Friday, 16 December 2022

Shubhangi - 31

 

‘हे पुण्यसलिला शरयू! युग युग से श्री रामचंद्र का गुणगान करते हुए प्रवाहित हो रही हो. उज्जयिनी की क्षिप्रा श्रीमहाकालेश्वर का स्मरण देते हुए प्रवाहित होती है, तो तुम दशरथ पुत्र श्री राम का! कितनी विविध घटनाओं को अनुभव किया है तुमने!

अपत्यहीन सम्राट दशरथ द्वारा किया गया ‘पुत्रकामेष्ठी’ यज्ञ देखा. कौसल्या, सुमित्रा, कैकेयी का अभिनन्दन अपने ही तीर पर होते देखा. दशरथ की मृत्यु की साक्षी रहीं. जब राम वनवास के लिए जा रहे थे तो तुमने भी अश्रु बहाए. सम्राट दशरथ के उत्तम प्रशासन में सुखी और प्रसन्न जनसागर दुःख में डूब गया, उस दुःख को भी तुमने अनुभव किया.

चौदह वर्षों के पश्चात जब श्रीराम, जानकी, लक्ष्मण अयोध्या वापस आये, तब तुमने आनंदाश्रु बहाए थे. और जब प्रजाहितदक्ष श्रीराम ने सीता का त्याग किया तो और जब तुम्हारा मौन क्रंदन हर व्यक्ति के दिल को झकझोर गया, तब तुम्हारे मन में एक ही प्रश्न उठा था, ‘हर बार स्त्री अपराधी क्यों? क्यों उसीकी सत्वपरीक्षा? राजाज्ञा का पालन करने वाली प्रजा क्यों जन आन्दोलन नहीं कर सकी?

और कोई भी अपराध न करने वाली जानकी द्वारा लिया गया अंतिम निर्णय, भूमिगत होने का! धरती में समाने का! कैसा था वह निर्णय? 

शरयू की हर लहर एक-एक कथा सुना रही थी. उसका प्रश्न शाश्वत था, ‘प्रजाहित दक्ष श्रीराम के लिए उनकी प्रजा ने क्या किया? जब अंतर्गत युद्ध होते हैं, तब प्रजा अन्याय के विरुद्ध आक्रामक हो जाती है. यहां कोई भी ऋषि, तपस्वी, अधिकारी व्यक्ति, गुरुजन, प्रजा उन दोनों को सुखी न कर सकी?

‘सत्य है, शरयू...सत्य है. परन्तु क्या तुम्हें ज्ञात है? जब कैकेयी के समान सत्वशील, सुविद्य माता अपने श्रीराम को वनवास भेजने की सीमा तक स्वार्थी हो जाती है, तब परिवार से ही एक दुष्ट लहर समाज तक प्रवाहित होने लगती है. परन्तु यह ऐसा रामायण घटित नहीं होना चाहिए था.’

कालिदास शरयू के तीर पर खड़े थे. आकाश निरभ्र, बालरवि अभी-अभी क्षितिज पर प्रकट हुआ था. श्रीराम मंदिर से आ रहा मन्त्र घोष और शरयू के जल में खड़े होकर उदय हो रहे सूर्य को अर्ध्य दे रहे भाविक जन. कालिदास ने मन ही मन कहा, ‘जब श्रीराम जैसे सामर्थ्यवान सम्राट को भी विरह-वेदना सहन करनी पड़ती है, तो फिर हम तो सामान्य जन ही हैं!’

“कालिदास...” पीछे से आ रहे सेनापति देवदत्त ने आवाज़ दी.

“कविराज, हैं कहाँ? कहीं भी खड़े हों, आपको काव्य ही नज़र आता है, सत्य है  ना?

“हमेशा नहीं, सेनापति देवदत्त. कल अयोध्या में प्रवेश करने के बाद यहाँ के क्रय-विक्रय केंद्र, मार्ग, जल व्यवस्था, समझदार नागरिक, अनुशासन और भी बहुत कुछ देखा.”

“कालिदास, इस प्रदेश को शकों से प्राप्त करने के बाद चन्द्रगुप्त उस समय यहाँ के लोकपाल अर्थात् प्रांताधिकारी नियुक्त हुए थे. साथ ही वे सेनापति भी थे. सबसे पहला काम जो उन्होंने किया वह था राम जन्मभूमि पर उनका सुन्दर मंदिर बनाया. चलिए, हम दिखाते हैं.”

“सम्राट चन्द्रगुप्त वास्तव में उत्तम प्रशासक, उत्तम सेनानी, लोकसंग्राहक और रसिकाग्रणी  हैं, यह सोचते हुए हम उनके व्यक्तित्व के आगे नतमस्तक हो जाते हैं.”

“आप उस समय नहीं थे, कालिदास. उज्जयिनी उस समय शकराज रुद्रसिंह के पास थी. विशाल दुर्ग, सुवर्ण प्राचीर, सुवर्ण वलयांकित राजभवन रुद्रसिंह का था. महाराज ने राजसभा में कहा, “विदेशी आक्रमणों से हमें भयभीत नहीं होना चाहिए, अपितु सिंह के समान इन आक्रमणकारियों को भारत भूमि से बाहर खदेड़ देना चाहिए. उस समय देववर्मा सेनापति थे.

स्वयँ महाराज और सेनापति देववर्मा सेना लेकर क्षिप्रा के तीर पर पहुंचे. शकराज रुद्रसिंह न केवल अपनी सेना लेकर आया, बल्कि उसने गुजरात और सौराष्ट्र के शक-क्षत्रपों, विजयदेव और यशदेव को अपनी सेना सहित आमंत्रित किया. वे दूसरे तीर पर छावनियां डाले पड़े थे. और सम्राट ने वज्र-निर्धार से कहा, “इन शक-क्षत्रपों को भारत की सीमा से पार खदेड़ना ही होगा.”

युद्ध का आरम्भ हो चुका था. उस समय सम्राट चन्द्रगुप्त ने सेना को संबोधित करते हुए कहा था,

“सम्राट समुद्रगुप्त ने हमें विशाल साम्राज्य का सपना नहीं दिखाया है, बल्कि उन्होंने स्वयँ प्रत्यक्ष कृति से सिद्ध करते हुए हमारे सम्मुख एक आदर्श रखा है. हमें संस्कार दिए हैं मातृभूमि की रक्षा करने के, इस मिट्टी का एक भी कण कोई अपवित्र न करने पाए इस निर्धार के! उन्होंने विघटन की नहीं, अपितु संघटन की शिक्षा दी.” सेना उत्साहित हो गई थी.

उसी समय शकराज रूद्रसिंह ने राजदूत के हाथ सन्देश भेजा था. उसमें लिखा था, “पिछले तीन सौ से अधिक वर्षों से हम यहाँ के राजा हैं. हमारे द्वारा जीते हुए राज्यों – गुजरात, सौराष्ट्र, मालवा – को स्वयँ को राजाधिराज कहलवाने वाले सम्राट समुद्रगुप्त भी जीत नहीं पाए. युवराज चन्द्रगुप्त ने तो अभी हाल ही में राज्य सम्भाला है. वे अपना समय युद्ध में व्यतीत न करें.”

“महाराज को अत्यंत क्रोध आया होगा...”

“नहीं, वे केवल हँस दिए और सेनापति देववर्मा से बोले, “उसने अपने सन्देश में लिखा है, ‘चन्द्रगुप्त महाराज, आपके पिता ने दक्षिण में विजय प्राप्त की है, परन्तु मालवा, सौराष्ट्र, गुजरात पर वे कभी भी विजय प्राप्त नहीं कर पाए. अत: आप ऐसा प्रयत्न न करें.”

“फिर क्या हुआ?” कालिदास के मन में युद्ध और उससे संबंधित समस्याओं के बारे में कुतूहल था, परन्तु वे अयोध्या के श्रीराम मंदिर के पास पहुँच गए थे.

श्रीराम की सतेज प्रतिमा, सात्विक जानकी, स्नेहपूर्ण लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और दास्यभक्ति के अनुपम आदर्श हनुमान को देखकर कालिदास मगन हो गए. कितने काल तक रघुवंश का राज्य था. श्रीरामचंद्र के चरणों में सारा ब्रह्माण्ड नतमस्तक हो गया. अनेक रूपों में वे आदर्श के मानदंड हो गए. वे अत्यंत भाव विह्वल हो गए. सेनापति देवदत्त मंदिर के बाहर गए, फिर भी वे वहीं खड़े थे. मन ही मन वे रघुवंश के एकेक राजा को याद कर रहे थे.

“कालिदास, चलें?” उन्हें वाल्या से वाल्मीकि बने संवेदनशील कवि की याद आई और मन में कालातीत रामकथा खुलती चली गई.

“चलें” वे देवदत्त से बोले. मन में रामायण थी, परन्तु देवदत्त को अच्छा लगेगा इसलिए वे बोले,

“फिर क्या हुआ?

“शरयू में महा भयंकर बाढ़ आई थी. वर्षाकाल समाप्त हो चुका था, परन्तु अन्य प्रदेशों से आ रहा जल बहाव थमने का नाम नहीं ले रहा था.    

सामने दिखाई दे रही थी विशाल शत्रु सेना. उनका पराजय करते हुए अनेक सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए होते, परन्तु शरयू को पार कैसे करें? आखिर में महाराज ने कहा, “सेना के तीन भाग करें. एक भाग सौराष्ट्र, एक गुजरात और एक मालवा की ओर जाएगा. सारी सेना यहाँ आई होने के कारण विजय प्राप्त करने में आसानी होगी. इसके अतिरिक्त यहाँ एकत्रित हुए सेनापतियों और सेना की स्थिति द्विधा हो जायेगी. ऐसी स्थिति में अपने-अपने राज्य को वापस लौट रहे सैनिकों को बीच में ही दबोच सकते हैं. और योजना सफल होगी.”

“और हुआ भी वैसा ही. अयोध्या आसानी से हाथ आ गई और मालव नरेश रुद्रसिंह पराजित हो गए. मालवा की राजधानी उज्जयिनी पर खुद महाराज ने विजय प्राप्त की. विजयवर्मा और यशवर्मा पर सेनापति देववर्मा ने विजय प्राप्त की.

अपनी सेना को तीर पर खड़े देखकर उन्होंने सोचा कि हमारी विशाल सेना देखकर सम्राट चन्द्रगुप्त ने पराजय स्वीकार कर ली और अपनी सेना वापस ले गए. फिर अपने-अपने राज्य में वापस जाते हुए उन्हें जो संघर्ष करना पडा और पराजय को स्वीकार करना पडा, वह अभूतपूर्व विजय थी महाराज की.”

“मान्य ही करना पडेगा कि ऐसा सम्राट इतिहास की रचना करता है, और अजर, अमर तथा कालातीत सिद्ध होता है,” कालिदास ने कहा.

अयोध्या के प्रान्ताधिपति देववर्मा ने उनका स्वागत करते हुए कहा, “अयोध्या के श्रीराम और उज्जयिनी सम्राट चन्द्रगुप्त हमारे रक्षक होने के कारण अयोध्या में कोई भी समस्या नहीं है.”

दो दिन बाद सेनापति देवदत्त और कालिदास अयोध्या से निकले. उनके साथ अयोध्या के पंडित इन्द्रदत्त भी थे.

 

***

No comments:

Post a Comment

एकला चलो रे - 3

  3                        उषा क्षितिज पर आ ही रही थी. ऐसे समय अनेक घोड़े सवारियों के साथ केदारनाथ की ओर निकले थे. दोपहर तक सभी केदार...