कालिदास
नैमिषारण्य में एक घने वृक्ष के नीचे आसन डालकर बैठे थे. ऐसा प्रतीत होता था कि
दूर दूर तक ऊंचे वृक्ष यहाँ ऋषियों के समान कठोर तपस्या के लिए एकत्रित हुए हैं, या यहाँ निरभ्र आकाश के नीचे विश्व शान्ति के लिए
शान्ति पाठ चल रहा है, या आकाशस्थ देवता वृक्ष रूपों में अधिष्ठान लगाये हैं---कुछ
भी समझ में नहीं आ रहा था. गोमती के प्रवाह का अभिमंत्रित नाद वातावरण में गूँज
रहा था.
शांत, एकांत स्थल पर मन में स्मृति के जुगनू चमक जाते थे. कभी सरस्वती देवी
का आश्रम परिसर, कभी सम्राट चन्द्रगुप्त
के सहवास में क्षिप्रा का घाट, कभी मधुवंती का सलज्ज
श्रृंगार, कभी वेदवती द्वारा किया गया उपहास. कितना सारा समय पंख लगाकर उड़ गया था.
काल के पृष्ठ इस नैमिषारण्य में फडफडा रहे थे.
सेनापति देवदत्त और पंडित इंद्रदत्त उन्हें ढूँढते हुए वहाँ आये. तब उन्हें
समय का ध्यान आया.
“तपस्या का आरंभ कर दिया क्या, कालिदास?”
“अभी नहीं, शायद आगे भी
नहीं, इन घने-घने वृक्षों के नीचे कोई भी व्यक्ति युवा ही हो जाएगा, और उसके मन में...”
“हम समझ गए
कि आप क्या कहना चाहते हैं, सुगंधी क्षणों को तो अनुभव नहीं कर रहे थे, कालिदास?”
“यही कह रहे
थे हम. गत सुगंधित स्मृतियों को भूलकर ईश्वर का चिन्तन करने वाला ऋषि होना हमारे
लिए कदापि संभव नहीं होगा. संभव है कि हम शब्द-साधना करें. क्योंकि वातावरण का
प्रभाव मन पर अपनी छाप छोड़ता है.”
“वा...कालिदास, इसीलिये हम चाहते थे कि आप हमारे साथ आयें. तो, अब चलें. क्षुधा शान्ति के लिए आदिवासी आश्रम ढूंढने के
लिए चंद्रचूड को भेजा है. वरना, फलाहार तो है ही. परन्तु इस प्रदेश को नैमिषारण्य क्यों कहते हैं? अरण्य का भी नाम है?”
“नाम तो
हरेक को दिया गया है,” पंडित
इन्द्रदत्त ने कहा. वे आगे बोले, “यहाँ आठ सहस्त्र ऋषियों ने तपस्या की थी, विश्व शान्ति के लिए. इसीलिये यहाँ हर वृक्ष के पास वे
अभिमंत्रित नाद गूंजते हैं.”
“क्या यह
सत्य है?”
“आप स्वयँ
अनुभव करें, सेनापति
देवदत्त! इन चौदह वायुमंडलों में ध्वनि लहरियां हैं, जो हमें आसानी से सुनाई नहीं देतीं. क्योंकि उसके लिए
भी साधना की आवश्यकता होती है.”
“ये बात
बिलकुल सत्य है, पंडित इंद्रदत्त.
किसी भी वस्तु को प्राप्त करने के लिए साधना आवश्यक है. हमें याद है, एक ऋषि ने लिखा था...” कालिदास कह रहे थे.
“सरस्वती
देवी के आश्रम में काशी से जगन्नाथ जाते हुए आये थे. उस समय उन्होंने ध्वनि
लहरियों के बारे में कहा था,
“जब भीष्म
कृष्ण स्तुति कर रहे थे, तब एक के बाद एक सहस्त्र नामों का एक स्तोत्र ही बन गया. तब युधिष्ठिर ने
कहा, “किसी को इस विष्णु
सहस्त्रनाम को लिख लेना चाहिए. पर किसी को भी उसका स्मरण नहीं हो रहा था. तब
उन्होंने श्रीकृष्ण से विनती की. तब वे हंस कर बोले, “हमारे ही नाम हम कैसे लें?” इस स्थान पर केवल सहदेव ने शुद्ध स्फटिक धारण किया है.
केवल वही इसे लिख सकता है. यदि वह शिवशंकर की प्रार्थना करे तो स्फटिक से आती हुई
ध्वनि लहरियों में उसे वे नाम सुनाई देंगे.”
“क्या यह
सत्य है, कालिदास?”
“क्योंकि
स्फटिक में शांत वातावरण में ध्वनि ग्रहण करने की क्षमता होती है. इसलिए सहदेव ने
वह विष्णुसहस्त्रनाममाला लिखकर व्यास ऋषि को दी.”
“यह सब हमें
ज्ञात नहीं था, कालिदास,”
देवदत्त ने कहा.
“ हरेक को
हर चीज़ का ज्ञान नहीं होता, देवदत्त महोदय!” कालिदास ने कहा.
“एक कारण और
भी है. श्री विष्णु के सुदर्शन चक्र की बाह्य परिधि यहाँ निमिष भर में, अर्थात् क्षण भर में गिर गई – ऐसा भी कहते हैं. परन्तु व्यास
के अठ्ठासी सहस्त्र शिष्यों में से ‘सूत’ नामक शिष्य ने यहाँ महाभारत की कथा सुनाई थी.
लोमहर्षणपुत्र उग्रश्रव:
सौति: पौराणिको।
नैमिषारण्ये
शौनकस्य कुलपते द्वदिशवार्षिके
सत्रेसुखासीनानभ्यगच्छम् ब्रह्मर्षि
नसंशितव्रतात विनयावनतो भूत्वा कदाचित सूतनंदन!
इस अरण्य
में एक क्षण में दानवों का संहार किया. महर्षि शौनक को तपश्चर्या के लिए योग्य
स्थान की आवश्यकता थी. इसलिए श्रीविष्णु ने कहा, कि यह सुदर्शन चक्र लेकर अरण्य में चलते रहें, जहाँ इस चक्र की बाह्य परिधि गिर जायेगी, वह स्थान तपश्चर्या के लिए योग्य होगा.” कालिदास बता
रहे थे.
पंडित इन्द्रदत्त ने कहा,
“इतना ज्ञान आपने कहाँ
से प्राप्त किया?”
“सरस्वती देवी के आश्रम
में उत्तर-दक्षिण भ्रमण करने वाले अनेक पथिक आते थे, कभी विद्वान पंडित भी आते, इसलिए उस समय जो श्रवण किया था, उसकी प्रचीति प्राप्त हुई.”
प्रान्तपाल
देववर्मा के निवास स्थान पर भोजन की व्ययस्था थी, परन्तु कहीं यहाँ ऋषि मुनियों के समान कंदमूल न खाने
पड़ें, ऐसी आशंका
थी, परन्तु चंद्रचूड ने
आदिवासियों का एक ग्राम ढूंढ लिया था. अन्न-धान्य तो था, मगर उसे कहाँ तक ले जाना है, इसकी कल्पना न होने से उसे सोच-समझ कर ले जाना था.
कालिदास
प्रसन्न थे. निरभ्र आकाश, गोमती का नि:स्तब्ध किनारा, अरण्य से आती शीतलहरें, बांस के वन से आते बांसुरी के स्वर, अरण्यपक्षियों का कूजन, मानवी जीवन से दूर एक स्वतन्त्र प्रदेश – नैमिषारण्य. मन
में कुछ प्रस्फुटित हो रहा था. उनके मन में आया, ‘ऋतू संहार’ लिखते समय निसर्ग-प्रीति के ऐसे काव्य का
इतना अनुभव नहीं हुआ था. यहाँ बेलों-लताओं को आंदोलित करने वाला सुगन्धित समीर, चन्द्रमा के साथ रोहिणी द्वारा गोमती में किया गया
जलस्नान, नक्षत्रों
के प्रकाश में पूर्व क्षितिज के पास धरती द्वारा आकाश को दिया गया आलिंगन...सब कुछ
कितना मुक्त और सुन्दर था...
रमणीय
नवयौवना वसुंधरा और सारी संवेदनाओं के रसरंग लिए उस पर झुका हुआ आकाश. अप्रतिम!
केवल अप्रतिम. मन की सारी भावनाओं को उद्दीप्त करने वाला यह स्थान. अरण्य वाचन
करते हुए उन्हें शकुन्तला का स्मरण हो आया. और हस्तिनापुर के सम्राट दुष्यंत. उनकी
प्रेम-कथा का स्मरण हो आया. उस प्रेमकथा में वे मग्न थे, तभी सेनापति देवदत्त आये.
“कविराज, आपको हमेशा ऐसे आत्ममग्न होते देखकर मन में विचार आता
है, कि यदि आप कभी युद्ध पर
गए तो क्या करेंगे?” कालिदास
होश में आये और हँसते हुए बोले,
“हम सभी
सम्राटों से विनती करेंगे कि युद्ध विराम करे, सिर्फ अपना राज्य संभालें, आक्रमण न करें.”
“फिर
साम्राज्य विस्तार कैसे होगा? ‘चक्रवर्ती सम्राट’ की उपाधि का क्या होगा? और यदि आक्रमणकारी आ धमके तो?”
“ऐसे प्रश्न
हम नहीं सुलझा सकते. मगर अब आप इस भ्रम में न रहें, कि हम केवल संवेदनशील कवि हैं. हमें भी राजनीति के, रणनीति के, अस्त्र-शस्त्र नीति के पाठ अवगत है. परन्तु वह मनोवृत्ति नहीं है.
अस्तु... अब आगे कहाँ जाना है?”
“अब पांचाल
प्रदेश, फिर
अहिच्छत्र, हस्तिनापुर...हस्तिनापुर
के बाद आगे. यात्रा लम्बी है, परन्तु आपके साथ आनंद से हो रही है. कभी कभी ऐसा लगता है, कालिदास कि साथ में पत्नी भी होनी चाहिए थी, इन रमणीय स्थलों को उसके साथ देखने में प्रसन्नता
होती.”
कालिदास दिल
खोलकर हँसे. नैमिषारण्य में उनकी हंसी गूँज उठी.
“सेनापति,
देवदत्त! आप महाराज को राज्यप्रशासन का वृत्तांत देने के लिए काश्मीर जा रहे हैं, अतः...”
“हमें याद
है, कालिदास. परन्तु आपको
सहजीवन के आनंद का अनुभव कहाँ...”
कालिदास ने
मन में कहा, ‘आपका जीवन
सहज है. परिवार है. परिवार से मिलने वाली प्रेरणा, ऊर्जा, आनंद,
कर्तव्यनिष्ठा है. अखंड कार्यनिष्ठा का ज्ञान है. हमारा क्या? विद्वत्वती द्वारा
किये गए अपमान के शल्य को लेकर जी रहे हैं. मधुवंती का साहचर्य, उसकी निष्पाप प्रीति... सब कुछ सत्य है, फिर भी वह हमारी परिणीता नहीं है. और जब तक हम अपने
शल्य का उत्तर नहीं दे देते, तब तक मन को शान्ति नहीं, प्रसन्नता नहीं. किसी वृक्ष को भीतर ही भीतर दीमक खाती रहे, वैसा हो रहा है.
हमें कुछ भी
क्यों नहीं सूझता?’
“कालिदास,” सेनापति देवदत्त की आवाज़ सुनकर वे वृक्ष से बंधे अश्व
के पास गए. उसके मुख पर स्नेहपूर्वक हाथ फेरा और उस पर सवार हो गए. सैनिक और पंडित
इन्द्रदत्त आगे थे. कालिदास और सेनापति देवदत्त पीछे थे. अब रास्ता पांचाल की ओर
जा रहा था.
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