द्वैतवन में पांडवों का वनवास, उसमें अपना श्रेष्ठत्व दिखाने के लिए कौरवों द्वारा गन्धर्वों से किया गया युद्ध, और सरस्वती के तीर पर स्थित तपस्याभूमि द्वैतवन, यह सब सुनकर और आश्रम में रहने वाले ऋषियों से शास्त्र चर्चा करने के बाद कालिदास जब शिविर में वापस आये, तो उनका मन महाभारत काल में चला गया था. सरस्वती के तीर पर स्थित इस द्वैतवन का उल्लेख कभी सरोवर के रूप में भी किया गया था. वैसे भी जिस स्थल पर जल की व्यवस्था, अरण्य का आश्रय और अन्न-धान्य का प्रश्न सुलझ जाए ऐसी उपजाऊ भूमि हो, वहीं पर नए नए संशोधनों के विषय प्राप्त होते हैं ऐसा दृश्य दिखाई दे रहा था.
कालिदास को नेत्रों के सामने ऋषि
मुनि दिखाई दिए, एक
वृक्ष के नीचे यज्ञ मंडप में मंत्रोच्चार सहित यज्ञ हो रहा है, कुछ ऋषि संहिता
लेखन कर रहे हैं, कुछ
ऋषि संशोधन कर रहे हैं, ऋषि
कन्याएं पुष्प मालाओं के लिए पुष्प एकत्रित कर रही हैं, कुछ सरस्वती
तीर से जल-उदक लाने में मग्न हैं, कुछ सामवेद का पठन कर रहे हैं. ऋषिपत्नी भोजन की
सिद्धता करने में मग्न है,
उन्हें महाभारत के श्लोक का स्मरण हो आया, जिसमें द्वैतवन का ऐसा ही वर्णन किया गया है. वे
मन ही मन हँसे. हम सदैव कल्पना में ही विचरण करते हैं, ऐसा जो सम्राट
चन्द्रगुप्त कहते हैं, वह
सत्य है.
मध्याह्न में सम्राट चन्द्रगुप्त का
दूत सन्देश लेकर आया था. उसने सेनापति देवदत्त को संदेशपत्र दिया और कालिदास को भी
दिया. तब कालिदास आश्चर्यचकित हो गए. उन्होंने संदेशपत्र पढ़ना आरम्भ किया,
“कविराज कालिदास,
आपके यहाँ से जाने के बाद हम मित्र
के रिश्ते से किससे बात करें, यह प्रश्न ही उपस्थित हो रहा है. कई बार अपनी
प्रिय पत्नी से भी जो नहीं कह सकते, वह किसी एक व्यक्ति पर दृढ़ विश्वास रखकर कह सकते
हैं. आपके यहाँ से जाने के बाद कुमार ने हमसे पूछा,
“तात, ऐसे खोये-खोये से क्यों रहते हो?” यही प्रश्न
प्रभावती ने भी पूछा.
सत्य स्थिति यही थी. सब कुछ होते हुए
भी शून्यवत होने की. हम अपने आप पर हँस भी लिए. महारानी ध्रुवस्वामिनी बोलीं, ‘आर्य, हमें सपत्नी
मत्सर नहीं है, आप
सुखी रहें,
प्रसन्न रहें, यही
हमारी इच्छा है.’
ऐसा कुछ भी हमारे मन में नहीं था.
परन्तु कहने जैसा कुछ नहीं था. पुत्र मित्र हो सकता है या नहीं, यह कहना कठिन
है, परन्तु मित्र पुत्रवत हो सकता है इसका अनुभव हुआ.
आज आपको और सेनापति देवदत्त को
प्रस्थान किये हुए एक मास बीत गया है. हर स्थान की विस्तृत जानकारी प्राप्त करने
के लिए देर तो लगेगी ही,
परन्तु कल रात को महाकालेश्वर के मंदिर में गए और रात तक चले अपने वार्तालाप का
स्मरण हो आया. उस शाम को उपवन गए, वहाँ भी आपका स्मरण हुआ.
युवावस्था की ऊर्जा, पुरुष का
लावण्य और शालीनता,
वार्तालाप करते समय शरारतीपन, सभी कुछ याद आया और सहज ही प्रश्न उठा, क्या
सर्वप्रिय श्रीकृष्ण ऐसा ही होगा? वह घनश्याम, तो आप कर्पूरगौर! कहीं भी कोई समानता नहीं थी, मगर मन समानता
ढूँढने का प्रयत्न कर रहा था. अस्तु!
मगर आप काश्मीर न जाकर हरिद्वार
मार्ग से केदारनाथ जाकर आएं. और एक आदेश, जहाँ भी आप जाएँ, वहाँ का वर्णन हमें चाहिए! उसके लिए
क्षमा नहीं मिलेगी.
हर स्थान का सौन्दर्य वर्णन हमें
भेजें. आपके आने तक हम उसी पर संतोष कर लेंगे. और, विलम्ब न करें, किसी स्थान का
सौन्दर्य यदि अच्छा लगे, तो
वहीं पर मत रुक जाना. इन उज्जयिनी नगरी में आपके प्रियजन रहते हैं, इसका स्मरण
रहे.”
सम्राट चन्द्रगुप्त ने हस्ताक्षर
नहीं किये थे. परन्तु कालिदास उनके हस्ताक्षर से परिचित थे. शायद वे दुविधा में हों, कि सम्राट
चन्द्रगुप्त के रूप में हस्ताक्षर करके मुद्रा लगाएँ, अथवा मित्रत्व
के रिश्ते से कुछ लिखें, हस्ताक्षर के स्थान पर दो पुष्प प्रतिमाएं थीं.
कालिदास का मन भर आया. स्नेह मिलना
था माता का – वह प्राप्त नहीं हुआ, तो प्रत्येक कालखंड में किसी न किसी ने स्नेह
वर्षाव करके जीवन को समृद्ध बनाया. परन्तु विरह के शाप का उ:शाप नहीं मिलता, शायद. क्या वह
चुभन मन में रह जायेगी? इस
विचार से वे पल भर को अस्वस्थ हो गए. अगले ही क्षण वे लेखनी लेकर सन्देश लिखने बैठ
गए. वैसे मधुवंती को भी लिखना ही था. पहले किसे लिखें? मधुवंती को
ही. क्योंकि यहाँ से जाने वाले संदेशवाहक यहाँ की नित्य वार्ता सम्राट को देते ही
थे. परन्तु मधुवंती प्रतीक्षा कर रही होगी! वे प्रथम उसे लिखने बैठे.
परन्तु शब्द ही नहीं आ रहे थे.
उन्होंने उसे अपने भीतर ही संजो लिया था, मानो वह सदा उन्हींके साथ है. वे निस्तब्ध हो
गए. उन्होंने लेखनी नीचे रख दी और वैसे ही बैठे रहे.
कुछ ही देर में वे सेना के साथ आगे
निकल पड़े थे. बाल्हिक-केकय प्रदेश से होकर आगे काश्मीर मार्ग था. श्रीनगर तक.
सेनापति देवदत्त ने कहा,
“कालिदास, द्वैतवन में
आने की आपकी इच्छा थी इसलिए आप आये. परन्तु फिर से हस्तिनापुर के मार्ग पर जाकर आप
हरिद्वार,
ऋषिकेश,
केदारनाथ जाएँ. प्रत्यक्ष महाराज के संदेशपत्र में स्वयँ महाराज ने ख़ास तौर से
लिखा है कि कविराज कालिदास को हरिद्वार के मार्ग से केदारनाथ भेजा जाए. कुछ सेना
उनके साथ भेजी जाए. इसके अतिरिक्त सुश्रवा और सुधन्वा आपके साथ रहेंगे. आपका समय
भी अच्छा बीतेगा.”
दोपहर में सेनापति देवदत्त उनसे
मिलने आये, तो
कालिदास प्रसन्न थे.
“कालिदास, महाराज को
आपका नित्य स्मरण हो रहा है. अतः आप यहीं से हरिद्वार की तरफ मुड़ जाएँ, और केदारनाथ
करके उज्जयिनी पहुंचें.”
“महाराज जो कह रहे हैं, वह योग्य है, परन्तु उसके
पीछे उनका यह उद्देश्य है कि हम अविलम्ब उज्जयिनी वापस पहुंचें. परन्तु हम काश्मीर
आयेंगे और वापस लौटते हुए हरिद्वार की और मुड़ जायेंगे. हम भी वह लावण्यभूमि देखना
चाहते हैं, जिसे
अप्रतिम, अनन्य, अवर्णनीय कहते
हैं. भारतमाता के उज्जवल भाल का वह कुंकुम तिलक देखना है.”
अगले ही क्षण उनके मन में प्रश्न उठा
कि भारत सामर्थ्यशाली पुरुष सम्राट चन्द्रगुप्त जैसा है, अथवा
विद्वत्वती जैसी लावण्यवती स्त्री जैसा? और अगले ही क्षण उनके मन ने उत्तर दिया, ‘भारत – भारत
जैसा ही है,
अनुपमेय!’
“कालिदास, हमारे मन में
हमेशा एक प्रश्न उपस्थित होता है. आप अचानक बोलते-बोलते यूँ खो कैसे जाते हैं? क्या अंतरिक्ष
में खो जाते हैं, या दसों
दिशाएं घूम आते हैं, या
सप्तपातालों में डुबकी लगाकर आते हैं?”
कालिदास दिल खोलकर हंसे, “बात ये है, देवदत्त, कि अभी तक
परिवार न होने से हम जैसे मुक्त हैं ना, वैसे ही हम मन से भी चारों दिशाओं में भागते
रहते हैं. अनिर्बंध.”
अब सेनापति देवदत्त दिल खोलकर हँसे.
“असल में आपने स्वयँ ही अपने आप पर
मर्यादा डाल रखी है. विवाह आपने किया नहीं, परिवार में आप नहीं हैं. फिर भी स्वैराचारी नहीं
हैं, मुक्त नहीं हैं. कभी-कभी ऐसा लगता है कि आपने स्वयँ ही अपने आप पर ये
मर्यादाएं डाल रखी हैं. उसके पीछे कोई महत्त्वपूर्ण कारण होगा! हमारा अनुमान सही
है ना?”
“उसका क्या है ना, सेनापति महोदय, हम हमेशा अपने
को छोड़कर औरों के मन का संशोधन करते रहते हैं, मन में एक संदेह पाले रहते हैं. परन्तु यदि आप
हमारे बारे में कह रहे हैं, तो वह
अंशत: सत्य है. हमने अपने मन को मर्यादाओं में बाँध लिया है, कारण हमें
मुक्त विहार करना है, जी भर के प्रकृति के दर्शन करना है. वृक्ष, लता, अरण्य, सागर, हिमालय हरेक
का उत्कटता से अनुभव प्राप्त करना है. जब हम विवाह करते हैं, तो हमारी
पत्नी रूपवती,
गुणवती,
बुद्धिमती हो तब भी जो आपके मन को प्रिय हो, वह उसे भी प्रिय हो, ऐसा नहीं
होता. तब आरम्भ होता है गृह कलह. सत्य है ना?”
“सत्य है, कालिदास. पहले
जी भर के अपनी इच्छा से जीना चाहिए, तभी विवाह करना अच्छा है. परन्तु एक बात है, कालिदास. चाहे
जितना भी कलह हुआ हो, हमें
विश्वास है कि हमारी पत्नी हमारी प्रतीक्षा ही करती होगी .”
“महाराज ने संदेशपत्र में स्वयँ के
बारे में कुछ भी क्यों नहीं लिखा?”
“वे वैसे बताते नहीं है. वर्त्तमान
में वे वाकाटक वंश से संपर्क बनाए हुए हैं. संभव है कि उस वंश में राजकुमारी
प्रभावती देवी को देकर महाराज संबंध को दृढ़ बनायेंगे!”
मन से सम्राट चन्द्रगुप्त का व्यवहार
स्वीकार नहीं हुआ. परन्तु प्रथा तो यही थी. स्वयँ महाराज ने देवी ध्रुवस्वामिनी को
राज्यविस्तार और दृढ़ संबंध की दृष्टि से मान्यता दी थी ना? परन्तु स्त्री क्या कोई
वस्तु है? मन में यह प्रश्न आते ही वे अस्वस्थ हो गए.
“कालिदास, महाराज
वर्त्तमान में दक्षिण की मुहीम पर जाने की तैयारी कर रहे हैं.”
“युद्ध और युद्ध ही जिनका जीवन है, ऐसे सम्राट
चन्द्रगुप्त को राष्ट्र को संगठित रखने के लिए संघर्षमय जीवन व्यतीत करना पड़ता है.
संघर्ष के बाद मिलने वाला समाधान यही शायद राजा-महाराजाओं के जीवन का मोक्ष होगा.”
कालिदास ने कहा, तो सेनापति
देवदत्त बोले,
“प्रत्येक सैनिक को युद्धभूमि पर ही
मोक्ष प्राप्त होता है. राजा हो या सैनिक- दोनों का मोक्ष वहीं होता है.”
अस्तु! कालिदास, हम कल सुबह
द्वैतवन से प्रस्थान करेंगे. यहाँ के वास्तव्य में आपने कुछ ऋषि मुनियों के आश्रम
देखे,
शास्त्र चर्चाएँ भी हुईं, अरण्य
वाचन भी हुआ.”
“सत्य है. इसलिए द्वैतवन हमारे लिए
संस्मरणीय हो गया है.”
सेनापति देवदत्त शिबिर से बाहर
निकले. कालिदास भी बाहर आये. दोपहर का सूर्य अब कुछ पश्चिम की ओर सरक रहा था. कुछ
ही देर में सूर्य रंगबिरंगे क्षितिज में प्रवेश करने वाला था. उसके स्वागत के लिए
सारे पंछी घोंसलों में वापस लौटने वाले थे. जीवन का संध्या राग गाने वाले थे.
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