“पाटलिपुत्र
अभी कितनी दूर है?” श्वेत
पामिरी अश्व पर सवार युवराज चन्द्रगुप्त ने पूछा.
“अयोध्या की
शरयू पार करके हम गंगा के प्रयाग तीर पर आये हैं. अयोध्या छोड़े हुए हमें पाँच दिन
हो गए हैं. यदि राजमार्ग से आते, तो प्रातःकाल ही पहुँच जाते. अब यदि बिना रुके चलते रहे तो रात्रि के
प्रथम प्रहर तक पहुँच जायेंगे!” देववर्मा ने कहा.
“रात्रि में
ही पहुँचने का हेतु था. तो ठीक ही हुआ! आज मगध में प्रवेश करने के बाद से क्रय-विक्रय
केंद्र तो क्या, मार्ग में
भी कितनी निराशा, भय और
गरीबी दिखाई दे रही थी. अपने ही हंसते हुए, प्रसन्न मगध को इस अवस्था में मन दु:खी हो गया.
सम्राट
समुद्रगुप्त द्वारा संगठित किया गया हर राज्य अब बिखर रहा था. शकों को पराजित करके
चम्बल पार खदेड़ने के बाद अब सत्ता पर उसकी पकड़ ढीली हो गई थी.
क्योंकि
पाँच वर्षों के काल में सम्राट समुद्रगुप्त का गिरता हुआ स्वास्थ्य, अयोध्या पर
शकों-कुषाणों द्वारा निरंतर किये जाते रहे आक्रमण, और सेनापति, प्रान्ताधिकारी के रूप में युवराज
चन्द्रगुप्त की नियुक्ति, सम्राट समुद्रगुप्त की मृत्यु, ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण स्वयँ को ‘महाराज’ कह कर सिंहासनारूढ़ हुए निष्क्रिय रामगुप्त और शकों
द्वारा अपनी ओर मिला लिए गए शिखरस्वामी तथा उन्हें दिया गया मंत्रीपद, सब कुछ विपरीत ही हुआ था. ऊपर से शकों से छीना गया
गंधार राज्य और ध्रुवस्वामिनी अब हाथ से छूट रहे थे. सम्राट समुद्रगुप्त ने राजसभा
में ध्रुवस्वामिनी की चन्द्रगुप्त की वाग्दत्त वधू के रूप में उद्घोषणा की थी. फिर
भी महाराज रामगुप्त ने बलपूर्वक उससे विवाह कर लिया था.
“युवराज
चन्द्रगुप्त... व्यथित होने के लिए अब समय नहीं बचा है. अविलम्ब कार्य पर जुट जाना
होगा. जिस उद्देश्य से हम यहाँ आये हैं, उसे पूरा करना होगा. अभी परसों ही तो कोई कह रहा था कि युवराज चन्द्रगुप्त
और सम्राट समुद्रगुप्त ने विलक्षण शौर्य से जिस साम्राज्य का निर्माण किया था, उसके अब अंतिम दिन आ गए हैं. महाराज रामगुप्त के अन्याय
और अत्याचारों के कारण प्रजा मौन हो गई है.”
वस्तुतः
सम्राट समुद्रगुप्त यह चाहते थे कि चन्द्रगुप्त ही राज्यशासन चलायें. परन्तु उनकी
वृद्धावस्था,
चन्द्रगुप्त का प्रांताधिकारी के रूप में अयोध्या में होना, शकों द्वारा
बार बार किये गए आक्रमण, समाज में व्याप्त दुरावस्था, और चन्द्रगुप्त तथा ध्रुवस्वामिनी का विवाह निश्चित होते हुए भी सत्ता में
आते ही रामगुप्त द्वारा उससे किया गया विवाह, इन सब घटनाओं का ज्ञान चन्द्रगुप्त और देववर्मा को था
ही. आखिर मौन चल रहे चन्द्रगुप्त से देववर्मा ने पूछा,
“क्या सोच रहे हैं, युवराज?”
“यही कि
घटनाक्रम कितनी शीघ्रता से बदलता गया. मगध सेनापति शिखरस्वामी को महामंत्री का पद देकर ज्येष्ठ बंधू रामगुप्त ने
अपनी ओर मिला लिया. मूल से ही स्वार्थी शिखरस्वामी हमारे बन्धु पर ही राज करने लगे
और...”
“जाने दें, युवराज. भूतकाल भूल कर वर्तमान का विचार करें, रानी ध्रुवस्वामिनी का विचार करें, उन्होंने आपसे प्रेम किया है.”
“देववर्मा, प्रश्न प्रेम का नहीं है. महामंत्री, राजा बदलते ही क्या राजपुरोहित को अपना धर्म बदलना
चाहिए? हमारे
विवाह की घोषणा होने के बाद भी, क्या उन्हें हमारी अनुपस्थिति में इस विवाह को मान्यता देनी चाहिए थी? कहाँ है धर्म? कहाँ है न्याय?”
“युवराज, घटना इसी को तो कहते हैं ना? समस्याएँ आती हैं, तो उन्हें सुलझाना पड़ता है. आप तो सर्वगुणसंपन्न हैं, सब कुछ सरलता से कर लेंगे.”
“प्रश्न यह
नहीं है, देववर्मा. प्रश्न
यह है कि जिसने बचपन से आज तक कभी युद्धभूमि के दर्शन भी नहीं किये, सावन-भादों की झड़ी जैसे सरसराते बाणों की वर्षा नहीं
देखी, जिसकी कमर
की सोने की मूठ वाली तलवार उसकी अनामिका पर स्थित रत्नजडित अंगूठी से भिन्न नहीं
है, जिसके लिए तलवार केवल
एक अलंकार है, पुरुषत्व की बात करें, तो उसकी अपेक्षा वारांगना हज़ार गुना श्रेष्ठ है. मगर फिर भी रामगुप्त विशाल साम्राज्य के
स्वामी!...कैसा विरोधाभास है!”
“सत्य है, युवराज. सम्राट समुद्रगुप्त ने पश्चिम में तक्षशिला, गंधार से लेकर ब्रह्मपुत्र तक का पूर्वी प्रदेश अपने
आधिपत्य में किया. उसी प्रदेश पर शकों के आक्रमण हो रहे हैं, और हमें पता भी नहीं.”
“पता हो या
न हो, मगर हमें
पिताश्री द्वारा अपार परिश्रम से विस्तारित किये गए गुप्त साम्राज्य का विलय नहीं
होने देना है. यह हमारा वज्र निर्धार है, ज्येष्ठ बंधू के बारे में बाद में सोचेंगे.”
रात के
दूसरे पहर में देववर्मा और चन्द्रगुप्त कुछ रक्षकों के साथ पाटलिपुत्र पहुंचे.
परन्तु उनके वहाँ पहुँचने की वार्ता किसी को न मिले, इसलिए वे गुप्तद्वार से राजपुरोहित के पास पहुंचे.
चन्द्रगुप्त के मन में एक बार ध्रुवस्वामिनी से मिलाने का विचार आया, परन्तु
उन्होंने इस विचार को छोड़ दिया. उन्हें पूरा विश्वास था कि ध्रुवस्वामिनी उनके
अलावा किसी और की नहीं हो सकती.
राजपुरोहित
आनंद भट्ट ने उन्हें देखते ही कहा,
“हम अपराधी
है. आप देंगे वह सज़ा हमें स्वीकार है. महारानी ध्रुवस्वामिनी के बारे में हमें
क्षमा करें. हमारा शिरच्छेद हो जाता, परन्तु वह दंड किसी योग्य व्यक्ति द्वारा दिया जाए, यह इच्छा थी. और फिर हमारे बदले कोई दूसरा इस कार्य को
कर ही देता, अतः हम योग्य अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे.”
“आप पर हमें
पूरा विश्वास है. पिताश्री के निधन के बारे में सुना. सूर्यास्त के पश्चात शाम की
परछाईयाँ भी आक्रामक हो जाती हैं, यह शकों द्वारा बार बार किये जा रहे आक्रमणों से सिद्ध हुआ है. अब एक काम
करें. सारा घटनाक्रम विस्तार पूर्वक हमें बताएँ, हम वापस आने ही वाले हैं.”
कुछ ही
घंटों में उन्हें सारी वार्ताएं प्राप्त हो गई थीं.
“प्रकृति की
अस्वस्थता के कारण सम्राट समुद्रगुप्त के लिए शासन चलाना कठिन हो रहा था. ऊपर से
आप भी,
चन्द्रगुप्त, अयोध्या के
प्रांताधिकारी और सेनापति के रूप में चले गए थे. वहाँ आप अनेक कार्यों में व्यस्त
थे और यहाँ से आपको कोई भी समाचार भेजने की आज्ञा नहीं थी. हमने दो बार प्रयत्न
किया था, परन्तु
वाकाटक प्रबल हो गए और पश्चिम में शक. ऐसी स्थिति में शकों को सीमा पार खदेड़ने के
लिए, उनका विनाश करने के लिए सशक्त नेतृत्व की आवश्यकता है. युवराज, यह हम आपको देखकर नहीं कह रहे हैं.” राजपुरोहित ने
उन्हें अपना लिखा हुआ पत्र दिखाया,
“यह हम आपको
भेजने वाले थे.”
“हम फिर
कहते हैं, क्षण भर के
लिए हमें भी आप पर क्रोध आया था, परन्तु आप पर विश्वास भी था. अब देववर्मा यहाँ
रहेंगे. हमें वार्ता पहुँचाने के लिए पाँच रक्षक भी यहाँ रहेंगे. हम अयोध्या जाकर
युद्ध के लिए आह्वान करेंगे और...”
अब युवराज चन्द्रगुप्त
को शकों के उस आक्रमण की याद आ गई.
सतलज नदी के
किनारे पर सैन्य सहित आक्रमण के लिए सज्ज थे ध्रुव स्वामिनी के पिता, शक सम्राट रुद्रवर्मा. सतलज में भयानक बाढ़ आई हुई थी.
उसे पार करना असंभव था. ध्रुवस्वामिनी तक वार्ताएं पहुँच रही थीं. उससे रहा न गया
और उसने ‘युद्ध किये बिना वापस आकर सेना की रक्षा करें’ यह सुझाव दिया. पूरी वर्षा ऋतू में सतलज के किनारे डेरा
डाले पडी सेना को युद्ध किये बिना वापस ले जाना रुद्रवर्मा को अपमानास्पद लग रहा
था.
वर्षाऋतू
समाप्त होने का कोई चिह्न नहीं था. दो महीने बीत गए थे. आसपास के भागों में भयंकर
वर्षा होने से सतलज ने रौद्र रूप धारण कर लिया था. दूसरे किनारे पर मगध सम्राट
समुद्रगुप्त और सेनापति चन्द्रगुप्त उसी वर्षा में अपनी सेना सहित डेरा डाले हुए
थे.
सतलज वैसी
ही रौद्र रूप धारण किये प्रवाहित हो रही थी. दोनों किनारों पर कीचड का साम्राज्य
था.
आखिर में
सेनापति एवँ युवराज चन्द्रगुप्त ने कहा,
“तात, अब हम इस स्थिति से कोई मार्ग निकालेंगे. ऐसा करते हैं:
आचार्य चाणक्य के अनुसार ‘शिथिल हुए शत्रु को पराजित करने में कोई देर नहीं लगती.’
हम सेना के तीन भाग करें - एक प्रत्यक्ष सामने से, दूसरा जहाँ जल का प्रवाह कम हो वहाँ से, और तीसरा सतलज के उतार से आक्रमण करेगा. इन दो महीनों
में जंगल से आई हुई लकड़ी से विशाल बेड़े बना लिए गए हैं. फिर मोटी-मोटी रस्सियाँ भी
हमारे पास हैं. बिना किसी कष्ट के इन बेड़ों से सतलज पार करके गाफिल दुश्मन पर हमला
कर सकते हैं.”
सम्राट
समुद्रगुप्त युवराज चन्द्रगुप्त के विचार और कार्यशैली से प्रभावित हुए. और दो ही
दिन बाद सूर्योदय होते ही चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में सेना ने तीन तरफ से उन्हें
घेर लिया. चौथी ओर था सतलज का विस्तीर्ण होता हुआ प्रवाह. अंत में ध्रुवस्वामिनी
के पिता, शक सम्राट
की सेना पराजित हो गई.
आठवें दिन
जब शक सम्राट रुद्रवर्मा के सामने प्रत्यक्ष राजसभा में मगध सेनापति चन्द्रगुप्त
के आने की वार्ता पहुँची, तो प्रत्यक्ष ध्रुवस्वामिनी वहाँ उपस्थित थीं.
चन्द्रगुप्त
के शौर्य पर, धैर्य पर
मोहित ध्रुवस्वामिनी उन्हें दो बार दिखाई दी थी, परन्तु वह राजकुमारी होंगी, ऐसा उन्हें नहीं लगा था. युद्ध समाप्त होने के पश्चात
वह उनसे प्रत्यक्ष मिलकर बोली थीं,
“मगध
सेनापति,
चन्द्रगुप्त आपकी जय हो! जिस नीति से आपने आक्रमण किया वह प्रशंसा योग्य है.
परन्तु शकों का पराभव अर्थात् हमारा भी पराभव है!” और वह चली गई थी. आज उसे समझ
में आ गया. उसने ध्रुवस्वामिनी की ओर देखकर स्मित हास्य किया, उसने भी मौन संकेत किया.
“शक सम्राट
रुद्रवर्मा, आप पराजित
हो चुके हैं, अतः हमारी
मांग पूरी कीजिये.”
“आपकी मांग?”
“अर्थात् !
क्योंकि जिस भूप्रदेश के सिंहासन पर आप विराजमान हैं, वह प्रदेश आपका नहीं रहा, यह आप जानते हैं. इसलिए आप दो संधियाँ स्वीकार करें, अन्यथा...”
अपने राज्य
का पराजय होने के पश्चात भी ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त के सौन्दर्य, सुदृढ़ता, शौर्य पर आकृष्ट हो गई थीं. और रुद्रवार्मा
हतबल, असहाय हो
गए थे. उन्होंने चन्द्रगुप्त को बोलने का संकेत किया.
“तक्षशिला
तक का संपूर्ण भूप्रदेश और आपकी कन्या ध्रुवस्वामिनी!”
शक सम्राट
के पास कोई पर्याय ही नहीं था.
सेनापति
चन्द्रगुप्त ध्रुवस्वामिनी को लेकर सम्राट के साथ पाटलिपुत्र वापस लौटे थे, और सम्राट समुद्रगुप्त ने राजसभा में उद्घोषणा की थी,
“हमारे पश्चात चन्द्रगुप्त सम्राट होंगे. वे योग्य रीति से राज्य शासन करेंगे, और शक सम्राट की कन्या ध्रुवस्वामिनी उनकी वधू होंगी.
उन्हें दिल से वे प्रिय हैं, और ध्रुवदेवी को युवराज चन्द्रगुप्त अत्यंत प्रिय हैं, यह उनकी सखी देवसेना ने कहा है. परन्तु उत्तर की ओर, तथा अयोध्या की तरफ शक और कुषाणों का समूल नाश करने के
लिए सेनापति चन्द्रगुप्त प्रस्थान करें. विजयी होकर वापस आने के पश्चात उस
विजयोत्सव में विवाह समारोह भी संपन्न होगा.”
और युवराज
चन्द्रगुप्त अयोध्या चले गए. एक के बाद एक लगातार युद्धजन्य परिस्थितियां उत्पन्न
होती रहीं, सेना की
तैयारी करना, उसे
प्रशिक्षित करना, अश्व दल, हाथी दल, पैदल सेना तैयार करना, सेना के लिए अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण करना और लोक प्रशासन में महीनों
गुज़र गए. और युवराज चन्द्रगुप्त मगध नहीं जा सकते थे.
एक दिन वार्ता
आई रामगुप्त के सिंहासन पर आरूढ़ होने की, और ध्रुवस्वामिनी से विवाह करने की. पल भर को ऐसा लगा, मानो आसमान टूट पडा हो. समझ में नहीं आ रहा था कि
ध्रुवस्वामिनी इस विवाह के लिए कैसे मान गईं. विवाह से पूर्व वे कम से कम एक
सन्देश ही भेज देतीं...इस विचार से वे कितने ही दिन बेचैन रहे. अंत में मगध वापस
जाने का विचार ही त्याग दिया.
मगर एक बार
उन्होंने देववर्मा से कहा, “देववर्मा,
ध्रुवस्वामिनी से ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त का विवाह हुआ तो है, परन्तु क्या वह सचमुच ध्रुवस्वामिनी को मान्य है? या यह विवाह बलपूर्वक किया गया है? क्या पिताश्री के वृद्धत्व, उनकी अस्वस्थता, और मृत्यु का लाभ रामगुप्त ने उठाया है? यह ज्ञात होना चाहिए.”
“आप कहें, तो हम प्रत्यक्ष ही जायेंगे.”
सम्राट
समुद्रगुप्त के निधन की वार्ता, विवाह होने के बाद काफी विलम्ब से उन्हें गुप्तचरों द्वारा दी गई थी.
सम्राट
चन्द्रगुप्त अपनी प्रीति कथा जैसे जैसे घटित हुई, उस क्रम में कालिदास को सुना रहे थे. उस कथा में वेदना
थी, व्यथा थी, असहायता थी. वीर पुरुष की वह वेदना उनके शब्दों से छलक
रही थी.
“आगे क्या
हुआ?” कालिदास ने पूछा.
“अयोध्या का
शरयू-तीर का राजप्रासाद अब हमें विरहागार प्रतीत होने लगा.
एक दिन
देववर्मा ने देवसेना का सन्देश भेजा.
“युवराज, रामगुप्त महाराज के साथ विवाह-संस्कार संपन्न होने पर
भी महारानी व्रतस्थ रहकर आपकी प्रतीक्षा में हैं. साथ ही महारानी का जीवन अब
सुरक्षित नहीं रहा.”
“क्यों? ऐसा क्यों, देवसेना?”
“महाराज, शकों के बार-बार मगध पर होने वाले आक्रमण को रोकने के
लिए महाराज रामगुप्त योग्य निर्णय लेने में असमर्थ हैं. सम्राट समुद्रगुप्त के काल
में आपने सतलज पार करके शक सम्राट से तक्षशिला तो क्या, गंधार भी प्राप्त किया था और ध्रुवस्वामिनी को भी लाये
थे...अब उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता है.”
“देवसेना, अपने ज्येष्ठ बंधू और मगध के विरुद्ध हम कुछ नहीं कर
सकते, वह हमारे
पिताश्री का सम्माननीय सिंहासन है. इसके अतिरिक्त इस समय उत्तर, पश्चिम सीमा पर शकों के आक्रमण हो रहे हैं, शकराज खारवेल हमारे द्वारा उससे छीने गए काश्मीर पर
आक्रमण कर रहा है. उसके गंधार से कूच करने की वार्ता है. दक्षिण-पश्चिम सीमा पर भी
मालवा, गुजरात और
सौराष्ट्र पर भी शक सेना हमें घेर रही है. ऐसी स्थिति में महाराज चन्द्रगुप्त और
सम्राट समुद्रगुप्त द्वारा निर्माण किये गए विशाल भारत के साम्राज्य के विदेशियों
द्वारा तुकडे किये जाना देखूँ, या महारानी की रक्षा करूँ?”
“ मगध
साम्राज्य को चारों और से शकों ने घेर लिया था, कालिदास.” चन्द्रगुप्त बोलते-बोलते रुक गए.
“महाराज, ऐसी स्थिति में आपने क्या किया?”
चन्द्रगुप्त
को उस प्रसंग की याद आई. देववर्मा आये थे. उन्होंने सूचना दी थी कि शकराज खारवेल एक बलाढ्य सेना लेकर काश्मीर
जीतने के लिए निकला है. मगध सेना पंजाब तक पहुँच चुकी है. और शकराज खारवेल ने संधि
का प्रस्ताव भेजा है. महाराज रामगुप्त महारानी ध्रुवस्वामिनी सहित उस सेना के साथ
पंजाब गए हैं.”
“ध्रुवस्वामिनी
महारानी? वे स्वयँ
युद्ध पर गईं?” कालिदास
ने पूछा.
चन्द्रगुप्त
हँस पड़े. रात का पहला प्रहार आरम्भ हो चुका था. वातावरण में प्रसन्नता देने वाली
ठंडक थी. और सामने शांत क्षिप्रा थी. मंदिर में, घाट पर अब कोई नहीं था. महाराज के अंगरक्षक उनकी
प्रतीक्षा में खड़े थे. सम्राट चन्द्रगुप्त भूतकाल में उलझ गए थे. उन्हें याद आ गई
थी ध्रुवस्वामिनी. उसने कहा था,
“हमने यदि
आपसे युद्ध किया होता, तो आप
पराजित हुए होते.”
“फिर
स्वरूपसुन्दरी,
वीरश्रीयुक्त युवती हमारी कैसे हुई होती?”
“हमें अपने
साथ युद्ध पर ले चलेंगे?”
“अवश्य.
क्योंकि आपके सौन्दर्य के सम्मुख स्वयँ को भूलकर शत्रु सैन्य हथियार डाल देंगे.”
परन्तु
वास्तव में प्रसंग अजीब था. जब सम्राट समुद्रगुप्त ने काश्मीर पर विजय प्राप्त की, तब शकों की अपरिमित हानि तो हुई ही थी, साथ ही उन्हें काश्मीर भी छोड़ना पडा था. वही शत्रु अब
प्रबल हो गया था.
इधर मगध में
महामंत्री शिखरस्वामी जनता पर बहुत अत्याचार कर रहे थे. देवालयों, धर्मशालाओं, मठों, विहारों, आश्रम-विहारों को शासकीय सहायता देना बंद कर दिया गया
था. नालंदा, राजगीर और
विक्रमशिला - इन विश्वविद्यालयों को को दी जाने वाली सहायता बंद कर दी गई, परन्तु
राजस्व बलपूर्वक वसूला जाता था. राजमाता दत्ता देवी तथा महारानी ध्रुवस्वामिनी उचित
अवसर की प्रतीक्षा में थीं.
गुप्तचरों
द्वारा चन्द्रगुप्त को वार्ताएं प्राप्त हो रही थीं. महाराज रामगुप्त स्वयँ कभी भी
रणक्षेत्र में नहीं गए थे, इसका अर्थ – महारानी ध्रुवस्वामिनी हाथों में शस्त्र लेंगी, वरना वे क्यों जायेंगी? चन्द्रगुप्त की सेना तैयार ही थी. यदि मगध को बचाना हो
तो विदेशी शकों का समूल नाश करना होगा, जिससे वे अपना वर्चस्व न दिखाएं.
चन्द्रगुप्त
अपनी सेना के साथ निकले थे. मार्ग में उन्हें जो वार्ता प्राप्त हुई, उससे उनका क्रोध अनावर हो गया. रामगुप्त के प्रति मन
में प्रबल हो उठी विद्रोह की ज्वाला को उन्होंने मन में ही दबाये रखा. पहले मगध, फिर ध्रुवस्वामिनी, मगर उससे भी पहले अपना भारत! सेना तीव्र गति से काश्मीर
की ओर निकली थी.
चन्द्रगुप्त
को जिस वार्ता ने अशांत कर दिया था, वह यह थी कि महाराज रामगुप्त ने अपने दूत को शक सम्राट के पास संधि करने
के लिए भेजा है.
तब शक
सम्राट ने निर्लज्जता से कहा, “मगध तो क्या संपूर्ण भारत जीतने की सामर्थ्य हमारे पास है. सम्राट
समुद्रगुप्त द्वारा किये गए पराभव को हम अभी तक भूले नहीं हैं, यह उसीका प्रतिशोध है.”
इस पर
महाराज रामगुप्त ने राजदूत भेजकर कहलवाया,
“सम्राट
समुद्रगुप्त द्वारा किये गए भयानक अपराध को आप भूल जायें, और संधि कर लें, जिससे जीवित हानि न हो. हम काश्मीर आपको देने को तैयार
हैं.”
शक सम्राट
यही तो चाहता था. परन्तु उन्होंने एक और शर्त रखी,
“आपकी
लावण्यवती और युद्धनिपुण पत्नी ध्रुवस्वामिनी...”
यद्यपि शक
सेना अद्याप सतलज पार नहीं कर सकी थी, परन्तु तीन तरफ से सैनिकों ने डेरा डाल रखा था. महीने भर से निरंतर बाणों
की वर्षा होने से वे दिखाई नहीं देते थे. अंत में परिस्थिति की गंभीरता को देखते
हुए महारानी ध्रुव स्वामिनी ने कहा, ‘केवल सेनापति, युवराज चन्द्रगुप्त ही स्थिति को नियंत्रण में ला सकते हैं. अब तो रसद भी
नहीं पहुँच सकती. अन्यथा, हमारे हाथों में नियंत्रण सौंप दीजिये. हम खुद युद्ध पर जायेंगे, अन्यथा हमें और काश्मीर को शक सम्राट को दे दीजिये,” बोलते-बोलते
सम्राट चन्द्रगुप्त रुक गए.
“आगे क्या
हुआ?” अत्यंत अधीरता से
कालिदास ने पूछा. इतनी देर से कालिदास उनके समीप बैठे हैं, यह भी सम्राट भूल गए थे.
“आगे क्या
हुआ? कालिदास, आप जैसे विद्वानों, कलाकारों ने युद्ध की विभीषिका को कभी जाना ही नहीं.
युद्धक्षेत्र में मृत्यु मोक्ष प्राप्ति के समान होता है, यह विचार भी आपके मन में नहीं आता. काव्य में धरती की
महक होती है, आषाढ़ मेघ
बरसते हैं, पूर्वरंग, उत्तररंग, प्रकृति, सौन्दर्य – यह सब शब्दों के माध्यम से जानने वाले आप, क्या मातृभूमि की मिट्टी का तिलक लगाकर, जान की बाज़ी लगाकर उसकी रक्षा करने की सौगंध लेकर कभी
रणभूमि गए हैं? आपकी मोक्ष
की कल्पना ही भिन्न है. चलिए, जाने दें. उस विषय को...”
सम्राट
चन्द्रगुप्त वापस भूतकाल में पहुँच गए थे.
तीनों ओर से
घेरा डाले शक सैनिकों को निद्राधीन देखकर मगध सेना महाराज रामगुप्त के तम्बू में
पहुँची. महामंत्री शिखारस्वामी ने उनका स्वागत करके परिस्थिति स्पष्ट की. रातोंरात
देववर्मा और वीरसेन ने सेना की व्यूह रचना तो की ही, साथ ही युवराज चन्द्रगुप्त ने एक सन्देश शक सम्राट को
भेजा:
“हम युद्ध
करने की स्थिति में नहीं हैं, क्योंकि आपकी अपार सेना के सम्मुख हमारी सेना युद्ध नहीं कर पायेगी. आप
‘संधि’ मान्य करके हमें उपकृत करें, हम केवल चार ही दिनों में काश्मीर और महारानी ध्रुवस्वामिनी को आपके
सुपुर्द कर देते हैं, तब तक तीन
तरफ से हमें घेरने वाली अपनी सेना को युद्ध न करने का आदेश दें.”
चार ही
दिनों में हम स्वयँ प्रत्यक्ष राजप्रासाद में महारानी ध्रुवस्वामिनी को उनकी
सखियों सहित ससम्मान भेजेंगे. इतना विश्वास करेंगे ना?”
यह तीसरा
सन्देश देखकर शक सम्राट समझ गया कि ‘डरपोक मगध सेना अब युद्ध नहीं कर सकती. और
ध्रुवस्वामिनी बिना युद्ध के ही उसे प्राप्त हो जायेगी.’
चन्द्रगुप्त
ने आर्य चाणक्य की युद्ध नीति का अवलंबन किया. तीनों ओर से उन्हें घेरने वाली शक
सेनाएं शांत थीं. कहीं से भी बाण वर्षा नहीं हो रही थी. चन्द्रगुप्त ने
फिर से राजदूत को भेजा,
“आप ध्रुवस्वामिनी के स्वागत के लिए
सतलज के तीर पर आयें. वादे के मुताबिक़ वे कल सुबह अपनी सखियों के साथ आपके पास
आयेंगी.”
प्रात:काल खुद चन्द्रगुप्त ने स्त्री
वेष धारण किया. अन्य सखियों के रूप में उनके सैनिक थे – स्त्री वेष में. सतलज के
तीर पर नाव से स्त्रियाँ उतरीं. पालकी चार सैनिकों के साथ सीधे राजप्रासाद में गई.
शक सम्राट अत्यंत अधीरता से आसन से उठकर प्रवेश द्वार के पास गए. और इससे पूर्व कि
वे कुछ समझ पाते,
ध्रुवस्वामिनी बने चन्द्रगुप्त ने पालकी से उतरकर शक सम्राट के गले से आरपार तलवार
भोंक दी. सम्राट के समाप्त होते ही सेना अपनी जान बचाने के लिए भागने लगी. तब
स्त्री वेश में आये सैनिकों ने संपूर्ण सेना को नष्ट कर दिया. गंधार के पार तक
फैला हुआ शकों का राज्य भी गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित हो गया. वीरसेन को वहाँ
का प्रांताधिकारी नियुक्त किया गया.”
“महारानी आपसे कब मिलीं?” कालिदास ने
पूछा.
“मगध
साम्राज्य की इन घटनाओं के कारण वे काफी निराश थीं. जब हम सतलज तीर के उनके शिबिर
में मिलने पहुंचे, तो उनसे कहा कि आश्वस्त रहें, हम हैं.”
“आप तो तब
भी थे, युवराज
चन्द्रगुप्त, जब हमें
रामगुप्त से विवाह करना पडा था.”
“जब हमें
वार्ता मिली, तब तक आपका
विवाह हो चुका था. खैर. क्या आप अब भी हमसे...?
और महारानी
स्वयँ को रोक नहीं पाईं. उनकी आंखों से आषाढ़ धाराएं बह रही थीं, जिन्हें रोकना संभव नहीं था.
‘हम
प्रतीक्षा कर रहे हैं...’ बस इतना ही उन्होंने कहा. और हम सारे पूर्व सन्दर्भ, अर्थ सहित समझ गए. स्त्री वेष में जाकर हमने शक सम्राट
का नाश किया, वैसे ही
वापस आकर अपने ज्येष्ठ बंधू रामगुप्त का भी वध किया. राज्यशासन और राज्ययन्त्रणा,
स्वभूमि रक्षण और स्त्रीरक्षण – राजा के इन कर्तव्यों को भूलकर राज्य में अत्याचार
करने वाले इस राजा का वध करते हुए हमारा हाथ ज़रा भी नहीं थरथराया. हमने
ध्रुवस्वामिनी को छोड़ ही दिया था. दुःख को मन ही में रखकर पाँच वर्ष बिताये ही थे.
परन्तु पिताश्री द्वारा अपने पराक्रम से निर्मित इस राज्य को विघटित होते हुए, परास्त होते हुए हम नहीं देख सकते थे.काश्मीर के बाद
गंधार, उनके बाद
अनेक प्रदेश शक-कुषाणों के पास चले जाते. और संगठित होने के स्थान पर राज्य विघटित
हो जाता. इसलिए मन में किंचित भी अपराध बोध नहीं था.
और जब सेना
सहित हम पाटलिपुत्र पहुंचे, तो मगध की प्रजा ने हमारा ‘न भूतो, न भविष्यति’, ऐसा स्वागत किया. हमारे स्वागत के लिए जनसमुदाय उमड़ा चला आ रहा था. हरेक
की आंखों में आनंदाश्रु थे.”
“अद्भुत्!”
कालिदास ने कहा और आगे बोले,
“महाराज, आप सचमुच भाग्यवान हैं. पाँच वर्षों के बाद आपको अपना
प्रेम मिला, परन्तु हम
आजन्म विरही ही रहेंगे!” कालिदास का गला भर आया.
“आप स्वयँ
ही व्रत के समान अपनी प्रतिज्ञा का पालन करते हुए अपनी वेदना को मन में दबाये हुए
हैं, आपकी उस पत्नी को
कल्पना भी न होगी कि उसका पति वेदना को ह्रदय में संजोये व्रतस्थ है. शब्दों की
पूजा कर रहा है. कालिदास, अपने आप से की हुई उस प्रतिज्ञा का त्याग करें, और विवाह कर लें. रहें परिवार के साथ. दुःख, सुख, समस्या, प्रणय और
समाधान परिवार के सिवा अन्यत्र नहीं. सहचरी का साथ अल्पकाल के लिए, परन्तु पत्नी का आजन्म रहता है. मान लें हमारी बात.” उन्होंने
स्नेहपूर्वक कालिदास के कंधे पर हाथ रखा. कालिदास स्वयँ को रोक नहीं पाए.
“महाराज, शब्दप्रतिष्ठा और शब्दप्रतिज्ञा – दोनों ही हमारी हैं.
हमारे मन की ही. परन्तु हम एकनिष्ठ हैं अपने शब्दों से! हम एकनिष्ठ हैं – अपनी ही
वेदना से.
महाराज, आयेगा, वह क्षण भी आयेगा, जब हम “अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:” का उत्तर दे पायेंगे.”
“क्या तब तक
जीवन को दाँव पर लगायेंगे, कवि कालिदास? रणक्षेत्र पर स्वसामर्थ्य की विजय पताका लिए जयघोष सुनने वाला पुरुष
स्त्री के बिना शून्य ही होता है. पराजित होने पर भी हमारी वेदना में उसका सहभाग
होता है. जाएँ एकबार अपनी उस पत्नी के पास. कम से कम वस्तुस्थिति तो जानिये.”
“महाराज, हम अवश्य जायेंगे, परन्तु वचन की परिपूर्ति होने पर ही!”
कालिदास के
कंधे पर सम्राट के हाथ की पकड़ मज़बूत हुई. कालिदास समझ गए कि सम्राट भी उनकी वेदना
में सहभागी हैं.
“हमें अपने
ही शब्दों के ऋण से मुक्त होना है. और वह भी इसी जन्म में. यद्यपि मार्ग अभी मिला
नहीं है, परन्तु वह
निश्चित ही मिलेगा, तब तक...”
रात का
दूसरा पहर समाप्त होने को था. वे दोनों निकले. कालिदास को और भी बहुत कुछ सुनना था.
युद्ध कथाएँ सुननी थीं. सम्राट समुद्रगुप्त के दिग्विजय के बारे में भी सुनना था,
मगर विषय किसी और ही तरह से समाप्त हुआ. और सम्राट चन्द्रगुप्त तथा कालिदास मौन हो
गए.
इतनी देर
भूख-प्यास का विस्मरण हो गया था, अब उनकी याद सताने लगी.
“रथ में
बैठिये.”
“नहीं, महाराज...”
“हमें मालूम
है कि आपको कहाँ जाना है, इतनी दूर चलकर जाने की अपेक्षा हमारे साथ चलें. फिर
काश्मीर जाने के बाद मिलन में विलम्ब ही होगा.”
“महाराज, क्या आपने गुप्तचरों को भेजा था?”
“नहीं, ऐसा हम आपके साथ कभी नहीं करेंगे. हमने बस, यूँ ही कहा था, और वह सच निकला, बस इतना ही...”
दोनों दिल
खोलकर हँसे. रथ नगर की ओर चल पडा.
***
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