आखिर
कालिदास सम्राट चन्द्रगुप्त के साथ राजमहल के प्रांगण में आ ही गए.
“वास्तव में, आप अपने मन की ही करते हैं.”
“ये बात
नहीं, महाराज.
प्रातःकाल वापस लौटने के लिए अश्व ही योग्य है ना? हम व्यवहार में चाणक्य नीति का
प्रयोग नहीं करते. सत्य और सत्य कहते हैं.”
“अर्थात्
हम?”
“नहीं,
महाराज. उद्देश्य ये नहीं है. राजा के लिए सारे मार्ग खुले होते हैं, जबकि हमारे लिए कुछ ही उपलब्ध हैं.”
“अस्तु!
भोजन के लिए काफी विलम्ब हो गया है.”
सम्राट
चन्द्रगुप्त शीघ्रता से भोजनशाला की ओर मुड़े, यह सोचकर कि अब तक उनके प्रासाद में दीप शांत हो गए
होंगे.
कालिदास
अश्वशाला की ओर मुड़े. अपने प्रिय अश्व को ढूंढा.
रास्ता शांत
था, कोइ इक्का-दुक्का
व्यक्ति ही दिखाई दे जाता था.
मध्यरात्री
की नीरव शान्तता को भंग करते हुए कालिदास का अश्व मधुवंती के प्रासाद के पास
पहुंचा. द्वारपाल ने द्वार खोला. दासियों ने मधुवंती को सूचित किया, दीप प्रज्वलित किये. कालिदास धीमे कदमों से मधुवंती के
कक्ष में आये. उसके नेत्र अर्धोन्मीलित कली के समान खुले थे. केशसंभार कंधे से आगे
आया था. स्वप्न में हुए प्रियकर से मिलन के पश्चात प्रसन्न ऐसा उसका मुखमंडल था.
दासियों द्वारा अचानक जगाए जाने के कारण उसे वस्त्रों को व्यवस्थित करने की भी
फुर्सत नहीं मिली थी. अलंकारविहीन वह ज़्यादा ही सुन्दर दिखाई दे रही थी. कालिदास
उसके अर्धजागृत रूप की ओर देख रहे थे.
“आर्य...आप...असमय?”
वह उसके पास
जाकर पलंग पर बैठ गए और अधोवदन मधुवंती के कानों में बोले,
“प्रिये, हम आये हैं, आपके लिए, हमारे लिए, समर्पित
होने के लिए.”
वह अब पूरी तरह जाग गई
थी. इससे पहले कि वह अपने वस्त्रों को, केशसंभार को संभालती, कालिदास ने उसे अपने दृढ़ आलिंगन में बाँध लिया, उनके आवेग के सम्मुख वह नि:शब्द हो गई.
आज रात
मानों ठहर गई थी. चन्द्रमा के साथ रोहिणी उन्हें देखते हुए पश्चिम की ओर जाना भूल
गई थी. अर्धोन्मीलित कलियाँ भी कुछ देर के लिए खिलना भूल गईं. कुछ ही देर में
चन्द्र के साथ रोहिणी सुहास्य वादन से मार्गस्थ हुई, तब समय आगे बढ़ा.
“प्रिये, अब फिर कब मुलाक़ात होगी, यह अभी न बता पायेंगे.”
“आर्य, आप तो कभी तन से, मन से गए ही नहीं, तो फिर ऐसा क्यों कह रहे हैं? आप नित्य ही हमारे पास है,”
“सखी, देह के श्रृंगार की अपेक्षा मन के अन्तरंग तक पहुँचने
वाले तुम्हारे ये शब्द हमें अधिक ऊर्जा देते हैं. कभी कभी ऐसा लगता है, कि जैसे श्रीकृष्ण के साथ राधा, वैसी ही तुम हमारे लिए
हो.”
“आर्य, कालिदास, आज आपका उदाहरण गलत हुआ है. प्रथम मिली हुई राधा से बाद में मिलने के लिए
श्रीकृष्ण आते हैं रुक्मिणी के आग्रह पर, कुरुक्षेत्र जाने से पूर्व, कुम्भ मेले के स्नान के लिए. एक बार मिली हुई
गोकुल की राधा को उन्होंने मन में जतन करके
शायद रखा हो, शायद राधा
यह जानती भी हो, परन्तु
उनका मिलन असंभव, मुलाक़ात भी
असंभव ही थी. अगर रुक्मिणी न मिली होती तो श्रीकृष्ण दुबारा गोकुल क्यों आते? आप आते रहेंगे बार-बार, क्योंकि आप सम्राट चन्द्रगुप्त की राजसभा में सम्माननीय
सलाहकार भी हैं.”
“यह सत्य है
मधुवंती. हम फिर, फिर
निश्चित ही मिलते रहेंगे. रुक्मिणी हमें कब मिलेगी, यह पता नहीं, तब फिर हम जायेंगे कहाँ?” कालिदास के मन में आया, कि कह ही डालें मन पर बोझ बनी अपनी जीवनव्यथा. परन्तु वे जीवन भर अपनी
व्यथा वेदना मन में छुपाये ही जीवन बिताने वाले थे. वह अभी भी ‘अस्ति कश्चिद्
वाग्विशेष:” का उत्तर देने की स्थिति में नहीं थे.
“आर्य, कई बार सोचा, कि पूछूं. निरभ्र आकाश में अचानक कृष्ण मेघ छा जाएं वैसे आपके मुखमंडल पर नैराश्य, व्यथा, वेदना छा जाती हैं. जैसे बिजली अचानक चमक जाए, उस तरह कौनसा विचार आपको विदीर्ण कर देता है? बताएं, आर्य, सहवेदना से आपकी वेदना कम हो जायेगी.”
“सखी, कोमलांगी लतिका, जब हमें ही अपने प्रश्न का उत्तर मिल जाएगा तो हम
तुम्हें अवश्य बताएँगे. प्रत्येक मनुष्य अपनी तरफ से न्याय करता है, परन्तु किसी को लगता है, कि ‘मेरा अपराध क्या है? मैंने स्वयँ तो किया नहीं.’ ऐसी स्थिति में आत्मशोधन
करके भी आत्मवंचना ही मिलती है. जाने दो, इस उमलती सुबह को यह विषय किसलिए!”
कालिदास
सचेत मन से जागृत थे. पूरी रात ही जागृत अवस्था में बीती थी, परन्तु वे प्रसन्न थे. प्रात: होने में अभी समय था,
परन्तु वृक्ष, लता, कलियाँ, पक्षी जागृत हो रहे थे. वे गवाक्ष के पास आये.
नलिनी हलके-हलके स्वयँ को मूँद रही थीं, कमलिनी खिलने को आतुर थी. कहीं श्वेत मधुमालती पर बहार आई थी. संध्या के
प्रासाद से निकला रजनीकांत जीवन प्रवास करके प्रगल्भ होते हुए पश्चिम की ओर निकला
था. जीवन का अंत बस कुछ ही समय के लिए. फिर जन्म लेना ही है. वही नियम दिनकर और
रजनीकांत के लिए भी है. चक्रवाक पक्षी के आर्तस्वर अभी भी वातावरण में गूँज रहे
थे.
‘मेरा जीवन
प्रवास भी कहाँ तक हुआ है, कहाँ जाना है, ये भी यदि
ज्ञात हो, तो बीच में
कहाँ रुकना है, यह नियती
ही निश्चित करेगी!’ वे मन ही मन सोच रहे थे.
मधुवंती
उनके समीप आकर खड़ी हो गई. उन्हें इसका अनुभव हुआ. उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखकर
उसे निकट खींचा. उसका म्लान मुखमंडल देखकर वे बोले,
“सखी, युद्ध पर जाने वाले पति की आरती करने वाली राजस्त्रियाँ
अपनी वेदना इस तरह प्रकट नहीं करतीं. हम वापस आने ही वाले हैं. क्योंकि हम युद्ध
पर नहीं जा रहे हैं. शकों का यद्यपि नाश हो गया है, परन्तु फिर भी वे बार-बार आक्रमण करके काश्मीर को
हथियाना चाहते हैं. तत्संबंधी समाचार और स्थानीय प्रशासन का वृत्तांत जानने के लिए
हम सेनापति देवदत्त और सैनिकों के साथ जा रहे हैं. हम एकाकी नहीं हैं, और वैसे, जाने वाले सारे पुरुष एकाकी ही होते हैं.”
“आर्य,
सच्चे दिल से बताएँ, आप हमें
कितना चाहते हैं?”
कालिदास दिल
खोलकर हँस पड़े. उसे अपने दृढ़ आलिंगन में लेते हुए बोले,
“सखी, कभी सोचा न था कि तुम ऐसा भी प्रश्न पूछोगी. इस प्रश्न
का उत्तर तुम्हारा मन ही तुम्हें देगा. चलते हैं हम. वापस आयेंगे, शीघ्रातिशीघ्र.”
पूर्व में उषा का राजप्रासाद जब
सप्तरंगों से प्रकाशित हुआ तो द्वार में अश्रुपूरित नेत्रों से खड़ी मधुवंती से उन्होंने कहा,
“अपने मन का
और स्वास्थ्य का ध्यान रखना. चलते हैं हम.”
वे अश्व पर
सवार होकर क्षिप्रा की और न जाकर राजप्रासाद के अपने कक्ष की ओर निकले.
***
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