Friday, 2 December 2022

shubhangi - 26

 जब माध्याह्न सत्र आरम्भ हुआ तो आकाश में काले मेघ छा गए थे. और कोई विशेष कार्यभाग न होने से सम्राट चन्द्रगुप्त भी राजसभा में उपस्थित नहीं थे. तब महामंत्री वीरसेन सभा समाप्त करने का विचार कर ही रहे थे कि कालिदास शीघ्रता से प्रवेशद्वार से भीतर आये. वे नखशिखांत भीगे हुए थे. राजसभा में उनकी अत्यंत लोकप्रियता और सम्राट चन्द्रगुप्त की उन पर श्रद्धा और प्रीति कुछ लोगों को अच्छी नहीं लगती थी. जहाँ भी मौक़ा मिले, उन पर टीकास्त्र छोड़ने की, व्यंग्य करने की एक भी संधि ऐसे लोग छोड़ते नहीं थे, यह अनुभव सबको था. उनको नखशिखांत भीगा हुआ देखकर धनञ्जय पंडित बोले,

“कविराज, आज तक यही सुनते आये हैं कि आप अपने ऊपर हो रहे स्तुतिवर्षाव से ही गीले हो जाते हैं, परन्तु आज, कृष्ण मेघों के बरसने से पहले ही आप किसके प्रीतिवर्षाव में इतने गीले होकर आये हैं?

सभी हँस रहे थे.

“कृपा वर्षा रानी की. केवल कविजनों को प्रसन्न करने वाली और प्रेमीजनों की प्रिय वर्षा, आप सभी गृहस्थ-पतियों के होते हुए हमारी ओर मुड़े, यह हमारा अहोभाग्य. आपके पास केवल कृष्ण मेघ आतुरता बढाते हुए दिखाई दे रहे है, मगर किंचित भी बरस नहीं रहे हैं!”

“कविराज, वर्षा न होते हुए भी हम पर पत्नी की स्नेह वर्षा होती ही रहती है, आपका क्या?

“हमारा? हम तो स्वैर, स्वच्छंदी, मुक्त. जहाँ हम, वहाँ स्नेह वर्षा होती ही है. अभी-अभी देखा ना, आप सबको छोड़कर वर्षा रानी हमारे पास आई ना? केवल आई ही नहीं, अपितु उसने प्रेम जल से हमें इतना भिगोया कि कितना भी झटको, उसकी मुद्राएँ नखशिखान्त व्याप्त हैं.”

आगे कोई कुछ नहीं बोला, परन्तु धनञ्जय ने कहा,

“कालिदास, एक सहज प्रश्न है, आपने विवाह क्यों नहीं किया?

“यह प्रश्न अनेकों ने अनेक बार, अनेक प्रसंगों पर पूछा. हम जैसे अविवाहित युवक की चिंता होना स्वाभाविक है, परन्तु हमारा विवाह हो चुका है.”

“क्या?” एक सुर में सब चिल्लाए.

“हाँ, हम एकनिष्ठ हैं अपने शब्दों से. ललितरम्य, ललितगर्भ, आशयसंपन्न, नवनवउन्मेष शालिनी प्रतिभा से. वही हमारी कामिनी, वही हमारी प्रियतमा.”

“क्या ऐसा कहीं होता है?

“क्यों नहीं होता, महाशय? क्या एक ही उत्तुंग ध्येय से प्रेरित व्यक्ति उसी ध्येय  को समर्पित नहीं होते? क्या ऋषिमुनियों ने अरण्य में संशोधन किया, तपस्या की, तब क्या पत्नी साथ थी? पत्नी उनके मन में थी. वही प्रेरणा और ऊर्जा थी. कुछ ऋषियों ने विवाह किये, कुछ ने नहीं किये. परन्तु किसी न किसी पर उनकी प्रगाढ़ प्रीती होती ही है. ऋषिमुनियों का समाज पर अत्यंत प्रेम होता है. उसमें होता है निःस्वार्थ भाव. परन्तु उसे निःस्वार्थ भाव भी कैसे कहें? उनका स्वार्थ होता है समाज मन का आनंद.

हमारा आनंद, हमारी ऊर्जा और प्रसन्नता है कविता कामिनी. उसी का अनुनय, विनय और आग्रह हम करते हैं. व्रतस्थ की भाँति उसीके सहवास में रहते हैं.”

“अर्थात्. आपकी इस कविता कामिनी का वर्णन तो करें.”

कालिदास हँस पड़े. “सच में, क्या वर्णन करना संभव है? निराकार से निनाद करती हुई अंतर्मन की नादमय आहट का वर्णन कैसे करूँ? उसके आगमन से मन का कण-कण रोमांचित हो जाता है, यह कैसे बताऊँ? उसका पदन्यास, उसमें अंतर्गत लय, गति, ध्वनि, आशय, विषय, अर्थ और लावण्य का बखान कैसे करूँ? मन को संभ्रमित करने वाली, हौले-हौले संभ्रम दूर करने वाली, लावण्यमयी, वेदवती, कविता कामिनी. उसके वस्त्र, उसके अलंकार, उसके पदन्यास से स्पष्ट होते हुए सन्दर्भ...वह पारा है, वह जलधारा है. उच्च तापमान में वह छाया है. शीतल चांदनी में वह सुवासिनी है. उसका गंध विशिष्ठ व्यक्ति को ही अनुभव होता है. न उसका कोई नाम है, न गाँव, आती कहाँ से है, जाती कहाँ है, समझ ही में नहीं आता. कभी शब्दों से प्रकट होती है, कभी शब्दों से छूट जाती है, कभी खो भी जाती है.”

“वाह, वाह, कालिदास! कविता के बारे में इतना कुछ कह सकते है, आश्चर्य है.”     

“आश्चर्य की कोई बात नहीं है, पंडित धनञ्जय! उस पर मेरी अनन्य प्रीति है. कविता के बारे में बहुत कुछ कह सकते हैं.”

“कृपया कथन करें, हम भी सुन सकेंगे. कैसी है आपकी कविता कामिनी?

“कविता रमणी नवयौवना, कविता कामिनी कभी अभिसारिका, कभी लावण्यवती वसुंधरा, कभी नूपुरों की छन छन माला. पंडित धनञ्जय, कभी आशय की पूर्तता, कभी भावनाओं की उत्कट माला, और पंडित धनञ्जय, कभी वह मनगर्भ की नवकलिका, कभी भीगी-भीगी वर्षाधारा.”

“वा...वा...कवि कालिदास ...वा...” कालिदास अंतर्मन से बोले ही जा रहे थे.

“कविता कभी सागर की रत्नमाला, कभी भक्ति की गहरी-गहरी पाताल गंगा, कविता माँ की स्पर्श माया, कभी पिता की घनी छाया, कभी द्वैत की, तो कभी अद्वैत की गर्भमाया, भक्ति की कभी मधुरवीणा वो, कभी नवयुवती का सिंगार वो. शब्द में, मौन में, स्पर्श में कविता...”

“अति सुन्दर!” धनञ्जय पंडित ने कहा और कालिदास पल भर को रुके.

“सत्य कहूं, कविता कामिनी की लत ही नहीं होनी चाहिए. लपेट लेती है कभी-कभी वह. कभी सुरीली संध्या वो, कभी वेदनामयी रात वो, राग-अनुराग संवेदना वो, कभी वो कृष्ण, तो राधा मैं...” अब पंडित धनञ्जय से रहा नहीं गया. उन्होंने उठकर कालिदास का आलिंगन किया. सभी ने करतल ध्वनी की.

“प्रतिभा विलास का अनन्य उदाहरण है आपका काव्य भाष्य. अप्रतिम!” धनञ्जय पंडित से रहा न गया. फिर वह हँसते हुए बोले, “अब फिर कभी नहीं पूछूंगा कि आपका विवाह क्यों नहीं हुआ. पत्नी की अनुपस्थिति में जो अनुभव होती है उस आकुलता, आतुरता, व्याकुलता, विरह, आर्तता और शब्दों से प्रियाराधन - इसमें आपकी रात कब बीत जाती है, यह पता भी नहीं चलता होगा. है ना, कालिदास?

“पंडित धनञ्जय, आपने सत्य कहकर मन का जो औदार्य दिखाया है, उसके लिए विलक्षण धैर्य की आवश्यकता होती है. हम कभी भी, किसी भी बात का बुरा नहीं मानते.”

“कैसे मानेंगे, कालिदास? आपका मन भाव विभोर है संवेदनाओं से.”

और गरज के साथ घनघोर वर्षा आरम्भ हो गई. हरेक व्यक्ति जल्दी-जल्दी घर की ओर जाने लगा. कालिदास ने मन ही मन कहा, “हमें कैसी जल्दी! हमारी प्रतीक्षा करने वाल कौन है? कहाँ है हमारी स्वामिनी? कहाँ हैं माता, भगिनी, कौन हैं रिश्तेदार हमारे? कौन हैं पिता?

उनकी आंखें भर आईं,. ‘हमारी प्रतीक्षा करने वाली गणिका मधुवंती! उस पर हमारी प्रीती है. जीवन का सौख्य उससे प्राप्त हुआ है, परन्तु वह स्वामिनी नहीं. और जिससे विवाह हुआ, वह राजा भोज की कन्या, वेदवती...क्या उसका विवाह हो गया होगा? वह परित्यक्ता नहीं, विधवा भी नहीं, वह सालंकृत शास्त्रवती, क्या उसने विवाह कर लिया होगा? हमारे जैसी उसकी किसी पर प्रीति तो नहीं होगी? 

चाहे कुछ भी हो, वेदवती, तुमने हम पर उपकार किया है. तुम्हारे वाग्बाण हमारे लिए आवश्यक सिद्ध हुए. काल बीत गया, मगर ज़ख्म नहीं भरा. तुम्हारे संग श्रृंगारशैया चाहे न हो, परन्तु तुम्हारे ही कारण आज हम सम्राट चन्द्रगुप्त की राजसभा में सम्माननीय हैं. देवी वेदवती, तुम्हें शतवार नमन!’

वे प्रवेशद्वार से बाहर आये. अविरत वर्षा हो रही थी. वैसे अश्व पर मधुवंती के पास जाने वाले कालिदास आज धीरे-धीरे चलते हुए, मन के झंझावात को सहन करते हुए, शांत मन से निकले थे. मधुवंती प्रतीक्षा कर रही होगी, यह विचार भी उनके मन में नहीं था.

 

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