“ये पांचाल राज्य. सम्राट चन्द्रगुप्त के आधीन है. पांचाल राज्य पहले १६ महाजनपदों में विभाजित था. उत्तर पांचाल, दक्षिण पांचाल. उत्तर पांचाल की राजधानी अहिच्छत्र थी, तो दक्षिण पांचाल की कांपिल्य. द्रोणाचार्य और द्रुपद के बीच युद्ध होने पर द्रोणाचार्य पराजित होकर हस्तिनापुर चले गए. द्रुपद कन्या द्रौपदी पाँच पांडवों की पत्नी बनीं. गंगा के उत्तर तथा दक्षिण तटों पर पांचाल राज्य है. अंग, अवन्ती, अश्मक, कम्बोज, काशी, कुरू, कोशल, गांधार, चेदी, पांचाल, मगध, मत्स्य, मल्ल, वर्ज्जा, वत्स, कुंतल, शूरसेन – ये सभी महाभारतकालीन महाजनपद सम्राट चन्द्रगुप्त के आधिपत्य में हैं.”
पांचाल के
प्रान्ताधिपति अग्निमित्र बता रहे थे. उनके प्रत्येक शब्द से सम्राट समुद्रगुप्त
एवँ सम्राट चन्द्रगुप्त – पिता-पुत्र के प्रति अत्यंत आदर का भाव प्रकट हो रहा था.
लोकपाल अग्निमित्र के साथ आये दंडाधिकारी शेखरसेन ने पांचाल का इतिवृत्तांत लिखित
रूप में ही दिया. वे बोले, “सम्राट चन्द्रगुप्त से कहें, नियमित आने वाले ऋतु समय पर आते हैं, राज्य अन्न-धान्य की दृष्टी से समृद्ध है, यज्ञ कार्य, धर्मं संस्कार के पाठ देने वाली प्रशालाएं हैं. कोषागार संपूर्ण है. चिंता
न करें. कभी भी पुकारें, हम प्रतिसाद देने के लिए सिद्ध हैं.”
दो दिन
पांचाल प्रदेश में रहकर वे आगे निकल पड़े. कालिदास प्रसन्न थे. जिनके बारे में कभी सुना
था, वे प्रदेश कभी देख पायेंगे, ऐसा उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था, इसलिए मन बहुत प्रसन्न था. और अब वे
हस्तिनापुर की ओर निकले थे. महाभारत काल के उस विराट नगर का साम्राज्य प्रथम भारत
के पास था. सम्राट दुष्यंत के पश्चात भारत का राज्य आया था. अखण्ड भारत का स्वप्न
देखने वाले भरत के नाम से ही उसके राज्य का नाम हुआ, आर्यस्थान का नाम हुआ भारत.
भविष्य में
महाभारत की सभी घटनाओं का साक्षी हस्तिनापुर, कुरुवंश की राजधानी था. उस मार्ग पर कालिदास अत्यंत
उत्सुकता से सब के साथ जा रहे थे.
उन्हें
अनुभव हो रहा था, कि मन आनंद
से सराबोर हो रहा है. मन के भीतर से कुछ प्रस्फुटित होने को तैयार है. देह हल्की
हो गई है. पक्षी जैसे आकाश में सहजता से उड़ान भरता है, वैसे ही मन भी उड़ने को तैयार है. यह एक विचित्र अनुभूति
थी. समझ में नहीं आ रहा था कि यह कैसा आनंद है, जिसने तन मन को अपने आलिंगन में ले लिया है. उसी
अनाकलनीय आनंद को समेटे वे अश्वारूढ होकर मार्ग क्रमण कर रहे थे.
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