उज्जयिनी के
क्रय-विक्रय केंद्र के मार्ग से सम्राट चन्द्रगुप्त का रथ जा रहा था. कालिदास
सुवर्णकार केंद्र में मधुवंती के लिए क्या खरीदना चाहिए, इस पर विचार कर रहे थे. जैसे ही कालिदास दिखाई दिए, रथ रुक गया.
“हम
महाकालेश्वर के मंदिर में जा रहे हैं, आप भी आयें,” सम्राट
चन्द्रगुप्त ने कहा, और रथ आगे निकल गया.
सुहानी शाम
थी. अनेक दिनों के बाद वे मधुवंती के पास जाने वाले थे. काश्मीर-यात्रा की तैयारी हो
चुकी थी. दो दिनों के पश्चात निकलना था, इसलिए वे शीघ्रता से निकले थे. जाते-जाते मधुवंती के लिए एक रत्नमाला
खरीदने के निश्चय से वे सुवर्णकारों के प्रभाग में खड़े थे. परन्तु अब सम्राट के
निमंत्रण पर मंदिर जाना क्रमप्राप्त था. ‘आज कोई विशेष बात तो नहीं है,’ उनके मन में आया.
जब वे मंदिर
पहुंचे तो रथ परिसर में स्थित उद्यान के पास खडा था और सम्राट चन्द्रगुप्त मौलसिरी
के वृक्ष के नीचे बैठे थे. कालिदास की प्रतीक्षा में.
“आएं, कवि महाशय. हम मंदिर के लिए नहीं निकले थे. बस, वैसे ही मन में आया, कभी-कभी आता है मन में. हम कवि नहीं हैं, फिर भी एकांत हमें प्रिय है.”
“हमें तो
कभी ऐसा प्रतीत नहीं हुआ. अपने इस एकांत के क्षण में भी आपने हमें आमंत्रित किया.
आप तो इतने व्यस्त रहते हैं, कि कभी आप स्वयँ के लिए भी कुछ करते होने, ऐसा नहीं लगता!”
“सत्य है. वैभवसंपन्न
सम्राट के पास भी एक मन होता है. उस मन के भीतर, सप्त पाताल में कोई बात गहरी छुपी है, इसका किसी को कैसे पता चलेगा? उसकी भी अपनी सीमाएं होती
हैं, उसके मन में भी
सुख-दुःख की भावनाएँ होती हैं, यह कोई नहीं समझता. राजकीय घटना, युद्ध, प्रभावती
का विवाह, कुमार का विवाह – ये प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली घटनाएं
हैं. परन्तु राज्यकर्ता के पास भी एक संवेदनशील मन होता है, इस पर किसी
का ध्यान नहीं जाता, प्रत्यक्ष
महारानी का भी नहीं.”
कालिदास ने
भी अन्य लोगों के समान कभी चन्द्रगुप्त के मन के बारे में नहीं सोचा था. वे भी
विस्मय से और स्नेह से सम्राट की तरफ देख रहे थे.
“महाराज, सत्य कहता हूँ, आपके मन की कल्पना हमने भी कभी नहीं की
थी.
पूछना तो
नहीं चाहिए, मगर ऐसी
क्या बात हुई है, आपके मन को क्लेश पहुँचाने वाली?”
“प्रभावती
का विवाह यदि वाकाटक वंश में हो जाए तो एक साम्राज्य, वह भी महत्वपूर्ण साम्राज्य गुप्त वंश से जुड़ जाएगा, हमारा यह विचार हमने महारानी को बताया, तो वे बोलीं.
‘आर्य, आप अपने साम्राज्य विस्तार से प्रभावती को क्यों इस तरह
जोड़ रहे हैं? क्या आपने
सोचा है कि उसके मन में कौन है? अखंड, अविभाजित भारत के निर्माण के लिए उसका स्वयंवर न करते
हुए, उसकी राय जाने बिना, क्या विवाह का ऐसा प्रस्ताव उसके सामने रखना उचित है?’
बताओ, कालिदास, इसमें हमारा कौन सा स्वार्थ है? हम विदर्भ जाकर आये हैं, महाराज रुद्रसेन का साम्राज्य विस्तार देखकर आये हैं.”
“क्या आपका
उनसे पूर्व परिचय था?”
“नहीं. हम
दक्षिण-पथ के साम्राज्यों का अवलोकन करने गए थे, तब कुछ सैनिकों ने हमें देखा.
हमने कहा कि अरण्य में भटक जाने के कारण हम यहाँ पहुँच गए हैं. रुद्रसेन युवक हैं, साम्राज्य के अधिपति हैं. ऐसी परिस्थिति में सत्ता
हथियाने की अपेक्षा यदि संबंध दृढ़ किये जाएँ, तो दक्षिण का एक विशाल साम्राज्य गुप्तवंश से संबंधित
हो जाएगा, इसलिए
हमने...मगर महारानी को यह मान्य नहीं है.”
कालिदास के
सामने ऐसे प्रश्न कभी उपस्थित ही नहीं हुए थे. जब परिवार ही नहीं, तो कोई समस्या भी नहीं. सुख की कल्पना केवल रात तक
मर्यादित और आनंद की कल्पना शब्दों द्वारा भोजपत्र पर अवतरित होने के लिए. उन्हें
समझ ही में नहीं आ रहा था कि क्या कहें.
“महाराज, आप अपने पिताश्री के बारे में बताने वाले थे ना?” कालिदास ने विषय को नई दिशा दे दी.
“हमारे
पिताश्री सम्राट समुद्रगुप्त महान थे. उन्हीं का आदर्श हमारे सम्मुख है. उन्होंने
नागवंश की कन्या कुबेरनागा से हमारा विवाह किया, जो प्रभावती की माता हैं. कारण था
– साम्राज्य विस्तार...” और वे कहते गए जो कालिदास कब से सुनना चाहते थे.
“गुप्त वंश
का आरम्भ हुआ श्रीगुप्त से. चन्द्रगुप्त मौर्य ने उस काल में आचार्य चाणक्य की
सलाह के अनुसार कुछ प्रांताधिकारी नियुक्त किये थे. श्रीगुप्त के पिता पुष्पगुप्त
की ‘राष्ट्रीय’ पद पर
नियुक्ति की गई थी. उसके बाद कुषाण वंश के पतन के काल में उत्तर भारत में नियुक्त
प्रांताधिकारी, अर्थात् पुष्पगुप्त के पुत्र ने, मतलब श्रीगुप्त ने स्वयँ को राजा घोषित कर दिया. और
अपना राज्य बना लिया.
उसके बाद
घटोत्कच राजा बने. उन्होंने साम्राज्य विस्तार के बारे में विचार तो किया, परन्तु कुषाण, वाकाटक, शक प्रबल हो गए थे, अतः उनकी सत्ता वहीं तक सीमित हो गई. उनके पुत्र
चन्द्रगुप्त प्रथम ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण करके अपने पराक्रम से उसे सार्थ
किया. उन्होंने साम्राज्य तथा प्रशासन की योग्य व्यवस्था की. पाटलीपुत्र को
राजधानी घोषित करके प्रान्ताधिकारियों की नियुक्ति की, और उस काल में लिच्छवी
साम्राज्य सामर्थ्यशाली होने के कारण उन्होंने लिच्छवी वंश की कुमारदेवी से विवाह
कर लिया. और दोनों शक्तिशाली साम्राज्य एकत्रित हो गए. उन्होने सुवर्ण मुद्राओं का
चलन किया जिन पर महाराज चन्द्रगुप्त और कुमारनागा का चित्र है. पूर्व से – बंग देश
से, उत्तर भारत, अयोध्या, प्रयाग तक उनके साम्राज्य का विस्तार था.”
चन्द्रगुप्त
बता रहे थे. उद्यान में संध्या छाया-प्रकाश के खेल में मगन थी. वे उठे और क्षिप्रा
तट की और चले. कालिदास भी उठ गए. चलते-चलते सम्राट ने अचानक कहा,
“ आपको कहीं
और तो नहीं जाना है?” उनकी बात
का मर्म जानकर कालिदास बोले,
“महाराज, कितने मास बीत गए. आपके मुख से गुप्तवंश का इतिहास
सुनना था. वह आज सुन रहा हूँ. ऐसा आनंद कहीं और नहीं. आपके साथ इतना समय बिताने का
लाभ प्राप्त हो रहा है, यह हमारा परम सौभाग्य है.”
वे दोनों
चलते रहे.
क्षिप्रा के
विशाल जल प्रवाह में ढलती सांझ का धूसर वातावरण था. क्षितिज पर सूर्यदेव त्वरित
गति से संध्या के प्रासाद की और निकले थे. रातरानी की सुगंध लेकर समीर लहर-लहर से
नटखट बालक की भाँती नृत्य कर रहा था.
“कालिदास, हमारे पिताश्री सम्राट समुद्रगुप्त के प्रति हमारे मन
में अत्यधिक आदर की भावना है. वे कवि, वीणावादक थे. साहित्य में रूचि रखते थे. वीर योद्धा, शास्त्र पारंगत, स्वरूप सुन्दर, शक्तिशाली थे. वे अत्यंत सात्विक वृत्ति
के थे. रसिक भी थे. उनकी प्रवृत्ति में विरोधाभास भी दिखाई देता था. उनका विवाह
केवल राज्यविस्तार के लिए दत्त देवी से हुआ था. आज वे दोनों ही नहीं हैं, परन्तु उनके संस्कार हम पर हैं. उन्होंने प्रचंड रूप से
दान दिया, सुवर्ण,
रजत मुद्राओं का चलन भी किया. अश्वमेध यज्ञ किये. क्या नहीं किया! यही प्रश्न है.”
“और आपका
विवाह?” कालिदास
ने बीच में ही पूछा.
“पराक्रम के
बल पर हम ध्रुवस्वामिनी को पाटलिपुत्र लाये. वह एक प्रीतिकथा है और शौर्यकथा भी
है.”
“बताइये ना, महाराज,” कालिदास अधीरता से बोले. वैसे उन्हें वह ज्ञात थी. सम्राट समुद्रगुप्त ने
अपने उत्तराधिकारी के रूप में अपनी अनेक रानियों से उत्पन्न पुत्रों में से
चन्द्रगुप्त के नाम की उद्घोषणा की थी, वह भी भरी सभा में. महारानी ने कहा भी था, “ रामगुप्त ज्येष्ठ पुत्र है, सिंहासन पर उसीका अधिकार है.”
“फिर कभी, सांझ गहरी हो गई है, और शायद कोई आपकी प्रतीक्षा कर रहा होगा. फिर आपको
काश्मीर भी जाना है,” सम्राट चन्द्रगुप्त ने कहा.
“महाराज, हमें तीव्र इच्छा है. क्षिप्रा के जलप्रवाह में दीपों
की पंक्तियाँ यात्रा पर निकली हैं. आकाश में घनी संध्या में भी पश्चिम अभी भी
केसरी रंग में है. वातावरण प्रसन्न है. ऐसे समय आपकी रम्य प्रीतिकथा सुनने का मोह
हम संवरण नहीं कर पा रहे हैं. उस प्रीती कथा का रूपांतर विवाह में हुआ और हमारी
व्यथा-कथा है. महाराज, आपकी
प्रीतिकथा सुनना हमें प्रिय होगा.”
कालिदास और
सम्राट क्षिप्रा के तट पर महेश्वर की भव्य प्रतिमा के चरणों तले बने चबूतरे पर
योग्य अंतर रखकर बैठे थे. सम्राट ने उनका हाथ पकड़कर अपने समीप बैठने को कहा.
“कालिदास, आप हमारे
लिए पुत्र के समान हैं. जब सिंहासन पर होते हैं, तब हम सम्राट होते हैं, परन्तु उसके पश्चात हम सामान्य नागरिक, स्नेही, ऋणानुबंध में होते हैं.
इसलिए निकट आयें.”
सम्राट
चन्द्रगुप्त के सम्मुख जैसे गत जीवन का चित्रपट ही आरम्भ हो गया. मंदिर में सायं
आरती समाप्त हो रही थी, पथ दीपों से मार्ग प्रकाशित था.
“था बड़ी है, संक्षेप में बताता हूँ.” इतना कहकर उन्होंने कहना आरम्भ
किया, कालिदास के सामने उनका जीवनपट खुलता गया. कालिदास सुन
रहे थे, सम्राट
चन्द्रगुप्त की प्रीति कथा और शौर्य गाथा.
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