्थशास्त्र का अध्ययन करते हुए मन में संदेह उत्पन्न होता है कि आप रघुवंश के उत्तम प्रशासन से अवगत हैं, या चन्द्रगुप्त मौर्य के, या चाणक्य के, या आपने अलेक्जांडर सिकंदर के नियोजन और महत्वाकांक्षा को आत्मसात किया है, महाराज....”

“कवि महाशय, इतनी देर हमें स्मरण नहीं था, वह अब स्मरण हुआ है. काश्मीर में पुन: शकों के अपने साम्राज्य में उत्पात करने की वार्ता प्राप्त हुई है. महामंत्री वीरसेन, सैन्याधिपति और महाभांडारिक के साथ आप भी वहाँ जाएँ. महाभांडारिक वहाँ के अर्थकोष, सैन्याधिकारी वहाँ की सीमा-सुरक्षा के बारे में जानकारी लेंगे. आप और वीरसेन मिलकर परिस्थिति का अवलोकन करके व्यवस्थापन करें. साथ में गुप्तचर और सेना भी भेज रहा हूँ.”               

“महाराज, मुझ पर विश्वास करके आपने यह संधी प्रदान की...”

“कालिदास, वस्तुतः आप हमारे पुत्र के ही समान हैं. परन्तु यदि हम ही आपको बहुवचन से संबोधित न करें, तो अन्य लोग भी यह प्रतिष्ठा नहीं देंगे. हमें कई बार ऐसा लगता है, प्रभावती के ज्येष्ठ बंधू के रूप में...”

“परन्तु, महाराज, आज आपने अपनी व्यक्तिगत संवेदना को प्रकट करके कभी भी न देखे हुए पिता की याद दिला दी, और पिता के साहचर्य का आनंद दिया. कभी भी, कहीं भी प्रकट न करते हुए मन की गहराई में हम आपके शब्द, पितृत्व के स्थान का जतन करेंगे.”

कालिदास के नेत्र भर आये. ‘कौन थे हमारे माता-पिता? क्या पता किस कारण से वे हमें उस गोपालक के पास छोड़ गए? परन्तु कुछ वर्षों पूर्व जो मिली वह सरस्वती माता और अब पिता के रूप में मिले प्रत्यक्ष सम्राट चन्द्रगुप्त!’ उनका गला भर आया.

सम्राट चन्द्रगुप्त ने उनके कंधे पर हाथ रखा और कालिदास स्वयँ को रोक न पाये. उन्होंने रास्ते पर ही सम्राट चन्द्रगुप्त के चरणों पर शीश रख दिया. दोनों कन्धे पकड़ कर उन्हें उठाते हुए सम्राट बोले,

“हमें ज्ञात था कि आपको हिमालय का आकर्षण है. इसीलिये आपको भी भेज रहे हैं. इसके अतिरिक्त आप व्यवस्थापन पद्धति भी आत्मसात कर सकेंगे, यह भी एक उद्देश्य था.

कालिदास मौन था. कुछ न कहते हुए भी मनों को जीतने वाले सम्राट चन्द्रगुप्त इस समय उनके लिए अगम्य थे.

“महाराज, एक विनती है. क्या आप हमें अपना कुलावृत्तांत बताएँगे? बीच-बीच में हमने सुना भी है, परन्तु प्रत्यक्ष आपके मुख से सुनने का सौभाग्य प्राप्त होगा.”

“अवश्य! कल प्रातः हम मालतीकुञ्ज में आयेंगे. आप भी वहाँ आयें.”

प्रभावती और कुमार अब समीप आ गए थे. उन्हें देखते ही सम्राट के मुख पर स्नेह भाव प्रकट हुए. कालिदास अनिमिष नेत्रों से उनके वात्सल्य भाव को देख रहे थे.

 

***

No comments:

Post a Comment

एकला चलो रे - 12

  12 असमय भर आया आकाश और मन दोनों ही घुटन का अनुभव करते हैं , और जब मेघों से झरझर धारा बहने लगती है , तो वह स्वच्छ और रिक्त हो जाता है...