Wednesday, 30 November 2022

Shubhangi - 25

 

 

 

सम्राट, चन्द्रगुप्त उत्तर की ओर साम्राज्य विस्तार की गति को देखते हुए, आप दक्षिण में भी, सिंहल द्वीप तक राज्यविस्तार करेंगे, ऐसा विश्वास आपने अपने कर्तृत्व से सिद्ध किया है,” जैन धर्म के परिव्राजक भद्रबाहु बोले. एक माह के प्रदीर्घ वास्तव्य के बाद वे सम्राट चन्द्रगुप्त से बिदा लेने आये थे. वे अकेले नहीं थे. उनके साथ स्थिरबाहु और दस शिष्य थे.

“आप आये, जैन धर्म के बारे में विस्तार से बताया, हमने जैन धर्म का अध्ययन किया था, परन्तु उसके सूक्ष्म ज्ञान और आवश्यकता को प्रतिपादित करते हुए आपने निर्भयता से अपना मत व्यक्त किया. हमारे साथ हुई आठ भेटों में आपने जैन धर्म की महत्ता को बार-बार स्थापित करते हुए जैन मंदिर और जैनों के लिए निवास स्थान का निर्माण करने के उद्देश्य से कुछ सुवर्ण मुद्राओं की मांग की.”

“आप सम्राट हैं, अतः...” स्थिरबाहु ने कहा.

“अपनी अपेक्षा और जैन धर्म के प्रचार हेतु सहायता की अपेक्षा आप एक हिन्दू धर्म के सम्राट से कर रहे हैं, क्या यह उचित प्रतीत होता है?

जैसे ही महामंत्री वीरसेन ने कहा, उन्हें रुकने का संकेत करके वे बोले,

“महामंत्री, वे अतिथि हैं. उनकी अपेक्षा कौन पूरी करेगा? कौन उनकी सहायता करेगा? 

“परन्तु, महाराज,,,” सेनापति देवदत्त ने कहा, उन्हें आगे कुछ न कहने का संकेत किया गया.

“महाराज, मैं आपकी राजसभा में सम्मानपूर्वक प्रतिष्ठित हूँ, आपली सेवा में हूँ, इसका अर्थ यही हुआ ना, कि प्रत्येक धर्म और पंथ के बारे में हमारे बीच समानता है. प्रत्येक धर्म मानवता के कल्याण के लिए ही तो निर्मित हुआ है, ना?” राजसभा में विश्वासपात्र, गुप्तचर विभाग के प्रमुख जैन धर्म के अनुयायी क्षपणक ने कहा.

सम्राट चन्द्रगुप्त पल भर को मौन हो गए, क्योंकि सहस्त्र सुवर्ण मुद्राओं और भूमि का दान वे मांग रहे थे धर्मप्रचार के लिए.

“महाराज, इस संस्कृति रूपी वटवृक्ष की जड़ें पृथ्वी के भीतर दृढ हैं, शाखा-उपशाखाओं से वटवृक्ष अनेकों को छाया प्रदान करता है. सहस्त्रों पक्षियों का आश्रय स्थान होने वाले वटवृक्ष की बार-बार विस्तारित होने वाली शाखाएं हैं. अगर उसके लिए कोई आकर दान मांगे, तो उसे पूर्ण करना चाहिए. इसका कारण सूर्यप्रकाश जितना स्पष्ट है, महाराज. वटवृक्ष की छाया में कोई भी पौधा बढ़ता नहीं है, वह जीवित तो रहता है, परन्तु वृक्ष नहीं बनता. अतः आप निश्चिन्त मन से उन्हें सहकार्य दें, ऐसा मेरा विचार है.”

कालिदास ने कहा और राजसभा ने उठकर उनका अनुमोदन किया.

“हम शरणागत नहीं हैं, इस भूमि पर हमारा भी उतना ही अधिकार है, जितना हिन्दू धर्मियों का है.” भद्रबाहु ने कहा.

“इसका अर्थ?

“इसका अर्थ सहज और स्पष्ट है. कठोर और कर्मठ हो चुके हिन्दू धर्म की अपेक्षा सहज, सरल जैन धर्म का हमने प्रयोग किया. हमारे धर्म के प्रतिष्ठापक राजकुमार महावीर जैन ने आगे चलकर सम्राट होने पर उस पद का त्याग किया, समाज चिंतन करके लोकहिताय इस धर्म की प्रतिष्ठापना की. और समाज मन जिसे धारण करता है, वह धर्म होता है, यह तो आप मानते हैं ना?

“भद्रबाहु, आपके विचार सुनकर आपकी निर्भयता की जितनी प्रशंसा करें, वह कम ही होगी. आपका धर्म, चाहे आपने उसे ‘धर्म का नाम दिया है, फिर भी आप जानते हैं कि महावीर सम्राट थे. उन्होंने हिन्दू धर्म, संस्कृति, शास्त्र का ही अध्ययन किया था. इसके अतिरिक्त किसी और शास्त्र का अध्ययन नहीं किया था. यह सत्य है कि कभी राजसत्ता प्रबल हो जाती है, तो कभी धर्मसत्ता. उस समय हिन्दू धर्म पर ब्राह्मणों की सत्ता होने के कारण वह एकांगी और इसलिए वर्चस्व निर्माण करने वाला था....”  

“इसीलिये तो जैन धर्म की प्रतिष्ठापना की गई ना, महामंत्री वीरसेन?

भद्रबाहु उसी आवेश में बोले. उनका यह वक्तव्य किसी को भी अच्छा नहीं लगा.

“महाशय भद्रबाहु, जिस जैन धर्म के बारे में कह रहे है, वह सत्य है, सम्राट महावीर ने लोकहित के लिए राज्य त्याग करके नए मार्ग का निर्माण किया, यह मान्य है, परन्तु लोकमाता गंगा यद्यपि अनेक प्रवाहों से प्रवाहित होती है, फिर भी गंगोत्री एक ही है. और सभी प्रवाह एकत्र होकर जिस धारा से सागर में मिलते हैं, वह धारा भी एक ही है – मूल प्रवाह की.”

“हम समझे नहीं, कवि कालिदास.”   

“सहज और स्पष्ट है. हिन्दू धर्म ही संस्कृति, संस्कार, रीति-नीति शास्त्र की गंगोत्री है. वह अबाध है. अविरत है. उसका एक प्रवाह है जैन-विचारधारा. उस काल में इसके समाज मान्य होने के कारण भी थे , जिन्हें हम पहले ही स्वीकार कर चुके है - ब्रह्म सत्ता प्रबल होने के कारण.

यह एक विचारधारा है. अच्छे तत्वों का संकलन है. उसमें बुराई कुछ भी नहीं है. समाज को उस कालखण्ड में वह सहज, सरल प्रतीत हुई अतः उस काल में उसे धर्म का नाम दिया गया. और इस संबंध में कोई आक्षेप भी नहीं है. क्योंकि उद्गम से प्रवाहित होने वाली गंगा लोकहित के लिए कार्य करते हुए, अनेक प्रदेशों को सुखमय करते हुए गंगासागर तक पहुंचेगी ही, अतः आप...” कालिदास एक सांस में बोल गए, तो राजपुरोहित वसुमित्र ने कहा,

“भद्रबाहु, आप सम्माननीय हैं. विशाल साम्राज्य के धनी सम्राट चन्द्रगुप्त आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करेंगे.”

भद्रबाहु और स्थिरबाहु के साथ भारत भ्रमण को निकले हुए दासों परिव्राजक भी राजसभा में उपस्थित थे. कालिदास बोलते-बोलते रुक गए थे. सम्राट चन्द्रगुप्त ने उनकी और देखा, उन्हें अनुभव हुआ कि कालिदास कुछ और कहना चाहते है, परन्तु उन्होंने परिव्राजक भद्रबाहु की और देखकर कहा,

“आपको सहस्त्र सुवर्ण मुद्राएँ, सुवर्ण रजत मुद्राएँ और हमारे अत्यंत कुशल कारीगर हम दे रहे हैं. आप जैन मंदिर का, जहाँ उचित समझें, उस भूमि पर निर्माण कर सकते हैं. उस भूमि की लिखित अनुमति आपको दी जायेगी.”

“धन्यवाद, महाराज...” आगे कुछ भी न कहते हुए भद्रबाहु और स्थिरबाहु राजसभा से बाहर चले गए.

“महाराज, आपने क्या कर दिया?” सेनापति देवदत्त ने कहा”

“महाराज ने योग्य ही किया है. अतिथियों का स्वागत किया, उन्हें दान दिया, दान देने वाला सदा श्रेष्ठ ही होता है,” राजपुरोहित ने कहा.

“आपने योग्य ही किया है,” कालिदास ने कहा, तो राजसभा के सदस्यों ने उनका जयजयकार किया. कालिदास आगे बोले,

“ हम कुछ और भी कहना चाहते थे,” कालिदास ने कहा.

“वो हम आपकी आंखों से समझ गए थे, कहिये, कवि महाराज.”

“महाराज, उस समय हिन्दू धर्मसत्ता ब्राह्मणों के वर्चस्व तले थी, तो सम्राट अशोक के काल में धर्मसत्ता राजसत्ता के वर्चस्व तले आ गई. महावीर और सिद्धार्थ- दोनों ही क्षत्रिय थे. उन्होंने धर्म का निर्माण इस पद्धति से किया कि वैदिक धर्म के तत्व सर्वसामान्य जन को अच्छे लगें, मान्य हों.

“और, और हमने...”

“हमने किसी धर्म की स्थापन नहीं की, यह कहना चाहते हैं क्या, कालिदास?

“नहीं, महाराज, हम यह कहना चाहते हैं, कि वैदिक-सनातन धर्म पर अनन्य श्रद्धा रखते हुए आपने मानवता, सहृदयता जतन करते हुए सर्वहितार्थ अनेक योजनाएं कार्यान्वित की हैं, सभी धर्मों को आपने अभय प्रदान किया है, और सबसे महत्त्वपूर्ण बात...” कालिदास पल भर को रुके, राजसभा में उपस्थित लोगों को उनकी बात में उत्सुकता थी ही, प्रत्यक्ष सम्राट चन्द्रगुप्त को भी!

“महाराज, आपके विशाल राज्य में साम, दाम, दंड भेद इन नीतियों का प्रयोग करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि सर्वसम्पन्न नगर में, राज्य में, प्रदेश में, मृत्युदंड दिया जाए, ऐसे अपराध क्वचित ही घटित होते हैं. आतंरिक सुरक्षा और सामंजस्य...”

“कवि महाशय, आप काव्य पंक्तियाँ सादर करके हमारा गुणगान कर रहे है, कहीं आपको यह अपेक्षा तो नहीं है, कि हम स्वतन्त्र रूप से आपके लिए कुछ करें...”

“नहीं, महाराज...हम रुक जाते हैं, परन्तु आपका यशोगान युग युग तक होता रहेगा, ऐसा यह सुवर्णकाल है.” कालिदास के स्थानापन्न होते ही सबने हृदयपूर्वक सम्राट चन्द्रगुप्त का जयजयकार किया.

“हमारी नहीं अपितु उस सुवर्णकाल की जयजयकार करें, जिसने हमें इतने रत्नों का दान दिया है कि न केवल प्रत्येक भारतीय, अपितु विदेशी आक्रमणकारी भी उसके प्रति ऋणी रहें. यहाँ आये हुए परदेशी पथिक यहाँ की जीवन शैली को, सभ्यता को आत्मसात करके गए हैं.”

“सत्य है, महाराज,

और फिर अनेक विषय निकलते गए और वैदिक संस्कृति के ज्ञान-विज्ञान, संशोधन, अध्यात्म, साकार-निराकारत्व पर अनेकों ने अपने मत प्रस्तुत किये, तब महामंत्री वीरसेन ने कहा,

“कणाद ऋषी की कथा – चावल का अंतिम कण शेष ही रहता है, तब उन्होंने अणु कणों के निर्माण के बारे में बताया, अणु से लेकर ब्रह्माण्ड तक की व्युत्पत्ति के बारे में बताया, कभी कल्पना भी नहीं की थी इतने सूक्ष्म अणुकण की, वही देवकण के रूप में भी परिचित हुआ.”

“सत्य है. पश्चिम में स्थित सोमनाथ मंदिर का बाणस्तम्भ कभी भी रौद्र वातावरण में नष्ट नहीं हुआ. स्तम्भ के नीचे लिखा है, ‘आसमुद्रांत दक्षिण ध्रुव पर्यंत अबाधित ज्योतिर्मार्ग’ ; इसका अर्थ है, कि इस समुद्र से दक्षिण ध्रुव तक रेखा खींची जाए तो अबाधित ज्योतिर्मार्ग ही है, ये एक अनाकलनीय गणित है,”
वराहमिहिर ने कहा.

“आज भी हम लेखन के लिए भूर्ज पत्रों का उपयोग करते हैं, परंतु उस काल में ऐसी स्याही थी, कि लिखावट सूखने पर अक्षर अदृश्य हो जाते, और उन भूर्जपत्रों को पुनः जल में भिगोने पर उस पर लिखे अक्षर स्पष्ट हो जाते,”  अमरसिंह ने कहा.

आज, मानो ज्ञान स्पर्धा ही हो रही थी. सम्राट चन्द्रगुप्त अत्यंत ध्यान से यह सब सुन रहे थे.

“महाराज, दर्पण में हम अपनी स्वच्छ प्रतिमा देखते हैं. एक ऋषि ने कहा है कि इस दर्पण की कल्पना स्थिर जल को देखकर की गई है, और ये दर्पण मिश्र धातुओं से तैयार किये जाते थे. आज आपका दर्पण-प्रासाद विदेशी कांच से बनाया गया है. ईसवी सन ७८१-७६४ वर्ष पूर्व शालिवाहन कुल की रानी नागनिका ने रोम, ईरान से यह कांच मध्यदेश में आयात की थी, इसका उल्लेख मिलता है.”

“आश्चर्य है, हम कैसी प्रगाढ़ निद्रा में थे कि हमारे ग्रन्थ विदेश ले जाए जाते और उनके प्रयोग होकर हमारे पास आते? ऐसा क्या कारण हुआ होगा?” सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा.

“क्योंकि हमारे नगर में, प्रत्यक्ष उज्जयिनी के प्रत्येक परिवार में संस्कृत भाषा बोली जाती है. वैसे, उस काल में ब्राह्मण ही संस्कृत भाषा के अधिकारी होने से वे ज्ञान ग्रंथ मर्यादित रहे और मुद्रणकला न होने से तथा कंठस्थ करने की प्रथा होने से किसी भी ज्ञान का तत्काल लाभ लोकजीवन तक पहुँचा नहीं, बचा सिर्फ उपदेश! धर्मं परंपरा, रीति-नीति की आचार संहिता.” शंकू ने कहा.

“महाराज, नासदीय सूक्त में सृष्टि का निराकार भाव स्पष्ट करते हुए कहा गया है, ‘सत्य नहीं, असत्य भी नहीं, अंतरिक्ष, आकाश भी नहीं, कर्ता भी नहीं, कर्म भी नहीं, तो फिर विश्व की उत्पत्ति कैसे हुई यह युगों-युगों से मानव के संशोधन का विषय रहा है.

ऋग्वेद के दसवें मंडल में केवल सात मन्त्रों के नासदीय सूक्त में इसका उत्तर मिलता है. ‘इन्द्रियातीत, अगम्य, कल्पनातीत, और एकाकी मन से उस निराकार से साकार की श्रद्धापूर्वक मीमांसा करें. जब कुछ भी नहीं था, इसकी केवल कल्पना ही की, तो एक अणुकण का विस्तार होकर इस विश्व की निर्मिती हुई. ब्रह्मा, विष्णु, महेश अर्थात् उत्पत्ति, स्थिति, विलय ये स्थितियां सृष्टि निर्मिती के बाद की हैं,” वेताल भट्ट ने कहा. उनकी एक विशिष्ठ शैली थी. वे विस्तार पूर्वक और हर शब्द का अर्थ बताया करते थे.

अब दोपहर हो चली थी, परन्तु ज्ञान क्षुधा पूर्ण होने से हरेक व्यक्ति आनंदित था.

और अकस्मात् “राजकुमारी प्रभावती देवी की जय हो”, ऐसी उद्घोषणा सुनाई दी, तो सबने राजसभा के प्रवेशद्वार की और देखा. अपनी प्रिय सखियों, लतिका, चंद्रिका, कनका के साथ प्रभावती प्रवेश कर रही थी.

“प्रथम सत्र में ‘समस्या निवारण’ यह भाग होता है. उसमें पहले ही अपना नाम एवँ समस्या दर्ज करानी होती है, यह आपको ज्ञात है ना, राजकुमारी?” सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा.

“पिताश्री महाराज, आपकी कठोर अनुशासन पद्धति हमें ज्ञात है. और हमने प्रथम द्वारपाल से पूछा कि क्या भीतर किसी समस्या का निराकरण किया जा रहा है, इस पर उन्होंने उत्तर दिया कि भद्रबाहु के अपने शिष्यों के साथ जाने के बाद अन्य कोइ समस्या न होने से अब ज्ञानरंजन हो रहा है. हमें भी ज्ञान समृद्ध होने का अनुभव हो रहा है. सम्राट चन्द्रगुप्त, हमने अपराध तो नहीं किया ना? आपके अनुशासन को भंग तो नहीं किया?

स्वरूपसुन्दर, ज्ञानवती, निर्भय और वाक् वैभव प्राप्त प्रभावती राजनीति में भी उतनी ही निपुण थी जितनी युद्ध कला में थी. राजकुल में जन्मी वह निर्मलमन और प्रजाहितदक्ष थी.

“नहीं, कन्या, प्रभावती. हमने आपका उत्तर सुनने के लिए प्रश्न पूछा था. अब बताएँ, आप कौनसी समस्या लेकर आई हैं?

“हमें ऐसा लगा कि हमारा प्रश्न राजसभा के विद्वत सदस्य ही सुलझा सकेंगे. हमने कहा कि कुबेर और लक्ष्मी का आपस में रिश्ता है और कुबेर तथा शिवशंकर का भी रिश्ता है. परन्तु चंद्रिका. कनका. लतिका इसे मान्य करने को तैयार ही नहीं हैं. इसलिए हम राजसभा में आये हैं.”

“हम इसका उत्तर देंगे,” कालिदास उठकर खड़े हो गए. वे चारों सम्राट चन्द्रगुप्त के बाईं और आसनों पर स्थानापन्न हो गई थीं.

“आपका कथन पूरी तरह सत्य है, राजकुमारी. ऋग्वेद के परिशिष्ठ में अंतर्भूत ‘श्री सूक्त में कुबेर का उल्लेख ‘देवासखा’ के रूप में किया गया है. कुबेर विश्ववा का पुत्र है. विश्ववा  की तपोसाधना से प्रभावित होकर राक्षस कन्या कैकसी ने उनसे विवाह किया. उसके चार पुत्र – रावण, विभीषण, कुम्भकर्ण और कुबेर हुए. कुबेर के तीन पैर और आठ दांत होने का उल्लेख है.

‘कुत्सितं बेरं यस्य स: अथवा कुतनु’ ऐसी उनके नाम की व्युत्पत्ति बताई जाती है.”

“इतना सब हमें ज्ञात नहीं था,” कनका ने कहा. कुबेर हिमालय में गंधमादन पर्वत पर रहता था और रावण, विभीषण तथा कुम्भकर्ण लंका नगरी में, ऐसा क्यों?” कनका ने उत्सुकता से पूछा.

“इतने विरूप मनुष्य को कौन देखेगा, इसलिए वह गंधमादन पर्वत पर चला गया होगा.”                        

“कनक, चंद्रिका, ये बात नहीं है. वह महादेव का मित्र है, उत्तर दिशा का स्वामी है, उसका एक नाम ‘सोम भी होने के कारण उत्तर दिशा को ‘सौम्या भी कहते हैं. गंधमादन पर्वत पर उसके चार नगर हैं – अलका, प्रभा, वसुधरा, वसुस्थली.मेरू पर्वत मालिका ‘मंदार पर उसकी ‘चित्ररथ’ नामक अनुपम सुन्दर चित्रवाटिका है.”

“कविराज, अब आप काश्मीर जाने वाले हैं, तो कुबेर की नगरी का स्थान देखकर आयें.” सेनापति देवदत्त ने कहा.

कालिदास की दृष्टी के सामने सिर्फ श्रवण किया हुआ हिमालय और उसकी मालिकाएं प्रकट हो गई. मन में अधीर उत्सुकता जागृत हो गई.

“सत्य है, सेनापति देवदत्त. हमें सर्वाधिक आकर्षण है हिमालय और उसकी बर्फाच्छादित मालिकाओं का. इसीलिये महाराज ने हमें वहाँ जाने का आदेश दिया है.”

“परन्तु ऐसे शारीरिक व्यंग्य वाले कुबेर का विवाह नहीं हुआ होगा!” प्रभावती ने कहा.

“राजकुमारी, कुबेर का विवाह हुआ था. मुर दैत्यकन्या यक्षी चार्वी या शोभा, या कौबेरी ऐसे उसके नाम हैं. मणिग्रीव और नलकुबेर ये दो पुत्र तथा मीनाक्षी उनकी कन्या है. उसी काल में विश्वकर्मा ने उनके लिए पुष्पक विमान की रचना की, परन्तु उसे रावण ने अपने लिए रख लिया.”

“इतना सब हमें ज्ञात नहीं था,” प्रभावती ने कहा.

“पृथ्वी की सारी अर्थबलसत्ता उसके आधीन है. नवग्रह उसके आधीन हैं. कुबेर के अनेक नाम हैं – धनपति. इच्छावसु, यक्षराज, मयुराज, राक्षसेन्द्र, रत्नगर्भ, राजराज, नरराज...ऐसा बहुत कुछ बताया जा सकता है.”

कालिदास बोलते हुए रुके, तो राजपुरोहित वसुमित्र ने कहा,

“इस ज्ञान चर्चा को अगले सत्र में जारी रख सकते हैं, परन्तु एक बात सत्य है कि ऐसी ज्ञान मीमांसा अवश्य होनी चाहिए. अब भोजन के लिए यहीं समापन करें.”

सम्राट चन्द्रगुप्त उठे. सिंहासन की सीढियां उतर कर वे प्रवेश द्वार की ओर गए. उनके पीछे प्रभावती और उसकी सखियाँ गईं. अमरसिंह और कालिदास उस भव्य दालान में खड़े थे.

“तो, कवि महाराज, क्या कुबेर से उदर की क्षुधा शान्ति हुई?

:वो बात नहीं, कुबेर के बारे में विशेष जानकारी महाराज को देना चाहता था, वह रह गई.”

“ऐसी कौन सी जानकारी थी?

:जैन सम्प्रदाय में कुबेर लोकप्रिय है. कुबेर की अन्य कथाएँ सुनते हुए एक निष्कर्ष अवश्य निकलता है, कि मुद्राविनिमय के बाद आई अर्थसमृद्धि सुदृढ़ समाज का महत्त्वपूर्ण अंग है. कोषाधिपति को लोकाभिमुख और पालकत्व स्वीकार करने वाला होना चाहिए. राजा को चाहिए कि उसे उचित संरक्षण और अधिकार प्रदान करे. वहीं से राष्ट्र प्रगति के मार्ग यशोमंदिर की और ले जाते हैं. यह सब अधोरेखित करने वाला कुबेर उत्तर दिशा का स्वामी है.”

“आप ठीक कह रहे हैं, महाराज को यह बताना चाहिए था.”

दोनों को ही वैदिक काल के बारे में अत्यंत आकर्षण था.

***

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