Wednesday, 23 November 2022

Shubhangi - 22

  

“हमारे पास जितनी समस्याएँ दर्ज की गई थीं, उनका निराकरण हो चुका है, महाराज. अब भोजनोपरांत मध्याह्न की सभा में, जैन धर्म के भद्रबाहु अपने कुछ परिव्राजकों के साथ आये हैं, उन्हें आमंत्रित किया है.”

महामंत्री वीरसेन ने कहा और भोजन के लिए सभा समाप्त होने की प्रतीक्षा में थे, कि प्रवेशद्वार से आवाज़ आई,

“महाराजाधिराज सम्राट चन्द्रगुप्त की विजय हो,” ऐसा कहते हुए तीन युवतियों ने प्रवेश किया. उनके पीछे भागते हुए सेवकों ने कहा,
“महाराज
, हमने इन्हें रोका था. इसमें हमारा अपराध नहीं है.”

“अस्तु! तुम जाओ.”

“महाराज, क्षमा करें, हमें आपके सेवकों ने कल्पना दी थी कि इस समय भोजन काल का विश्राम है. परन्तु उत्तर रात्रि को काशी से चली हुई हम तीनों अभी यहाँ पहुँची हैं. अतिथि-कक्ष में भोजन, विश्राम में हमारा उत्साह शिथिल हो जाता, इसलिए राजा सेवकों की एक न सुनते हुए हम यहाँ तक आये हैं, क्षमा करें, महाराज.”

“क्या समस्या है आपकी?” सम्राट चन्द्रगुप्त ने पूछा.

“मैं कांति, यह सुशान्ति और यह सुनीति,” उनमें से एक युवती ने परिचय दिया. तीनों उपवर कन्याएं थीं, सुदृढ थीं, श्यामल वर्ण की और तेजस्वी थीं. दृष्टी में उत्साह और कृति में दृढ़ता थी. उनका वेष स्त्रियोचित नहीं था, उन्होंने केश बांधकर उस पर रेशमी वस्त्र बांधा था और स्त्री वेश के स्थान पर पुरुष वेश धारण किया था. उन तीनों का आगमन राजसभा को चौंकाने वाला था. हरेक के मन में उत्सुकता थी. प्रत्यक्ष सम्राट चन्द्रगुप्त भी उनके आने के कारण का अनुमान नहीं लगा पा रहे थे.

“तुम्हारा स्वागत है, युवतियों! उत्तर रात्रि से आप लोग निरंतर अश्वारूढ होकर अविलम्ब यहाँ पहुँची हो, इसका अर्थ आपकी समस्या गंभीर होगी. अतः आप तीनों उसे स्पष्ट करें.”

वस्तुतः सम्राट चन्द्रगुप्त का स्वास्थ्य ठीक नहीं था. पिछले आठ दिनों से वे ज्वरग्रस्त थे, फिर भी राजसभा में नियमित रूप से आकर वे कार्य कर ही रहे थे. महामंत्री वीरसेन उनके स्वास्थ्य के बारे में चिंतित थे. मगर उन्हें इस बात की कल्पना थी कि वे इन तीनों की समस्या का समाधान किये बिना नहीं जायेंगे. फिर भी उन्होंने कहा, “महाराज, भोजनोपरांत वसु बंधुओं द्वारा दी गई औषधि का सेवन करना है.”

“हमें याद है, महामंत्री. तो, अब, युवतियों, अपनी बात स्पष्ट करें, आपको पूरा न्याय मिलेगा.”

“महाराज, हम आपके सीमावर्ती प्रदेश के सेनाप्रमुख करभकसेन से मिले और उनसे कहा कि हमें सेना में प्रवेश दिया जाए. हम युवतियां हैं परन्तु युवकों की तुलना में हममें कोई कमी नहीं है. हम अश्वदल, हाथीदल में कार्य कर सकते हैं.   हम अस्त्र-शस्त्र संचालन में निपुण हैं. चाहें तो हमारी परिक्षा ले सकते हैं,” कांति ने कहा.

“महाराज, हममें युवकों की अपेक्षा अधिक दृढ़ता है,” सुशान्ति ने कहा.

“परन्तु आपके सेनापति करभकसेन ने कहा, “युवतियों, अपने-अपने परिवार संभालो. सबल- सुदृढ़ तो हो ही, परिवार और समाज को अपनी सेवा अर्पण करो, परन्तु आप सैन्य और युद्धभूमि वर्जित करें,” सुशान्ति ने करभकसेन के वाक्यों को जैसे का तैसा दुहरा दिया.

“उसके बाद हम दंडपाशाधिकारी, जो आपके सुरक्षा विभाग के अधिकारी हैं, वे...” कांति को नाम याद नहीं आ रहा था.

“रूद्रदमन है उनका नाम.”

“तो फिर क्या हुआ?” सम्राट चन्द्रगुप्त ने उत्सुकता से पूछा.

“उन्होंने कहा, युद्धक्षेत्र उतना आसान नहीं है, जितना आप समझ रही हैं. उत्कट राष्ट्रभक्ति हो फिर भी युद्धभूमि पर अनेकों के मृत्यु देखना आसान नहीं है. चाहे युद्धनीति, युद्धकला अवगत हो, फिर भी युवतियां उसमें प्रवेश करने के स्थान पर अध्यापिका बनें, समाज को सुसंस्कृत बनाएं....ऐसे अनेक कारण देकर उन्होंने हमें हतोत्साहित करने का प्रयत्न किया. परन्तु हमें न्याय चाहिए, महाराज. हमें अनेक मार्ग अवगत हैं, परन्तु यदि हमें रणक्षेत्र में ही जाना हो तो, हमें मना क्यों किया जाए? क्या केवल इसलिए कि हम स्त्री हैं?

सम्राट चन्द्रगुप्त को महासेनाधिपति करभकसेन और दंडपाशाधिकारी का कथन जितना मान्य था, उतना ही इन युवतियों का प्रश्न भी मान्य था. उन्होंने सहज ही पूछ लिया,

“अध्यापिका होना आपको क्यों मान्य नहीं है? आप परिवार क्यों नहीं चाहती हैं?

“महाराज, क्या हमें पिता, माता, भ्राता, पति के सहारे पर ही जीवन व्यतीत करना चाहिए? हमें सैनिक प्रशिक्षण क्यों नहीं मिल सकता? हम सेना में प्रवेश क्यों नहीं ले सकते?

“युवतियों, आप शूरवीर, धैर्यवान, निर्भय हैं, सेना में जाकर युद्धभूमि में कार्य करने की इच्छुक हैं, यह सचमुच अभिनंदनीय है. परन्तु सेनापति करभकसेन तथा दंडपाशाधिकारी रुद्रदमन का वक्तव्य भी अयोग्य नहीं है,” राजपुरोहित वसुमित्र उन्हें समझाते हुए बोले.

“महाराज, राजपुरोहित का वक्तव्य हमें मान्य नहीं है, इसीलिये तो हम यहाँ आये हैं. सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रसार के लिए अपनी पत्नी, पुत्री और पुत्र को विदेश में भी भेजा था. उस काल में महिलाएं धर्मं सेविकाएँ होती थीं.

ऋग्वेद काल में महिलायें ब्रह्मचारिणी होती थीं, अध्यापिकाएं थीं, और नृत्य नाट्य, कला, शास्त्रार्थ के लिए प्रसिद्ध थीं. वे वैदिक मन्त्रों की आचार्य भी थीं. सुभद्रा नामक भिक्षुणी उत्तम वक्ता के रूप में प्रसिद्ध थी. एक जैनधर्मीय पिता ने अपनी चारों कन्याओं को दर्शनशास्त्र के वाद विवाद हेतु देश-विदेश भेजा था, ऐसा जातक कथा कहती है. भिक्षुणी खेमा उच्चशिक्षित थी.

हमारे धर्म की स्त्रियों को वेदमंत्रों का, यज्ञ का, पांडित्य का अधिकार था, ये हम सभी को ज्ञात है...’ एक सांस में बोलने वाली कांति जब पलभर को रुकी, तो एक लय में उसका वक्तव्य सुनने वाले राजसभा में उपस्थित व्यक्तियों ने भी सांस ली.

“महाराज, यह युवती जो कह रही है, वह पूरी तरह सत्य है. कवि हाल द्वारा लिखित ‘गाथा सप्तशती’ नामक ग्रन्थ में रेखा, रोहा, माधवी, अनुलक्ष्मी, पाटई, बद्धवटी जैसी प्रतिभावान काव्यकर्ता महिलायें थीं. मंडनमित्र की सरस्वती, याज्ञवल्क्य की गार्गी, मैत्रेयी का उल्लेख बारबार आता है. परन्तु...

महाराज, इतने प्राचीन काल में जाने की हमें आवश्यकता नहीं है. इन युवतियों ने शायद इस सबका अध्ययन किया होगा.”

“निःसंदेह!” उन तीनों ने एक सुर में कवि कालिदास को उत्तर दिया.

“परन्तु, आगे क्या?

कवि कालिदास ने पूछा.

“शक राजकन्या ‘नागनिका’ ने वैदिक कुल के शालिवाहन से विवाह करके वैदिक संस्कृति, यज्ञ संस्कृति और शासक के रूप में भी राज्य यंत्रणा का उत्तम संचालन किया था. वह वीर योद्धा भी थी.”

कालिदास का अध्ययन देखकर सम्राट विस्मित हो गए थे.

“महाराज, इसके पहले की स्त्रियाँ – मौर्य और चाणक्य काल  की. पोरस ने स्वयँ अपनी सेना में स्त्री-पथक होने की बात चाणक्य को बताई थी,” सुनीति ने कहा.

“महाराज, मौर्य काल की स्त्रियों का वर्णन करते हुए उस समय भारत आये हुए चीनी यात्री ने कहा था, आश्चर्य है. सम्राट चन्द्रगुप्त का. उनके राज्य में निर्भयता इतनी है, कि मैं स्त्रियों को भी स्वेच्छा से सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करते हुए देखता हूँ. कुछ महिलायें अश्वारूढ़ हैं, तो कुछ हाथी पर आरूढ़ हैं. वे हर शस्त्र से अवगत हैं. कभी कभी मार्ग में ऐसी स्त्रियों को एक साथ जाते देखो, तो ऐसा लगता है कि कहीं युद्ध पर तो नहीं जा रही हैं?” कांति ने ऐसे शब्दों का प्रयोग किया मानों अश्व दौड़ा रही हो.

“कांति, सुनीति, सुशान्ति आप सुकुमारियाँ हैं. इतिहास की अभ्यासक हैं, राष्ट्र भक्ति से प्रेरित हैं. हम आपका स्वागत करते हैं, और यह भी कहना चाहते हैं कि हमारे यहाँ गणिकाओं को भी श्रेष्ठतम स्थान प्राप्त है. पुरुष तथा स्त्री समान हैं यह भी हम मानते हैं. परन्तु युद्ध में स्त्रियाँ सहयोग दें अथवा नहीं, यह हम मंत्रीमंडल से विचारविमर्ष के बाद ही निश्चित करेंगे.”

“महाराज, सुदूर काशी से हम अविलम्ब आये हैं सिर्फ आपकी – प्रत्यक्ष आपकी राय जानने के लिए! और मंत्रीमंडल यहीं है, अतः...”

“सुशान्ति, आपके आवेग, आवेश का हमें अनुभव हो गया है. आप युवती है...अविवाहित है...तो...”

“महाराज, क्या यह प्रश्न आप युवकों से पूछते हैं? या, क्या आप युवकों से संगठित होने के लिए कहते हैं? आप ही स्त्री-पुरुष को समान मानते हैं, आप ही अपने पिताश्री के काल का उल्लेख करते हैं...क्या आप दुविधा में हैं, महाराज?

“कांति का प्रश्न सुनकर वे बोले, “हम संभ्रमित अथवा विचलित नहीं हैं. परन्तु हम अर्थात पूरा मंत्रीमंडल नहीं हैं. इसलिए...”

“हम इन युवतियों के मत से सहमत हैं,” सारे लोग उठ खड़े हुए.

सम्राट चन्द्रगुप्त बोले,

“इसी एक स्वर की प्रतीक्षा हम कर रहे थे. युवतियों, हम आपको सैन्यदल में प्रशिक्षणार्थी के रूप में अनुमति देते हैं. राष्ट्रसेवा का लक्ष्य लेकर आप युवातियों की सेना बनाएं. हम आपको यथोचित सहकार्य देंगे.”

कवि कालिदास के नेत्रों के सामने काली, आदिशक्ति का रूप तैर गया. कितने रूपों में, कितने स्वरूपों में स्त्री समाज में खडी है, इसीलिये समाज और राष्ट्र की उन्नति होती है.

दोपहर ढलने को थी. सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा,

“कांति, सुनीति, सुशान्ति, हमारे साथ भोजन कक्ष में चलें. राजकुमारी प्रभावती और राजकुमार कुमार का भी परिचय करवा देते हैं. और महामंत्री, जैन भिक्खुओं को कल बुलाएं,

इन युवतियों के मुख पर छाये अवर्णनीय आनंद को देखते हुए कालिदास खड़े थे.

‘गृहस्थाश्रम में कितने विविध स्नेहबंध होते हैं. हम गृहस्थ नहीं, किसी भी स्नेहपाश से हम लिपटे नहीं हैं. कोई भी उलझन हमें सुलझानी नहीं है. कोई समस्या नहीं, कोई प्रतीक्षा करने वाला नहीं. ‘तात कहकर कोई भी प्यार से निकट आने वाला नहीं, और अधिकारपूर्वक कुछ कहने वाली पत्नी भी नहीं.

उनका कंठ भर आया, आँखें गीली हो गई, और उनके पाँव मधुवंती के मार्ग की और चल पड़े.

 

 

  

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