“आर्य!” किसी ने मधुर स्वर में
पुकारा और अगले ही क्षण मधुवंती ने उन्हें दृढ आलिंगन में लिया. उसके मुक्त केश
उनके मुखमंडल पर बिखर गए, और
उनकी देह में बिजली कौंध गई. उन्होंने उसे अपने बाहुपाश में लेने के लिए अपनी
बांहों को उठाया और उनके दोनों हाथ अपने ही ह्रदय पर गिर पड़े. तब उनकी नींद खुल
गई.
द्वैतवन के एक शिबिर के कक्ष में वे
उठ बैठे, आसपास किसी के होने की संभावना ही नहीं थी. उन्हें सपना आया था. केवल
सपना. मधुवंती का स्पर्श, उस
स्पर्श को उन्होंने महसूस किया था, उसका केश संभार, केशों का स्पर्श, उसकी देह से
आती चन्दन की सुगंध, सभी
कुछ सत्य था. स्वप्न की अनुभूति भी शब्दातीत!
क्या स्वप्न इतने वास्तविक हो सकते
हैं?
स्वप्नों का प्रदेश तो मन का है. स्वप्नों का अरण्य घनी-घनी गुफा जैसा, समझ में न आने
वाला,
परन्तु अनुभव देने वाला. स्पर्श भी कैसा, निराकार ईश्वर जैसा, और अनुभूति भी
निराकार, शब्द
भी जैसे मौन हो गए हों, सब
कुछ वर्णनातीत. स्पर्श ऐसा जिसका भास नहीं, आभास नहीं, शब्द नहीं, कथन असंभव, ऐसी विलक्षण अनुभूति ही तो थी! स्पर्श ऐसा सजीव, मानो
प्रत्यक्ष वही हो!
कल ही सुश्रवा, सुधन्वा अपनी
भगिनी – सुशान्ता को लेकर कालिदास से मिलने आये थे. सुशान्ता के कंधे पर पाँच-छः
मास का शिशु कालिदास को देखकर भोलेपन से हँस रहा था, और फिर दोनों हाथ फैलाकर उनकी
तरफ जाने लगा. सुशान्ता बोल पडी,
“कविराज, मेरा पुत्र
आपके साथ द्वैतवन आना चाहता है. ले जायेंगे?”
उसने झट से बालक को उनके हाथों में
दे दिया. उस शिशु के स्पर्श से वे रोमांचित हो गए. ऐसे स्पर्श का अनुभव उन्हें कभी
नहीं हुआ था. कितना नर्म,
मुलायम स्पर्श,
दंतविहीन मुख कितना सुन्दर था, नेत्रों के निरागस भाव कितने मनमोहक थे, इस बालक को
कौन सी उपमा दूँ ? और जिसकी पूरी देह ऐसे हँस रही है, जैसे सरिता की
लहर पे उछलती लहरें? और
ऐसी चैतन्यमय लहरों को नाम भी दूं तो कौनसा? शब्द भी मौन हो जाएँ, ऐसी यह
अनुभूति!
क्या स्पर्श के भी प्रकार होते हैं?
एक वृक्ष जैसा, एक
वृक्ष न होने जैसा. स्पर्श की अनुभूति भी भिन्न-भिन्न. एक सरस्वती आश्रम में मस्तक
पर रखा हुआ स्नेहपूर्ण स्पर्श, भविष्य के आलेख लिखे, ऐसा दृढ
विश्वास देने वाला और चिरंतन सुख का मार्ग प्राप्त हो, ऐसी कामना
करने वाला सरस्वती देवी का शुद्ध, निर्मल स्पर्श!
अभी उज्जयिनी से निकलते समय कंधे पर
रखे हाथ का दृढ़,
आश्वासक, स्नेहस्पर्श!
सम्पूर्ण भय को भगाकर मन को ऊर्जा देने वाला सम्राट चन्द्रगुप्त का वह आश्वासक
स्पर्श! प्रणय के सारे रंग बिखेर दे, ऐसा एक स्पर्श! कितना सत्य!
अभी मध्यरात्र भी समाप्त नहीं हुई
थी. मधुवंती के स्पर्श से आई हुई जागृति अब उन्हें निद्रावश नहीं होने दे रही थी.
शिबिर का परदा हटा कर वे बाहर आये. कुछ अंतर पर मंडल बनाए संरक्षक खड़े थे. निरभ्र
आकाश में मंद गति से चन्द्रमा संग शांत, समाधानी रोहिणी मार्गक्रमण कर रही थी. आसपास के
घनघोर अरण्य में समीर भी निद्रावश था. लताएं भी वृक्षों के कन्धों पर निश्चिंत हो
जाती है. वे प्रकृति में भी परस्पर विश्वास, स्नेह, आकर्षण देख रहे थे.
और इन संरक्षकों के मन में स्नेह है,
कर्तव्य की भावना है. वहाँ कोई भी कमी नहीं. प्रत्यक्ष महाराज पर उनकी निष्ठा है. राष्ट्रभूमि
पर प्रेम है. किसी भी विपरीत परिस्थिति में अपने परिवार से परे जाकर राष्ट्र की
रक्षा करता है, वह है
राष्ट्र संरक्षक. वे अपने शिबिर में वापस आये. परन्तु राष्ट्रभूमि के बारे में मन
में आये विचार समाप्त होने के स्थान पर अधिक विस्तारित होते गए.
महाभारत काल से पूर्व हुए सम्राट
दुष्यंत का उतना ही पराक्रमी पुत्र था – भरत. उसने सबसे पहले अखंड भारतवर्ष की
कल्पना की. साम्राज्य का विस्तार करते हुए सभी राज्यों को एकसूत्र में बांधकर
विविध रंगों की पुष्पमाला बनाई. भारतीय संस्कृति के अलिखित संविधान को उसने अपनी
वाणी से, कृति
से सिद्ध किया. ऋषि मुनियों के लिए आश्रमों का, तपस्याभूमि का निर्माण किया. संहिता लेखन के लिए
कुमारवर्ग तैयार किया. परन्तु उस समय आज के समान विदेशी आक्रमण नहीं होते थे. था
तो देव-दानव संघर्ष,
टोलियों का संघर्ष,
आर्य-अनार्य संघर्ष,
परन्तु अब तो भारत जैसे सुजल, सुफल, सुन्दरतम राष्ट्र पर शक, हूण, यवनों के आक्रमण
आरंभ हो गए है.
एक समय विकसित प्रदेश, उनकी विरासत, संस्कृति को
नष्ट करने का दृढ़ संकल्प करने वाले शक बलवान हो गए और अपने साम्राज्य का विस्तार
करने लगे. यदि भारत एकसंघ राष्ट्र होता तो ये आक्रमण तो क्या, भारत की ओर
देखने का भी साहस कोई न कर पाता. उसी दिन तो सेनापति देवदत्त ने बताया था,
“विश्व विक्रमी, जगज्जेता
सिकंदर भारत आया तो सिर्फ पौरव देश का राजा पुरू अकेला ही उससे युद्ध करने के लिए
निकला, सिकंदर की विशाल सेना और आधुनिक शस्त्र संपदा को देखने के बाद भी! तत्कालीन
आंभी नरेश और विभाजित हुए प्रदेश, प्रांत पुरु को सहायता नहीं दे सके, बल्कि कुछ
राजा जाकर सिकंदर से मिल गए.
संघटना, एकसूत्रता, एक संस्कृति, शाश्वत
मूल्यों के एक होने पर मानव संस्कृति कभी भी नष्ट नहीं होती. परन्तु सिकंदर के समय
से हो रहे आक्रमण आज भी जारी हैं. फिर भी सम्राट समुद्रगुप्त ने विशाल साम्राज्य
का निर्माण करके,
भारतीय संस्कृति का जतन किया, संस्कृत को बोलचाल की भाषा बनाने की संकल्पना
पूरी की.
विचार न जाने कहाँ से कहाँ भटक रहे
थे. वे अपनी शैया पर निद्रा की आराधना करते हुए पड़े थे. शिबिर का परदा ज़रा सा भी
हिलता, तो
निरभ्र आकाश में चन्द्रमा के साथ रोहिणी दिखाई दे जाती. सारे विश्व को निद्रामग्न
करके इन दोनों के गूढ़ संवाद को देखकर उनके मुख से निकला,
“नितांत सुन्दर! अनुपमेय!” संपूर्ण
आकाश पर एकसंघ साम्राज्य का अधिकारी रजनीकांत और उसकी ज्येष्ठ भार्या रोहिणी...”
वे मन ही मन हँसे. ‘हमें दिखाई दे रही
हैं,
निसर्ग की प्रकृति-पुरुष प्रतिमाएं और दिखाई दे रहा है भारतीय संस्कृति का इतिहास.
वर्त्तमान में जीते हुए हम भूतकाल में जाते है, क्योंकि भविष्यकाल अज्ञात होता है...’
विचार करते-करते वे कब निद्रामग्न हो
गए, पता ही नहीं
चला.
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