संतप्त
सम्राट के समान ग्रीष्म हाथ में अग्निबाण लेकर निकला था. उसके आगमन से वृक्ष और
लताएं पस्त हो गई थीं. कुछ वृक्षों ने तो पर्णत्याग भी कर दिया था. जलाशय सूख गए
थे. खेतों में एक भी हरा पौधा नहीं था. वसुंधरा सांवली पड़ गई थी. ‘अब बस भी करो, ग्रीष्म! संभालो अपना क्रोध,’ ऐसा वह बारबार मन ही मन
कह रही थी. वह इतना संतप्त क्यों है, यह सारे ऋतुओं को ज्ञात था. परन्तु इस वर्ष वह कुछ अधिक ही क्रोधित
था.
राजप्रासाद
के गवाक्षों पर, द्वारों पर
खास के परदे थे. उन पर जल का छिड़काव किया जा रहा था. राजदालान में भी खस की सुगंध
फ़ैली थी. वैसे माध्याह्न पश्चात के सत्र में ज्ञान, विश्लेषण, चर्चा, मनोरंजन, अन्य प्रदेशों की जानकारी जैसे विषय होने से सब कुछ आसान
होता है.
मगर आज वैसा
दृश्य नहीं था. उन्होंने राजस्व अधिकारी विष्णुगुप्त और विनयस्थिति स्थापक सोमदत्त
को आमंत्रित किया था. सम्राट चन्द्रगुप्त आसनस्थ थे.
“विष्णुगुप्त, आप सम्पूर्ण नगर में भ्रमण करते हैं. हर प्रांत की
स्थिति के बारे में आप प्रांताधिकारी से अद्ययावत जानकारी एकत्रित करते हैं.
परन्तु हमारे पास वार्ता पहुँची है कि राजस्व अधिकारी ने जो व्यक्ति कर देने की
स्थिति में नहीं थे, उनसे भी
राजस्व वसूल किया है. उस अवसर पर सोमदत्त भी उपस्थित थे.”
“निश्चय ही.
हम अपना काम अत्यंत निष्ठा से करते हैं. आपने हमारे कार्य का सम्मान भी किया है.
क्या आज कोई विपरीत घटना हुई है?”
“बताएँ, कि हम राजस्व किस-किस वस्तु पर वसूल करते हैं?”
“हम समझे
नहीं, महाराज कि
आप हमसे यह प्रश्न क्यों पूछ रहे हैं? विनयस्थिति स्थापक सोमदत्त हमारे साथ उपस्थित थे.”
“हमें आप पर
किंचित् भी संदेह नहीं है. परन्तु राजसभा के मंत्रीमंडल को भी राजस्व वसूल करने की
आपकी पद्धति का ज्ञान होने दें.”
“परन्तु, आप...”
“भयभीत न
हों, विष्णुदत्त. पीछे से
यदि कोई कुछ कहे, तो इन
लोगों को भी ज्ञात होना चाहिए कि राजस्व कार्य कैसे चलता है!”
विष्णुगुप्त
और सोमदत्त महाराज के प्रश्न का रुख समझ नहीं पा रहे थे, परन्तु उत्तर देना आवश्यक था.
“महाराज, प्रत्येक प्रांत के राजस्व अधिकारी भिन्न हैं. वे हमारे
पास मुद्रा रूप में अथवा सुवर्ण-रत्न अथवा रजत स्वरूप में दर्ज करके राजस्व भेजते
हैं. उसे कोषागार में राजमुद्रा लगाकर रखा जाता है, महाराज...क्या हमसे कोई अपराध हुआ है?”
“क्या आप
ऐसा सोचते हैं?”
“नहीं.”
“तो फिर
बताएं कि राजस्व हमारे पास किन-किन मार्गों से पहुंचता है?”
“महाराज, भडोच, कल्याण, सिंहलद्वीप
इन बंदरगाहों से हमारे पास कम्बोडिया, चम्पा, बर्मा, मलयद्वीप, सुमात्रा, जावा, बोर्नियो, बाली, इसके
अतिरिक्त रोम, पैरिस से
आने वाली वस्तुओं पर भी हम राजस्व वसूल करते हैं.”
“और?”
“महाराज, वयोवृद्ध सोमदत्त ने कुछ भी नहीं किया है. वे भयभीत हो
गए हैं.”
“विष्णुगुप्त,
हम केवल जानकारी प्राप्त कर रहे है. निर्भयतापूर्वक बताएँ.”
“महाराज, आप अपनी भूमि का उत्पादन अपने लिए प्रयोग में लाते है, परन्तु औरों से, जिनके पास भूमि है, उत्पादन का छठा भाग राजस्व के रूप में लेते हैं. हम उसे
‘भाग’ कहते हैं.”
“ ‘भाग’ में
अनाज, पुष्प, और अन्य वस्तुएं आप राजस्व के स्वरूप में लेते हैं.”
“ ’उपरीकर’ –
यह राजस्व वसूल करने का प्रकार है, जिसके अंतर्गत हम प्रत्यक्ष मुद्रा अथवा अन्नधान्य के स्वरूप में राजस्व
लेते हैं. यह कृषकों के लिए है. और ‘प्रणय कर’ – यह कभी
स्वेच्छा से अथवा कभी अनिवार्य रूप से, परिस्थितिनुसार वसूला जाने वाला कर है.”
“अब आप
रुकिए. विष्णुगुप्त. अब ईमानदारी से राजस्व वसूल करने के लिए आपकी प्रशंसा की जाए
अथवा ग्रीष्मकाल में राज्य में अकाल और आपातदशा होने पर भी आपने राजस्व वसूला इसके
लिए खेद प्रकट किया जाए?”
“जब यह नियम
है, कि यदि देने वाले की
परिस्थिति हो, कोइ
स्वेच्छा से दे रहा हो, तो राजस्व स्वीकार करें, अन्यथा उस प्रांत की स्थिति, राजस्व न देने का कारण स्पष्ट किया जाए. जिस प्रकार अर्थकोष राजस्व से
समृद्ध होता है, उसी प्रकार
विपरीत परिस्थिति में उसे खाली भी करना चाहिए. आपने हमें सूचित किया होता और उनसे
बलपूर्वक राजस्व न वसूला होता.”
“क्षमा करें, महाराज, हमें इस बारे में विचार करना चाहिए था. अब हम उन्हें राजस्व वापस कर
देंगे.”
“अवश्य
करें. साथ ही यह भी करें कि परिस्थितिवश यदि कोई लाचार, असहाय हो, तो राजकोष से उसकी सहायता करें. ईमानदारी से कार्य करते
हुए हमें मानवता को भूलना नहीं चाहिए, विष्णुगुप्त. उसी तरह कृषकों से ‘हलदंडकर’ न वसूला जाए. मगर ‘शिल्पकला’ तथा अन्य व्यावसायिकों से ‘राजकर’ अवश्य लें. और सोमदत्त, आप हमें एक बार ‘क्षेत्रभूमि’ के बारे में, जो कृषकों के लिए उपयुक्त हो, ‘वास्तुभूमि’, जो निवासस्थानों के लिए उत्तम हो, ‘चरागाह भूमि’, जिस पर पशुओं के चरने के लिए घास प्रचुर
मात्रा में हो, ‘सिल भूमि’, जिस पर तृणान्कुर अधिक काल तक रहते हैं, और ‘अग्रहत भूमि’, जो अरण्यों के लिए आरक्षित रहे – इन सब के बारे में विस्तृत
जानकारी दें.
उसी प्रकार
कोषाध्यक्ष भी सहस्त्रों सुवर्ण मुद्राओं का लेखा-जोखा हमें दें.”
कालिदास यह
सब सुन रहे थे. वह सोच रहे थे, प्रजाहितदक्ष, समयसूचक
सम्राट अष्टगुणी हैं, या बहुगुणी
हैं, या शतगुणी? वे
वीरयोद्धा हैं, या जलाशयों, कृषि, उपवनों, उद्यानों के लिए जलवाहिनियों का निर्माण करने वाले ‘जलदूत’
हैं, या बहुशास्त्र पारंगत
हैं, या अनेक शस्त्र-धारक हैं, अस्त्र-शस्त्रों में निपुण सेनापति हैं. लोकहितदक्ष, सहस्त्र मुद्राओं का दान करने वाले, यज्ञ करने वाले, अतिथियों का सम्मान करने वाले, सम्राट चन्द्रगुप्त अद्भुत् हैं. परशु, शंकु, धनुष्य बाण, शक्ति, असि, तोमर, आदि
शस्त्रों का प्रयोग करने वाले अस्त्रवेत्ता हैं. अश्वमेध यज्ञ करने वाले सम्राट
चन्द्रगुप्त जब महारानी ध्रुवस्वामिनी के साथ होते हैं तो वे रसिक हैं, यह अनुभव भी होता है.’
“कवि महाशय, आज किस विचार में इतने मग्न हैं?” आत्ममग्न कालिदास से सम्राट चन्द्रगुप्त ने पूछा.
“अन्य
मंत्री तथा अनेक सदस्य ध्यान से सुन रहे थे, परन्तु आप...”
“महाराज, हमारा पूरा ध्यान था. हम...”
“महाराज, शायद वे किसी कथावस्तु पर विचार कर रहे होंगे,’ किसीने टिप्पणी की.
“कोई कविता
सूझी होगी.”
“सत्य है.
उस दिन एक पंडित मार्ग से जा रहे थे कि उनका धक्का एक सामान्य व्यक्ति को लगा, और वह बोला, ‘क्षमा करें, राभजी.’ उस
दिन राजसभा में पंडित और वह व्यक्ति आये, जिसे शब्द का सही उच्चारण भी नहीं आता था. वे पंडित कुत्सित स्वर में कह
रहे थे, कि यह व्यक्ति कालिदास का गुरू है. वह व्यक्ति थरथरा रहा था. तब वह ‘राभण’
शब्द योग्य ही है यह दर्शाने के लिए स्वयँ ही एक श्लोक की रचना की. महामंत्री ने
आगे कहा,
जिसका अर्थ था, “परंतु एक बात सत्य है, कि कुम्भकर्ण में ‘भकार’ है, विभीषण में भी ‘भकार’ है. कनिष्ठ बंधुओं के नामों में ‘भकार’ होने पर भी रावण के नाम में ‘भकार’ क्यों नहीं हो सकता? अतः ‘राभण’ शब्द ही योग्य है, और उस सर्वसामान्य व्यक्ति को उसने तत्काल गुरुपद पर आसीन कर दिया.” सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा, तो राज सभा में चुप्पी छा गई.
कुछ देर बाद
धनञ्जय पंडित उठकर बोले.
“महाराज, आप हमेशा ही कालिदास की भूमिका को योग्य ही मानते हैं, परन्तु उन्होंने अनेक बार ऐसा कुछ किया है कि...”
उन्होने आगे कुछ नहीं कहा, परन्तु राजसभा में हर व्यक्ति को उस घटना का स्मरण हो आया.
एक बार
धनञ्जय पंडित ने चार पंक्तियों का एक श्लोक लिखा. धनञ्जय पंडित भी कवि थे. घटखर्पर
यमक के लिए प्रसिद्ध थे. सम्राट चन्द्रगुप्त अनेक गायकों, नृत्य प्रवीण कलाकारों के आश्रयदाता थे. धनञ्जय पंडित
को इस बात से ईर्ष्या होती थी कि कालिदास ने अभी तक केवल ‘ऋतु संहार’ की ही रचना की थी, परन्तु फिर भी उनका इतना सन्मान किया जाता था. ज्योतिष
जानने वाले शंकू और कालिदास सम्राट को अधिक प्रिय थे, इस बात को सब जानते थे. उसमें बुरा मानने वाली कोई बात
भी नहीं थी.
परन्तु
धनञ्जय पंडित को यह अच्छा नहीं लगता था. एक दिन सुबह-सुबह रचा हुआ एक श्लोक
उन्होंने अपने एक शिष्य के हाथ सम्राट चन्द्रगुप्त के पास भेजा. जब वह शिष्य श्लोक
ले जा रहा था, तो उसे
कालिदास दिखाई दिए, उसने फ़ौरन
अपना परिचय देते हुए कहा, “कालिदास महाशय, मैं धनञ्जय पंडित का शिष्य हूँ, उनका काव्य सम्राट चन्द्रगुप्त को पहुँचाने जा रहा हूँ.”
कालिदास ने
सहज ही उसे पढ़ा.
उसमें लिखा
था:
अपशब्द शतं माघे,
शतनमंच भारवे।
कालिदासो न गण्यते
कविरेको धनञ्जय:।।
माघ कवि के
काव्य में यदि अपशब्द सौ हैं तो भारवि कवि के काव्य में तीन सौ हैं, कालिदास के काव्य में अनगिनत हैं, परन्तु धनञ्जय कवि के काव्य में एक भी अपशब्द नहीं है.
कालिदास ने यह पढ़ा और शिष्य से बोले,
“एक मात्रा
छूट गई है, क्या हम
उसे लगा दें?”
और ‘अपशब्द’ को ‘आपशब्द’ कर दिया. केवल एक मात्रा का भेद था, परन्तु अब उस श्लोक का अर्थ हो गया – ‘आप’ अर्थात – जल.
माघ कवि के काव्य में ‘जल’ शब्द सौ बार आया है, तो भारवि कवि के काव्य में ‘जल’ शब्द के तीन सौ विविध रूपों का प्रयोग हुआ
है, परन्तु कालिदास ने अनगिनत
बार ‘जल’ शब्द के
विविध रूपों का प्रयोग किया है, परन्तु धनञ्जय कवि ने एक भी बार उसका प्रयोग नहीं किया है.
वह श्लोक
राजसभा में पढ़ा गया, तो धनञ्जय
पंडित ने कालिदास की चतुराई को भांप लिया.
सम्राट
चन्द्रगुप्त को उस प्रसंग का स्मरण हो आया और वे हँस पड़े.
“धनञ्जय
पंडित, हम शंकू पर
अधिक स्नेह करते हैं, हम कालिदास
पर अधिक स्नेह करते हैं, मान्य है. एक ही पिता के चार पुत्र होते हुए भी उसका स्नेह एक पर अधिक
होता है, तो उसके
गुणों के कारण, उसके स्नेहपूर्ण स्वभाव के कारण, समाज सहकार्य के कारण. स्नेह को द्वेष का विषय नहीं
होना चाहिए. यह प्रयास करना चाहिए कि हम किसी को स्नेह के धागों से बाँध सकें.
स्नेह वृद्धिंगत होना चाहिए.”
सम्राट
चन्द्रगुप्त आसन से उठे. राजसभा के मंत्रीगण, गणमान्य व्यक्ति, पंडित खड़े हो गए. ऊपर की सीढी से
दूसरी सीढ़ी पर ही वे रुक गए और बोले,
“हमारे
सिंहासन पर बत्तीस कलाओं वाली महिलाएं हैं. और हमारी राजसभा में गणमान्य, प्रतिष्ठित, शास्त्रकार और विशेषत: नौ रत्न हैं. हम सबका आदर करते हैं, परन्तु कविराज शंकू और कविश्रेष्ठ कालिदास उनके विशेष
गुणों के कारण हमें विशेष प्रिय हैं.”
महाराज फिर
से सिंहासन पर बैठ गए और राजसभा में उपस्थित व्यक्ति भी आसनस्थ हो गए.
“हम
गुणवानों का सन्मान करते हैं, द्वेष नहीं करते. अतिथि का स्वागत करते हैं...यदि शत्रु भी मित्र बनकर आये
फिर भी. परन्तु कई बार हमें इन दोनों के बारे में यह सुनने को मिलता है, कि ये दोनों हमें विशेष प्रिय हैं. वेताल भट्ट हमें
अनेक कथाएँ सुनाकर मनोरंजन, उद्बोधन तथा समयसूचकता, धैर्य के बारे में बताते रहते हैं. और कवि कालिदास अपने सुन्दर स्वरूप
जैसे ही मन से भी सुन्दर और पारदर्शी हैं. हरेक की सहायता करते हैं. यह उनका विशेष
गुण है – सर्वसामान्य व्यक्ति भी उनसे प्रतिष्ठित होता है.”
आज सम्राट
चन्द्रगुप्त ने मानो निश्चय ही किया था, कि बीच-बीच में होने वाली निष्कारण चर्चा को समाप्त करना ही है. कालिदास
की लोकप्रियता का विषय इतना सरल नहीं था, उससे मन कलुषित हो रहे थे.
“शीघ्र और
समयसूचक कवित्व कालिदास का विशेष गुण है. उनके काव्य में श्रृंगार अवश्य है, परन्तु वह सूक्ष्म निरीक्षण विचार करने को बाध्य करता
है. यह हम केवल ‘ऋतु संहार’ के सन्दर्भ में कह रहे हैं. हर व्यक्ति अपने आप से यह प्रश्न पूछे कि
कालिदास द्वारा किया गया वर्णन वास्तविक है अथवा अवास्तविक, सत्य है अथवा असत्य.
और स्वयँ ही निर्णय ले. शीघ्र समस्यापूर्ती, कठिन प्रश्नों का सहज समाधान – यह भी उनकी
विशेषता है.”
“महाराज,
हमें याद है – उस दिन शंकर पंडित धनञ्जय पंडित की ही भाँति निश्चय करके आये थे –
अपनी चार काव्य पंक्तियाँ लेकर,” महामंत्री वीरसेन ने कहा, वे आगे बोले, “वह श्लोक
इस प्रकार था:
का पांडुपत्नी गृहभूषणम् किं,
को रामशत्रु किं अगसत्यजन्म:।
क: सूर्यपुत्रो विपरीत पृच्छा,
कुंतीसुतो रावण कुंभकर्ण:।।
पहली तीन
पंक्तियाँ योग्य ही थीं. वे प्रश्न थे – पंडूराज की पत्नी कौन है? गृह का भूषण क्या है? राम का शत्रु कौन? अगस्त्य मुनि का जन्मस्थान कौनसा है? सूर्य का पुत्र कौन है? इनमें विपरीत पंक्ति थी - कुंतीसुतो रावणकुंभकर्ण: . यह कैसे संभव
है, ऐसा प्रश्न उन्होंने
राजसभा के विद्वतजनों से पूछा. इतने पर ही रुकना शंकर पंडित का स्वभाव ही नहीं.
उन्होंने महाराज से कहा,
“हमारी
राजसभा में सबसे अधिक विद्वान कवि कालिदास हैं, ऐसा हमने सुना था, वे ही इस समस्या को सुलझाएं.”
शंकर पंडित
की बात सुनकर सारी सभा स्तब्ध हो गई, क्योंकि रावण-कुम्भकर्ण कुंती के सुत कैसे? कोई भी इस प्रश्न को सुलझा नहीं पा रहा था, तब कालिदास ने कहा,
“शंकर पंडित, आप भी दुविधा में पड़ जाएँ, ऐसा उसमें क्या है? जब अन्य प्रश्नों के उत्तर सरल हैं, तब इस चरण को ‘का विपरीत पृच्छा?’ इस प्रश्न से समाप्त किया जा सकता है, जिसका अर्थ है –
क्या कभी रावण-कुम्भकर्ण कुंती के पुत्र हो सकते हैं?’ यही प्रश्न – और आगे इसका उत्तर नहीं – ऐसा ही होगा.
कवि प्रश्नार्थक चिह्न का प्रयोग करना भूल गया है.”
सम्राट
चन्द्रगुप्त हँसते हुए उठे और सिंहासन की सीढियां उतर कर प्रवेश द्वार की ओर मुड़े, तब हरेक के मुख पर स्मित हास्य था.
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