हस्तिनापुर के
वास्तव्य में लोकपाल यशवर्धन ने महाभारत की सारी कथाएँ सुनाईं. वैसे तो वे सबको
ज्ञात थीं, परन्तु
यशवर्धन इतने उत्साह से बता रहे थे, मानो वह सब कल ही घटित हुआ हो, और वे अपनी आंखों से सब कुछ देख चुके हों. उन्होंने कहा,
“यहाँ से
आगे द्वैत वन आयेगा. वहाँ से एक मार्ग से आप हरिद्वार, ऋषिकेश, देवप्रयाग की तरफ से केदारनाथ की ओर जायेंगे. कवि कालिदास को केदारनाथ, बद्रीनाथ देखना है ना? दूसरा मार्ग – मालिनी के तीर से
आगे-आगे बढ़ते जायेंगे तो कण्व मुनि का स्थान आयेगा.”
“हमें यही
मार्ग मान्य होगा.”
“परन्तु, कालिदास, यह मार्ग अत्यंत घने अरण्य का, कष्टप्रद है. आगे मालिनी का उद्गम है. वहाँ से आप व्यास, शतद्रु नदियों तक जायेंगे. यह मार्ग अत्यन्त लंबा है.
आप वहाँ से न जाएँ.”
“प्राचीन
काल में वहाँ कुलपति कण्व का आश्रम था. सहस्त्रों विद्यार्थी ज्ञान संपादन करते थे, तब भी यह मार्ग कष्टप्रद ही होगा ना?”
“मान्य है, परन्तु उस समय अनेक ऋषियों की बस्तियां थीं, अब तो वह आश्रम का स्थान भी अस्तित्व में है या नहीं, पता नहीं, ऐसे में...”
“इस बारे
में हम कल विचार करेंगे,” कालिदास ने कहा.
“कवी
कालिदास, यहाँ का
सारा ही प्रदेश नयनरम्य है. यहाँ से कुछ ही दूर पर काव्यक् वन और इन्द्रप्रस्थ
नगरी है....”
“लोकपाल
यशवर्धन, हमें
काश्मीर की समूची व्यवस्था देखने के लिए जाना है. कवि महाराज से सम्राट ने कहा है, कि जहाँ चाहें, स्वच्छंद जाएँ, और वापस आते हुए उनके लिए ‘हरित काव्य’ लेकर आयें.”
“ये बात
नहीं. हम आपके साथ काश्मीर तक आने वाले हैं. वापस लौटते समय हम मालिनी नदी के
किनारे से हस्तिनापुर आयेंगे.”
“कालिदास,
हम अपनी संरक्षक सेना भी आपके साथ भेजने वाले हैं. काश्मीर पहुँचने पर आप हमारी
सेना का लाभ उठा सकते हैं. इसके अलावा, आप मालिनी नदी की ओर से भी काश्मीर आ सकते हैं. आपके साथ सुश्रवा तथा
सुधन्वा इन दो बंधुओं को भी भेजने वाले हैं. उन्हें पर्यटन अत्यंत प्रिय है.”
“अवश्य! हम
बेहद दुविधा में हैं, कि कौन सा
मार्ग पहले लें. परन्तु काश्मीर- राजकर्तव्य है, उसे पहले करना चाहिए, भले ही वह हमें न दिया गया हो.
तो क्या
आपकी सेना, सुश्रवा और
सुधन्वा हमारे साथ इतने दीर्घ काल तक रहेंगे?”
“अवश्य
रहेंगे. उन दोनों को प्रकृति से अत्यंत प्रेम है. थोडी बहुत काव्य-रचना भी वे कर
लेते हैं. मनोरंजन करते है. उपवर हैं. शायद इस प्रवास में कोई उपवर कन्या उन्हें
मिल जाए.”
उस शाम को
उनके मन में विचार आया, ‘यावत् चंद्र दिवाकरौ’ शाश्वत सत्य
बताने वाली श्रीमद्भगवद्गीता जिस कुरुक्षेत्र पर कही गई, वह कुरुक्षेत्र
देखना चाहिए.
हमारा मन
ललचा रहा है...यह भी चाहिए, वह भी चाहिए’. वे निश्चित
नहीं कर पा रहे थे कि क्या करना चाहिए.
उस रात नींद
में उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता का प्रथम श्लोक स्पष्ट रूप से सुनाई दिया.
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:।
मामका: पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय:।।
और वे एकदम उठकर
पलंग पर बैठ गए. “...धर्म का क्षेत्र...क्षेत्र अर्थात् तीर्थ स्थान, पवित्र स्थान, शुभंकर स्थान...उस धर्म क्षेत्र पर, और कुरू-कौरव वंश के सम्राट कुरु के पवित्र स्थान पर
युद्ध?
क्या युद्ध
कभी पवित्र क्षेत्र में होते हैं? यदि विदेशी आक्रमण कर रहे हैं, तो वे स्थान नहीं देखेंगे. परन्तु भाई-भाई के बीच होने वाले इस विराट और
विशाल युद्ध का आयोजन, नियोजन, उस महान विचारवंत श्रीकृष्ण ने इस पवित्र भूमि पर क्यों किया?
कुरुक्षेत्र
गए बिना हमें इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा, और नहीं गए तो चैन भी नहीं मिलेगा....क्या किया जाए?’
रात विचार
करते हुए बीत गई थी. प्रात:काल जब वह गंगा के किनारे खड़े थे, तो सेनापति देवदत्त आये.
“कालिदास, कल मन में यूँ ही विचार आया, यहाँ से कुरुक्षेत्र चाहे अधिक दूर हो, फिर भी यदि
वहाँ जाकर आयें, तो उस
युद्ध क्षेत्र के भी दर्शन हो जायेंगे. क्या आप आ सकते हैं?”
कालिदास ने
अपने हाथों में उनका हाथ लेते हुए कहा,
“बिलकुल
हमारे मन की बात कही.”
कालिदास
शांत हो गए थे. यदि कोई बात होने वाली हो, तो सारे योग जुड जाते हैं. शुभ नक्षत्र
एकत्रित हो जाते हैं. शुभ संकेतों की अदृश्य पदचाप सुनाई देने लगती है. उनका कविमन
आकाश में उड़ने को आतुर हो रहा था.
***
No comments:
Post a Comment